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मैं क्यों लिखता हूँ/सुमित्रानंदन पंत

मैं क्यों लिखता हूँ—यह प्रश्न मेरे जैसे व्यक्ति के लिए उतना स्वाभाविक नहीं जितना कि मैं क्यों न लिखूँ। जब लिखने को जी करता है, उसमें सुख मिलता है जो कि एक उपेक्षणीय वस्तु नहीं—तब कोई क्यों न लिखे? किन्तु जागतिक ऊहापोहों के कारण कभी मेरे मन में भी यह बात आती है कि मैं वास्तव में क्यों लिखता हूँ। मेरा मन आज तक इस प्रश्न का कोई सन्तोषजनक उत्तर नहीं दे सका है, यद्यपि छोटे-बड़े बाहरी कारणों की खोज वह हमेशा ही करता रहा है। सबसे बडा उत्तर तो अपने ही लिए नहीं, सभी लेखकों के लिए इस प्रश्न का मुझे यह प्रतीत होता है कि मनुष्य जन्मतः ही एक सृजनप्राण व्यक्ति या सृजनशील प्राणी है। मनुष्य ही नहीं, अन्य जीव भी किसी-न-किसी सीमा में सृजन-चेतना से प्रेरित एवं अनुप्राणित रहते हैं। और मनुष्य तो, जो कि सृष्टि में सबसे विकसित प्राणी है, सृजन द्वारा अपने को आत्माभिव्यक्ति देने में विशेष आनन्द तथा सम्पूर्ण चरितार्थता का अनुभव करता है। मेरी दृष्टि में इस युग में, जिसे हम यन्त्र-युग कहते हैं, मनुष्यों के अवसाद, असन्तोष, निराशा तथा कुण्ठा का एक बहुत बड़ा कारण यह भी है कि उन्हें रचना-प्रक्रिया द्वारा आत्माभिव्यक्ति तथा आत्मपूर्ति का अवसर नहीं मिलता। इन सिद्धान्त के आधार पर मैं जीवन-रचना को सबसे महत्त्वपूर्ण मानव-मूल्यों में मानता हूँ।

चाहे साहित्यकार हो या चित्रकार, मूर्तिकार अथवा कुम्हार, वह लिखने, चित्र बनाने, कठोर पत्थर में प्रतिमा अंकित कर उसे मानवीय सम्वेदना से विद्रवित करने में अथवा चाक में अरूप मिट्टी को अनेक आकार-प्रकारों में सँवारने में जिस सुख तथा तन्मयता का अनुभव करता है, वह निश्चय ही अनिर्वचनीय है। जो आत्मविस्मृति सृजन-क्रिया द्वारा सुलभ होती है वह किसी अन्य रूप से प्राप्त करना सम्भव नहीं है। सृजन-प्रवृत्ति मनुष्य को पूर्णरूपेण समाधिस्थ कर देती है, वह देह-मन-प्राण, भावबुद्धि, कर्म तथा आत्मिक एकाग्रता की समाधि होती है, जिसके रुपहले एकान्त से मनुष्य सूक्ष्म शक्ति संचय कर अपनी कृति को अलौकिक सौन्दर्य, आनन्द तथा जीवन्त पूर्णता से मण्डित करता है। इसलिए उपर्युक्त प्रश्न का सबसे सन्तोषप्रद उत्तर मुझे यही प्रतीत होता है कि चूंकि मनुष्य तथा अन्य जीव अजेय सृजन-शक्ति के प्रतिनिधि हैं, इसी से वे सर्जना के लिए बार-बार अदृश्य रूप से प्रेरित होते रहते हैं।

किन्तु, यह तो हुआ एक सर्व-सामान्य तथा व्यापक उत्तर जिसका एक व्यक्तिगत पक्ष भी निश्चय रूप से हो सकता है। अतएव जब मैं इसे व्यक्तिगत रूप से देखकर अपने लेखन के सम्बन्ध में घटित करता हूँ तो वहाँ भी मुझे कोई पूर्णत: सन्तोषदायक उत्तर तो नहीं मिलता, पर हाँ, अनेक ऐसी अपने स्वभाव की प्रवृत्तियों तथा जीवन की परिस्थितियों की ओर मेरा ध्यान जाता है जिनका सम्भवतः मेरी सृजन-प्रेरणा से सम्बन्ध हो या मेरी लेखन-प्रक्रिया में हाथ हो। वास्तव में, ‘क्यों’ एक अत्यन्त गूढ़ तथा भयानक प्रश्न है, मैं क्यों लिखता हूँ, संसार क्यों है, जीवन क्यों है, मनुष्य क्यों है, आदि ये सभी प्रश्न मनुष्य की बुद्धि को अन्धी गली में ले जाकर भटकाते रहे हैं। दर्शनशास्त्र, मनोविज्ञान, अध्यात्म तथा प्राणिशास्त्र आदि अन्य शास्त्र भी इस प्रश्न से भय खाते रहे हैं। सष्टि क्यों है इसका उत्तर दर्शनशास्त्र न देकर सृष्टि क्या है, वह कैसे बनी, इन प्रश्नों का ही समीचीन उत्तर हमें दे सका है। इसी प्रकार अन्य चिन्तन-प्रधान शास्त्रों तथा विज्ञानों ने भी ‘क्यों’ की अन्धी गली में भटकना स्वीकार न कर ‘क्या’ ओर ‘कैसे’ की ही पटरियों पर अपने बोधयान को संचालित करने का श्रेय प्राप्त किया है। मैं भी इस अनबूझ पहेली के जटिल दार्शनिक पक्ष को छोड़कर आपको अपनी जीवन-स्थितियों तथा मनोवृत्तियों की कुछ छोटी-मोटी बातें ही इस सन्दर्भ में बता सकूँगा जिन्होंने मुझे लिखने की ओर उन्मुख किया है और अब भी करती रहती हैं।

सबसे पहली बात तो यह है कि प्राकृतिक सौन्दर्य-स्थल हिमालय के अँचल में पैदा होने के कारण बचपन से ही मेरे भीतर एक सौन्दर्य-बोध अथवा सौन्दर्य-प्रेम की भावना पैदा हो गयी थी और हिमालय के सान्निध्य ने गम्भीर एकान्तप्रियता को भी मेरे स्वभाव का अंग बना दिया था। ये दोनों ही ऐसे तत्त्व, मेरी समझ में, हैं जो मनुष्य को अपनी सौन्दर्यदृष्टि को सृजन-प्रक्रिया द्वारा रूप-रेखाओं अथवा ध्वनि-छन्दों में सँवारने की ओर अग्रसर करते हैं। दूसरी प्रमुख बात, मैं सोचता हूँ, मेरे अन्तर्मुखी स्वभाव की भी देन इस दिशा में रही है। मेरे मझले भाई मेरे हमजोली-से रहे हैं, वे भी मेरे साथ उसी प्रकृति की गोद में खेले-कूदे और बढ़े हैं, पर उनका स्वभाव छुटपन से ही बहिर्मुखी होने के कारण उनका रुझान स्कूल के दिनों में खेलकूद की ओर तथा विश्वविद्यालय में पहुँचने पर राजनीति की ओर अधिक बढ़ा और वे बराबर असहयोग-आन्दोलनों में सक्रिय भाग लेते रहे हैं। इसीलिए मैं सोचता हूँ कि अन्तर्मुखी प्रवृत्ति भी लेखक बनने के लिए सम्भवतः एक आवश्यक उपादान है। बात यह है कि बाहर ही विचरनेवाला मन विश्व-जीवन की दैनन्दिन घटनाओं का ऐतिहामिक फ़ोटोग्राफ़र भले ही बन सके, पर वह मनुष्य की अन्तरतम गूढ़ भावनाओं का चितेरा शायद ही हो सकता है—उसके लिए तो जीवन-सौन्दर्य का आन्तरिक आनन्द तथा गूढ़ अनिर्वचनीय रस का सूक्ष्म द्रष्टा तथा गम्भीर भोक्ता होना ही शायद एक अनिवार्य शर्त है।

तीसरी बात मेरे सामने यह आती है कि कुछ बड़ा होने पर जब मैंने होश सम्भाला तो मुझे अपने सामने जीवन की अनेक दिशाएँ खुली मिलीं—मैं एक सम्पन्न परिवार का प्राणी था, कोई भी राह मेरे लिए दुष्कर न थी। किन्तु तब भी मुझे जो सबसे अधिक चरितार्थता अपनी प्रतीत होती थी वह साहित्य का अध्ययन करने में, अनेकानेक कवियों की वाणी का रसपान कर उनके छन्दों की लय तथा भावों के संगीत में तन्मय होकर झूमने में, तथा नये-नये ग्रन्थों के झरोखों से मानव-जीवन तथा मन के नये सौन्दर्य के रूपों का निरीक्षण कर नयी रचना-दृष्टि प्राप्त करने में। मेरा संसार धीरे-धीरे मेरे अध्ययन-कक्ष के भीतर सिमटने लगा और एक नया ही विश्व, अनेक अद्भुत क्षितिजों की सम्भावनाएँ लिये हुए, मेरे हृदय में उदय होने लगा जिसकी सुन्दरता के सामने बाहर का जगत बिल्कुल ही फीका तथा अरोचक प्रतीत होने लगा। मुझे अपने भाइयों तथा परिवार के लोगों से इस राजयोग की साधना के लिए प्रोत्साहन मिलना तो दूर, बार-बार फटकार ही मिलती रही कि मैं चौबीसों घण्टे कमरे की घुटन में बन्द रहकर अपना स्वास्थ्य खो रहा हूँ—बात यह थी कि मैं छुटपन से ही बहुत दुबला-पतला था, माँ की अनुपस्थिति के कारण मेरा पालन-पोषण सम्भवतः सम्यक रूप में नहीं हो सका था—तो इस सबसे भी मैं अब इसी परिणाम पर पहुँचता हूँ कि मैं सम्भवतः एक छोटे-मोटे लेखक के ही संस्कार लेकर पैदा हुआ था अन्यथा इस अनेक प्रकार के वैचित्र्य से भरे विशाल, विस्तृत संसार में मुझमें केवल अपने भीतर पैठने तथा ‘साहित्य संगीत कला विहीनः’ न कहलाये जाने का ही कुतूहल सर्वोपरि महत्त्वपूर्ण रूप धारण कर प्रकट न होता।

चौथी बात मेरे मन में यह आती है कि यदि विधि ने मुझे लेखक बनने के लिए न भेजा होता तो अपने जीवन में मुझे इतने उत्थान-पतन देखने को न मिलते। स्वयं अपने व्यक्तिगत जीवन में मैं राजा से रंक और फिर रंक से मनुष्य बना हूँ—मनुष्य, जितना कि आज की परिस्थितियों में बना जा सकता है। यद्यपि मेरे व्यक्तिगत जीवन-संघर्ष का भी, आत्मचरितार्थता के लिए, मेरे लेखक बनने में बड़ा हाथ रहा है पर उसकी चर्चा मैं अधिक नहीं करूँगा। अपने युग में जो उत्थान-पतन मुझे देखने को मिले वही मेरे जैसे भावप्रवण, बुद्धिप्राण व्यक्ति को लेखक बनाने के लिए पर्याप्त शक्ति रखते हैं। मैं बीसवीं सदी के साथ ही पैदा होकर बड़ा हुआ हूँ। और बीसवीं सदी का जो महत्त्व मानव सभ्यता के इतिहास के लिए है, उस महत्त्व का अंशभागी इस शती का लेखक भी है। आज मैं वयोवृद्ध होकर इस विशाल जीवनोदधि के तट पर खड़ा उसकी उत्ताल तरंगों का उत्थान-पतन देख रहा हूँ। जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश ग्रहण लग जाने से तिरोहित हो जाता है उसी प्रकार आज धरती की चेतना भी जैसे घोर ह्रास से आक्रान्त हो रही है। उसके अवचेतन गर्त जिस प्रकार अन्धकार उगल रहे हैं, आकाश उसी अनुपात में प्रकाश उलीच रहा है। समस्त सभ्यता, संस्कृति और मानव-इतिहास करवट बदल रहा है। मनुष्य का अतीत आज उसे लौह शृंखला की तरह जकड़े हुए है, उसके बन्धनों को छिन्न-भिन्न कर उसे नये व्यापक मूल्यों में केन्द्रित होना है। सुदूर क्षितिजों में जो नया अरुणोदय हो रहा है, आज मैं एक लेखक, एक कवि के नाते उसे अंजुलि में भरकर धरती के कोने-कोने में बखेरना चाहता हूँ। आज का लेखक या स्रष्टा एक छोटा-मोटा पैगम्बर, मनोभूमि का एक छोटा-बड़ा योद्धा तथा सेनानी है—वह और कुछ हो ही नहीं सकता—उसे निश्चय ही इस युग के मानव-मंगल के पावक को, मानवप्रेम के अमृत को अपनी सम्वेदना के घट में भरकर विश्व-भर में वितरित करना है। यही इस युग का सत्य है, सर्जना का सत्य, लोक-रचना का सत्य तथा विश्वनिर्माण का सत्य है। सर्जना का सत्य युग का पथिक है, जन-मगल या विश्व-मंगल उसके योग की दिशा या ध्येय है—नये मानव-जीवन का सौन्दर्य इस शूल-फूलों की धरती पर उसका अखण्ड, अनन्त पथ है। स्वर्गीय गुप्त जी के शब्दों में थोड़ा हेर-फेर कर :

इस युग का ही जन्म महत् जन काव्य है
कोई कवि बन जाय सहज सम्भाव्य है।

—एवमस्तु!

लेखक

  • सुमित्रानंदन पंत

    पंत जी का मूल नाम गोसाँई दत्त था। इनका जन्म 1900 ई. में उत्तरांचल के अल्मोड़ा जिले के कौसानी नामक स्थान पर हुआ। इनकी प्रारंभिक शिक्षा कौसानी के गाँव में तथा उच्च शिक्षा बनारस और इलाहाबाद में हुई। युवावस्था तक पहुँचते-पहुँचते महात्मा गाँधी के असहयोग आंदोलन से प्रभावित होकर इन्होंने पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी। उसके बाद वे स्वतंत्र लेखन करते रहे। साहित्य के प्रति उनके अविस्मरणीय योगदान के लिए इन्हें कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। इन्हें भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार, सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार मिले। भारत सरकार ने इन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया। इनकी मृत्यु 1977 ई. में हुई। रचनाएँ-पंत जी ने समय के अनुसार अनेक विधाओं में कलम चलाई। इनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं- काव्य- वीणा, ग्रंथि , पल्लव, गुंजन, युगवाणी, ग्राम्या, चिदंबरा, उत्तरा, स्वर्ण किरण, कला, और बूढ़ा चाँद, लोकायतन आदि हैं। नाटक-रजत रश्मि, ज्योत्स्ना, शिल्पी। उपन्मस-हार। कहानियाँ व संस्मरण-पाँच कहानियाँ, साठ वर्ष, एक रेखांकन। काव्यगत विशेषताएँ-छायावाद के महत्वपूर्ण स्तंभ सुमित्रानंदन पंत प्रकृति के चितेर कवि हैं। हिंदी कविता में प्रकृति को पहली बार प्रमुख विषय बनाने का काम पंत ने ही किया। इनकी कविता प्रकृति और मनुष्य के अंतरंग संबंधों का दस्तावेज है। प्रकृति के अद्भुत चित्रकार पंत का मिजाज कविता में बदलाव का पक्षधर रहा है। आरंभ में उन्होंने छायावाद की परिपाटी पर कविताएँ लिखीं। पल-पल परिवर्तित प्रकृति वेश इन्हें जादू की तरह आकृष्ट कर रहा था। बाद में चलकर प्रगतिशील दौर में ताज और वे आँखें जैसी कविताएँ लिखीं। इसके साथ ही अरविंद के मानववाद से प्रभावित होकर मानव तुम सबसे सुंदरतम जैसी पंक्तियाँ भी लिखते रहे। उन्होंने नाटक, कहानी, आत्मकथा, उपन्यास और आलोचना के क्षेत्र में भी काम किया है। रूपाभ नामक पत्रिका का संपादन भी किया जिसमें प्रगतिवादी साहित्य पर विस्तार से विचार-विमर्श होता था। पंत जी भाषा के प्रति बहुत सचेत थे। इनकी रचनाओं में प्रकृति की जादूगरी जिस भाषा में अभिव्यक्त हुई है, उसे स्वयं पंत चित्र भाषा की संज्ञा देते हैं।

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