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गीत-फ़रोश (काव्य संग्रह)/भवानी प्रसाद मिश्र

कवि

क़लम अपनी साध,

और मन की बात बिलकुल ठीक कह एकाध

ये कि तेरी-भर न हो तो कह,

और बहते बने सादे ढंग से तो बह।

जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख,

और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख।

चीज़ ऐसी दे कि स्वाद सर चढ़ जाए

बीज ऐसा बो कि जिसकी बेल बन बढ़ जाए।

फल लगें ऐसे कि सुख रस, सार और समर्थ

प्राण-संचारी कि शोभा-भर न जिनका अर्थ।

टेढ़ मत पैदा करे गति तीर की अपना,

पाप को कर लक्ष्य कर दे झूठ को सपना.

विन्ध्य, रेवा, फूल, फल, बरसात या गरमी,

प्यार प्रिय का, कष्ट-कारा, क्रोध या नरमी,

देश या कि विदेश, मेरा हो कि तेरा हो

हो विशद विस्तार, चाहे एक घेरा हो,

तू जिसे छु दे दिशा कल्याण हो उसकी,

तू जिसे गा दे सदा वरदान हो उसकी।

(जनवरी, 1930)

 अपराध

नहीं जानता किसकी अलकों के अस्थिर हिलते डोरों में,

नहीं जानता किसकी आँखों के अनन्त-मिलते छोरों में,

नहीं जानता किसकी कोमल अंगुलियों के मृदु पोरों में,

नहीं जानता किसके सुख-दुख पाते-खोते निशि-भोरों में,

मेरे प्राण समा जाने को व्याकुल हो कर आज जगे हैं,

नहीं जानता किसकी आशा-मध्‌ में इसके पंख पगे हैं !

नहीं जानता कौन अचानक उर में आगी लगा गया है,

नहीं जानता कौन युगों के सोते सपने जगा गया है,

नहीं जानता कौन छुनक कर भोलेपन को भगा गया है,

नहीं जानता किसके जादू में, भोला जी ठगा गया है;

किसके आने की आशा में आते-जातों की आहट सुन,

दरवाज़े तक खिंचा चला जाता हूँ, खींच रहे किसके गुन !

किस अभाव में संध्या सूनी हुई, उषा पीली दिखती है,

किस अभाव में यह विशालता पिंजरे की तीली दिखती है,

इसे चीर कर वहाँ क्षितिज पर एक कोर नीली दिखती है,

जी की व्याकुल आँख वहाँ ही जाने को गीली दिखती है;

नहीं जानता, पायी मैंने पागलपन की साध कहाँ से,

नहीं जानता मेरे पल्‍ले आया यह अपराध कहाँ से !

(जून, 1934)

 कवि

लोग मुझे पागल कहते हैं, मैं पागल ही कहलाता हूँ;

जीवन की सूनी घड़ियों से सूना जीवन बहलाता हूँ ।

चलती है अंगुली, लिखती है, लिख कर फिर बढ़-बढ़ जाती है;

काग़ज़ पर जो बूँद उतरती है सिर पर चढ़, चढ़ जाती है !

ओ मतवाली दुनिया, मेरा पागलपन तू क्‍या पहचाने,

कितने गीत बिखर जाते हैं मेरी झोली से अनजाने !

सरिता की गति में, कोयल की कुहू में, तरु के मर्मर में,

मधुपों के गुन्‌-गुन् गीतों में, झरनों के झर्‌ झर्‌ झर्‌ स्वर में;

गिरि की गहन कंदराओं में ये बसते हैं बन कर झाईं,

जड़ में, चेतन में पड़ती है मेरे गीतों की परछाईं !

मेरे यहाँ रहन रक्‍खी है युगों-युगों से युग की वाणी,

मेरे गीतों में बसती है सत्य-सुंदरी, माँ कल्याणी !

(अक्तूबर, 1934)

 क़िस्मत !

फूल कोमल, स्वच्छ तारा और पानीदार मोती,

ओस चंचल, अचल पाहन, हैं तुम्हारे सभी गोती;

सभी ने तुमसे लिया कुछ या सभी ने कुछ दिया है,

किन्तु क्या तुमने अनादर कभी इनका भी किया है ?

चूक मेरी ही बड़ी क्‍यों यदि तुम्हें जी दे दिया है,

और इतना बुरा क्या है, दर्द यदि तुमसे लिया है;

यदि उपेक्षा ही रही होती न थी मुझको बुराई,

जानते ही तुम नहीं रहती यही मुझको समाई ।

किन्तु तुम पहचानते भी हो मुझे यह जानता हूँ,

और तिस पर खिंच रहे उतने कि जितना तानता हैं:

स्नेह के नाते सभी, तुम तोड़ते ही जा रहे हो,

और जी में गाँठ दिन-दिन जोड़ते ही जा रहे हो !

फुल को तुमने कभी चूमा, कभी छाती लगाया,

और तारों ने कभी तो रात-भर तुमको जगाया,

ओस है बहलाव मन का और है श्रृंगार मोती,

हाय इनकी और मेरी कहीं क़िस्मत एक होती !

(मार्च, 1935)

 पहली बातें

अब क्या होगा इसे सोच कर, जी भारी करने मे क्या है,

जब वे चले गए हैं ओ मन, तब आँखें भरने मे क्या है,

जो होना था हुआ, अन्यथा करना सहज नहीं हो सकता,

पहली बातें नहीं रहीं, तब रो रो कर मरने मे क्या है?

सूरज चला गया यदि बादल लाल लाल होते हैं तो क्या,

लाई रात अंधेरा, किरनें यदि तारे बोते हैं तो क्या,

वृक्ष उखाड़ चुकी है आंधी, ये घनश्याम जलद अब जाएँ,

मानी ने मुहं फेर लिया है, हम पानी खोते हैं तो क्या?

उसे मान प्यारा है, मेरा स्नेह मुझे प्यारा लगता है,

माना मैनें, उस बिन मुझको जग सूना सारा लगता है,

उसे मनाऊं कैसे, क्योंकर, प्रेम मनाने क्यों जाएगा?

उसे मनाने में तो मेरा प्रेम मुझे हारा लगता है|

(अगस्त, 1935)

 वे हँसे और आया वसन्‍त

वे हँसे और आया वसन्त‍, खिल गये फूल, लद गयी डाल,

भौरों ने गाना शुरू किया, पत्ते हिल कर दे चले ताल ।

हर फूल नयी पोशाक पहिन, जग के आँगन में झूम गया,

हर भौंरा मस्ती में भर कर, हर नये फूल को चूम गया ।

खेतों में सरसों फूल उठी, जंगल में टेसू हुआ लाल,

जो हवा अभी तक चंचल थी, उसकी धीमी हो गयी चाल ।

अब तक की सूनी अमराई में उतर पड़ी जैसे बरात,

बँध गया मौर, हो गया और, उस बड़े आम का पीत गात ।

किरनों का सोना निखर गया, लहरों पर चढ़ा नया पानी,

जी कुछ ऐसा बेहाल हुआ, आँखों का उतर गया पानी ।

तब बार-बार कुहकी काली, आली अमराई गूँज गयी,

क्या जाने जादू हुआ कौन ? सारी दुनियाँ हो गयी नयी ।

फूलों का मतलब बदल गया, जी में जैसे गड़ गये शूल,

मैं बेसुध थी, बेजाने ही मेरे सिर से खिसका दुकूल।

वे हँसे, और बिस-भरी हँसी में मैंने दी मुसकान मिला;

वे मिले मुझे, तू बता सखी, यह शाप, या कि वरदान मिला ।

(फ़रवरी, 1935)

 सन्नाटा

तो पहले अपना नाम बता दूँ तुमको,

फिर चुपके चुपके धाम बता दूँ तुमको

तुम चौंक नहीं पड़ना, यदि धीमे धीमे

मैं अपना कोई काम बता दूँ तुमको।

कुछ लोग भ्रान्तिवश मुझे शान्ति कहते हैं,

कुछ निस्तब्ध बताते हैं, कुछ चुप रहते हैं

मैं शांत नहीं निस्तब्ध नहीं, फिर क्या हूँ

मैं मौन नहीं हूँ, मुझमें स्वर बहते हैं।

कभी कभी कुछ मुझमें चल जाता है,

कभी कभी कुछ मुझमें जल जाता है

जो चलता है, वह शायद है मेंढक हो,

वह जुगनू है, जो तुमको छल जाता है।

मैं सन्नाटा हूँ, फिर भी बोल रहा हूँ,

मैं शान्त बहुत हूँ, फिर भी डोल रहा हूँ

ये सर सर ये खड़ खड़ सब मेरी है

है यह रहस्य मैं इसको खोल रहा हूँ।

मैं सूने में रहता हूँ, ऐसा सूना,

जहाँ घास उगा रहता है ऊना-ऊना

और झाड़ कुछ इमली के, पीपल के

अंधकार जिनसे होता है दूना।

तुम देख रहे हो मुझको, जहाँ खड़ा हूँ,

तुम देख रहे हो मुझको, जहाँ पड़ा हूँ

मैं ऐसे ही खंडहर चुनता फिरता हूँ

मैं ऐसी ही जगहों में पला, बढ़ा हूँ।

हाँ, यहाँ क़िले की दीवारों के ऊपर,

नीचे तलघर में या समतल पर या भू पर

कुछ जन श्रुतियों का पहरा यहाँ लगा है,

जो मुझे भयानक कर देती है छू कर।

तुम डरो नहीं, वैसे डर कहाँ नहीं है,

पर खास बात डर की कुछ यहाँ नहीं है

बस एक बात है, वह केवल ऐसी है,

कुछ लोग यहाँ थे, अब वे यहाँ नहीं हैं।

यहाँ बहुत दिन हुए एक थी रानी,

इतिहास बताता नहीं उसकी कहानी

वह किसी एक पागल पर जान दिये थी,

थी उसकी केवल एक यही नादानी!

यह घाट नदी का, अब जो टूट गया है,

यह घाट नदी का, अब जो फूट गया है

वह यहाँ बैठकर रोज रोज गाता था,

अब यहाँ बैठना उसका छूट गया है।

शाम हुए रानी खिड़की पर आती,

थी पागल के गीतों को वह दुहराती

तब पागल आता और बजाता बंसी,

रानी उसकी बंसी पर छुप कर गाती।

किसी एक दिन राजा ने यह देखा,

खिंच गयी हृदय पर उसके दुख की रेखा

यह भरा क्रोध में आया और रानी से,

उसने माँगा इन सब साँझों का लेखा-जोखा।

रानी बोली पागल को ज़रा बुला दो,

मैं पागल हूँ, राजा, तुम मुझे भुला दो

मैं बहुत दिनों से जाग रही हूँ राजा,

बंसी बजवा कर मुझको जरा सुला दो।

वो राजा था हाँ, कोई खेल नहीं था,

ऐसे जवाब से उसका कोई मेल नहीं था

रानी ऐसे बोली थी, जैसे इस

बड़े किले में कोई जेल नहीं था।

तुम जहाँ खड़े हो, यहीं कभी सूली थी,

रानी की कोमल देह यहीं झूली थी

हाँ, पागल की भी यहीं, रानी की भी यहीं,

राजा हँस कर बोला, रानी तू भूली थी।

किन्तु नहीं फिर राजा ने सुख जाना,

हर जगह गूँजता था पागल का गाना

बीच बीच में, राजा तुम भूले थे,

रानी का हँसकर सुन पड़ता था ताना।

तब और बरस बीते, राजा भी बीते,

रह गये क़िले के कमरे रीते रीते

तब मैं आया, कुछ मेरे साथी आये,

अब हम सब मिलकर करते हैं मनचीते।

पर कभी-कभी जब वो पागल आ जाता है,

लाता है रानी को, या गा जाता है

तब मेरे उल्लू, साँप और गिरगिट पर

एक अनजान सकता-सा छा जाता है।

(सितम्बर, 1936)

 फूल और दिन

सुबह होते ही फूल,

हवा में झूल,

खोल देता हैं अपने दल

ओस पी लेता है केवल–

पियासा रवि;

फैल जाती है छवि ।

शाम को, दिन के साथ,

झुका कर माथ,

फूल रह जाता है चुपचाप,

हृदय पर रख कर दिन की छाप |

निराला दिन,

चला जाता उस-बिन ।

और तब आधी रात,

उसे वह बात–

स्वप्न में दिखती है, वह फूल

सभी कुछ जाता है तब भूल ।

हृदय जिसका कोमल,

बिखर जाते हैं उसके दल ।

(सितंबर, 1936)

 लुहार से

मुझे एक तलवार बना दे,

हवा की जो लहरों पर दौड़े

इतनी हल्की धार बना दे ।

लंबाई उसकी कितनी हो ?

पूरी बढ़ी फसल गेहूँ की

बढ़ते-बढ़ते तक जितनी हो;

और लचीली तेज साँप-सी,

सौ-सौ आँखों वाली बिजली की

तड़पन, बे-वक़्त काँप-सी;

चिकनी हो, रेशम काले-सी

पतली हो, ठहरो, पतली हो–

मकड़ी के फैले जाले-सी;

और दर्द या शीत सरीखी,

हो बे-दर्द, चढ़ाते सूली

जल्लादों के गीत सरीखी ;

मूठ बनाते चित्र खींच दे

थके हुए भूखे किसान का

उस पर माँ का प्यार सींच दे ।

(अगस्त, 1937)

 आज निश्चित हो

असि एक है

मसि एक हैँ

मसि चुनी मैंने,

असि चुनी तैंने;

मैं उतर लूँ क़लम से

मसि बिंदु,

तू बहा असि से

रकत के सिंधु,

मैं जगत बदलूँ

कि तू बदले जगत !

आज निश्चित हो

कि वह असि-धार

पैनी है

कि यह मसि-धार

पैनी है !

(सितंबर, 1937)

 सतपुड़ा के जंगल

सतपुड़ा के घने जंगल

नींद मे डूबे हुए-से,

ऊँघते अनमने जंगल।

झाड़ ऊँचे और नीचे,

चुप खड़े हैं आँख मीचे,

घास चुप है, कास चुप है

मूक शाल, पलाश चुप है।

बन सके तो धँसो इनमें,

धँस न पाती हवा जिनमें,

सतपुड़ा के घने जंगल

ऊँघते अनमने जंगल।

सड़े पत्ते, गले पत्ते,

हरे पत्ते, जले पत्ते,

वन्य पथ को ढँक रहे-से

पंक-दल मे पले पत्ते।

चलो इन पर चल सको तो,

दलो इनको दल सको तो,

ये घिनोने, घने जंगल

नींद मे डूबे हुए से

ऊँघते अनमने जंगल।

अटपटी-उलझी लताएँ,

डालियों को खींच खाएँ,

पैर को पकड़ें अचानक,

प्राण को कस लें कपाऐं।

सांप सी काली लताऐं

बला की पाली लताऐं

लताओं के बने जंगल

नींद मे डूबे हुए से

ऊँघते अनमने जंगल।

मकड़ियों के जाल मुँह पर,

और सर के बाल मुँह पर

मच्छरों के दंश वाले,

दाग काले-लाल मुँह पर,

वात- झन्झा वहन करते,

चलो इतना सहन करते,

कष्ट से ये सने जंगल,

नींद मे डूबे हुए से

ऊँघते अनमने जंगल|

अजगरों से भरे जंगल।

अगम, गति से परे जंगल

सात-सात पहाड़ वाले,

बड़े छोटे झाड़ वाले,

शेर वाले बाघ वाले,

गरज और दहाड़ वाले,

कम्प से कनकने जंगल,

नींद मे डूबे हुए से

ऊँघते अनमने जंगल।

इन वनों के खूब भीतर,

चार मुर्गे, चार तीतर

पाल कर निश्चिन्त बैठे,

विजनवन के बीच बैठे,

झोंपडी पर फ़ूंस डाले

गोंड तगड़े और काले।

जब कि होली पास आती,

सरसराती घास गाती,

और महुए से लपकती,

मत्त करती बास आती,

गूंज उठते ढोल इनके,

गीत इनके, गोल इनके

सतपुड़ा के घने जंगल

नींद मे डूबे हुए से

उँघते अनमने जंगल।

जागते अँगड़ाइयों में,

खोह-खड्डों खाइयों में,

घास पागल, कास पागल,

शाल और पलाश पागल,

लता पागल, वात पागल,

डाल पागल, पात पागल

मत्त मुर्ग़े और तीतर,

इन वनों के खूब भीतर!

क्षितिज तक फ़ैला हुआ-सा,

मृत्यु तक मैला हुआ-सा,

क्षुब्ध, काली लहर वाला

मथित, उत्थित जहर वाला,

मेरु वाला, शेष वाला

शम्भु और सुरेश वाला

एक सागर जानते हो,

उसे कैसा मानते हो?

ठीक वैसे घने जंगल,

नींद मे डूबे हुए से

ऊँघते अनमने जंगल|

धँसो इनमें डर नहीं है,

मौत का यह घर नहीं है,

उतर कर बहते अनेकों,

कल-कथा कहते अनेकों,

नदी, निर्झर और नाले,

इन वनों ने गोद पाले।

लाख पंछी सौ हिरन-दल,

चाँद के कितने किरन दल,

झूमते बन-फ़ूल, फ़लियाँ,

खिल रहीं अज्ञात कलियाँ,

हरित दूर्वा, रक्त किसलय,

पूत, पावन, पूर्ण रसमय

सतपुड़ा के घने जंगल,

लताओं के बने जंगल।

(अगस्त, 1939)

 घर की याद

आज पानी गिर रहा है,

बहुत पानी गिर रहा है,

रात भर गिरता रहा है,

प्राण मन घिरता रहा है,

अब सवेरा हो गया है,

कब सवेरा हो गया है,

ठीक से मैंने न जाना,

बहुत सोकर सिर्फ़ माना—

क्योंकि बादल की अँधेरी,

है अभी तक भी घनेरी,

अभी तक चुपचाप है सब,

रातवाली छाप है सब,

गिर रहा पानी झरा-झर,

हिल रहे पत्ते हरा-हर,

बह रही है हवा सर-सर,

काँपते हैं प्राण थर-थर,

बहुत पानी गिर रहा है,

घर नज़र में तिर रहा है,

घर कि मुझसे दूर है जो,

घर खुशी का पूर है जो,

घर कि घर में चार भाई,

मायके में बहिन आई,

बहिन आई बाप के घर,

हाय रे परिताप के घर!

आज का दिन दिन नहीं है,

क्योंकि इसका छिन नहीं है,

एक छिन सौ बरस है रे,

हाय कैसा तरस है रे,

घर कि घर में सब जुड़े है,

सब कि इतने कब जुड़े हैं,

चार भाई चार बहिनें,

भुजा भाई प्यार बहिनें,

और माँ‍ बिन-पढ़ी मेरी,

दुःख में वह गढ़ी मेरी

माँ कि जिसकी गोद में सिर,

रख लिया तो दुख नहीं फिर,

माँ कि जिसकी स्नेह-धारा,

का यहाँ तक भी पसारा,

उसे लिखना नहीं आता,

जो कि उसका पत्र पाता।

और पानी गिर रहा है,

घर चतुर्दिक घिर रहा है,

पिताजी भोले बहादुर,

वज्र-भुज नवनीत-सा उर,

पिताजी जिनको बुढ़ापा,

एक क्षण भी नहीं व्यापा,

जो अभी भी दौड़ जाएँ,

जो अभी भी खिलखिलाएँ,

मौत के आगे न हिचकें,

शेर के आगे न बिचकें,

बोल में बादल गरजता,

काम में झंझा लरजता,

आज गीता पाठ करके,

दंड दो सौ साठ करके,

खूब मुगदर हिला लेकर,

मूठ उनकी मिला लेकर,

जब कि नीचे आए होंगे,

नैन जल से छाए होंगे,

हाय, पानी गिर रहा है,

घर नज़र में तिर रहा है,

चार भाई चार बहिनें,

भुजा भाई प्यार बहिने,

खेलते या खड़े होंगे,

नज़र उनको पड़े होंगे।

पिताजी जिनको बुढ़ापा,

एक क्षण भी नहीं व्यापा,

रो पड़े होंगे बराबर,

पाँचवे का नाम लेकर,

पाँचवाँ हूँ मैं अभागा,

जिसे सोने पर सुहागा,

पिता जी कहते रहें है,

प्यार में बहते रहे हैं,

आज उनके स्वर्ण बेटे,

लगे होंगे उन्हें हेटे,

क्योंकि मैं उन पर सुहागा

बँधा बैठा हूँ अभागा,

और माँ ने कहा होगा,

दुःख कितना बहा होगा,

आँख में किसलिए पानी,

वहाँ अच्छा है भवानी,

वह तुम्हारा मन समझकर,

और अपनापन समझकर,

गया है सो ठीक ही है,

यह तुम्हारी लीक ही है,

पाँव जो पीछे हटाता,

कोख को मेरी लजाता,

इस तरह होओ न कच्चे,

रो पड़ेंगे और बच्चे,

पिताजी ने कहा होगा,

हाय, कितना सहा होगा,

कहाँ, मैं रोता कहाँ हूँ,

धीर मैं खोता, कहाँ हूँ,

गिर रहा है आज पानी,

याद आता है भवानी,

उसे थी बरसात प्यारी,

रात-दिन की झड़ी-झारी,

खुले सिर नंगे बदन वह,

घूमता-फिरता मगन वह,

बड़े बाड़े में कि जाता,

बीज लौकी का लगाता,

तुझे बतलाता कि बेला

ने फलानी फूल झेला,

तू कि उसके साथ जाती,

आज इससे याद आती,

मैं न रोऊँगा,—कहा होगा,

और फिर पानी बहा होगा,

दृश्य उसके बाद का रे,

पाँचवें की याद का रे,

भाई पागल, बहिन पागल,

और अम्मा ठीक बादल,

और भौजी और सरला,

सहज पानी,सहज तरला,

शर्म से रो भी न पाएँ,

ख़ूब भीतर छटपटाएँ,

आज ऐसा कुछ हुआ होगा,

आज सबका मन चुआ होगा।

अभी पानी थम गया है,

मन निहायत नम गया है,

एक से बादल जमे हैं,

गगन-भर फैले रमे हैं,

ढेर है उनका, न फाँकें,

जो कि किरणें झुकें-झाँकें,

लग रहे हैं वे मुझे यों,

माँ कि आँगन लीप दे ज्यों,

गगन-आँगन की लुनाई,

दिशा के मन में समाई,

दश-दिशा चुपचाप है रे,

स्वस्थ मन की छाप है रे,

झाड़ आँखें बन्द करके,

साँस सुस्थिर मंद करके,

हिले बिन चुपके खड़े हैं,

क्षितिज पर जैसे जड़े हैं,

एक पंछी बोलता है,

घाव उर के खोलता है,

आदमी के उर बिचारे,

किसलिए इतनी तृषा रे,

तू ज़रा-सा दुःख कितना,

सह सकेगा क्या कि इतना,

और इस पर बस नहीं है,

बस बिना कुछ रस नहीं है,

हवा आई उड़ चला तू,

लहर आई मुड़ चला तू,

लगा झटका टूट बैठा,

गिरा नीचे फूट बैठा,

तू कि प्रिय से दूर होकर,

बह चला रे पूर होकर,

दुःख भर क्या पास तेरे,

अश्रु सिंचित हास तेरे !

पिताजी का वेश मुझको,

दे रहा है क्लेश मुझको,

देह एक पहाड़ जैसे,

मन की बड़ का झाड़ जैसे,

एक पत्ता टूट जाए,

बस कि धारा फूट जाए,

एक हल्की चोट लग ले,

दूध की नद्दी उमग ले,

एक टहनी कम न होले,

कम कहाँ कि ख़म न होले,

ध्यान कितना फ़िक्र कितनी,

डाल जितनी जड़ें उतनी !

इस तरह क हाल उनका,

इस तरह का ख़याल उनका,

हवा उनको धीर देना,

यह नहीं जी चीर देना,

हे सजीले हरे सावन,

हे कि मेरे पुण्य पावन,

तुम बरस लो वे न बरसें,

पाँचवे को वे न तरसें,

मैं मज़े में हूँ सही है,

घर नहीं हूँ बस यही है,

किन्तु यह बस बड़ा बस है,

इसी बस से सब विरस है,

किन्तु उनसे यह न कहना,

उन्हें देते धीर रहना,

उन्हें कहना लिख रहा हूँ,

उन्हें कहना पढ़ रहा हूँ,

काम करता हूँ कि कहना,

नाम करता हूँ कि कहना,

चाहते है लोग, कहना,

मत करो कुछ शोक कहना,

और कहना मस्त हूँ मैं,

कातने में व्यस्‍त हूँ मैं,

वज़न सत्तर सेर मेरा,

और भोजन ढेर मेरा,

कूदता हूँ, खेलता हूँ,

दुख डट कर झेलता हूँ,

और कहना मस्त हूँ मैं,

यों न कहना अस्त हूँ मैं,

हाय रे, ऐसा न कहना,

है कि जो वैसा न कहना,

कह न देना जागता हूँ,

आदमी से भागता हूँ,

कह न देना मौन हूँ मैं,

ख़ुद न समझूँ कौन हूँ मैं,

देखना कुछ बक न देना,

उन्हें कोई शक न देना,

हे सजीले हरे सावन,

हे कि मेरे पुण्य पावन,

तुम बरस लो वे न बरसे,

पाँचवें को वे न तरसें ।

(जुलाई, 1944)

 गीत-फ़रोश

जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ।

मैं तरह-तरह के गीत बेचता हूँ;

मैं क़िसिम-क़िसिम के गीत बेचता हूँ।

जी, माल देखिए दाम बताऊँगा,

बेकाम नहीं है, काम बताऊंगा;

कुछ गीत लिखे हैं मस्ती में मैंने,

कुछ गीत लिखे हैं पस्ती में मैंने;

यह गीत, सख़्त सरदर्द भुलाएगा;

यह गीत पिया को पास बुलाएगा।

जी, पहले कुछ दिन शर्म लगी मुझ को

पर पीछे-पीछे अक़्ल जगी मुझ को;

जी, लोगों ने तो बेच दिये ईमान।

जी, आप न हों सुन कर ज़्यादा हैरान।

मैं सोच-समझकर आखिर

अपने गीत बेचता हूँ;

जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ।

मैं तरह-तरह के गीत बेचता हूँ;

मैं क़िसिम-क़िसिम के गीत बेचता हूँ।

यह गीत सुबह का है, गा कर देखें,

यह गीत ग़ज़ब का है, ढा कर देखे;

यह गीत ज़रा सूने में लिखा था,

यह गीत वहाँ पूने में लिखा था।

यह गीत पहाड़ी पर चढ़ जाता है

यह गीत बढ़ाये से बढ़ जाता है

यह गीत भूख और प्यास भगाता है

जी, यह मसान में भूख जगाता है;

यह गीत भुवाली की है हवा हुज़ूर

यह गीत तपेदिक की है दवा हुज़ूर।

जी, और गीत भी हैं, दिखलाता हूँ

जी, सुनना चाहें आप तो गाता हूँ।

जी, छंद और बे-छंद पसंद करें –

जी, अमर गीत और वे जो तुरत मरें।

ना, बुरा मानने की इसमें क्या बात,

मैं पास रखे हूँ क़लम और दावात

इनमें से भाये नहीं, नये लिख दूँ ?

इन दिनों की दुहरा है कवि-धंधा,

हैं दोनों चीज़े व्यस्त, कलम, कंधा।

कुछ घंटे लिखने के, कुछ फेरी के

जी, दाम नहीं लूँगा इस देरी के।

मैं नये पुराने सभी तरह के

गीत बेचता हूँ।

जी हाँ, हुज़ूर, मैं गीत बेचता हूँ।

मैं तरह-तरह के गीत बेचता हूँ;

मैं क़िसिम-क़िसिम के गीत बेचता हूँ।

जी गीत जनम का लिखूँ, मरण का लिखूँ;

जी, गीत जीत का लिखूँ, शरण का लिखूँ;

यह गीत रेशमी है, यह खादी का,

यह गीत पित्त का है, यह बादी का।

कुछ और डिजायन भी हैं, ये इल्मी –

यह लीजे चलती चीज़ नयी, फ़िल्मी।

यह सोच-सोच कर मर जाने का गीत,

यह दुकान से घर जाने का गीत,

जी नहीं दिल्लगी की इस में क्या बात

मैं लिखता ही तो रहता हूँ दिन-रात।

तो तरह-तरह के बन जाते हैं गीत,

जी रूठ-रुठ कर मन जाते है गीत।

जी बहुत ढेर लग गया हटाता हूँ

गाहक की मर्ज़ी – अच्छा, जाता हूँ।

मैं बिलकुल अंतिम और दिखाता हूँ –

या भीतर जा कर पूछ आइये, आप।

है गीत बेचना वैसे बिलकुल पाप

क्या करूँ मगर लाचार हार कर

गीत बेचता हँ।

जी हाँ हुज़ूर, मैं गीत बेचता हूँ।

मैं तरह-तरह के गीत बेचता हूँ;

मैं क़िसिम-क़िसिम के गीत बेचता हूँ।

लेखक

  • भवानी प्रसाद मिश्र

    भवानी प्रसाद मिश्र का जन्म 1913 ई. में मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के टिगरिया गाँव में हुआ। इन्होंने जबलपुर से उच्च शिक्षा प्राप्त की। इनका हिंदी, अंग्रेजी व संस्कृत भाषाओं पर अधिकार था। इन्होंने शिक्षक के रूप में कार्य किया। फिर वे कल्पना पत्रिका, आकाशवाणी व गाँधी जी की कई संस्थाओं से जुड़े रहे। इनकी कविताओं में सतपुड़ा-अंचल, मालवा आदि क्षेत्रों का प्राकृतिक वैभव मिलता है। इन्हें साहित्य अकादमी, मध्य प्रदेश शासन का शिखर सम्मान, दिल्ली प्रशासन का गालिब पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इनकी साहित्य व समाज सेवा के मद्देनजर भारत सरकार ने इन्हें पद्मश्री से अलंकृत किया। इनका देहावसान 1985 ई. में हुआ। रचनाएँ-इनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं सतपुड़ा के जंगल, सन्नाटा, गीतफ़रोश, चकित है दुख, बुनी हुई रस्सी, खुशबू के शिलालेख, अनाम तुम आते हो, इदं न मम् आदि। गीतफ़रोश इनका पहला काव्य संकलन है। गाँधी पंचशती की कविताओं में कवि ने गाँधी जी को श्रद्धांजलि अर्पित की है। काव्यगत विशेषताएँ-सहज लेखन और सहज व्यक्तित्व का नाम है-भवानी प्रसाद मिश्र। ये कविता, साहित्य और राष्ट्रीय आंदोलन के प्रमुख कवियों में से एक हैं। गाँधीवाद में इनका अखंड विश्वास था। इन्होंने गाँधी वाडमय के हिंदी खंडों का संपादन कर कविता और गाँधी जी के बीच सेतु का काम किया। इनकी कविता हिंदी की सहज लय की कविता है। इस सहजता का संबंध गाँधी के चरखे की लय से भी जुड़ता है, इसलिए उन्हें कविता का गाँधी भी कहा गया है। इनकी कविताओं में बोलचाल के गद्यात्मक से लगते वाक्य-विन्यास को ही कविता में बदल देने की अद्भुत क्षमता है। इसी कारण इनकी कविता सहज और लोक के करीब है।

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गीत-फ़रोश (काव्य संग्रह)/भवानी प्रसाद मिश्र

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