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तूस की आग/भवानी प्रसाद मिश्र

तूस की आग

जैसे फैलती जाती है

लगभग बिना अनुमान दिये

तूस की आग

ऐसे उतर रहा है

मेरे भीतर-भीतर

कोई एक जलने और

जलाने वाला तत्व

जिसे मैंने अनुराग माना है

क्योंकि इतना जो जाना है मैंने

कि मेरे भीतर

उतर नही सकता

ऐसी अलक्ष्य गति से

ऊष्मा देता हुआ धीरे-धीरे…

समूचे मेरे अस्तित्व को

दूसरा तत्त्व

जलता रहेगा यह

उतरता हुआ धीरे-धीरे

धुआँ दिये बिना

मेरे भीतर से भीतर की तह तक

देता रहूंगा मैं एक तरह की

शह तक

कि जलता रहे यह

चलता रहे क्रम

मेरे समाप्त होने का क्रम

एक के बाद दूसरी

कविता के सहारे

जीवन की अंतिम कविता तक

अच्छा है

आग शुरू होकर कविता से

समाप्त होगी कविता में

दिखूँगा जब मैं लोगों को

शांत और प्रसन्न

और गाता हुआ

तब चलता रहेगा

असल में क्रम

मेरे समाप्त होने का-

भ्रम में रहेंगे मित्र

कि ठीक चल रहा है

इस आदमी का सब-कुछ

विफल रहा है इस पर

काल का प्रहार

याने हार अपनी

सिर्फ में जानूँगा

अनुराग के हाथों

धीमी एक आग के हाथों

हार जो संतोष-दा है

ईंधन चुक जायेगा आग बुझ जायेगी

बच रहेगी राख

सिरा देंगे उसे स्नेही-जन

कह फर फूल

नर्मदा में

जो मोण-दा है !

 त-माशा

एक बे-

मालूम

धूम के आस-

पास की

आशा

त-

माशा

तोले दो तोले

इसे कौन-सा

शब्द बोले

उठाकर जो-

खम

बड़े बोल का

कम या

ज़्यादा !

 पांव की नाव

रात ने पांव के नीचे के

पत्थरों को ठंडा कर दिया है

और हवा में

भर दिया है

एक चमकदार सपना

मैं उस सपने को

देखता हुआ

चल रहा हूं

ठंडे पत्थरों पर

डर ने

मेरी अंगुली पकड़ ली है

और आश्वास

दे रहा है वह

पत्थरों पर चल रही

पांव की मेरी नाव को

सपने के भीतर से

भोर तक

उतार लाने का !

 रात की छांह में

आज भी कहीं

रात के पांव के नीचे नहीं

रात के पांव के ठंडे

पत्थरों के नीचे

ठंडा और साफ पानी

बह रहा होगा

पानी के ऊपर की

नाव की तरह

हमारी तरह

और पार कर रहे होंगे

उस बहते ठंडे पानी को तारे

पुरव की दिशा में

हां हां आज की

इस आग – आग

धुआं – धुआं

रात में

बह रहा होगा ठंडा

और साफ़ पानी

रात के पांव के नीचे के

पत्थरों के ऊपर से

आग – आग धुआं – धुआं

रात की छांह में

नावें और तारे लेकर

एक साथ बांह में

 भोर के छोर पर

भोर के छोर पर

मैंने तुम्हें देखा नहीं

सुना

सुना तुम्हारा स्वर

और देखा भी स्वर को

लहर कर पास आते हुए

तुम मगर दूर

होते जा रहे थे शायद

भोर के छोर से भी

और तभी उगा

शुक्र का तारा

आसमान में ऐसा कि

सिमटा तुम्हारा रूप

और स्वरूप आसमान का

और शुक्र के तारे का

तुग्हारे गान में

मैं देखता रह गया

तुम्हारे गान को

सुबह से शाम तक के

आसमान को

स्वर के रूप के बल पर

सुबह से शाम तक की

धूप के बल पर

भर लिया सब कुछ

प्राणों में भूल कर

अपने ही भीतर की ध्वनियां !

 और शामें

और शामें

इनके बारे में क्या कहूं

फिर चाहता क्यों हूं

कहना मैं इनके बारे भें

जब इनमें से

किसी एक भी शाम को

निबाहता नहीं हूं मैं

उस तरह

निबाही जानी चाहिए

जिस तरह हर सुंदरता !

 हमदम सूरज

हम दो थे

मगर फिर

नीबू की तरह

पीला सूरज

डूब गया

रह गया

एक मैं

देर तक नही

इस अंधेरे से

उस अंधेरे तक

इस ख़्याल में

कि पौ फटेगी

सूरज आयेगा

और फिर

हो जायेंगे हम

कम-से-क्म

दो!

 मैं आज

आज मैं सूरज हूं

सदियो से नींद का मारा

रात की गोद में

सिर रखना चाहता हूं

कभी नही हुई

कोई भी रात मेरी

मगर हर बात कभी-न-कभी

हो जाती है

आज रात

मेरी हो जायेगी

और सो जायेगी वह

लेकर मुझे अपनी बांहों में !

 एकाध-बार

जैसे रोम खड़े हो जाते हैं

सुख में या भय में

बड़े हो जाते हैं वैसे

कई बार

अनसुने हल्के स्वर

अन बोले शब्द

अनाहत ध्वनियां

अनुभव की शुन्यता में

शायद कई-वार कहना

ग़लत है

बदल कर कहता हूँ

एक

आध

बार !

 तुम नापो तौलो

तुम नापो

तुम तौलो

क्योंकि तुमको

इसका नाद है

हर चीज तुम्हें

नाप और तौल के

हिसाब से

याद है

तुम नापो और तौलो

चाहो तो मुझे भी

मगर

उदास मत हो जाना अगर

मैं तुम्हारे

किसी भी वाट से बंटूं नहीं

तुम्हारे किसी भी नाप में

अटूं नहीं !

 कल्पना और कामना

औपान्सिकता

अछूता प्यार

घर में

खुशी का पारावार

देश में शांति

दोस्तों से सद्भावना

सारी ये चीज़ें

एक के बाद एक कल्पना और कामना

कामना और

कल्पना !

 प्यासा दिन

खाली कासा लेकर

आयेगा कल का प्यासा दिन

हर दिन की तरह

सूनी-सूनी आंखों

देखकर उसे

रह जाता हूं हर दिन

उदास और एकरस

किसी जलाशय की तरह हर दिन

सह जाता हूं उसकी प्यास

मेरी तरंगें तो

उसे उठकर

भर नहीं सकती

सोचता हूं वह खुद

क्यों नहीं

भर लेता

डुबा कर

मेरी उदासी में

खाली अपना कासा !

लेखक

  • भवानी प्रसाद मिश्र

    भवानी प्रसाद मिश्र का जन्म 1913 ई. में मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के टिगरिया गाँव में हुआ। इन्होंने जबलपुर से उच्च शिक्षा प्राप्त की। इनका हिंदी, अंग्रेजी व संस्कृत भाषाओं पर अधिकार था। इन्होंने शिक्षक के रूप में कार्य किया। फिर वे कल्पना पत्रिका, आकाशवाणी व गाँधी जी की कई संस्थाओं से जुड़े रहे। इनकी कविताओं में सतपुड़ा-अंचल, मालवा आदि क्षेत्रों का प्राकृतिक वैभव मिलता है। इन्हें साहित्य अकादमी, मध्य प्रदेश शासन का शिखर सम्मान, दिल्ली प्रशासन का गालिब पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इनकी साहित्य व समाज सेवा के मद्देनजर भारत सरकार ने इन्हें पद्मश्री से अलंकृत किया। इनका देहावसान 1985 ई. में हुआ। रचनाएँ-इनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं सतपुड़ा के जंगल, सन्नाटा, गीतफ़रोश, चकित है दुख, बुनी हुई रस्सी, खुशबू के शिलालेख, अनाम तुम आते हो, इदं न मम् आदि। गीतफ़रोश इनका पहला काव्य संकलन है। गाँधी पंचशती की कविताओं में कवि ने गाँधी जी को श्रद्धांजलि अर्पित की है। काव्यगत विशेषताएँ-सहज लेखन और सहज व्यक्तित्व का नाम है-भवानी प्रसाद मिश्र। ये कविता, साहित्य और राष्ट्रीय आंदोलन के प्रमुख कवियों में से एक हैं। गाँधीवाद में इनका अखंड विश्वास था। इन्होंने गाँधी वाडमय के हिंदी खंडों का संपादन कर कविता और गाँधी जी के बीच सेतु का काम किया। इनकी कविता हिंदी की सहज लय की कविता है। इस सहजता का संबंध गाँधी के चरखे की लय से भी जुड़ता है, इसलिए उन्हें कविता का गाँधी भी कहा गया है। इनकी कविताओं में बोलचाल के गद्यात्मक से लगते वाक्य-विन्यास को ही कविता में बदल देने की अद्भुत क्षमता है। इसी कारण इनकी कविता सहज और लोक के करीब है।

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