+91-9997111311,    support@sahityaratan.com

पानवाला/सुमित्रानंदन पंत

यह पानवाला और कोई नहीं, हमारा चिर-परिचित पीताम्बर है । बचपन से उसे वैसा ही देखते आए हैं। हम छोटे लड़के थे- स्थानीय हाईस्कूल में चौथे-पाँचवें क्लास में पढ़ते थे । मकान की गली पार करने पर सड़क पर पहुँचते ही जो सब से पहली दूकान मिलती, वह पीताम्बर की । हम कई लड़के रहते, मास्टरों से लुकछिप कर वहाँ पान का बीड़ा खाते, कुछ दूकान के अन्दर आल्मारी की आड़ में खड़े-खड़े सिगरेट-बीड़ी की भी दो चार कस लेते, पर मुख्य आकर्षण की सामग्री पीताम्बर की दूकान में आलू और मिठाइयाँ रहतीं । कभी-कभी वह स्कूल से लौटने तक हम लोगों के लिए औटाये हुए दूध में केले मिलाकर रखता, कभी रबड़ी बना देता । स्कूल से लौटने पर थकामाँदा, भूख से व्याकुल हम लोगों का दल टिड्डियों की तरह पीताम्बर की दूकान पर टूट पड़ता, कोई मिठाई और रायता खाता, कोई कचालू, मटर, दूधकेला, रबड़ी इत्यादि । पान खाना, बीड़ी सिगरेट फूँक लेना भी किसी-किसी के लिए आवश्यक हो जाता था। घर में हमारी उम्र के लड़कों को ये नियामतें कहाँ नसीब हो सकतीं ? पीताम्बर हमें हँसाता, बहलाता, खुद हँसता, परिहास करता और थोड़ी बहुत छेड़खानी करने एवं ताना मारने में भी न चूकता। हममें से सभी – को घर से पैसे तो मिलते न थे, हम उधार खाते और पीताम्बर को भी खिलाते। वह हम लोगों का दोस्त था, वह सभी का दोस्त था; – छोटे, बड़े, बच्चे, बूढ़े सभी से वह परिहास करता, उनपर मीठी फबतियाँ कसता और सब को खुश रखता ।

पीताम्बर तब किस उम्र का था, अब किस उम्र का है, यह बात हम तब भी नहीं जानते थे, अब भी नहीं जानते । उससे पूछने का किसी को साहस भी हो ? वह तो सब को हँसी में उड़ा देता है । ऐसी खरी-खोटी सुनाता, ऐसे ताने और व्यंग बाण मारता है कि अपने व्यक्तित्व को, निजी याद को, पास ही नहीं फटकने देता । लोग हँसकर, घिघियाकर, खिसियाकर, कुढ़कर चुप हो जाते हैं। दूसरे ही क्षण वह उन्हें फिर खुश कर लेता है । वह कैसा ही आत्माभिमानी हो परन्तु यह कभी नहीं भूलता कि उन्हीं लोगों से उसकी गुजर चलती है, लेकिन पीताम्बर को हो क्या गया ?-

तब से बीस साल बीत गए, हममें से बहुतों की शादियाँ और बाल-बच्चे भी हो गए, भिन्न लोग कालेज की डिग्रियाँ लेकर बड़े- बड़े ओहदों पर पहुँच गए, भारी-भारी वेतन पाने लगे; कइयों ने कोठियाँ खड़ी कर दीं, मोटर गाड़ियाँ खरीद लीं, पर पीताम्बर ! पीताम्बर वैसा ही रह गया है। तब कौन जानता था कि हमारे ही लिए विधाता ने भविष्य बनाया है, पीताम्बर के वास्ते भविष्य सी वस्तु का आविष्कार नहीं हुआ है, अथवा वह भूत, भविष्य और वर्तमान से है। सावन सूखा न भादों हरा । अर्थ- लिए तो उसकी दुकान अपवाद थी ही, क्या प्रकृति के नियमों ने भी उसके लिए बदलना छोड़ दिया है ? किसी तरह का भी तो बदलाव उसमें इन बीस सालों में नहीं आया – लेशमात्र नहीं, चिह्न तक नहीं । वही आकृति वही प्रकृति, वही कद, वही आदतें, और वही दूकान ! — किसी में भी उन्नति- अवनति के कोई लक्षण नहीं । अब वह आलू और मिठाई नहीं रखता तो इसलिए कि मुहल्ले में अब वैसे चटोर, खाने के शौक़ीन लड़के ही नहीं रह गए। लेकिन पान, सुपारी, सिगरेट, बीड़ी-अब भी उसी प्रकार, उन्हीं जगहों पर दूकान में रक्खे हैं । चूने कत्थे के बर्तन भी वही पुराने पहचाने हुए हैं। चूने की लकड़ी घिस कट कर पतली पड़ गई है, कत्थे की पपड़ी जम जाने से और भी मोटी हो गई है । दूकान के बीचो-बीच वही पुराना लैम्प टँगा है जो उसके किसी मित्र की इनायत है, चिमनी के ऊपर का भाग टीन की पत्ती का बना हुआ है। सामने एक मझोले आकार का शीशा लगा है, जिसके पारे में धब्बे और चकत्तियाँ पड़ जाने के कारण काँच के पीछे से बीच में द्रोपदी का तिरछा रङ्गीन चित्र चिपका दिया गया है ! अन्दर के कमरे में मूँज की एक चारपाई और बिस्तरा, खूँटी पर टँगा कोट, सिगरेट दियासलाई के खाली डिब्बे, एक लोहे की अँगीठी और कुछ चाय का सामान रहता है, बाहर वही पुराना काठ का बेंच पड़ा है, जिसपर सुबह, शाम, दोपहर, हर वक्त दो- चार दोस्त लोग बैठे गपशप करते, एक दूसरे की खिल्ली उड़ाते और शहर भर की बुराइयों एवं खराबियों की चरचा करते हैं । उस बेंच से नित्य नई अफवाहों का आविष्कार एवं प्रचार होता, न जाने कितनी स्त्रियों की कलंक कथायें, युवकों-रसिकों की लीलायें, भाग्यों के बनने-बिगड़ने के खेल, जन्म-मृत्यु के समाचार, गाँव, शहर, देश, एवं विश्व के इतिहास का प्रवाह आने-जाने वालों के मुखों से निसृत हो पीताम्बर के कर्ण-कुहरों में जाह्नवी की तरह समा गया उसका क्या पता, क्या पार ? वही उसका मानसिक भोजन है, जो उसकी अस्थि, रक्त, मज्जा, मांस बन गया है।

अपने लड़कपन के मित्रों के साथ उसकी एक तस्वीर है जो दूकान में गद्दी के ऊपर लटकी रहती है । कोई भी उस चित्र के गोल, सुडौल, भरे हुए मुख को, अङ्गों की गठन, बनाव-शृङ्गार को देखकर यह नहीं विश्वास करेगा कि वह यही पीताम्बर है ! वह यह पीताम्बर है भी नहीं । वह सोलह-सत्रह साल का, यूनीफार्म पहने, हाथ में हाकी की स्टिक लेकर, अकड़कर, कुर्सी पर बैठा अमीरों और रईसों का अमीरदिल मित्र इस तंग दिल कोठरी में बैठा हुआ ग़रीब पनवारी कैसे हो सकता है ? उसकी गोल चमक- दार आँखों में गर्व और चालाकी भरी है; दृष्टिगरिमा बाहर को फूट रही है, इसकी आँखें धँसी हुई, लाल छड़ों से भरी, छिलका निकाल देने पर पिचकी हुई लीची की तरह गँदली, करुणा, क्षोभ, प्रतिहिंसा बरसा रही हैं। उनके कोनों में कौओं के पंजे बन गए हैं । उस सोलह साल के नवयुवक के मुखमंडल पर सुख सौकुमार्य स्वास्थ्य आशा और उत्साह की आभा है, इस अधेड़ का मुख -जिसकी उम्र तीस से पचास साल तक कुछ भी कही जा सकती है- दुख, दारिद्र, निराशा, आत्मपीड़न, असन्तोष का भग्न जीर्ण खण्डहर है । गालों की गोल रेखाओं को संसार ने नींबू की तरह चूसकर टेढ़ा-मेढ़ा विकृत कर दिया है। दुख से काटे हुए रात-दिन के शेष चिन्हों की तरह बेमेल स्याह, सुफेद, घनी, दाढ़ी- मूछों ने- जिन्हें हफ्ते में एक बार बनाने की भी नौबत नहीं आती – उस सोलह साल के फूल को सुखाकर काँटों की झाड़ी से घेर लिया है। दुर्भाग्य के स्रोत की शीर्ण, शुष्क धाराओं की तरह, सिकुड़े हुए भाल पर गहरी चिन्ता की रेखाएँ पड़ गई हैं। नीले मुरझाए हुए ओठों के दोनों ओर नाक से मिली हुई दो लकोरों ने मनचाहा खाना न मिलने के कारण अनावश्यक मुख को दोनों ओर से दो घेरों में बन्द कर दिया है। मुख का रङ्ग धूप से जलकर काला पड़ गया है, और उसका प्रत्येक चर्म-अणु सूजी के दाने की तरह शोक-ताप में पक कर फूल गया है। रोड़े की तरह गले में अटकी हुई हड्डी माँस के सूख जाने से बाहर निकल आई है । वह चित्र भले ही हो, वास्तविक पीताम्बर यही है। दुबला, नाटा, अविकसित हड्डियों का ढाँचा यह पीताम्बर – उसकी कलाइयाँ दो अंगुल से अधिक चौड़ी नहीं, वे भी जैसे कसकर तंग चमड़े में बाँध दी गई हों। उसके इकहरे जीर्ण चमड़े के अन्दर से चरबी का अस्तर कभी का ग़ायब हो चुका है । रक्तहीन हाथों में नीली नीली फूली नाड़ियाँ और हथेलियों में चूने कत्थे से कटी रेखाओं की जालियाँ पड़ गई हैं। दुःख, दैन्य और दुर्भाग्य के जीवन प्रवाह के तट पर ठूंठ की तरह खड़ा, उसके तीक्ष्ण, कटु आघातों से लड़ता हुआ पीताम्बर उस प्रभाव वाचक स्थिति पर पहुँच गया है, जहाँ उस पर आशा, तृष्णा, लोभ, जीवनेच्छा, सौन्दर्य, स्पर्धा, मोह, ममता, उम्र आदि भाववाचक विभूतियों के अत्याचार – उत्पात का कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता । वर्तमान मनुष्यता, सामाजिकता, नैतिकता, धर्म, आचार, रूढ़ि -रीतियों की कला का वह एक साधारण नमूना मात्र है । अपने देश के वर्तमान जीवन ने कुशल कलाकार की तरह भिन्न भिन्न अवस्थाओं एवं परिस्थितियों की कूचियों से उसमें रूप, रङ्ग, रेखाएँ भरकर उसे हमारी पैशाचिकता, पशुत्व, अन्धकार का निमर्म सजीव चित्र बना दिया है। उस षोड़ष- वर्षीय किशोर का चित्र इस चित्र से कैसे मिल सकता है ? वह सब समय की मानवी प्रकृति को कला का नमूना था, यह हमारी इस समय की सभ्यता की मानवी विकृति का नमूना है ।

पीताम्बर जात का तम्बोली नहीं, वह अच्छे घराने का है। छुटपन में ही माँ-बाप के मर जाने के कारण पीताम्बर अयाचित स्नेह के संरक्षण से वंचित हो गया । उसके भाई को, जो उससे पाँच साल बड़ा था, यह समझते देर नहीं लगी कि अब उसे दूसरों की चापलूसी, खुशामदकर, उनको करुणा, दया को जाग्रतकर, उनके स्वभाव और इच्छाओं को अपनाकर, दूसरों की बुरी प्रवृत्तियों के सामने अपनी अच्छी प्रवृत्तियों का बलिदानकर, दबकर, सहकर, कुटकर, पिसकर जीवन निर्वाह करना है । मुक्ति-श्रेयी माँ-बाप उसकी शादी कर गए थे। एक असहाय, मूक, पंगु, अपढ़, अन्ध विश्वासों से निर्मित मांस की लोथ, निष्प्राण, पतिप्राण सती का भार उस पर था । इसलिए लाचार हो वाणी में दीनता, आँखों में याचना, होठों में शरमायी हुई करुण हँसी भरकर सब के सामने आँखें झुकाना, माथा नवाना सीखकर यज्ञदत्त ने अपना स्वरूप बदल डाला । पड़ोस और शहर के लोग उसकी नम्रता, परतत्परता पर मुग्ध हो गए, उसे जिला बोर्ड में दफ़तरी का काम दिला दिया । पन्द्रह रुपए वेतन मिलता, जिसमें चार प्राणी किसी तरह जीवन व्यतीत करते । यज्ञदत्त में कोई खास बात न थी वह जैसे ऐसे ही छोटे-मोटे काम के लिए बना था ।

पर इसी यज्ञदत्त का भाई, उन्हीं माँ-बाप की दरिद्र कोख से पैदा हुआ पीताम्बर अपने आत्माभिमान को न छोड़ सका, वह उस निर्धन घर का अमीरदिल प्रकाश था । उसके वैसे ही संस्कार थे । सृष्टिकर्ता ने उसे निर्माण करने में किसी प्रकार का संकोच या संकीर्णता न दिखाई थी । प्रकृति ने रईसों के लड़कों को और उसे समान रूप से अपने मुक्तदान, अपनी गुप्त शक्तियों का अधिकारी बनाया था । उसके स्वभाव में आत्मसम्मान प्रमुख, और इच्छाएँ गौण हो गई थीं। किसी के सामने झुकना, किसी के रोब में आना उससे न हो सकता था । माँ को वह खो ही चुका था, जिसके हाथों का स्नेह-स्पर्श उसके अभिमान और हठीले स्वभाव के तीखे कोनों को कोमल, चिकना बना सकता । अभिमान केवल : स्नेह के सामने झुक सकता है, उसे सहिष्णु साथी की जरूरत होती है । पर अपने भले-बुरे के ज्ञान से अनभिज्ञ उस गरीब के लड़के को ऐसा कुछ भी न मिल सकने के कारण उसका अतृप्त अभिमान आत्म निर्माण करने के बदले आत्म-संहारक हो गया । पीताम्बर उच्छृंखल, स्वतंत्र तबियत का हो गया । आत्महीनता के पीड़ा, जनक ज्ञान से बचने के लिए वह धनी युवकों से मित्रता स्थापित कर झूठा सन्तोष ग्रहण करने लगा । जीवनोपाय के लिए कोई हुनर, कोई उद्योग सीखने की ओर उसने कभी ध्यान ही नहीं दिया, जिससे पीछे उसे सच्चा सन्तोष मिल सकता । वह बड़ा तेज़ और होशियार था । बात की बात में शहर के अमीर लड़कों को अपने वश में कर, उनकी स्नेह सहानुभूति पर अधिकार प्राप्त कर, मौज उड़ाया करता । वह मनोरंजन के उन्हें नित्य नवीन उपाय बतलाता; जवानी की बहार लूटने को उत्साहित करता, उनमें साहस भरता और मुश्किल को आसान बनाकर अपने को उनके लिए आवश्यक बना लेता था । वह उनसे दबता न था, बराबरी का व्यवहार रखता था। उनके साथ पिकनिक में जाता, ताश खेलता, हाकी, फुटबाल, क्रिकेट में अपनी दक्षता दिखलाता, किसी के कुछ कहने पर या छेड़ने पर बिगड़ भी उठता । यदि वह वैसा उद्दण्ड, स्वतंत्र एवं आत्माभिमानी न होता, और अपने मित्रों की जरा भी खुशामद कर सकता, तो आज वह फटेहाल न होता !

अमीरजादों के साथ ऐश आराम में रहना सीखकर शीघ्र ही वह जीवन संग्राम की कठिनाइयों को झेलने और कठोर परिश्रम कर सकने में अक्षम साबित हो गया । जवानी का खुमार उतरने और होश आनेपर उसने अपने को मोर के पर लगाए हुए कौए की तरह और भी दयनीय, कुरूप, एवं निकम्मा पाया । अपने भाई की गरीब गृहस्थी से, पास-पड़ोस से, शहर से और खुद अपने से उसे घृणा होने लगी, वह और भी चिड़चिड़ा, दुराग्रही, हठी, निन्दक, आत्मघातक और परद्रोही हो गया। उसके धनी मित्रों ने भी, जिनके साथ रहकर उसे अनेक प्रकार की कुटेवें और बुरी आदतें पड़ गई थीं, उसकी ऐसी दशा देखकर उसका साथ छोड़ दिया । वह न घर का रह गया न घाट का । चाय, पान, सिगरेट के लिए, सुस्वादु भोजन के लिए अब उसका जी तरसने लगा । सिनेमा, थियेटर उसे और भी जोर से अपनी ओर खींचने लगे । लाचार हो, अपने से तंग आकर उसने अपने ग़रीब भाई की जेब पर हाथ साफ़ करना शुरू किया। भाई उससे पहले से ही रुष्ट था, अब उसका ऐसा पतन देखकर उसने उसका घर में आना बन्द कर दिया ।

सब तरह से निराश हो, अपमान, भय, लज्जा, क्षोभ, यातना, आत्म-सम्मान, दारुण भूख-प्यास से एक साथ ही ग्रस्त, पीड़ित-क्लान्त एवं पराजित हो अन्त में पीताम्बर ने एक तम्बोली की दूकान में पान लगाने की नौकरी कर ली, पर वहाँ भी वह अधिक समय तक न ठहर सका । उसकी कुटेवें उसका दुर्भाग्य बन गई थीं। और एक रोज़ दूकान पर पान खाने को आई हुई एक वेश्या के रूप- सम्मोहन के तीर से बुरी तरह घायल हो उसने शाम के वक्त चुपचाप गल्ले की सन्दूकची से पाँच रुपए का नोट चुराकर अपनी विपत्ति-निशा की कालिमा को एक रात के कलंक से और भी कलुषित कर डाला। उसका स्वास्थ्य अभी खराब नहीं हुआ था । उसके विविवाहित जीवन, सबल इन्द्रियों की स्वस्थ प्रेरणाओं का समाज अथवा संसार क्या मूल्य आँक सकता था, क्या सदुपयोग कर सकता था ? फूल की मिलनेच्छा सुगन्ध कही जाती है मनुष्य की प्ररणयेच्छा दुर्गन्ध, उसे निर्मल समीर वाहित करता है, इसे कलुषित लोकापवाद । नर-पुष्प के वीर्य का गीत गाता हुआ भौंरा, नृत्य करता हुआ मलयानिल स्त्री-पुष्प के गर्भ में पहुँचा आता है, मनुष्य का वीर्य वैवाहिक स्वेच्छाचार की अच्छी कोठरियों, पाशविक वेश्याचार की गन्दी नालियों में, सहस्र प्रकार के गर्हित, नीरस, कृत्रिम मैथुनों द्वारा छिपे -छिपे प्रवाहित होता है ! यह इसलिए कि हम सभ्य हैं, मनुष्य के मूल्य को, जीवन को पवित्रता को समझ सकते हैं। असंख्य जीवों से परिपूर्ण यह सृष्टि एक ही अमर, दिव्य शक्ति की अभिव्यक्ति है, प्रकृति के सभी कार्य पुनीत हैं, मनुष्य मात्र की एक ही आत्मा है – हम ऐसे-ऐसे दार्शनिक सत्यों के ज्ञाता एवं विधाता हैं, हम प्रकाशवादी हैं !

खैर, दुकान का मालिक पीताम्बर को पुलिस के हवाले करने जा रहा था, उसके बड़े भाई ने बीच-बचाव कर, हाथ जोड़कर, गिड़गिड़ाकर तम्बोली के रुपए भर दिए और पीताम्बर को धिक्कारकर, उस पर गालियों की बौछारकर, अन्त में लोगों के समझाने पर तरस खाकर उसके लिए निजी पान की दूकान खोल दी । तभी से हमारे कथानायक इस दूकान की गद्दी पर बैठकर पानवाले की उपाधि से विभूषित हुए । अवश्य ही वह कोई शुभ मुहूर्त रहा होगा कि उस पानवाले की गद्दी अभीतक बनी हुई हैं; भले ही वह नाम मात्र को हो ।

पर यहाँ से पीताम्बर का दूसरा दुर्भाग्य शुरू हुआ। वह क्रियाशील, निरंकुश पीताम्बर अब विचारशील और गम्भीर हो गया । उसका रुद्ध आत्माभिमान कुंठित हो गया; वह निर्जीव, निर्बलात्मा, निश्चेष्ट, अस्थिमांस का पुतला मात्र रह गया । उसने यथाशक्ति अपने स्वभाव और प्रवृत्तियों के अनुसार अपने परिस्थितियों के संसार से लड़ने, जीवन-संग्राम में विजय पाने का प्रयत्न किया था, पर वह निष्फल हुआ, संसार ने ही अन्त में उस पर विजय पाई ।

क्या वह निर्धन युवक किसी भाग्य – दोष से या अपने दोष से निरंकुश, उच्छृंखल अथवा आत्माभिमानी था ? क्या गरीब के लड़के में ऐसे गुण शोभा नहीं देते ? नहीं, नहीं, वह सुन्दर, स्वस्थ, सशक्त, सचेष्ट, आत्मसम्मान से पूर्ण युवक गरीब का लड़का कैसे हो सकता है ? जब प्रकृति ने अपने सब विभवों से संवारकर उसे धनी-मानी बनाया था । वह युवक अपना सौन्दर्य पहचानता था, अपने सुन्दर स्वस्थ शरीर के प्रभाव से वह अनजान न था, युवावस्था की प्रवृतियों ने उसके मनःचक्षुओं के सामने जो एक सौन्दर्य का स्वर्ग, आशा-आकांक्षाओं का इन्द्रजाल उछाल दिया था, अपने और संसार के प्रति जो एक प्रगाढ़ अनुरक्ति एवं उपभोग की सामर्थ्य पैदा कर दी थी, उसकी अमन्द मादकता से, प्रबल आकर्षण से वह कैसे आत्म-विस्मृत न होता ? वाह्य जगत के जीवन-संघर्ष का आघात लगते ही उसकी सहज प्रेरणा उसके अन्दर एक आत्म- विश्वास पैदा करती रहती थी कि उसके अभिमान का उसके अस्तित्व का मूल्य आँकनेवाला कोई मिलेगा ; कोई अवश्य मिलेगा जो उसकी समस्त आशाआकांक्षाओं के लिए, प्रवृत्तियों की चेष्टाओं के लिए मार्ग खोल देगा। उनके सौन्दर्य से वशीभूत होकर उन्हें चरितार्थ कर देगा, तृप्त कर देगा । प्रत्येक युवक के भीतर स्वभावतः यह स्फुरणा जन्म पाती है ।

पर इस आत्म सन्तोष के लिए धनी युवकों के पास जाना पीताम्बर की अनुभव – शून्यता एवं भ्रम था । वे इस काम के लिए उससे भी निर्धन थे । यह काम किसी एक व्यक्ति के करने का था भी नहीं । इसका संचालक या सम्पादक हो सकता है हमारा सुव्यवस्थित, सामाजिक या सामूहिक व्यक्तित्व । सामाजिक एकता, सामाजिक सुव्यवस्था एवं समुन्नति व्यक्ति का विशद व्यक्तित्व है, जिसकी छत्रछाया में वह आत्मोन्नति कर सकता है, आत्म-तृप्ति पा सकता है । समाज व्यक्ति की सीमा का सापेक्ष निःसीम है । वह बूँदों की सम्मिलित शक्ति का समुद्र है जिसमें मिलकर प्रत्येक बूँद एकत्रित ऐश्वर्य का उपभोग कर सकता है, पर अपने देश में वह सामूहिक आधार है ही नहीं जिसकी विशद भूमि पर व्यक्ति निर्भीकरूप से खड़ा होकर आगे बढ़ सके। हम सब अनाथ, यतीम हैं, हमारा देश एक महान् सभ्यता का विशाल भग्नावशेष है । हमारे यहाँ प्रत्येक व्यक्ति एक व्यक्तिमात्र मांसपिण्ड मात्र है – वह कुलीन हो, अकुलीन, धनी हो या निर्धन । वह समाज नहीं है, वह देश नहीं है, उसके पीछे इन सब का सम्मिलित बल काम नहीं करता । वह निराधार है, वह क्षुद्र है ।

हम केवल व्यक्तिगत उन्नति, व्यक्तिगत सम्मान, व्यक्तिगत शक्ति को ही समझ सकते हैं, उसी का उपभोग भी करते हैं- अपने सामाजिक व्यक्तित्व का सम्मान, उसकी शक्ति एवं उन्नति का महत्व अभी हमें मालूम नहीं हो पाया, इसीलिए हम कच्चे सूत की लच्छी के उन उलझे और बिखरे तागों की तरह हैं, जो अपनी एकता से बनने वाली रस्सी के बल से अपरिचित हैं ।

फलतः, इस विशाल पृथ्वी पर जटिल जीवन-संग्राम की कठिनाइयों का सामना हम में से प्रत्येक को केवल अपने बल पर करना पड़ता है । अर्थात् प्रत्येक तिनके को बाढ़ का सामना पृथक्-पृथक् रूप से करना पड़ता है ! व्यक्ति के लिए देश के व्यक्तित्व का, मनुष्य के लिए विश्व के व्यक्तित्व का अभाव होने के कारण प्रत्येक व्यक्ति के शक्ति की इकाई केवल व्यक्ति ही रह जाता है, और उसके लिए वाह्य जगत के जीवन-संग्राम के घात-प्रतिघात, उत्थान- पतनों को सहना कठिन ही नहीं असम्भव हो जाता है । दो-एक बार निष्फल होकर वह शीघ्र ही अपने को अयोग्य समझने लगता है, और हतबुद्धि हो अन्त में निराशावादी, भाग्यवादी, दुःखवादी, विरक्त, उदास, द्रोही, द्वेषी, निन्दक सभी कुछ बन जाता है । सभ्यता के ह्रास के युग में राष्ट्र के या समाज के अवनति के युगों में ऐसी ही विचारधारा जनसाधारण की बन जाती है।

इसी विचारधारा के प्रवाह में प्रताड़ित, प्रतिहत, पीताम्बर भी तिनके की तरह वह गया। समाज की दुर्बलता को वह अपनी दुर्बलता, उसके दोषों को अपने ही दोष समझने लगा । वह अपनी ही आँखों में गिर गया। ईश्वर ने उसे क्यों वैसा हेय, जघन्य और निकम्मा बनाया, यह उसकी समझ में नहीं आया । वह उसे अपने ही कर्मों का, पापों का फल, पूर्व जन्म का, भाग्य का दोष मानने लगा। अपने चारों ओर व्याप्त वातावरण में उसे ऐसे ही विचार और भावनाएँ मिलीं, जो उसके भीतर भी जड़ जमा गई । उसे अपने से घृणा, अच्छाई से घृणा – जीवन, संसार सब से विरक्ति हो गई। वह अपने अन्तर की जीवनोत्पादक प्रेरणाओं, अभिलाषाओं, आशाओं, रुचियों को बलपूर्वक दबाने लगा । मन ही मन जीवन इच्छा के लिए आत्मा का तिरस्कार करने लगा । यह जीवन माया है, संसार भ्रम है, इच्छाओं का अन्त दुःख है; जीवन, संसार, आत्म- उन्नति सब कुछ दुःखमय है, यह सब निर्मम भाग्य का छल है, ऐसी ही बातों में उसका विश्वास बढ़ने लगा । उसके भीतर कार्य में प्रवृत्त करनेवाली स्फुरणा निश्चेष्ट पड़ गई, मन की सब स्फूर्ति सदैव के लिए जाती रही। उसने अपने से भी गए-बीतों, दुर्भाग्य-पीड़ितों को देखना, उनपर सोचना प्रारम्भ किया; ऐसे विचारों से उसे सान्त्वना मिलने लगी और उसका विश्वास जीवन और संसार की निस्सारता पर बढ़ने लगा । व्यक्ति के जिस क्षुद्ररूप को उसने जीवन और संसार का स्वरूप समझ लिया था, वह अवश्य ही निस्सार एवं दुःखप्रद है । व्यक्ति के विशदरूप का, उसके सामाजिक, दैशिक, विश्व – व्यक्तित्व का चिरन्तन स्वरूप उसे अपने यहाँ कहीं देखने को नहीं मिला। जीवन की समग्रता से कटकर वह अलग हो गया, और पेड़ की डाली से विच्छिन्न पुष्प की तरह मुरझाने और सूखने लगा ।

किसी को सुन्दर, स्वस्थ, संसार में रत, आशा, सदिच्छा, सदाशयता में तत्पर देखकर उसके भीतर से एक विद्रूप हँसी निकलने लगी, वह सब का उपहास करने लगा। सभी पर ताने कसना, व्यंग बौछार करना उसका स्वभाव ही बन गया । उसका समस्त विश्वास भाव के विश्व से उठ गया । अभाव का विश्व कठोर है- सही, पर वही सत्य है । सुख, सफलता, सम्पत्ति का स्वप्न देखना अज्ञान है। अब वह मनुष्यों की खोट, उनकी बुराइयों को खोजने लगा । जो कोई सुखी सम्पत्तिशाली दीखता, समाज जिसे आदर- सम्मान देता उसमें भी दो-चार दोष निकालकर वह अपने मन को सन्तोष देने लगा। उसके पड़ोस में उसके किसी सम्बन्धी ने एक विशाल दो मंजिला कोठी खड़ी कर दी थी । वह आधुनिक ढंग की, बड़ी ही सुन्दर, उस गरीब बस्ती में अपना गर्वोन्नत मस्तक उठाए हुए थी, पर पीताम्बर ने वह सड़क के किनारे है, उसमें पर्दा नहीं, उसके मालिक ने मजदूरों की तनख्वाह काटी, इत्यादि, उसमें कई दोष निकाल दिए । वह जब मकान जाता उस कोठी की ओर कभी नहीं देखता, पहले ही से आँखें फेर लेता ।

हम कभी से इस अभावात्मक सत्य पर विश्वास करते चले आ रहे हैं। ऐसा करने से हम सक्रिय जीवन के घात-प्रतिघात, उसकी स्वास्थ्यवर्धक स्पर्द्धाओं का सामना करने से बच जाते हैं, हम अपने विशद व्यक्तित्व के उज्ज्वल परिमाणों से अनभिज्ञ होने के कारण क्षुद्र व्यक्तित्व को अपनाए हुए हैं, अपने को सर्वस्व न बना सकने के कारण हम शून्यवत् हो गए हैं । पर सूरज, चाँद और तारे हमें शून्य बन जाने का उपदेश नहीं देते । नीला आकाश, हरी धरती, इठलाती वायु, रङ्ग-विरङ्गे फूल, गाते हुए पक्षी, दौड़ती हुई लहरें हमें दूसरा ही सन्देश देते, दूसरे ही सत्य का दर्शन कराते हैं । वहाँ अजेय जीवन, अविराम सृजन हमारे मरणशील व्यक्तित्व का, हमारे जड़त्व और निर्जीवता का प्रत्येक क्षण उपहास उड़ाया करते हैं, हमें विश्व की समग्रता की ओर, हमारे अमर व्यक्तित्व की ओर आकर्षित करते रहते हैं । पारस्परिक स्पर्द्धा, द्वेष, द्रोह, छोटे-मोटे सुख-दुख, हानि-लाभ, भेद-भाव के अन्धकार से गिरे हम सर्वत्र प्रकाशमान सम्पूर्णता से अपना सम्बन्ध विच्छेद कर नाशमान हो गए हैं ।

इसी भावात्मक सत्य की निर्जीव सजीव मूर्ति पीताम्बर को हम छुटपन से इस पानवाले के रूप में देखते आए हैं । उसे अब निश्चेष्ट, निर्जीव रहने ही में आराम मिलता है । उसका अब स्वास्थ्य अब नहीं के बराबर रह गया है । लगातार पान चबाने से दाँत सड़ गए, दिन-रात बैठे रहने से जठराग्नि बुझ गई है । वह केवल जीवित रहने के अभ्यास से जीता है । स्वास्थ्य गँवा बैठने एवं हृदय में निर्जीवता व्याप्त हो जाने के कारण वह अपनी पत्नी से भी प्रसन्न नहीं रह सका । पानवाला बन जाने के कुछ ही महीनों बाद भाई ने उसकी शादी कर दी थी । जब तेल टपक कर समाप्त हो चुका था तब केवल बत्ती को जलाने के लिए मानो दीपक को शिखा के पाश में बाँध दिया गया । पीताम्बर का निर्बल रुग्ण बच्चा जब जाता रहा तब उसने सन्तोष की ही साँस ली ।

आज दीवाली के रोज़ दूकान सजाते हुए उसने एक पुराना मिट्टी का खिलौना कपड़े की तहों से बाहर निकाल गद्दी के पास रक्खा है। जिसके लिए पाँच साल पहिले यह खिलौना लाया था वह तो रहा नहीं, यह खिलौना रह गया है । “वह मिट्टी का नहीं था इसीलिए, वह मिट्टी का नहीं था !” ऐसा कहते हुए पीताम्बर उसी तरह ठठाकर हँस रहा है ।

लेखक

  • सुमित्रानंदन पंत

    पंत जी का मूल नाम गोसाँई दत्त था। इनका जन्म 1900 ई. में उत्तरांचल के अल्मोड़ा जिले के कौसानी नामक स्थान पर हुआ। इनकी प्रारंभिक शिक्षा कौसानी के गाँव में तथा उच्च शिक्षा बनारस और इलाहाबाद में हुई। युवावस्था तक पहुँचते-पहुँचते महात्मा गाँधी के असहयोग आंदोलन से प्रभावित होकर इन्होंने पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी। उसके बाद वे स्वतंत्र लेखन करते रहे। साहित्य के प्रति उनके अविस्मरणीय योगदान के लिए इन्हें कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। इन्हें भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार, सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार मिले। भारत सरकार ने इन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया। इनकी मृत्यु 1977 ई. में हुई। रचनाएँ-पंत जी ने समय के अनुसार अनेक विधाओं में कलम चलाई। इनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं- काव्य- वीणा, ग्रंथि , पल्लव, गुंजन, युगवाणी, ग्राम्या, चिदंबरा, उत्तरा, स्वर्ण किरण, कला, और बूढ़ा चाँद, लोकायतन आदि हैं। नाटक-रजत रश्मि, ज्योत्स्ना, शिल्पी। उपन्मस-हार। कहानियाँ व संस्मरण-पाँच कहानियाँ, साठ वर्ष, एक रेखांकन। काव्यगत विशेषताएँ-छायावाद के महत्वपूर्ण स्तंभ सुमित्रानंदन पंत प्रकृति के चितेर कवि हैं। हिंदी कविता में प्रकृति को पहली बार प्रमुख विषय बनाने का काम पंत ने ही किया। इनकी कविता प्रकृति और मनुष्य के अंतरंग संबंधों का दस्तावेज है। प्रकृति के अद्भुत चित्रकार पंत का मिजाज कविता में बदलाव का पक्षधर रहा है। आरंभ में उन्होंने छायावाद की परिपाटी पर कविताएँ लिखीं। पल-पल परिवर्तित प्रकृति वेश इन्हें जादू की तरह आकृष्ट कर रहा था। बाद में चलकर प्रगतिशील दौर में ताज और वे आँखें जैसी कविताएँ लिखीं। इसके साथ ही अरविंद के मानववाद से प्रभावित होकर मानव तुम सबसे सुंदरतम जैसी पंक्तियाँ भी लिखते रहे। उन्होंने नाटक, कहानी, आत्मकथा, उपन्यास और आलोचना के क्षेत्र में भी काम किया है। रूपाभ नामक पत्रिका का संपादन भी किया जिसमें प्रगतिवादी साहित्य पर विस्तार से विचार-विमर्श होता था। पंत जी भाषा के प्रति बहुत सचेत थे। इनकी रचनाओं में प्रकृति की जादूगरी जिस भाषा में अभिव्यक्त हुई है, उसे स्वयं पंत चित्र भाषा की संज्ञा देते हैं।

    View all posts
पानवाला/सुमित्रानंदन पंत

प्रातिक्रिया दे

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *

×