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पिरामिण की हँसी/धर्मवीर भारती

वह कला के प्रति जीवन का पहला विद्रोह था। मिस्र के राजदूत ने घूम-घूमकर देश- देश में घोषणा की – “मिस्र की राजकुमारी कला को कृत्रिम और नश्वर समझती है । उसके मत में जीवन की यथार्थ बाह्य रूपरेखा कला से अधिक महत्वपूर्ण है। उसका विश्वास है कि कल्पना के सुकुमार उपासक, कलाकार जीवन का यथार्थ चित्रण करने में असमर्थ होते हैं। और इसीलिए उसकी प्रतिज्ञा है कि जो भी कलाकार उसके रूप की यथार्थ प्रतिमा का अंकन कर सकेगा, उसके चरणों पर वह अपना वैभव और अपना यौवन अर्पित कर देगी।”

सारे संसार की निगाहें एक बार मिस्र की ओर उठ गयीं। घोषणा कुतूहल से सुनी गयी। कलाकार प्रतिमांकन के लिए आवश्यक साधन और सुडौल प्रस्तरखण्डों को लेकर मिस्र की ओर चल पड़े।

पहले कलाकार का राजकुमारी ने स्वागत किया। वह आया। उसने छेनी उठायी। राजकुमारी ने मुख का आवरण उलट दिया। बादल के हटने पर सुनहली धूप छिटक गयी। कलाकार सिहर उठा। राजकुमारी मुसकरा पड़ी। वह निष्प्रभ हो गया। उसकी छेनी लक्ष्य भ्रष्ट हो गयी। राजकुमारी हँस पड़ी। कलाकार हार गया।

दूसरा आया, तीसरा आया। वर्षों बीत गये। मीलों तक धरती प्रस्तरखण्डों से ढँक गयी। राजकुमारी प्रत्येक की हार पर मुसकराती, जलपात्र में अपने रूप की प्रतिच्छाया देखती, बिखरी हुई अलकें सम्हालती, भाल के स्वेदबिन्दु पोंछती और सदर्प अपने सिंहासन पर आकर बैठ जाती ।

और एक दिन प्रतिहारी ने सूचना दी- “भारत से एक कलाकार आया है !”

“आने दो ?” राजकुमारी बोली ।

कलाकार ने प्रवेश किया। भौंरों-सी काली लहराती हुई अलकों पर असावधानी से रखा हुआ उष्णीष, भूमि तक झूमता हुआ नीला रेशमी उत्तरीय चुना हुआ पीत अधोवस्त्र और सावधानी से बँधा हुआ अरुण कटिवस्त्र । आम की फाँक की भाँति आकर्षक, विशाल भोले नयन और सारंग-सी मतवाली चाल ।

वह आगे बढ़ा और एक लिपटा हुआ अर्ध-शुष्क कमलपत्र राजकुमारी के चरणों के समीप रख दिया। राजकुमारी ने उठाया। ओस की बूँदों में पराग घोलकर मृणाल की तूलिका से राजकुमारी का एक रेखा-चित्र बनाया गया था। आड़ी तिरछी, उलझी हुई रेखाएँ जिनमें उसके रूप की तो केवल झलक थी, लेकिन उन रेखाओं की हर वक्रता में राजकुमारी का दर्प बल खाकर इठला उठता था। राजकुमारी का गर्व हर अभाव में मुसकरा उठता था। वह राजकुमारी का चित्र नहीं भावछाया थी ।

राजकुमारी ने देखा और वह मुसकरा पड़ी।

“यह तो भावछाया है : क्या तुम यथार्थ प्रतिमा का निर्माण कर सकोगे युवक ? क्या तुम भारत से आवश्यक प्रस्तरखण्ड लाये हो ?”

“क्या मूर्ति के लिए पत्थर ? विवशता थी राजकुमारी । भारत में पत्थर हैं ही कहाँ ? जितने पत्थर थे भी कलाकारों ने मूर्ति निर्माण के लिए उन्हें स्पर्श किया, और कला के स्पर्श से सब पत्थर देवता हो गये, राजकुमारी !”

राजकुमारी मुसकरायी ।

“ओह ! तुम तो शिल्पी ही नहीं कवि भी हो। लेकिन कला का गुणगान मेरे सम्मुख कर रहे हो। मैं जिसके एक भ्रूभंग से आहत होकर कितने युवक कवि बन गये हैं। जिसकी छवि की एक झलक का अंकन करने में कितने कलाकार असफल होकर चले गये और जिनके अवशिष्ट पत्थरों से मिस्र की धरती ढँक गयी है।”

“वे कलाकार न थे राजकुमारी ! वे दर्प की प्रतिमा के दुर्बल उपासक थे। उन्होंने यथार्थ की सीमाओं में कला को बाँध देना चाहा था और वे असफल होकर चले गये । भारत का कलाकार जीवन को, यथार्थ को, बाह्य रूप को, कला की, कल्पना की, आदर्श की सीमाओं में बाँधता है।”

“हूँ ! शायद इसलिए भारत का कलाकार पर्वतों, सागरों, मरुस्थलों को पार कर रूप के चरणों में कला का फूल चढ़ाने मिस्र आया है – ” राजकुमारी ने व्यंग्य किया ।

“कदापि नहीं ?” कलाकार ने उत्तर दिया- “मैं प्रणय-याचना के उद्देश्य से नहीं आया हूँ। मैं तुम्हारे लिए भारत से एक सन्देश लाया हूँ। वह जीवन जो यथार्थ के दर्प में उलझकर रह जाता है, परिवर्तन उसे नष्ट कर देता है। वह जीवन जो कला की असीम सीमाओं में बँधकर चलता है, अमर हो जाता है राजकुमारी ! और देशों के कलाकार तुम्हारे रूप की छाया का चित्रण करने आये थे, मैं तुम्हारी छाया में रूप भरने आया हूँ।”

“मेरी छाया में रूप !” राजकुमारी हँसी, “मुझे रूप की कमी नहीं है कलाकार ! रूप के पाश में जकड़कर ही मैं सहस्रों कलाकारों के अभिमान को चूर-चूर कर चुकी हूँ ।”

कलाकार पल भर चुप रहा और फिर बोला- “एक कलाकार की हैसियत से मुझे इस पर लज्जा आती है राजकुमारी ! अच्छा, इन्हीं अवशिष्ट पत्थरों से मैं कला का वह शाश्वत निर्माण करूँगा जिसे देखकर संसार आश्चर्यचकित रह जायेगा। जिस दिन तुम्हारा रूप चूर-चूर होकर बिखर जायेगा और गर्म रेगिस्तानी हवा के झोंके उसे अनन्त शून्य में बिखरा देंगे उस दिन भी मेरा निर्माण गौरव से शीश उन्नत कर जीवन की नश्वरता पर अमर अभिमान की हँसी हँसेगा- ”

और धीरे-धीरे एक दिन वह निर्माण पूरा हो गया। वह संसार का उच्चतम भव्य निर्माण – पिरामिड । कलाकार ने राजकुमारी को आमन्त्रित किया – पिरामिड की कला का निरीक्षण करने के लिए उच्च भव्य निर्माण, जिसके आधार के समीप एक अन्तःप्रकोष्ठ था। राजकुमारी ने कक्ष में प्रवेश किया। सामने एक चिकना पत्थर था । राजकुमारी ने उसमें झुककर अपना प्रतिबिम्ब देखा । ऊपर एक छेद से भूली भटकी हुई एक सूर्य किरण झाँकने लगी जिसकी प्रकाश-रेखा में राजकुमारी को लगा जैसे उसके कुछ बाल सफेद हो गये हैं। वह हँसी और कलाकार से बोली- “तुम्हारी कला त्रुटिपूर्ण है कलाकार ! उसमें तो मेरे केश श्वेत दीखते हैं !”

“हाँ राजकुमारी ! कला को कल्पना के दर्पण में यथार्थ को अपनी सभी त्रुटियाँ दीखने लगती हैं और वह आहत होकर विद्रोह कर उठता है- कला त्रुटिपूर्ण है। क्या तुम्हारा रूप अमर रहेगा ? जिस दिन तुम्हारे कोमल कपोलों पर श्वेत अलकें झूलेंगी, जिस दिन तुम्हारे जीवन पर वृद्धावस्था का अभिशाप छा जायेगा, उस दिन तुम सोचोगी कि तुमने जीवन में क्या किया ? केवल रूप के दर्प में मनुष्यों के जीवन को कुचलती रहीं। एक दिन भी तुमने हृदय की प्यास नहीं बुझायी । हमेशा भावना की भूख को झुठलाती रहीं। तुमने अपने जीवन से कला का, कविता का, प्रेम का बहिष्कार कर दिया और एक दिन कला, कविता, प्रेम तुमसे प्रतिशोध लेंगे ?”

“ कलाकार ?” राजकुमारी चीख उठी- “मैं हार गयी युवक ! मैं तुम्हारे सामने हार मानती हूँ। मेरा वैभव, मेरा यौवन, मेरा रूप, मेरा राज्य, कला के, तुम्हारे चरणों पर अर्पित है ।”

कलाकार स्तब्ध रह गया। क्षण भर असमंजस में रहा और उसके बाद सहसा बोल उठा, “मुझे अस्वीकार है !”

“नहीं ! नहीं ! कलाकार इतना भीषण प्रतिशोध न लो। मानती हूँ मैं जीवन भर पत्थर रही पर तुम तो पत्थर को स्पर्श कर देवता बना देना जानते हो न !”

“ठीक है राजकुमारी ! पर मेरे कन्धों पर, कला के कन्धों पर, मानवता का उत्तरदायित्व है। किसी एक व्यक्तित्व की सीमाओं में बँधकर मैं कला की हत्या नहीं करना चाहता ! विदा राजकुमारी, मेरा कार्य समाप्त हो गया – ”

राजकुमारी ने क्षण भर जाते हुए कलाकार की ओर देखा और उसके बाद चोट खायी हुई नागिन की तरह तड़पकर बोली – “यह मेरी पहली पराजय थी- लेकिन यह पराजय मुझे विजय की शाश्वत चेतना देगी। मैं प्रेम की याचना नहीं करूँगी निष्ठुर ! मैंने रूप की लहरों के सहारे जीवन की नाव खेई है और रूप के नष्ट होने के पहले ही मैं रूप की धारा में अपने जीवन को डुबो दूंगी !

उसने अपनी उँगली से अँगूठी निकाली। अँगूठी का हीरा रंग और रूप की किरणों से जगमग हो रहा था। वह अँगूठी ओठों तक ले गयी और उसका जहर चूस लिया । उसके ओठ नीले पड़ गये और वह सदा के लिए सो गयी ।

लेकिन मिस्र के निवासी बोले – “हमारी राजकुमारी का रूप अजेय रहा है, अजेय रहेगा।”

वे वैज्ञानिक रसायन लाये । राजकुमारी का शव रसायनों में लपेटकर पिरामिड के अन्तःकक्ष में रख दिया गया। वे बोले – “जब तक कला के इस विशिष्ट निर्माण, पिरामिड का अस्तित्व रहेगा, तब तक हमारी राजकुमारी का रूप भी शेष रहेगा। कला अमर है तो रूप भी नश्वर नहीं, हमारी राजकुमारी मरकर भी कला से जीत गयीं !”

एक कलाकार और उसकी पत्नी भ्रमण करते हुए पिरामिड के अन्तःकक्ष में आये। उन्होंने राजकुमारी की ममी को देखा और देखा पिरामिड की ऊँचाई को ।

“कितना भव्य निर्माण है ? कलाकार ने कहा ।

“कितना मादक रूप है ?” उसकी पत्नी ने कहा।

“इसके निर्माण में कला की कितनी महान चेतना लगी होगी ?”

“और उस चेतना के मूल में यथार्थ रूप की कितनी सशक्त प्रेरणा रही होगी ?”

“यथार्थ रूप की प्रेरणा ! कला के शाश्वत निर्माण के सामने उसका क्या महत्व ! यथार्थ नश्वर होता है, एक युगीन होता है। कला युग-युग की होती है, अमर होती है ?

कलाकार ने आगे बढ़कर ममी को स्पर्श किया। वह राख की तरह चूर-चूर होकर बिखर गयी। पत्नी चीख पड़ी। “कहाँ है यथार्थ ! बस इतनी-सी सत्ताशीलता पर उसकी तुलना तुम कला के अमर निर्माण से कर रही थीं- ”

वह चुप हो गयी। आज युगों के संघर्ष के बाद भी कला जीत गयी । कलाकार हँस पड़ा और पत्थरों में वह हँसी गूँज गयी । कला का शाश्वत निर्माण – पिरामिड प्रतिध्वनि दुहराते हुए हँस पड़ा- अपनी विजय के गौरव पर ।

लेखक

  • धर्मवीर भारती

    धर्मवीर भारती का जन्म उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद जिले में सन 1926 में हुआ था। इनके बचपन का कुछ समय आजमगढ़ व मऊनाथ भंजन में बीता। इनके पिता की मृत्यु के बाद परिवार को भयानक आर्थिक संकट से गुजरना पड़ा। इनका भरण-पोषण इनके मामा अभयकृष्ण ने किया। 1942 ई० में इन्होंने इंटर कॉलेज कायस्थ पाठशाला से इंटरमीडिएट किया। 1943 ई० में इन्होंने प्रयाग विश्वविद्यालय से बी०ए० पास की तथा 1947 में (इन्होंने) एम०ए० (हिंदी) उत्तीर्ण की। NCERT Solutions for Class 12 Hindi Aroh Chapter 13 – गद्य भाग-काले मेघा पानी दे NCERT Solutions for Class 12 Hindi Aroh Chapter 13 – गद्य भाग-काले मेघा पानी दे provide comprehensive guidance and support for students studying Hindi Aroh in Class 12. These NCERT Solutions empower students to develop their writing skills, enhance their language proficiency, and understand official Hindi communication. Class 12 Hindi NCERT Book Solutions Aroh Chapter 13 – गद्य भाग-काले मेघा पानी दे लेखक परिचय जीवन परिचय-धर्मवीर भारती का जन्म उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद जिले में सन 1926 में हुआ था। इनके बचपन का कुछ समय आजमगढ़ व मऊनाथ भंजन में बीता। इनके पिता की मृत्यु के बाद परिवार को भयानक आर्थिक संकट से गुजरना पड़ा। इनका भरण-पोषण इनके मामा अभयकृष्ण ने किया। 1942 ई० में इन्होंने इंटर कॉलेज कायस्थ पाठशाला से इंटरमीडिएट किया। 1943 ई० में इन्होंने प्रयाग विश्वविद्यालय से बी०ए० पास की तथा 1947 में (इन्होंने) एम०ए० (हिंदी) उत्तीर्ण की। तत्पश्चात इन्होंने डॉ० धीरेंद्र वर्मा के निर्देशन में ‘सिद्ध-साहित्य’ पर शोधकार्य किया। इन्होंने ‘अभ्युदय’ व ‘संगम’ पत्र में कार्य किया। बाद में ये प्रयाग विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्राध्यापक के पद पर कार्य करने लगे। 1960 ई० में नौकरी छोड़कर ‘धर्मयुग’ पत्रिका का संपादन किया। ‘दूसरा सप्तक’ में इनका स्थान विशिष्ट था। इन्होंने कवि, उपन्यासकार, कहानीकार, पत्रकार तथा आलोचक के रूप में हिंदी जगत को अमूल्य रचनाएँ दीं। इन्हें पद्मश्री, व्यास सम्मान व अन्य अनेक पुरस्कारों से नवाजा गया। इन्होंने इंग्लैंड, जर्मनी, थाईलैंड, इंडोनेशिया आदि देशों की यात्राएँ कीं। 1997 ई० में इनका देहांत हो गया। रचनाएँ – इनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं – कविता-संग्रह – कनुप्रिया, सात-गीत वर्ष, ठडा लोहा। कहानी-संग्रह-बंद गली का आखिरी मकान, मुर्दो का गाँव, चाँद और टूटे हुए लोग। उपन्यास-सूरज का सातवाँ घोड़ा, गुनाहों का देवता गीतिनाट्य – अंधा युग। निबंध-संग्रह – पश्यंती, कहनी-अनकहनी, ठेले पर हिमालय। आलोचना – प्रगतिवाद : एक समीक्षा, मानव-मूल्य और साहित्य। एकांकी-संग्रह – नदी प्यासी थी। साहित्यिक विशेषताएँ – धर्मवीर भारती के लेखन की खासियत यह है कि हर उम्र और हर वर्ग के पाठकों के बीच इनकी अलग-अलग रचनाएँ लोकप्रिय हैं। ये मूल रूप से व्यक्ति स्वातंत्र्य, मानवीय संबंध एवं रोमानी चेतना के रचनाकार हैं। तमाम सामाजिकता व उत्तरदायित्वों के बावजूद इनकी रचनाओं में व्यक्ति की स्वतंत्रता ही सर्वोपरि है। इनकी रचनाओं में रुमानियत संगीत में लय की तरह मौजूद है। इनकी कविताएँ कहानियाँ उपन्यास, निबंध, गीतिनाट्य व रिपोर्ताज हिंदी साहित्य की उपलब्धियाँ हैं। इनका लोकप्रिय उपन्यास ‘गुनाहों का देवता’ एक सरस और भावप्रवण प्रेम-कथा है। दूसरे लोकप्रिय उपन्यास ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ पर हिंदी फिल्म भी बन चुकी है। इस उपन्यास में प्रेम को केंद्र में रखकर निम्न मध्यवर्ग की हताशा, आर्थिक संघर्ष, नैतिक विचलन और अनाचार को चित्रित किया गया है। स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद गिरते हुए जीवन-मूल्य, अनास्था, मोहभंग, विश्व-युद्धों से उपजा हुआ डर और अमानवीयता की अभिव्यक्ति ‘अंधा युग’ में हुई है। ‘अंधा युग’ गीति-साहित्य के श्रेष्ठ गीतिनाट्यों में है। मानव-मूल्य और साहित्य पुस्तक समाज-सापेक्षिता को साहित्य के अनिवार्य मूल्य के रूप में विवेचित करती है। भाषा-शैली – भारती जी ने निबंध और रिपोर्ताज भी लिखे। इनके गद्य लेखन में सहजता व आत्मीयता है। बड़ी-से-बड़ी बात को बातचीत की शैली में कहते हैं और सीधे पाठकों के मन को छू लेते हैं। इन्होंने हिंदी साप्ताहिक पत्रिका, धर्मयुग, के संपादक रहते हुए हिंदी पत्रकारिता को सजा-सँवारकर गंभीर पत्रकारिता का एक मानक बनाया। वस्तुत: धर्मवीर भारती का स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद के साहित्यकारों में प्रमुख स्थान है।

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