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इस तरह गुजरा जन्मदिन/हरिशंकर परसाई

तीस साल पहले बाईस अगस्त को एक सज्जन सुबह मेरे घर आये। उनके हाथ में गुलदस्ता था। उन्होंने स्नेह और आदर से मुझे गुलदस्ता दिया। मैं अकचका गया। मैंने पूछा-यह क्यों ? उन्होंने कहा-आज आपका जन्मदिन है न। मुझे याद आया मैं बाईस अगस्त को पैदा हुआ था। यह जन्मदिन का पहला गुलदस्ता था। वे बैठ गये। हम दोनों अटपटे थे। दोनों बेचैन थे। कुछ बातें होती रहीं। उनके लिए चाय आई। वे मिठाई की आशा करते होंगे। मेरी टेबल पर फूल भी नहीं थे। वे समझ गये होंगे कि सबेरे से इसके पास कोई नहीं आया। इसे कोई नहीं पूछता। लगा होगा जैसे शादी की बधाई देने आये हैं, और इधर घर में रात को दहेज की चोरी हो गई हो। उन्होंने मुझे जन्मदिन के लायक नहीं समझा। तब से अभी तक उन्होंने मेरे जन्मदिन पर आने की गलती नहीं की। धिक्कारते होंगे कि कैसा निकम्मा लेखक है कि अधेड़ हो रहा है, मगर जन्मदिन मनवाने का इन्तजाम नहीं कर सका। इसका साहित्य अधिक दिन टिकेगा नहीं। हाँ, अपने जन्मदिन के समारोह का इन्तजाम खुद कर लेने वाले मैंने देखे हैं। जन्मदिन ही क्यों, स्वर्ण-जयन्ती और हीरक जयन्ती भी खुद आयोजित करके ऐसा अभिनय करते हैं, जैसे दूसरे लोग उन्हें कष्ट दे रहे हैं। सड़क पर मिल गये तो कहा-परसों शाम के आयोजन में आना भूलिये मत। फिर बोले-मुझे क्या मतलब ? आप लोग आयोजन कर रहे हैं, आप जानें।

चार-पाँच साल पहले मेरी रचनावली का प्रकाशन हुआ था। उस साल मेरे दो-तीन मित्रों ने अखबारों में मेरे बारे में लेख छपवा दिये, जिनके ऊपर छपा था-22 अगस्त जन्मदिन के सुअवसर पर। मेरी जन्म-तारीख 22 अगस्त 1924 छपती है। यह भूल है। तारीख ठीक है। सन् गलत है। सही सन् 1922 है। मुझे पता नहीं मैट्रिक के सर्टिफिकेट में क्या है। मेरे पिता ने स्कूल में मेरी उम्र दो साल कम लिखाई थी, इस कारण कि सरकारी नौकरी के लिए मैं जल्दी ‘ओव्हरएज’ नहीं हो जाऊँ। इसका मतलब है कि झूठ की परम्परा मेरे कुल में है। पिता चाहते थे कि मैं ‘ओव्हरएज’ नहीं हो जाऊँ। मैंने उनकी इच्छा पूरी की। मैं इस उम्र में भी दुनियादारी के मामले में ‘अण्डरएज’ हूँ। लेख छपे तो मुझे बधाई देने मित्र और परिचित आये। मैंने सुबह मिठाई मँगा ली थी। मैंने भूल की। मिलने वालों में चार-पाँच, मिठाई का डिब्बा लाये। इतने में सब निबट गये। अगले साल मैंने सिर्फ तीन-चार के लिए मिठाई रखी। पाँचवें सज्जन मिठाई का बड़ा डिब्बा लेकर आये। फिर हर तीन-चार के बाद कोई मिठाई लिए आता। मिठाई बहुत बच गई। चाहता तो बेच देता और मुआवजा वसूल कर लेता। ऐसा नहीं किया। परिवार और पड़ोस के बच्चे दो-तीन दिन खाते रहे। इस साल कुछ विशेष हो गया। जन्मदिन का प्रचार हफ्ता भर पहले से हो गया। सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण के घण्टों पहले उसके ‘वेद’ लग जाते हैं, ऐसा पण्डित बताते हैं। ‘वेद’ के समय लोग कुछ नहीं खाते। वेद यानी वेदना। राहु, केतु के दाँत गड़ते होंगे न। मेरा खाना-पीना तो नहीं छूटा वेद की अवधि में, पर आशंका रही कि इस साल क्या करने वाले हैं यार लोग। प्रगतिशील लेखक संघ के संयोजक जयप्रकाश पाण्डे आये और बोले-इक्कीस तारीख की शाम को एक आयोजन रखा है। उसमें एक चित्र प्रदर्शनी है और आपके साहित्य पर भाषण हैं। गया से डॉ. सुरेन्द्र चौधरी आ रहे हैं। अन्त में आपकी कहानी ‘सदाचार का तावीज’ का नाटक है। मैंने कहा-नहीं, नहीं कोई आयोजन मत करो। मैं नहीं चाहता। जयप्रकाश पाण्डे ने कहा-मैं आपकी मंजूरी नहीं ले रहा हूं, आपको सूचित कर रहा हूँ। आपको रोकने का अधिकार नहीं है। आपने लिखा और उसे प्रकाशित करवा दिया। अब उस पर कोई भी बात कर सकता है। इसी तरह आपके जन्मदिन को कोई भी मना सकता है। उसे आप कैसे और क्यों रोकेंगे ? वहीं बैठे दूसरे मित्र ने कहा-हो सकता है, बम्बई में हाजी मस्तान आपके जन्मदिन का उत्सव कर रहे हों। आप क्या उन्हें रोक सकते हैं ? तर्क सही था। मेरे लिखे पर मेरा सिर्फ रायल्टी का अधिकार है। मेरा जन्मदिन भी मेरा नहीं है और मेरा मृत्यु-दिवस भी मेरा नहीं होगा। यों उत्सव स्वागत, सम्मान का अभ्यस्त हूँ। फूलमालाएँ भी बहुत पहनी हैं। गले पड़ी माला की ताकत भी जानता हूँ। अगर शेर के गले में किसी तरह फूलमाला डाल दी जाय, तो वह हाथ जोड़कर कहेगा-मेरे योग्य सेवा ? आशा है अगले चुनाव में आप मुझे ही मत देंगे। आकस्मिक सम्मान भी मेरा हुआ। शहर में राज्य तुलसी अकादमी का तीन दिनों का कार्यक्रम था। विद्वानों के भाषण होने थे। जलोटा को तुलसीदास के पद गाने के लिए बुलाया गया था। पहले दिन सरकारी अधिकारी मेरे पास आये। कार्यक्रम की बात की। फिर बोले-कल सुबह पण्डित विष्णुकान्त शास्त्री और पण्डित राममूर्ति त्रिपाठी पधार रहे हैं। विष्णुकान्त शास्त्री कलकत्ता वाले से मेरी कई बार की भेंट है। त्रिपाठी जी के भी अच्छे सम्बन्ध हैं। अधिकारी ने कहा-वे आपसे भेंट करेंगे ही। उन्हें कब ले आऊँ ? मैंने कहा-कभी भी। तीनेक बजे ले आइये। दूसरे दिन सबसे पहले जलोटा आये। फिर तीन प्रेस फोटोग्राफर आये। मैं समझा ये हम लोगों का चित्र लेंगे। फिर पण्डित शास्त्री और पण्डित त्रिपाठी कमरे में घुसे। मेरे मुँह से निकला-

सेवन सदन स्वामि आगमनू
मंगल करन अमंगल हरनू

शास्त्री ने कहा-नहीं बन्धु, बात यों है-
एक घड़ी आधी घड़ी आधी में पुनि आध।
तुलसी संगत साधु की हरै कोटि अपराध।।

हम बात करने लगे। इतने में वही सरकारी अधिकारी न जाने कहाँ से एक थाली लेकर मेरे पीछे से प्रवेश कर गये। थाली में नारियल, हल्दी, कुंकुम, अक्षत और रामचरितमानस की पोथी थी। पुष्पमाला भी थी। मैं समझा कि विष्णुकान्त शास्त्री का सम्मान होना है। मैंने कहा बहुत उचित है। शास्त्री कब-कब कलकत्ता से आते हैं। उनका सम्मान करना चाहिए। शास्त्री जी बोले-नहीं महाराज, आपका सम्मान करना है। वे लोग चकित रह गये जब मैंने उसी क्षण अपना सिर टीका करने के लिए आगे बढ़ा दिया। वे आशा कर रहे थे कि मैं संकोच जताऊँगा, मना करूँगा,। मैंने टीका करा लिया, माला पहन ली, नारियल और पोथी ले ली। दूसरे दिन एक अखबार में छपा-तुलसी अकादमी वाले दोपहर को परसाई जी के घर में घुस गये और उनका सम्मान कर डाला।
ऐसी बलात्कार की खबरें छपती हैं। इक्कीस तारीख की शाम को एक समारोह मेरी अनुपस्थिति में हो गया। भाषण, चित्र-प्रदर्शनी, नाटक।

दूसरे दिन जन्मदिन की सुबह थी। मैं सोकर उठा ही था कि पड़ोस में रहने वाले एक मित्र दम्पत्ति आ गये। मुझे गुलदस्ता भेंट किया और एक लिफाफा दिया। बोले-हैप्पी बर्थडे। मैनी हैप्पी रिटर्न्स। मैंने सुना है, मातमपुर्सी करने गये एक सज्जन के मुँह से निकल पड़ा था-मैनी हैप्पी रिटर्न्स। कम अंगरेजी जानने से यही होता है। एक नीम इंगलिश भारतीय की पत्नी अस्पताल में भरती थी। उनकी एंग्लो-इंडियन पड़ोसिन ने पूछा-मिस्टर वर्मा, हाऊ इज योर वाइफ ? वर्मा ने कहा-आन्टी, समथिंग इज़ वैटर दैन नथिंग ! गुलदस्ता मैंने टेबल पर रख दिया। उसके बगल में लिफाफा रख दिया। खोला नहीं। समझा, शुभकामना का कार्ड होगा। पर मैंने लक्ष्य किया कि दम्पति का मन बातचीत में नहीं लग रहा है। वे चाहते हैं कि मैं लिफाफा खोलूँ। मैंने खोला। उसमें से एक हजार एक रुपये के नोट निकले। मैंने इसकी क्या जरूरत है’ जैसे फालतू वाक्य बोले बिना रुपये रख लिये। सोचा-इसी को ‘गुड मार्निग’ कहते हैं। आगे सोचा कि अगले जन्मदिन पर अखबार में निवेदन प्रकाशित करवा दूँगा कि भेंट में सिर्फ रुपये लायें। पुर्नविचार किया। ऐसा नहीं छपाऊँगा। हो सकता है कोई नहीं आए। उपहारों का ऐसा होता है कि आपने जो टेबिल लैम्प किसी को शादी में दिया है वही घूमता हुआ किसी शादी में आपके पास लौट आता है। रात तक मित्र, शुभचिन्तक, अशुभचिन्तक आते रहे। कुछ लोग घर में बैठे कह रहे होंगे-साला, अभी जिन्दा है !

क्या किया ? एक साल और जी लिए तो कौन सा पराक्रम किया ? नहीं, वक्त ऐसा है कि एक दिन भी जी लेना पराक्रम है। मेरे एक मित्र ने रिटायर होने के दस साल पहले अपनी तीन लड़कियों की शादी कर डाली। मैंने कहा-तुम दुनिया के प्रसिद्ध पराक्रमियों में हो। भीम वीर थे। महापराक्रमी थे। पर उन्हें तीन लड़कियों की शादी करनी पड़ती, तो चूहे हो जाते। जिजीविषा विकट शक्ति होती है। खुशी से भी जीते हैं और रोते हुए भी जीते हैं। प्रसिद्ध इंजीनियर डॉ. विश्वेसरैया सौ साल से ऊपर जिये। उनके सौवें जन्मदिन पर पत्रकार ने उनसे बातचीत के बाद कहा-अगले जन्मदिन पर आपसे मिलने की आशा करता हूँ। विश्वेसरैया ने जवाब दिया-क्यों नहीं मेरे युवा मित्र ! तुम बिल्कुल स्वस्थ हो। यह उत्साह से जीना हुआ। और वे बुढ़ऊ भी जीते हैं, जिनकी बहुएँ सुनाकर कहती हैं-भगवान अब इनकी सुन क्यों नहीं लेते ? जिन्दगी के रोग का और मोह का कोई इलाज नहीं। मृत्टु-भय से आदमी को बचाने के लिए तरह-तरह की बातें कही जाती हैं। कहते हैं-शरीर मरता है, आत्मा तो अमर है। व्यास ने कृष्ण से कहलाया है-
जैसे आदमी पुराने वस्त्र त्याग कर नये ग्रहण करता है, वैसे ही आत्मा एक शरीर छोड़कर दूसरा शरीर धारण कर लेती है। मगर ऐसी सूक्ष्म आत्मा को क्या चाटें ? ऐसी आत्मा न खा-पी सकती है, न भोग कर सकती है, न फिल्म देख सकती है। नहीं, मस्तिष्क का काम बन्द होते ही चेतना खत्म हो जाती है। मगर-

हम को मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन,
दिल को खुश रखने को ग़ालिब ये ख़्याल अच्छा है।

ग़ालिब के मन पर मौत छाई रहती थी। कई शेरों में मौत है। पता नहीं ऐसा क्यों है। शायद दुःखों के कारण हो।
ग़मे हस्ती का असद क्या हो जुजमर्ग, इलाज
शमअ हर रंग में जलती है, सहर होने तक
क़ैदेहयात बन्दे गम असल में दोनों एक हैं
मौत से पहले आदमी ग़म से निजात पाये क्यों।

रवीनद्रनाथ ने लिख दिया था-
मीत मेरे दो विदा मैं जा रहा हूँ
सभी के चरणों नमन में जा रहा हूँ
यार की ये कुंजियाँ लो तुम सँभालो
अब नहीं घर-बार मेरा तुम सँभालो लो
आ रही है टेर अब मैं जा रहा हूँ

कबीरदास ने शान्ति से कहा-
यह चादर सुर नर मुनि ओढ़ी
मूरख मैली कीन्हीं
दास कबीर जतन से ओढ़ी
जस की तस धर दीन्ही
चदरिया झीनी रे बीनी

इस सबके बावजूद जीवन की जय बोली जाती रहेगी।

लेखक

  • हरिशंकर परसाईजी का जन्म 22 अगस्त, सन् 1924 ईस्वी को मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिला के इटारसी के निकट जमावी नामक ग्राम में हुआ था। परसाई जी की प्रारम्भिक शिक्षा से लेकर स्नातक स्तर तक की शिक्षा मध्य प्रदेश में ही हुई और नागपुर विश्वविद्यालय से इन्होंने हिन्दी में एम० ए० की परीक्षा उत्तीर्ण की। 18 वर्ष की उम्र में इन्होंने जंगल विभाग में नौकरी की। खण्डवा में 6 माह तक अध्यापन कार्य किया तथा सन् 1941 से 1943 ई० तक 2 वर्ष जबलपुर में स्पेंस ट्रेनिंग कालेज में शिक्षण कार्य किया। सन् 1943 ई० में वहीं मॉडल हाईस्कूल में अध्यापक हो गये। सन् 1952 ई० में इन्होंने सरकारी नौकरी छोड़ दी। वर्ष 1953 से 1957 ई० तक प्राइवेट स्कूलों में नौकरी की। सन् 1957 ई० में नौकरी छोड़कर स्वतन्त्र लेखन की शुरुआत की। कलकत्ता के ललित कला महाविद्यालय से सन् 1960 ई० में डिप्लोमा किया। अध्यापन-कार्य में ये कुशल थे, किन्तु आस्था के विपरीत अनेक बातों का अध्यापन इनको यदा-कदा खटक जाता था। 10 अगस्त, सन् 1995 ईस्वी को इनका निधन हो गया। हरिशंकर परसाई का साहित्यिक परिचय साहित्य में इनकी रुचि प्रारम्भ से ही थी। अध्यापन कार्य के साथ-साथ ये साहित्य सृजन की ओर मुड़े और जब यह देखा कि इनकी नौकरी इनके साहित्यिक कार्य में बाधा पहुँचा रही है तो इन्होंने नौकरी को तिलांजलि दे दी और स्वतंत्र लेखन को ही अपने जीवन का उद्देश्य निश्चित करके साहित्य-साधना में जुट गये। इन्होंने जबलपुर से ‘वसुधा’ नामक एक साहित्यिक मासिक पत्रिका भी निकाली जिसके प्रकाशक व संपादक ये स्वयं थे। वर्षों तक विषम आर्थिक परिस्थिति में भी पत्रिका का प्रकाशन होता रहा और बाद में बहुत घाटा हो जाने पर इसे बन्द कर देना पड़ा। सामयिक साहित्य के पाठक इनके लेखों को वर्तमान समय की प्रमुख हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ते हैं। परसाई जी नियमित रूप से ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’, ‘धर्मयुग’ तथा अन्य पत्रिकाओं के लिए अपनी रचनाएँ लिखते रहे। परसाई जी हिन्दी व्यंग्य के आधार स्तम्भ थे। इन्होंने हिन्दी व्यंग्य को नयी दिशा प्रदान की। ‘विकलांग श्रद्धा का दौर’ के लिए इन्हें ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया। फ्रांसीसी सरकार की छात्रवृत्ति पर इन्होंने पेरिस-प्रवास किया। ये उपन्यास एवं निबन्ध लेखन के बाद भी मुख्यतया व्यंग्यकार के रूप में विख्यात रहे। हरिशंकर परसाई की प्रमुख रचनाएं परसाई जी की प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं— कहानी संग्रह — 1. हँसते हैं, रोते हैं, 2. जैसे उनके दिन फिरे आदि। उपन्यास — 1. रानी नागफनी की कहानी, 2. तट की खोज आदि। निबंध-व्यंग्य — 1. तब की बात और थी, 2. भूत के पाँव पीछे, 3. बेईमान की परत, 4. पगडंडियों का जमाना, 5. सदाचार की तावीज, 6 शिकायत मुझे भी है, 7. और अन्त में आदि। परसाई जी द्वारा रचित कहानी, उपन्यास तथा निबंध व्यक्ति और समाज की कमजोरियों पर चोट करते हैं। समाज और व्यक्ति में कुछ ऐसी विसंगतियाँ होती हैं जो जीवन को आडम्बरपूर्ण और दूभर बना देती हैं। इन्हीं विसंगतियों का पर्दाफाश परसाई जी ने किया है। कभी-कभी छोटी-छोटी बातें भी हमारे व्यक्तित्त्व को विघटित कर देती हैं। परसाई जी के लेख पढ़ने के बाद हमारा ध्यान इन विसंगतियों और कमजोरियों की ओर बरबस चला जाता है। हरिशंकर परसाई की भाषा शैली परसाई जी एक सफल व्यंग्यकार हैं और व्यंग्य के अनुरूप ही भाषा लिखने में कुशल हैं। इनकी रचनाओं में भाषा के बोलचाल के शब्दों एवं तत्सम तथा विदेशी भाषाओं के शब्दों का चयन भी उच्चकोटि का है। अर्थवत्ता की दृष्टि से इनका शब्द चयन अति सार्थक है। लक्षणा एवं व्यंजना का कुशल उपयोग इनके व्यंग्य को पाठक के मन तक पहुँचाने में समर्थ रहा है। इनकी भाषा में यत्र-तत्र मुहावरों एवं कहावतों का प्रयोग हुआ है, जिससे इनकी भाषा में प्रवाह आ गया है। हरिशंकर परसाई जी की रचनाओं में शैली के विभिन्न रूपों के दर्शन होते हैं— व्यंग्यात्मक शैली — परसाई जी की शैली व्यंग्य प्रधान है। इन्होंने जीवन के विविध क्षेत्रों में व्याप्त विसंगतियों पर प्रहार करने के लिए व्यंग्य का आश्रय लिया है। सामाजिक तथा राजनीतिक फरेबों पर भी इन्होंने अपने व्यंग्य से करारी चोट की है। इस शैली की भाषा मिश्रित है। सटीक शब्द चयन द्वारा लक्ष्य पर करारे व्यंग्य किए गए हैं। विवरणात्मक शैली — प्रसंगवश, कहीं-कहीं, इनकी रचनाओं में शैली के इस रूप के दर्शन होते हैं। इस शैली की भाषा मिश्रित है। उद्धरण शैली — अपने कथन की पुष्टि के लिए इन्होंने अपनी रचनाओं में शैली के इस रूप का उन्मुक्त भाव से प्रयोग किया है। इन्होंने रचनाओं में गद्य तथा पद्य दोनों ही उद्धरण दिये हैं। इस शैली के प्रयोग से इनकी रचनाओं में प्रवाह उत्पन्न हो गया है। सूक्ति कथन शैली — सूक्तिपरक कथनों के द्वारा परसाई जी ने विषय को बड़ा रोचक बना दिया है। कहीं इनकी सूक्ति तीक्ष्ण व्यंग्य से परिपूर्ण होती है तो, कहीं विचार और संदेश लिए हुए होती है।

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