+91-9997111311,    support@sahityaratan.com

आदमी का बच्चा/यशपाल

दो पहर तक डौली कान्वेंट (अंग्रेज़ी स्कूल) में रहती है। इसके बाद उसका समय प्रायः पाया ‘बिंदी’ के साथ कटता है। मामा दोपहर में लंच के लिए साहब की प्रतीक्षा करती

है। साहब जल्दी में रहते हैं। ठीक एक बजकर सात मिनट पर आये, गुसलखाने में हाथ-मुंह धोया, इतने में मेज पर खाना आ जाता है। आधे घंटे में खाना समाप्त कर, सिगार सुलगा साहब कार में मिल लौट जाते हैं। लंच के समय डौली खाने के कमरे में नहीं आती, अलग खाती है।

संध्या साढ़े पांच बजे साहब मिल से लौटते हैं तो बेफिक्र रहते हैं। उस समय वे डौली को अवश्य याद करते हैं। पांच-सात मिनट उससे बात करते हैं और फिर मामा से बातचीत करते हुए देर तक चाय पर बैठे रहते हैं। मामा दोपहर या तीसरे पहर कहीं बाहर जाती हैं तो ठीक पांच बजे लौट कर साहब के लिए कार मिल में भेज देती हैं। डौली को बुला साहब के मुआयने के लिए तैयार कर लेती हैं। हाथ-मुंह धुलवा कर डौली की सुनहलापन लिये, काली-कत्थई अलकों में वे अपने सामने कंघी कराती हैं। स्कूल की वर्दी की काली-सफेद फ्रॉक उतारकर, दोपहर में जो मामूली फ्रॉक पहना दी जाती है उसे बदल नयी बढ़िया फ्राक उसे पहनायी जाती है। बालों में रिबन बांधा जाता है। सैंडल के पालिश तक पर मामा की नज़र जाती है।

बग्गा साहब मिल में चीफ इंजीनियर हैं। विलायत पास हैं। बारह सौ रुपया महीना पाते हैं। जीवन से संतुष्ट हैं परंतु अपने उत्तरदायित्व से भी बेपरवाह नहीं। बस एक ही लड़की है डौली। पांचवें वर्ष में है। उसके बाद कोई संतान नहीं हुई। एक ही संतान के प्रति अपना कर्तव्य पूरा कर सकने से साहब और मामा को पर्याप्त संतोष है। बग्गा साहब की नज़रों में संतान के प्रति उत्तरदायित्व का आदर्श ऊंचा है। वे डौली को बेटी या बेटा सब कुछ समझकर संतोष किये हैं। यूनिवर्सिटी की शिक्षा तो वह पायेगी ही। इसके बाद शिक्षा-क्रम पूरा करने के लिए उसका विलायत जाना भी आवश्यक और निश्चित है। संतान के प्रति शिक्षा के उत्तरदायित्व का यह आदर्श कितनी संतानों के प्रति पूरा किया जा सकता है? साहब कहते हैं- ‘यों कीड़े-मकोड़े की तरह पैदा करके क्या फायदा?’ मामा-मिसेज़ बग्गा भी हामी भरती हैं- ‘और क्या?’

‘डौली! …डौली! …डौली!…’ मामा तीन दफे पुकार चुकी थीं। चौथी दफे, उन्होंने आया को पुकारा। कोई उत्तर न पा वे खिसिया कर स्वयं बरामदे से निकल आयीं। अभी उन्हें स्वयं भी कपड़े बदलने थे। देखा- बंगले के पिछवाड़े से, जहां धोबी और माली के क्वार्टर हैं, आया डौली को पकड़े, लिये आ रही है। मामा ने देखा और धक्क से रह गयीं। वे समझ गयीं- डौली अवश्य माली के घर गयी होगी। दो-तीन दिन पहले मालिन के बच्चा हुआ था। उसे गोद में लेने के लिए डौली कितनी ही बार जिद्द कर चुकी थी। डौली के माली की कोठरी में जाने से मामा भयभीत थीं। धोबी के लड़के को पिछले ही सप्ताह खसरा निकला था।

लड़की उधर जाती तो उन बेहूदे बच्चों के साथ शहतूत के पेड़ के नीचे धूल में से उठा-उठाकर शहतूत खाती। उन्हें भय था, उन बच्चों के साथ डौली की आदतें बिगड़ जाने का। आया इन सब अपराधों का उत्तरदायित्व अपने ऊपर अनुभव कर भयभीत थी। मेम साहब के सम्मुख उनकी बेटी की उच्छृंखलता से अपनी बेबसी दिखाने के लिए वह डौली से एक कदम आगे, उसकी बांहें थामे यों लिये आ रही थी जैसे स्वच्छंदता से पत्ती चरने के लिए आतुर बकरी को जबरन कान पकड़ घर की ओर लाया जाता है।

मामा के कुछ कह सकने से पहले ही आया ने ऊंचे स्वर में सफाई देना शुरू किया- ‘हम ज़रा सैंडिल पर पालिश करें के तईं भीतर गयेन। हम से बोलीं कि हम गुसलखाने जायेंगे। इतने में हम बाहर निकल कर देखें तो माली के घर पहुंची हैं। हमको तो कुछ गिनती ही नहीं। हम समझाएं तो उलटे हमको मारती है…’

इस पेशबंदी के बावजूद भी आया को डांट पड़ी।

‘दिस इज़ वेरी सिली!’ मामा ने डौली को अंग्रेज़ी में फटकारा। अंग्रेज़ी के सभी शब्दों का अर्थ न समझ कर भी डौली अपना अपराध और उसके प्रति मामा की उद्विग्नता समझ गयी।

तुरंत साबुन से हाथ-मुंह धुलाकर डौली के कपड़े बदले गये। चार बज कर बीस मिनट हो चुके थे, इसलिए आया जल्दी-जल्दी डौली को मोजे और सैंडल पहना रही थी और मामा स्वयं उसके सिर में कंघी कर उसकी लटों के पेचों को फीते से बांध रही थी। स्नेह से बेटी की पलकों को सहलाते हुए उन्हें अचानक गर्दन पर कुछ दिखलाई दिया- जूं! वज्रपात हो गया। निश्चय ही जूं माली और धोबी के बच्चों की संगत का परिणाम थी। आया पर एक और डांट पड़ी और नोटिस दे दी गयी कि यदि फिर डौली आवारा, गंदे बच्चों के साथ खेलती पायी गयी तो वह बर्खास्त कर दी जाएगी।

बेटी की यह दुर्दशा देख मां का हृदय पिघल उठा। अंग्रेज़ी छोड़ वे द्रवित स्वर में अपनी ही बोली में बेटी को दुलार से समझाने लगीं- ‘डौली तो प्यारी बेटी है, बड़ी ही सुंदर, बड़ी ही लाड़ली बेटी। हम इसको सुंदर-सुंदर कपड़े पहनाते हैं। डौली, तू तो अंग्रेज़ों के बच्चों के साथ स्कूल जाती है न बस में बैठकर! ऐसे गंदे बच्चों के साथ नहीं खेलते न!’

मचल कर फर्श पर पांव पटक डौली ने कहा- ‘मामा, हमको माली का बच्चा ले दो, हम उसे प्यार करेंगे।’

‘छी…छी…!’ मामा ने समझाया, ‘वह तो कितना गंदा बच्चा है! ऐसे गंदे बच्चों के साथ खेलने से छी-छी वाले हो जाते हैं। इनके साथ खेलने से जुएं पड़ जाती हैं। वे कितने गंदे हैं, काले-काले धत्त! हमारी डौली कहीं काली है? आया, डौली को खेलने के लिए मैनेजर साहब के यहां ले जाया करो। वहां यह रमन और ज्योति के साथ खेल आया करेगी। इसे शाम को कम्पनी बाग ले जाना।’

डौली ने मां के गले में बांहें डाल विश्वास दिलाया कि अब वह कभी गंदे और छोटे लोगों के काले बच्चों के साथ नहीं खेलेगी। उस दिन चाय पीते-पीते बग्गा साहब और मिसेज़ बग्गा में चर्चा होती रही कि बच्चे न जाने क्यों छोटे बच्चों से खेलना पसंद करते हैं। …एक बच्चे को ही ठीक से पाल सकना मुश्किल है। जाने कैसे लोग इतने बच्चों को पालते हैं। …देखो तो माली को! कमबख्त के तीन बच्चे पहले हैं, एक और हो गया।

बग्गा साहब के यहां एक कुतिया विचित्र नस्ल की थी। कागज़ी बादाम का सा रंग, गर्दन और पूंछ पर रेशम के से मुलायम और लम्बे बाल, सीना चौड़ा। बांहों की कोहनियां बाहर को निकली हुई। पेट बिल्कुल पीठ से सटा हुआ। मुंह जैसे किसी चोट से पीछे को बैठ गया हो। आंखें गोल-गोल जैसे ऊपर से रख दी गयी हों। नये आने वालों की दृष्टि उसकी ओर आकर्षित हुए बिना न रहती। यही कुतिया की उपयोगिता और विशेषता थी। ढाई सौ रुपया इसी शौक का मूल्य था।

कुतिया ने पिल्ले दिये। डौली के लिए यह महान उत्सव था। वह कुतिया के पिल्लों के पास से हटना न चाहती थी। उन चूहे-जैसी मुंदी हुई आंखों वाले पिल्लों को मांगने वालों की कमी न थी परंतु किसे दें और किसे इनकार करें? यदि इस नस्ल को यों बांटने लगें तो फिर उसकी कद्र ही क्या रह जाय? कुतिया का मोल ढाई सौ रुपया उसके दूध के लिए तो होता नहीं!

साहब का कायदा था, कुतिया पिल्ले देती तो उन्हें मेहतर से कह गरम पानी में गोता दे मरवा देते। इस दफे भी वे यही करना चाहते थे परंतु डौली के कारण परेशान थे। आखिर उसके स्कूल गये रहने पर बैरे ने मेहतर से काम करवा डाला।

स्कूल से लौट डौली ने पिल्लों की खोज शुरू की। आया ने कहा- ‘पिल्ले मैनेजर साहब के यहां रमन को दिखाने के लिए भेजे हैं, शाम को आ जायेंगे।’

मामा ने कहा- ‘बेबी, पिल्ले सो रहे हैं। जब उठेंगे तो तुम उनसे खेल लेना।’

डौली पिल्लों को खोजती फिरी। आखिर मेहतर से उसे मालूम हो गया कि वे गरम पानी में डुबो कर मार डाले गये हैं।

डौली रो-रोकर बेहाल हो रही थी। आया उसे पुचकारने के लिए गाड़ी में कम्पनी बाग ले गयी। डौली बार-बार पूछ रही थी- ‘आया, पिल्लों को गरम पानी में डुबो कर क्यों मार दिया?’

आया ने समझाया- ‘डैनी (कुतिया) इतने बच्चों को दूध कैसे पिलाती? वे भूख से चेऊं-चेऊं कर रहे थे, इसीलिए उन्हें मरवा दिया।’ दो दिन तक डौली के पिल्लों का मातम डैनी और डौली ने मनाया फिर और लोगों की तरह वे भी उन्हें भूल गयीं।

माली ने नये बच्चे के रोने की ‘कें-कें’ आवाज़ आधी रात में, दोपहर में, सुबह-शाम किसी भी समय आने लगती। मिसेज़ बग्गा को यह बहुत बुरा लगता। झल्ला कर वे कह बैठतीं- ‘जाने इस बच्चे के गले का छेद कितना बड़ा है।’

बच्चे की कें-कें उन्हें और भी बुरी लगती जब डौली पूछने लगती- ‘मामा, माली का बच्चा क्यों रो रहा है?’

बिंदी समीप ही बैठी बोल उठी- ‘रोयेगा नहीं तो क्या, मां के दूध ही नहीं उतरता।’

मामा और बिंदी को ध्यान नहीं था कि डौली उनकी बात सुन रही है। डौली बोल उठी- ‘मामा, माली के बच्चे को मेहतर से गरम पानी में डुबा दो तो फिर नहीं रोयेगा।’

बिंदी ने हंस कर धोती का आंचल होंठों पर रख लिया। मामा चौंक उठीं। डौली अपनी भोली, सरल आंखों में समर्थन की आशा लिये उनकी ओर देख रही थी।

‘दिस इज़ वेरी सिली डौली… कभी आदमी के बच्चे के लिए ऐसा कहा जाता है।’ मामा ने गम्भीरता से समझाया। परिस्थिति देख आया डौली को बाहर घुमाने ले गयी।

तीसरे दिन संध्या समय डौली मैनेजर साहब के यहां रमन और ज्योति के साथ खेल कर लौट रही थी। बंगले के दरवाज़े पर माली अपने नये बच्चे को कोरे कपड़े में लपेटे दोनों हाथों पर लिये बाहर जाता दिखाई दिया। उसके पीछे मालिन रोती चली आ रही थी।

आया ने मरे बच्चे की परछाईं पड़ने के डर से उसे एक ओर कर लिया। डौली ने पूछा- ‘यह क्या है? आया, माली क्या ले जा रहा है?’

‘माली का छोटा बच्चा मर गया है।’ धीमे-से आया ने उत्तर दिया और डौली को बांह से थाम बंगले के भीतर ले चली।

डौली ने अपनी भोली, नीली आंखें आया के मुख पर गड़ा कर पूछा- ‘आया, माली के बच्चे को क्या गरम पानी में डुबो दिया?’

‘छिः डौली, ऐसी बातें नहीं कहते!’ आया ने धमकाया, ‘आदमी के बच्चे को ऐसे थोड़े ही मारते हैं!’

डौली का विस्मय शांत न हुआ। दूर जाते माली की ओर देखने के लिए घूमकर उसने फिर पूछा- ‘तो आदमी का बच्चा कैसे मरता है?’

लड़की का ध्यान उस ओर से हटाने के लिए उसे बंगले के भीतर खींचते हुए आया ने उत्तर दिया- ‘वह मर गया, भूख से मर गया है। चलो मामा बुला रही हैं।’

डौली चुप न हुई, उसने फिर पूछा- ‘आया, हम भी भूख से मर जायेंगे?’

‘चुप रहो डौली!’ आया झुंझला उठी, ‘ऐसी बात करोगी तो मामा से कह देंगे।’

लड़की के चेहरे की सरलता से उसकी मां का हृदय पिघल उठा। उसकी घुंघराली लटों को हाथ से सहलाते हुए आया कहने लगी- ‘बैरी की आंख में राई-नोन! हाय मेरी मिस साहब, तुम ऐसे आदमी थोड़े ही हो! …भूख से मरते हैं कमीने आदमियों के बच्चे।’

कहते-कहते आया का गला रुंध गया। उसे अपना लल्लू याद आ गया… दो बरस पहले…! तभी तो वह साहब के यहां नौकरी कर रही थी।

लेखक

  • यशपाल

    यशपाल का जन्म सन् 1903 में पंजाब के फिरोजपुर छावनी में हुआ था। उन्होंने प्राथमिक शिक्षा काँगड़ा से ग्रहण किया। बाद में लाहौर के नेशनल कॉलेज से उन्होंने बी.ए. किया। वहाँ की क्रांतिकारी धारा से जुड़ने के बाद कई बार जेल भी गए । उनको मृत्यु सन् 1976 में हुई। यशपाल हिन्दी साहित्य के आधुनिक कथाकारों में प्रमुख हैं। इनकी रचनाओं में आम व्यक्ति के सरोकारों की उपस्थिति है। इन्होंने यथार्थवादी शैली में अपनी रचनाएँ लिखी हैं। इनकी रचनाओं में सामाजिक विषमता, राजनैतिक पाखण्ड और रूढ़ियों के खिलाफ करारा प्रहार दिखलाई पड़ता है। उनकी कहानियों में ‘ज्ञानदान’, ‘तर्क का तूफान’, ‘पिंजरे की उड़ान’, ‘वो दुलिया’, ‘फूलों का कुर्ता’, ‘देशद्रोही’ उल्लेखनीय है। ‘झूठा सच’ इनका प्रसिद्ध उपन्यास है जो देशविभाजन की त्रासदी पर आधारित है। इसके अतिरिक्त अमिता’, ‘दिव्या’, ‘पार्टी कामरेड’, ‘दादा कामरेड’, ‘मेरी तेरी उसकी बात’ आदि इनके प्रमुख उपन्यास हैं। भाषा की स्वाभाविकता और जीवन्तता इनकी रचनाओं की विशेषता है। साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में इनके योगदान के लिए भारत सरकार ने इन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया।

    View all posts
आदमी का बच्चा/यशपाल

प्रातिक्रिया दे

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *

×