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तारा और किरण/धर्मवीर भारती

वह विस्मित होकर रुक गया। नील जलपटल की दीवारों से निर्मित शयन-कक्ष-द्वार पर झूलती फुहारों की झालरें और उन पर इंद्रधनुष की धारियां। रंग-बिरंगी आभा वाली कोमल शय्या और उस पर आसीन स्वच्छ और प्रकाशमयी वरुणबालिका। उसका गीत रुक गया और वह देखने लगा, सौंदर्य की वह नवनीत ज्योति…
वरुणा आगंतुक की ओर एक कुतूहल की दृष्टि डालकर सजग हो गई। सुरमई बादल के आंचल को उसने कंधों पर डाल लिया और बैठ गई। “उर्मि, क्या यही तुम्हारी नवीन खोज है?’ आगंतुक की ओर इंगित करते वरुणा बोली। “हां रानी’ साथ की मत्स्यबाला बोली।
“कल संध्या को अंतिम किरणें बटोरने हम लोग स्थल तट पर गई थीं, रानी? किंतु सहसा जल-बीचियों के नृत्य के साथ स्वर-लहरियां नृत्य कर उठीं- उनमें कुछ अभिनव आकर्षण था। हम लोग किरणें बटोरना भूल गईं और उन्हीं स्वरों में बंधकर खिंची चली गईं एक सैकतराशि के पास जहां यह वंशी बजा रहा था और देख रहा था अस्तप्राय सूर्य की ओर-हम लोग मंत्रमुग्ध-सी खड़ी रहीं। स्तम्भित, मौन, हमारी चेतनाएं जैसे इसके स्वरों के साथ बिखरती जा रही थीं- इसने हमको बांध लिया था अपने स्वरों में…जब हमें चेतना हुई तो देखा गायक अचेत था। हमें वह बंदी बना चुका था। और हम उसे बंदी बना लायीं। रानी की सखियों पर भ्रम का आवरण डालने के अपराध में इसे दंड मिलना चाहिए।’
“अच्छा तुम जाओ। मैं बाद में इसका निर्णय करूंगी।’आगंतुक मौन था। उसे यह सभी कार्य मायाजाल प्रतीत हो रहा था। दिवस के घनघोर श्रम के बाद बैठा था सागर तट पर अपनी वंशी लेकर अपने थके मन से विषाद का भार हलका करने और पहली ही फूंक के बाद उसने देखीं चारों ओर नाचती हुई मत्स्य-बालिकाएं। उनके शरीर से सौरभ की इतनी तीखी लहरें उड़ रही थीं कि वह बेसुध हो गया और नयन खुलने पर अपने को पाया एक विचित्र प्रासाद में, जिसके अंदर परियां संगीत-भरी गति से घूम रही थीं- उसके पश्चात ही अपने को पाया रानी के सम्मुख। विस्मय ने उसके शब्दों की शक्ति हर ली थी।
“लो इस पर आसीन हो अतिथि!’ रानी ने कोमल मृणाल-तंतुओं से बुना हुआ एक आसन डाल दिया- वह उस पर बैठ गया।”अतिथि!’ वरुणा बोली- “सुनती हूं इन नील लहरों के वितान के पार कोई दूसरा लोक है। जहां उन्मुक्त आकाश है, जहां स्वच्छंद पवन के झकोरे कलियों को अनजाने में चूम लेते हैं। जहां सूर्य की किरणें बादलों को सजल रंगों में रंग जाती हैं। तुम उसी लोक से आए हो न!'”हां, रानी!’ आगंतुक ने उत्तर दिया।
“अतिथि! मेरी कितनी इच्छा होती है कि मैं भी अपनी सखियों के साथ उस विशाल सिकता-राशि पर किरणें बुनने जाऊं, किंतु मुझ पर रानीत्व का अभिशाप है न। चिरकाल से इन जलप्राचीरों में सीमित रहने से अब मैं लहरों की तीव्रता सहने में असमर्थ हूं, अतिथि! फिर भी तुम्हें देखकर ही उस लोक के वैभव का अनुमान करूंगी। तुम मुझे वहां की कथाएं सुनाओगे न?'”अवश्य, पर रानी! तुम वहां की कथाओं को समझ न पाओगी। वहां का वातावरण, वहां के निवासी यहां से भिन्न हैं।'”तुम यहां भी उस वातावरण का निर्माण करो, अतिथि!- मेरी उत्कृष्ट इच्छा है उसे समझने की। मैं यहां की नित्यता से अब ऊब चुकी हूं। मुझे कुछ नवीन चाहिए-अतिथि! “मुझे स्वीकार है, रानी!’ रानी के उदास नेत्रों में बिजली चमक उठी-अतिथि ने अपनी वंशी उठाई और उसके गंभीर उच्छ्वासों से वातावरण भर गया। वरुण-लोक में चंचल लहरों पर परिवर्तन लहराने लगा था। संध्या होते ही सांझ की उदासी चीरकर गूंज उठता था आगंतुक की वंशी का जादूभरा-स्वर। एक रहस्यमयी तन्मयता-वरुण रानी बेसुध होकर वंशी के स्वरों पर नाच उठती थी। एक दिन जब जल-तितलियां फ़ीकी मुस्कानों से मुंदते फूलों से विदा मांग रही थीं तो अतिथि का मन उदासी से छा उठा। करुण स्वर में गुनगुना उठा एक अपना देश-गीत। धीरे-धीरे सारा वातावरण एक वेदना से सिसकने लगा।
रानी बोल उठी-“बस बंद करो, आगंतुक। तुम्हारा यह गीत जैसे एक विचित्र घुटते हुए वातावरण की सृष्टि कर रहा है- मुझसे यह सहा नहीं जाता।’आगंतुक धीमे से हंसकर बोला, “यह हमारे देश की कृषक बालाएं गाती हैं, रानी। जब बरसात की पहली घटाएं नन्ही बौछारों से उनके तन-मन को लहरा जाती हैं और उस सिहरन को अनुभव करनेवाली उनके प्रिय की विशाल भुजाएं उनसे दूर होती हैं तब उनके हृदय का प्रेम करुण स्वरों में उठता है-और तब हरे-भरे कुंजों में-पनघटों पर और खेतों में गूंज उठते हैं ये सिसकते गीत।’ “ठहरो अतिथि! तुम्हारे शब्द कभी-कभी बहुत गूढ़ हो जाते हैं। बरसात की घटाएं उमड़ती हैं, कृषक-बालाएं गाती हैं; ठीक! पर उनके मन का प्रेम उमड़ता है-क्या?’ वरुण बालिका ने प्रश्न किया।
आगंतुक-“प्रेम क्या? बड़ा गूढ़ प्रश्न है रानी! इसका उत्तर देना असंभव है।'”तब क्या मेरी जिज्ञासा अतृप्त ही रहेगी?’ रानी ने पूछा। “अच्छा रानी, क्या तुमने भी किसी उदासी भरी वेला में अनुभव किया है अपने हृदय में गूंजता हुआ कोई दर्दीला स्वर-क्या तुम्हारे हृदय में कभी अनजाने अकारण ही कोई पीड़ा कसक उठी है?'”अतिथि! तुम्हारी रहस्यमयी बातें मैं नहीं समझ पा रही हूं।’ रानी ने कहा। तुम समझ भी नहीं सकतीं रानी! हम मानवों में ही इस प्रेम की अभिलाषा का अनुभव करने के लिए हृदय होता है, रानी- यह प्रेम अलौकिक होते हुए भी वास करता है हम नश्वर प्राणियों के हृदय में। तुम्हारे मायालोक से अपरिचित है।’ “तो क्या मैं प्रेम से अपरिचित ही रहूंगी? मैं कितनी भाग्यहीन हूं। असीम जलराशि में रहकर भी मैं अतृप्त तृष्णा से जलती ही रहूंगी- मैं कितनी दुःखी हूं। अतिथि मेरा रानीत्व मेरे नारीत्व को चूर-चूर कर रहा है- यह असीम वैभव, अनंत यौवन क्या यों ही..’ रानी का गला भर आया। रानी करुणा भरे स्वरों में बोली, “तुम मुझे प्रेम न सिखलाओगे, अतिथि? मैं मानवी नहीं हूं पर न जाने क्यों यह शब्द मुझे कुछ विस्मृत युगों का स्मरण दिला रहा है। जैसे अव्यक्त शब्दों में मुझे सुना रहा हो प्रेम के उदास गीत, क्यों मेरे हृदय के रहस्यों से मुझे अपरिचित रखोगे, अतिथि…’और दो आंसू चू पड़े रानी के आंचल पर। अतिथि ने दुलार भरे शब्दों में बोला, “मैं प्यार सिखाऊंगा, मेरी रानी!’ रानी के उदासी के बादल फट गए। रानी के चंचल करों ने चुने कुछ जल-पटल और उन्हें बिखेर दिया भावमग्न अतिथि पर। अतिथि ने देखा-वरुण-लोक की रानी ने वे कोमल जल-पटल उठाए और मस्तक से लगा लिए।
“किंतु इनमें सौरभ तो है ही नहीं, रानी।'”पर इनमें अनंत यौवन तो है- क्या तुम्हारे लोक में फूलों में सौरभ भी होता है, अतिथि? विचित्र है तुम्हारा लोक-सौंदर्य तो रूप का गुण है-पर सौरभ तो नहीं- फिर तुम्हारे लोक में फूलों में भी सौरभ होता है'”हां! हमारे फूलों में सौरभ होता है, रानी! हमारे लोक में ऐसे ही अलौकिक गुण रहते हैं, रानी। रूपवान फूलों में सौरभ, लेकिन अतिथि! मत्स्यबालाओं से सुनती हूं कि इन्हें कभी-कभी तटों पर बहकर एकत्र हुए राशि-राशि फूल मिलते हैं जो निरंतर जल में रहने से गल जाते हैं। उनका रंग उड़ जाता है और उनसे निकलने लगती है कड़ी दुर्गंध। कभी-कभी श्मशान घाटों पर भस्म के ढेरों में दबी मिलती है फूल-मालाएं, जो जलकर शुष्क हो जाती हैं और जो हल्के स्पर्श से चूर-चूर होकर बिखर जाती हैं। कैसा दर्द भरा वर्णन है, अतिथि! क्या इन्हीं फूलों की भांति तुम्हारे देश का यौवन भी अस्थिर है? क्या वहां का प्रेम भी इतना नश्वर है-बोलो।’ “हां रानी! यौवन के आश्रित रहने वाला प्रेम भी इतना ही नश्वर है।’ “अतिथि!’ रानी चीखी। “प्रेम नश्वर है, यौवन अस्थिर है। नहीं! ऐसा मत कहो।'”किंतु-रानी!’
“किंतु-परंतु नहीं, अतिथि! प्रेम नश्वर है, यौवन अस्थिर है। आहा! मेरे हृदय में जैसे ज्वालामुखी तप रहा है। अतिथि। प्रेम नश्वर है।’ रानी अपने शयन-कक्ष की ओर भागी। शय्या पर अधलेटी रानी सिसक रही थी। अतिथि ने रानी के आंसू थमे और वह बोली-“अतिथि! मैं युगों-युगों से प्रेम की प्रतीक्षा में जीवित थी। मैं अपने अनंत यौवन का साफल्य प्रेम में पाना चाहती थी। तुमने प्रेम की नश्वरता का चित्र खींचकर मेरी गति का आधार मुझसे छीन लिया। अतिथि! तुमने मेरे अंतिम प्रदीप को एक निर्मम झोंके से बुझा दिया है और मुझे छोड़ दिया है घोर तिमिर में भटकने के लिए एकाकी- यह किस जन्म के कृत्य का बदला तुम मुझसे ले रहे हो आगंतुक? बोलो’ पथिक आश्चर्यचकित था। उसने कांपते करों से थाम ली रानी की मृणाल भुजाएं। रानी उठ बैठी-“यह क्या किया अतिथि?’ उसने पथिक की ओर देखा, “यह तुम्हारा प्रथम स्पर्श जैसे मुझे भस्म कर रहा है-तुम्हारे नश्वर मृत्युलोक की प्रेम की छाया मेरे अनंत यौवन पर भी पड़ गई- आह! मेरे हिम से अंग गल रहे हैं इसमें…अतिथि…’अतिथि रुंधे गले से बोला-“रानी! हम मनुष्यों का प्रेम मनुष्य ही समझ सकते हैं- यौवन का आश्रित प्रेम नश्वर होता है-पर प्रेम का आश्रित प्रेम अमर-हम नश्वर जानते हुए भी पलकें मूंदकर प्रेम करते हैं- क्योंकि हमारा प्रेम आत्मदाह होता है-याचना नहीं। तुमने प्रेम को यौवन की तुला पर तौलना चाहा, रानी! और प्रेम के भीषण ताप में गल रही हो। तुम अनंत शून्य में झांककर देखना, रानी! मैं प्रेम की जलन में जलकर भी तुमसे प्रेम करूंगा। इस कथन के पूर्व ही रानी का हिम-तन गल चुका था। प्रातःवेला में सूर्य की दो किरणें किसी विशाल भुजाओं की भांति आगे बढ़ती हैं उसे आलिंगन में भरने के लिए, पर उनके समीप आने के पहले ही वह अरुणिमा में मुंह छिपाकर लौट जाता है अपने निराशा के देश को। मत्स्यबालाएं आती हैं। उन स्वर्ण किरणों को बीनकर ले जाती हैं वरुण-लोक। उनका कहना है कि यह है उनकी अदृश्य रानी का प्रेम जो तारे के रूप में चमकते अतिथि के पास जाता है पर उसके ताप से निस्तेज होकर बिखर जाता है पृथ्वी पर और वे उसे बीन लाती हैं अपनी रानी की स्मृति में। वरुण लोक में अब प्रेम करना मना है।

लेखक

  • धर्मवीर भारती

    धर्मवीर भारती का जन्म उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद जिले में सन 1926 में हुआ था। इनके बचपन का कुछ समय आजमगढ़ व मऊनाथ भंजन में बीता। इनके पिता की मृत्यु के बाद परिवार को भयानक आर्थिक संकट से गुजरना पड़ा। इनका भरण-पोषण इनके मामा अभयकृष्ण ने किया। 1942 ई० में इन्होंने इंटर कॉलेज कायस्थ पाठशाला से इंटरमीडिएट किया। 1943 ई० में इन्होंने प्रयाग विश्वविद्यालय से बी०ए० पास की तथा 1947 में (इन्होंने) एम०ए० (हिंदी) उत्तीर्ण की। NCERT Solutions for Class 12 Hindi Aroh Chapter 13 – गद्य भाग-काले मेघा पानी दे NCERT Solutions for Class 12 Hindi Aroh Chapter 13 – गद्य भाग-काले मेघा पानी दे provide comprehensive guidance and support for students studying Hindi Aroh in Class 12. These NCERT Solutions empower students to develop their writing skills, enhance their language proficiency, and understand official Hindi communication. Class 12 Hindi NCERT Book Solutions Aroh Chapter 13 – गद्य भाग-काले मेघा पानी दे लेखक परिचय जीवन परिचय-धर्मवीर भारती का जन्म उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद जिले में सन 1926 में हुआ था। इनके बचपन का कुछ समय आजमगढ़ व मऊनाथ भंजन में बीता। इनके पिता की मृत्यु के बाद परिवार को भयानक आर्थिक संकट से गुजरना पड़ा। इनका भरण-पोषण इनके मामा अभयकृष्ण ने किया। 1942 ई० में इन्होंने इंटर कॉलेज कायस्थ पाठशाला से इंटरमीडिएट किया। 1943 ई० में इन्होंने प्रयाग विश्वविद्यालय से बी०ए० पास की तथा 1947 में (इन्होंने) एम०ए० (हिंदी) उत्तीर्ण की। तत्पश्चात इन्होंने डॉ० धीरेंद्र वर्मा के निर्देशन में ‘सिद्ध-साहित्य’ पर शोधकार्य किया। इन्होंने ‘अभ्युदय’ व ‘संगम’ पत्र में कार्य किया। बाद में ये प्रयाग विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्राध्यापक के पद पर कार्य करने लगे। 1960 ई० में नौकरी छोड़कर ‘धर्मयुग’ पत्रिका का संपादन किया। ‘दूसरा सप्तक’ में इनका स्थान विशिष्ट था। इन्होंने कवि, उपन्यासकार, कहानीकार, पत्रकार तथा आलोचक के रूप में हिंदी जगत को अमूल्य रचनाएँ दीं। इन्हें पद्मश्री, व्यास सम्मान व अन्य अनेक पुरस्कारों से नवाजा गया। इन्होंने इंग्लैंड, जर्मनी, थाईलैंड, इंडोनेशिया आदि देशों की यात्राएँ कीं। 1997 ई० में इनका देहांत हो गया। रचनाएँ – इनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं – कविता-संग्रह – कनुप्रिया, सात-गीत वर्ष, ठडा लोहा। कहानी-संग्रह-बंद गली का आखिरी मकान, मुर्दो का गाँव, चाँद और टूटे हुए लोग। उपन्यास-सूरज का सातवाँ घोड़ा, गुनाहों का देवता गीतिनाट्य – अंधा युग। निबंध-संग्रह – पश्यंती, कहनी-अनकहनी, ठेले पर हिमालय। आलोचना – प्रगतिवाद : एक समीक्षा, मानव-मूल्य और साहित्य। एकांकी-संग्रह – नदी प्यासी थी। साहित्यिक विशेषताएँ – धर्मवीर भारती के लेखन की खासियत यह है कि हर उम्र और हर वर्ग के पाठकों के बीच इनकी अलग-अलग रचनाएँ लोकप्रिय हैं। ये मूल रूप से व्यक्ति स्वातंत्र्य, मानवीय संबंध एवं रोमानी चेतना के रचनाकार हैं। तमाम सामाजिकता व उत्तरदायित्वों के बावजूद इनकी रचनाओं में व्यक्ति की स्वतंत्रता ही सर्वोपरि है। इनकी रचनाओं में रुमानियत संगीत में लय की तरह मौजूद है। इनकी कविताएँ कहानियाँ उपन्यास, निबंध, गीतिनाट्य व रिपोर्ताज हिंदी साहित्य की उपलब्धियाँ हैं। इनका लोकप्रिय उपन्यास ‘गुनाहों का देवता’ एक सरस और भावप्रवण प्रेम-कथा है। दूसरे लोकप्रिय उपन्यास ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ पर हिंदी फिल्म भी बन चुकी है। इस उपन्यास में प्रेम को केंद्र में रखकर निम्न मध्यवर्ग की हताशा, आर्थिक संघर्ष, नैतिक विचलन और अनाचार को चित्रित किया गया है। स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद गिरते हुए जीवन-मूल्य, अनास्था, मोहभंग, विश्व-युद्धों से उपजा हुआ डर और अमानवीयता की अभिव्यक्ति ‘अंधा युग’ में हुई है। ‘अंधा युग’ गीति-साहित्य के श्रेष्ठ गीतिनाट्यों में है। मानव-मूल्य और साहित्य पुस्तक समाज-सापेक्षिता को साहित्य के अनिवार्य मूल्य के रूप में विवेचित करती है। भाषा-शैली – भारती जी ने निबंध और रिपोर्ताज भी लिखे। इनके गद्य लेखन में सहजता व आत्मीयता है। बड़ी-से-बड़ी बात को बातचीत की शैली में कहते हैं और सीधे पाठकों के मन को छू लेते हैं। इन्होंने हिंदी साप्ताहिक पत्रिका, धर्मयुग, के संपादक रहते हुए हिंदी पत्रकारिता को सजा-सँवारकर गंभीर पत्रकारिता का एक मानक बनाया। वस्तुत: धर्मवीर भारती का स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद के साहित्यकारों में प्रमुख स्थान है।

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