सेठ परसादीलाल टल्लीमल की कोठी पर जूट का काम होता था। लड़ाई शुरू होने पर जापान और जर्मनी की खरीद बंद हो गई। जहाजों को दुश्मन की पनडुब्बियों का भय था; अमेरिका भी माल न जा पाता।
आखिर रकम का क्या होता? सरकार धड़ाधड़ नोट छापे जा रही थी। ब्याज की दर रोज-रोज गिर रही थी। रुपए की कीमत गिर रही थी और चीजों की बढ़ रही थी।
सेठ परसादीलाल ने चावल का भाव चढ़ता देख चार कोठे खरीद लिये थे। हाथ-पर-हाथ धरे बैठे रहने से कुछ करना ही भला था। आठ रुपए मन खरीदे चावल का भाव ग्यारह रुपए जा रहा था। सेठजी को भगवान् की कृपा पर भरोसा था, जो पत्थर में बंद कीड़े का भी पेट भरता है, वह भला सेठजी की सुध न लेता। नित्य दो घंटे पूजा कर घर से निकलते थे। और काम रह जाए, यह नहीं रह सकता। पैंतीस हजार मन चावल में एक लाख साढ़े छियासठ हजार का मुनाफा था। भाव अभी चढ़ रहा था। चावल निकालना सेठजी को मूर्खता जान पड़ती थी। वे और खरीद रहे थे।
अनाज का भाव चढ़ा तो देशभर के भूखे-नंगे कलकत्ते की ओर दौड़ पड़े। ऐसा दुर्भिक्ष कभी किसी ने सुना न था, देखे की तो कौन कहे! मनुष्य का रूप धरे जीव अस्थिपंजर अवशिष्ट कुत्तों के साथ जूठे पत्तों और सकोरों पर यों टूटते कि भगवान् का नाम! सब ओर नरकंकाल देहों का कातर आँखें उठा हाथ पसार मुट्ठी भर अन्न के लिए चिल्लाना सुनाई देता, ‘माँगो, बाबू रे…मुट्ठी भात।’ सेठजी अपनी कोठी से आते-आते इस सब त्राहि-त्राहि और आतंक के वातावरण में राम-राम, हरे राम का जाप करते जाते।
जिस अन्न की एक मुट्ठी के लिए कंकाल समूह त्राहि-त्राहि कर रहा था, वह सेठजी की कोठी में भरा और ‘तेजी’ की प्रतीक्षा कर रहा था। सेठजी के कोठों में कुछ समय विश्राम कर लेने से चावल का मूल्य सवाया-ड्यौढ़ा हो जाता। कोठों में बंद चावल की रुपए के रूप में बढ़ती यह शक्ति बाजार से दूसरे चावल को अपनी ओर खींचे ला रही थी।
क्षुधा पीडि़तों को देख सेठजी का हृदय पसीज उठता। भुने चने का एक बोरा उनके कोठों के द्वार पर रख दिया जाता। दरबान प्रत्येक माँगनेवाले को एक मुट्ठी चना देता जाता। चने का यह दान एक भयंकर संघर्ष का रूप ले लेता। भीख बाँट सकने लायक व्यवस्था बनाए रखने के लिए डाँट-फटकार, लात-घूँसे और कभी डंडे और जूते तक के उपयोग की आवश्यकता हो जाती।
सेठजी के द्वार पर दान था और भीतर व्यापार। एक के बाद दूसरा दलाल आकर चावल के सौदे की बात करता। भूखे कंगालों के प्रति बह जानेवाली सेठजी की उदारता युद्ध के क्षेत्र में अविचल सेनापति की दृढता में बदल जाती।
लालाजी के यहाँ चावल सुबह से पैतीस के भाव बिक रहा था। दोपहर में आकर उन्हें मालूम हुआ, मुनीमजी ने पाँच सौ मन सुबह से बेच डाला। लालाजी ने माथा ठोक लिया, ‘‘क्या सत्यानाश कर डालोगे, मुनीमजी! बंद करो! नहीं भाई, नहीं है अपने पास!’’ दलालों की ओर हाथ बढ़ा उन्होंने कहा, ‘‘हम तो भाई साढे़ पैतीस के खुद खरीदार हैं!’’
दोपहर से लालाजी खरीदते गए। संध्या को साड़े अड़तीस बिक रहा था, पर लालाजी खरीद रहे थे। रात को भाव उनतालीस पर बंद हुआ। प्रताड़ना भरी दृष्टि से मुनीम की ओर देख लालाजी ने धमकाया, ‘‘कहो मुनीमजी?’’
सड़कों-बाजारों में बुभुक्षितों की संख्या और उनका चीत्कार बढ़ता जा रहा था। लालाजी परेशान थे, सरकार चावल पर कंट्रोल कर रही थी। मुनीमजी राय दे रहे थे, ‘‘समय रहते जितना निकल जाए, निकाल दिया जाए।’’
चिढ़कर लालाजी ने कहा, ‘‘सरकार के दाम लगाए से क्या होता है? जिसके कोठे में माल है, दाम उसका लगेगा! सरकार कहाँ से लाकर सस्ता बेच लेगी? कोई कागज का नोट है कि मनचाहा छाप लिया? सरकार भी लेवेगी तो व्योपारी से?’’
कंट्रोल के कारण प्रकट में सौदा बंद था। पर असल में सेठजी पैंसठ के भाव बेच रहे थे। मुनीमजी चिंता से कहते, ‘‘पैंसठ के भाव खपेगा कितना? अमान की फसल भी तो आवेगी?’’
सेठजी ने समझाया, ‘‘ऐसा छोटा दिल करने से कहीं व्योपार होता है, मुनीमजी?…इस भाव से आधे-पौने कोठे भी बिकेंगे तो अपनी दोहरी खरी है! आगे के रामजी मालिक हैं।’’
सभी बाजारों से आदमियों के मक्खी-मच्छरों की तरह पटापट मरने की खबरें आतीं। सुनकर सेठजी का हृदय दहल जाता। और भी भयंकर खबरें आने लगीं; मुरदाघाट पर लाशों के ढेर लगे हैं। लकड़ी रुपए की आठ सेर बिक रही है, बल्कि मिलती ही नहीं। गरीब लोग लाशें छोड़ चले आते हैं।
‘‘बेचारे अन्न के दाने को तरसकर मर गए। अब उनकी मिट्टी की यह दुर्दशा! बेचारों की गति कैसे होगी!’’ लालाजी की आँखों में आँसू आ गए।
कोठी पर रुपए में एक पाई धर्मादय का कटता था। व्योपार-व्योपार है और धर्म-धर्म। धर्मादय का रुपया कभी रोकड़ में लगा देते तो उसे ब्याज और मूल सहित फिर धर्मादय में कर देते! वह भगवद् अर्पण था। कंगालों की दुर्दशा देख उसी खाते में से लालाजी दो बोरी चना रोज बँटवा रहे थे। फिर बयालीस हजार रुपया धर्मादय में हो रहा था। जैसे मुनाफा बढ़ा, वैसे धर्मादय भी।
‘‘मुनीमजी,’’ आँखों में करुणा के आँसू भर सेठजी ने हुकुम दिया, ‘‘जो भाव लकड़ी मिले, बीस हजार की लकड़ी खरीदकर घाट पर गिरवा दो! किसी बेचारे की मिट्टी की दुर्गति न होने पावे!’’
अगले दिन सुबह ही छापे में (समाचार-पत्र) में छप गया—
‘‘महादान! सेठ परसादीलाल टल्लीमल का महादान…!’’
गतिहीनों की अवस्था से जिनका कलेजा मुँह को आ रहा था, ऐसे लोगों ने आ सेठजी को धन्यवाद दिया।
विनीत स्वर में अकिंचन भाव से सेठजी ने उत्तर दिया, ‘‘मैं किस लायक हूँ, सब भगवान् का ही है। उन्हीं के अर्पण है, मनुष्य है किस लायक?’’