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मैला आँचल प्रथम भाग खंड1-5/फणीश्वरनाथ रेणु

‘मैला आँचल’ हिन्दी का श्रेष्ठ और सशक्त आंचलिक उपन्यास है। नेपाल की सीमा से सटे उत्तर-पूर्वी बिहार के एक पिछड़े ग्रामीण अंचल को पृष्ठभूमि बनाकर रेणु ने इसमें वहाँ के जीवन का, जिससे वह स्वयं ही घनिष्ट रुप से जुड़े हुए थे, अत्यन्त जीवन्त और मुखर चित्रण किया है।
‘मैला आँचल’ का कथानक एक युवा डॉक्टर है जो अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद पिछड़े गाँव को अपने कार्य-क्षेत्र के रुप में चुनता है, तथा इसी क्रम में ग्रामीण जीवन के पिछड़ेपन, दुःख-दैन्य, अभाव, अज्ञान, अन्धविश्वास के साथ-साथ तरह-तरह के सामाजिक शोषण-चक्रों में फँसी हुई जनता की पीड़ाओं और संघर्षों से भी उसका साक्षात्कार होता है। कथा का अन्त इस आशामय संकेत के साथ होता है कि युगों से सोई हुई ग्राम-चेतना तेजी से जाग रही है।
कथाशिल्पी फणीश्वरनाथ रेणु की इस युगान्तकारी औपन्यासिक कृति में कथाशिल्प के साथ-साथ भाषाशिल्प और शैलीशिल्प का विलक्षण सामंजस्य है जो जितना सहज-स्वाभाविक है, उतना ही प्रभावकारी और मोहक भी।

प्रथम संस्करण की भूमिका

यह है मैला आँचल, एक आंचलिक उपन्यास। कथानक है पूर्णिया। पूर्णिया बिहार राज्य का एक जिला है; इसके एक ओर है नेपाल, दूसरी ओर पाकिस्तान और पश्चिम बंगाल। विभिन्न सीमा-रेखाओं से इसकी बनावट मुकम्मल हो जाती है, जब हम दक्खिन सन्थाल परगना और पच्छिम में मिथिला की सीमा-रेखाएँ खींच देते हैं। मैंने इसके एक हिस्से के एक ही गाँव को-पिछड़े गाँवों का प्रतीक मानकर-इस उपन्यास-कथा का क्षेत्र बनाया है।
इसमें फूल भी हैं शूल भी है, गुलाब भी है, कीचड़ भी है, चन्दन भी सुन्दरता भी है, कुरूपता भी- मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया।
कथा की सारी अच्छाइयों और बुराइयों के साथ साहित्य की दहलीज पर आ खड़ा हुआ हूँ; पता नहीं अच्छा किया या बुरा। जो भी हो, अपनी निष्ठा में कमी महसूस नहीं करता।

पटना
9 अगस्त 1954

-फणीश्वरनाथ ‘रेणु

मैला आँचल-प्रथम खंड

 

एक

गाँव में यह खबर बिजली की तरह फैल गई-मलेटरी ने बहरा चेथरू को गिरफ्तार कर लिया है और लोबिनलाल के कुँए से बाल्टी खोलकर ले गए हैं।
यद्यपि 1942 के जन-आन्दोलन के समय इस गाँव में न तो फौजियों का कोई उत्पात हुआ था और न आन्दोलन की लहर ही इस गाँव तक पहुँच पाई थी।… किन्तु जिले-भर की घटनाओं की खबर अफवाहों के रूप में यहाँ तक आकर जरूर पहुँची थी। ….मोगलाही टीशन पर गोरा सिपाही एक मोदी की बेटी को उठाकर ले गए। इसी को लेकर सिख और गोरे सिपाहियों में लड़ाई हो गई, गोली चल गई। ढोलबाजा में पूरे गाँव को घेरकर आग लगा दी गई, एक बच्चा भी बचकर नहीं निकल सका। मुसहरू के ससुर ने अपनी आँखों से देखा था- ठीक आग में भूनी गई मछलियों की तरह लोगों की लाशें महीनों पड़ी रहीं, कौआ भी नहीं खा सकता था; मलेटरी का पहरा था। मुसहरू के ससुर का भतीजा फारबिस साहब का खानसामा है; वह झूठ बोलेगा ? पूरे चार साल के बाद अब इस गाँव की बारी आई है। दुहाई माँ काली ! दुहाई बाबा लरसिंह !

यह सब गुअरटोली के बलिया की बदौलत हो रहा है।
बिरंचीदास ने हिम्मत से काम लिया; आँगन से निकलकर चारों ओर देखा और मालिकटोला की ओर दौड़ा। मालिक तहसीलदार विश्वनाथप्रसाद भी सुनकर घबड़ा गए, ‘‘लोबिन बाल्टी कहाँ से लाया था ? जरूर चोरी की बाल्टी होगी ! साले सब चोरी करेंगे और गाँव को बदनाम करेंगे।’’
मालिकटोले से यह खबर राजपूतटोली पहुँची-कायस्थटोली के विश्वनाथप्रसाद और ततमाटोली के बिरंची को मलेटरी के सिपाही पकड़कर ले गए हैं। ठाकुर रामकिशन सिंह बोले, ‘‘इस बार तहसीलदारी का मजा निकलेगा। जरूर जमींदार का लगान वसूल कर खा गया है। अब बड़े-घर की हवा खाएँगे बच्चू !’’
यादवटोली के लोगों ने खबर सुनते ही बलिया उर्फ बालदेव को गिरफ्तार कर लिया। भागने न पाए ! रस्सी से बाँधो ! पहले ही कहा था कि यह एक दिन सारे गाँव को बँधवाएगा।

तहसीलदार विश्वनाथप्रसाद एक सेर घी, पाँच सेर बासमती चावल और एक खस्सी लेकर डरते हुए मलेटरीवालों को डाली पहुँचाने चले, बिरंची को साथ ले लिया। बोले, ‘‘हिसाब लगाकर देख लो, पूरे पचास रुपए का सामान है। यह रुपया एक हफ्ता के अन्दर ही अपने टोले और लोबिन के टोले से वसूल कर जमा कर देना। तुम लोगों के चलते…।’’
मलेटरीवाले कोठी के बगीचे में हैं। बगीचे के पास पहुँचकर विश्वनथप्रसाद ने जेब से पलिया टोपी निकारकर पहन ली और कालीथान की ओर मुँह करके मां काली को प्रणाम किया, ‘‘दुहाई माँ काली !’’

बगीचे में पहुँचकर तहसीलदार साहब ने देखा, दो बैलगाड़ी हैं; बैल घास खा रहे हैं; मलेटरीवाले जमीन पर कम्बल बिछाकर बैठे हैं। ऐं….। मूढ़ी फाँक रहे हैं ! और बहरा चेथरू भी कम्बल पर ही बैठकर मूढ़ी फाँक रहा है !
‘‘सलाम हुजूर !’’
बिरंची ने सामान सिर से नीचे उतारकर झुककर सलाम किया, ‘‘सलाम सरकार !’’….. बकरा भी मेमिया उठा।
‘‘आ रे, यह क्या है ? आप कौन हैं ?’’ एक मोटे साहब ने पूछा।
‘‘हुजूर, ताबेदार राजा पारबंगा का तहसीलदार है, मीनापुर सर्किल का।’’

‘‘ओ, आप तहसीलदार हैं ! ठीक बात ! हम लोग डिस्ट्रिक्ट बोर्ड का आदमी है। यहाँ पर एक मैलेरिया सेंटर बनेगा। ऊपर से हुकुम आया है, यही बागान का जमीन में। मार्टिन साहब डिस्ट्रिक्ट बोर्ड को यह जमीन बहुत पहले दे दिया।’’
तहसीलदार साहब फिर एक बार सलाम करके बैठ गए। बिरंची हाथ जोड़े खड़ा रहा। राजपूतटोली के रामकिरपालसिंह जब कोठी के बगीचे में पहुँचे तो उन्होंने देखा कि बगीचे के पच्छिमवाली जमीन की पैमाइश हो रही है; कुछ लोग जरीब की कड़ी खींच रहे हैं, टोपावाले एक साहब तहसीलदार साहब से हँस-हँसकर बातचीत कर रहे हैं।

और अन्त में यादवटोली के लोग बालदेव के हाथ और कमर में रस्सी बाँधकर हो-हल्ला मचाते हुए आये। उसकी कमर में बँधी रस्सी को सभी पकड़े हुए हैं। फिरारी-सुराजी को पकड़ने वालों को सरकार बहादुर की ओर से इनाम मिलता है- एक हजार, दो हजार, पाँच हजार ! साहब तो देखते ही गुस्सा हो गए, ‘‘क्या बात है ? इसको क्यों बाँधकर लाया है ? इसने क्या किया है ?’’

‘‘हुजूर, यह सुराजी बालदेव गोप है। दो साल जेहल खटकर आया है; इस गाँव का नहीं, चन्ननपट्टी का है। यहाँ मौसी के यहाँ आया है। खध्धड़ पहनता है, जैहिन्न बोलता है।’’
‘‘तो इसको बाँधा है काहे ?’’
‘‘अरे बालदेव !’’ साहब के किरानी ने बालदेव को पहचान लिया,’’ अरे, यह तो बालदेव है। सर, रामकृष्ण कांग्रेस आश्रम का कार्यकर्ता है; बड़ा बहादुर है।’’
यादवों के बन्धन से मुक्ति पाकर बालदेव ने साहब और किरानी को बारी-बारी से ‘जाय हिन्द’ किया। साहब ने हँसते हुए कहा, ‘‘आपका गाँव में मलेरिया सेंटर खुल रहा है। खूब डाक्टर आ रहा है। डिस्ट्रिक्ट बोर्ड का तरफ से मकान बनेगा। लेकिन बाकी काम तो आप लोगों की मदद से ही होगा।’’

तहसीलदार साहब ने जमींदारी खाते और नक्शे को तजवीज करके कहा, ‘‘हुजूर जमीन एक एकड़ दस डिसमिल है।’’
ठाकुर रामकिरपाल को अब तक साहब को सलाम करने का भी मौका नहीं मिला था। विश्वनाथप्रसाद ने बाजी मार ली। जिन्दगी में पहली बार सिंहजी को अपनी निरक्षता पर ग्लानि हुई। सचमुच विद्या की महिमा बड़ी है। लेकिन भगवान ने शरीर दिया है, उच्चजाति में जन्म दिया है। इसी के बल पर बहुत बाबू-बबुआन, हाकिम हुक्काम और अमला-फैला से हेलमेल हुआ, जान-पहचान हुई। मौका पाते ही सलाम करके जोर से बोले, ‘‘जै हो सरकार की ! हुजूर, पबली को भलाय के वास्ते इतना दूर से कष्ट उठाकर आया है, और हम लोग हुजूर का कोई सेवा नहीं कर सके। गुसाईं जी रमैन में कहिन हैं- ‘धन्य भाग प्रभु दरशन दीन्हा…..।’’ हुजूर सेवक का नाम रामकिरनपाल सिंघ वल्द गरीबनेवाजसिंह, मोत्ताफा, जात राजपूत मोकाम गढ़बुन्देल राजपूताना हाल मोकाम मेरीगंज।’’

‘‘सिंह जी हमारा कोई सेवा नहीं चाहिए। सेवा के वास्ते मैलेरिया सेंटर खुल रहा है। इसी में मदद कीजिए सब मिलकर। यही सबसे बड़ा सेवा है।’’ साहब हँसते हुए बोले।
यादवटोली के लोग एक-एक कर नजर बचाकर, नौ-दो-ग्यारह हो चुके थे। उन्हें डर था कि बालदेव को बाँधकर लानेवालों का साहब चालान करेंगे।

साहब ने चलते समय कहा, ‘‘सात दिन के अन्दर ही डिस्ट्रिक्ट बोर्ड का मिस्तिरी लोग आवेगा। आप लोग बाँस, खड़, सुतली और दूसरा दरकारी चीज का इन्तजाम कर देगा। तहलीलदार साहब, आप हैं, बालदेवप्रसाद तो देश का सेवक ही है, और सिंह जी हैं। आप सब लोग मिलकर मदद कीजिए।’’

सबने हाथ जोड़कर, गर्दन झुकाकर स्वीकार किया। साहब दलबल के साथ चले खस्सी मेमिया रहा था। बालदेव गाड़ी के पीछे-पीछे गाँव के बाहर तक गया।
बालदेव ने लौटकर लोगों से कहा, ‘‘डिस्टीबोट के बंगाली आफसियर बाबू थे परफुल्लो बनरजी, और उनका किरानी जीत्तनबाबू; पहले कांग्रेस आफिस के किरानी थे।

दो

पूर्णिया जिले में ऐसे बहुत-से गाँव और कस्बे हैं, जो आज भी अपने नामों पर नीलहे साहबों का बोझ ढो रहे हैं। वीरान जंगलों और मैदानों में नील कोठी के खंडहर राही बटोहियों को आज भी नीलयुग की भूली हुई कहानियाँ याद दिला देते हैं।…गौना करके नई दुलहिन के साथ घर लौटता हुआ नौजवान अपने गाड़ीवान से कहता है-“जरा यहाँ गाड़ी धीरे-धीरे हाँकना, कनिया (दुलहिन) साहेब की कोठी देखेगी।…यही है मकै साहब की कोठी।…वहाँ है नील महने का हौज !”

नई दुलहिन ओहार के पर्दे को हटाकर, घूँघट को जरा पीछे खिसकाकर झाँकती है-झरबेर के घने जंगलों के बीच ईंट-पत्थरों का ढेर ! कोठी कहाँ है ?

दूल्हे का चेहरा गर्व से भर जाता है-अर्थात् हमारे गाँव के पास साहेब की कोठी थी; यहाँ साहेब-मेम रहते थे।

गंगा-स्नान करके लौटते हुए, तीर्थयात्रियों की बैलगाड़ियाँ यहाँ कुछ देर रुक जाती हैं। गाड़ियों से युवतियाँ और बच्चे निकलकर, डरते-डरते, खंडहरों के पास जाते हैं। बूढ़ियाँ जंगलों में जंगली जड़ी-बूटी खोजती हैं।…

ऐसा ही एक गाँव है मेरीगंज। रौतहट स्टेशन से सात कोस पूरब, बूढ़ी कोशी को पार करके जाना होता है। बूढ़ी कोशी के किनारे-किनारे बहुत दूर तक ताड़ और खजूर के पेड़ों से भरा हुआ जंगल है। इस अंचल के लोग इसे ‘नवाबी तड़वन्ना’ कहते हैं। किस नवाब ने इस ताड़ के वन को लगाया था, कहना कठिन है, लेकिन वैशाख से लेकर आषाढ़ तक आस-पास के हलवाहे-चरवाहे भी इस वन में नवाबी करते हैं। तीन आने लबनी ताड़ी, रोक साला मोटरगाड़ी ! अर्थात् ताड़ी के नशे में आदमी मोटरगाड़ी को भी सस्ता समझता है। तड़वन्ना के बाद ही एक बड़ा मैदान है, जो नेपाल की तराई से शुरू होकर गंगा जी के किनारे खत्म हुआ है। लाखों एकड़ जमीन ! वंध्या धरती का विशाल अंचल। इसमें दूब भी नहीं पनपती है। बीच-बीच में बालूचर और कहीं-कहीं बेर की झाड़ियाँ। कोस-भर मैदान पार करने के बाद, पूरब की ओर काला जंगल दिखाई पड़ता है; वही है मेरीगंज कोठी।

आज से करीब पैंतीस साल पहले, जिस दिन डब्लू. जी. मार्टिन ने इस गाँव में कोठी की नींव डाली, आस-पास के गाँवों में ढोल बजवाकर ऐलान कर दिया-आज से इस गाँव का नाम हुआ मेरीगंज। मेरी मार्टिन की नई दुलहिन थी जो कलकत्ता में रहती थी। कहा जाता है कि एक बार एक किसान के मुँह से गलती से इस गाँव का पुराना नाम निकल गया था। बस, और जाता कहाँ है ? साहब ने पचास कोड़े लगाए थे, गिनकर।

इस गाँव का पुराना नाम अब किसी को याद नहीं अथवा आज भी नाम लेने में एक अज्ञात आशंका होती है। कौन जाने ! गाँव का नाम बदलकर, रौतहट स्टेशन से मेरीगंज तक डिस्ट्रिक्ट बोर्ड से सड़क बनवाकर और गाँव में पोस्ट आफिस खुलवाने के बाद मार्टिन साहब अपनी नवविवाहिता मेम मेरी को लाने के लिए कलकत्ता गए। गाँव की सबसे बूढ़ी भैरो की माँ यदि आज रहती तो सुना देती-अहा हा ! परी की तरह थी साहेब की मेम, इन्द्रासन की परी की तरह।

लेकिन मार्टिन साहब का आयोजन अधूरा साबित हुआ। मेरीगंज पहुँचने के ठीक एक सप्ताह बाद ही जब मेरी को ‘जड़ैया’ ने धर दबाया तो मार्टिन ने महसूस किया कि पोस्ट आफिस से पहले यहाँ एक डिस्पेंसरी खुलवाना जरूरी था। कुनैन की टिकिया से जब तीसरे दिन भी मेरी का बुखार नहीं उतरा तो मार्टिन ने अपने घोड़े को रौतहट की ओर दौड़ाया। रौतहट स्टेशन पहुंचने पर मालूम हुआ कि पूर्णिया जानेवाली गाड़ी दस मिनट पहले चली गई थी। मार्टिन ने बगैर कुछ सोचे घोड़े को पूर्णिया की ओर मोड़ दिया। रौतहट से पूर्णिया बारह कोस है। मेरीगंज में किसी से पूछिए, वह आपको मार्टिन के पंखराज घोड़े की यह कहानी विस्तारपूर्वक सुना देगा…जिस समय मार्टिन पुरैनिया के सिविलसर्जन के बँगले पर पहुंचा, पुरैनिया टीशन पर गाड़ी पहुँची भी नहीं थी।

किन्तु मार्टिन का पंखराज घोड़ा और सिविलसर्जन साहब की हवागाड़ी जब तक मेरीगंज पहुँचे, मेरी को मलेरिया निगल चुका था।…ट्यूबवेल के पास गढ़े में घुसकर, घुँघराले रेशमी बालों वाले सिर पर कीचड़ थोपते-थोपते मेरी मर गई थी।

मेरी की लाश को दफनाने के बाद ही मार्टिन पूर्णिया गया, सिविलसर्जन, डिस्ट्रिक्ट मैजिस्ट्रेट, डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के चेयरमैन और हेल्थ आफिसर से मिला; एक छोटी-सी डिस्पेंसरी की मंजूरी के लिए जमीन-आसमान एक करता रहा। डिस्पेंसरी के लिए अपनी जमीन रजिस्ट्री कर दी। अधिकारियों ने आश्वासन दिलाया-अगले साल जरूर डिस्पेंसरी खुल जाएगी। ठीक इसी समय जर्मनी के वैज्ञानिकों ने एक चुटकी में नीलयुग का अन्त कर दिया। कोयले से नील बनाने की वैज्ञानिक विधि का प्रयोग सफल हुआ और नीलहे साहबों की कोठियों की दीवारें अरराकर गिर पड़ीं। साहबों ने कोठियाँ बेचकर जमींदारियाँ खरीदनी शुरू की। बहुतों ने व्यापार आरम्भ किया। मार्टिन की दुनिया तो पहले ही उजड़ चुकी थी, दिमाग भी बिगड़ गया। बगल में रद्दी कागजों का पुलिन्दा दबाए हुए पगला मार्टिन दिन-भर पूर्णिया कचहरी में चक्कर काटता फिरता था, हर मिलनेवाले से कहता था, “गवर्नमेंट ने एक डिस्पेंसरी का हुक्म दे दिया है; अगले साल खुल जाएगा।” कहते हैं कि पटना और दिल्ली की दौड़-धूप के बाद एक बार वह बहुत उदास होकर मेरीगंज लौटा; मेरी की कब्र पर लेटकर सारा दिन रोता रहा-‘डार्लिंग ! डाक्टर नहीं आएगा। इसके बाद उसका पागलपन इतना बढ़ गया कि अधिकारियों ने उसे काँके (राँची स्थित पागलखाना) भेज दिया और काँके के पागलखाने में ही उसकी मृत्यु हो गई।

कोठी के बगीचे में, अंग्रेजी फूलों के जंगल में आज भी मेरी की कब्र मौजूद है। कोठी की इमारत ढह गई है, नील के हौज टूट-फूट गए हैं; पीपल, बबूल तथा अन्य जंगली पेड़ों का एक घना जंगल तैयार हो गया है। लोग उधर दिन में भी नहीं जाते। कलमी आम का बाग तहसीलदार साहब ने बन्दोबस्त में ले लिया है, इसलिए आम का बाग साफ-सुथरा है। किन्तु, कोठी के जंगल में तो दिन में भी सियार बोलता है। लोग उसे भुतहा जंगल कहते हैं। ततमाटोले का नन्दलाल एक बार ईंट लाने गया; ईंट के हाथ लगाते ही खत्म हो गया था। जंगल से एक प्रेतनी निकली और नन्दलाल को कोड़े से पीटने लगी-साँप के कोड़े से। नन्दलाल वहीं ढेर हो गया। बगुले की तरह उजली प्रेतनी !

मेरीगंज एक बड़ा गाँव है; बारहो बरन के लोग रहते हैं। गाँव के पूरब एक धारा है जिसे कमला नदी कहते हैं। बरसात में कमला भर जाती है, बाकी मौसम में बड़े-बड़े गढ़ों में पानी जमा रहता है-मछलियों और कमल के फूलों से भरे हुए गढ़े ! पौष पूर्णिमा के दिन इन्हीं गढ़ों में कोशी-स्नान के लिए सुबह से शाम तक भीड़ लगी रहती है। रौतहट स्टेशन से हलवाई और परचून की दुकानें आती हैं। कमला मैया के महातम के बारे में गाँव के लोग तरह-तरह की कहानियाँ कहते हैं।…गाँव में किसी के यहाँ शादी-ब्याह या श्राद्ध का भोज हो, गृहपति स्नान करके, गले में कपड़े का खूँट डालकर, कमला मैया को पान-सुपारी से निमन्त्रित करता था। इसके बाद पानी में हिलोरें उठने लगती थीं, ठीक जैसे नील के हौज में नील मथा जा रहा हो। फिर किनारे पर चाँदी के थालों, कटोरों और गिलासों का ढेर लग जाता था। गृहपति सभी बर्तनों को गिनकर ले जाता था और भोज समाप्त होते ही कमला मैया को लौटा आता था। लेकिन सभी की नीयत एक जैसी नहीं होती। एक बार एक गृहपति ने कुछ थालियाँ और कटोरे चुरा रखे। बस, उसी दिन से मैया ने बर्तनदान बन्द कर दिया और उस गृहपति का तो वंश ही खत्म हो गया-एकदम निर्मूल ! उस बिगड़ी नीयतवाले गृहपति के बारे में गाँव में दो रायें हैं-राजपूतटोली के लोगों का कहना है, वह कायस्थटोली का गृहपति था; कायस्थटोलीवाले कहते हैं, वह राजपूत था।

राजपूतों और कायस्थों में पुश्तैनी मन-मुटाव और झगड़े होते आए हैं। ब्राह्मणों की संख्या कम है, इसलिए वे हमेशा तीसरी शक्ति का कर्तव्य पूरा करते रहे हैं। अभी कुछ दिनों से यादवों के दल ने भी जोर पकड़ा है। जनेऊ लेने के बाद भी राजपूतों ने यदुवंशी क्षत्रिय को मान्यता नहीं दी। इसके विपरीत समय-समय पर यदुवंशियों के क्षत्रित्व को वे व्यंगविद्रूप के बाणों से उभारते रहे। एक बार यदुवंशियों ने खुली चुनौती दे दी। बात तूल पकड़ने लगी थी। दोनों ओर से लोग लगे हुए थे। यदुवंशियों को कायस्थटोली के मुखिया तहसीलदार विश्वनाथप्रसाद मल्लिक ने विश्वास दिलाया, मामले-मुकदमे की पूरी पैरवी करेंगे। जमींदारी कचहरी के वकील बसन्तोबाबू कर रहे थे, “यादवों को सरकार ने राजपूत मान लिया है। इसका मुकदमा तो धूमधाम से चलेगा। खुद वकील साहब कह रहे थे।”

राजपूतों को ब्राह्मणटोली के पंडितों ने समझाया-“जब-जब धर्म की हानि हुई है, राजपूतों ने ही उनकी रक्षा की है। घोर कलिकाल उपस्थित है; राजपूत अपनी वीरता से धर्म को बचा लें।”…लेकिन बात बढ़ी नहीं। न जाने कैसे यह धर्मयुद्ध रुक गया। ब्राह्मणटोली के बूढ़े ज्योतिषी जी आज भी कहते हैं- “यह राजपूतों के चुप रहने का फल है कि आज चारों ओर, हर जाति के लोग गले में जनेऊ लटकाए फिर रहे हैं।-भूमफोड़ क्षत्री तो कभी नहीं सुना था।…शिव हो ! शिव हो !”

अब गाँव में तीन प्रमुख दल हैं, कायस्थ, राजपूत और यादव। ब्राह्मण लोग अभी भी तृतीय शक्ति हैं। गाँव के अन्य जाति के लोग भी सुविधानुसार इन्हीं तीनों दलों में बँटे हुए हैं।

कायस्थटोली के मुखिया विश्वनाथप्रसाद मल्लिक, राज पारबंगा के तहसीलदार हैं। तहसीलदारी उनके खानदान में तीन पुस्त से चली आ रही है। इसी के बल पर तहसीलदार साहब आज एक हजार बीघे जमीन के एक बड़े काश्तकार हैं। कायस्थटोली को गाँव की अन्य जाति के लोग मालिकटोला कहते हैं। राजपूतटोली के लोग कहते हैं कैथटोली।

ठाकुर रामकिरपालसिंघ राजपूतटोली के मुखिया हैं। इनके दादा महारानी चम्पावती की स्टेट के सिपाही थे और विश्वनाथप्रसाद के दादा तहसीलदार। कहते हैं कि जब महारानी चम्पावती और राज पारबंगा में दीवानी मुकदमा चल रहा था तो विश्वनाथप्रसाद के दादा राज पारबंगा स्टेट की ओर मिल गए थे। स्टेटवालों को महारानी के सारे गुप्त कागजात हाथ लग गए और महारानी मुकदमे में हार गई। काशी जाने से पहले महारानी ने रामकिरपालसिंघ के नाम अपनी बची हुई तीन सौ बीघे जमीन की लिखा-पढ़ी कर दी थी। रामकिरपालसिंघ कहते हैं कि उनके दादा ने महारानी को एक बार डकैतों के हाथ से अकेले ही बचाया था, इसी के इनाम में महारानी ने दानपत्तर लिख दिया था।…कायस्थटोली के लोग राजपूतटोली को ‘सिपैहियाटोली’ कहते हैं।

यादवों का दल नया है। इनके मुखिया खेलावन यादव को दस बरस पहले तक लोगों ने भैंस चराते देखा है। दूध-घी की बिक्री से जमाए हुए पैसे की बात जब चारों ओर बुरी तरह फैल गई तो खेलावन को बड़ी चिन्ता हुई। महीनों तहसीलदार के यहाँ दौड़ते रहे, सर्किल मैनेजर को डाली चढ़ाई, सिपाहियों को दूध-घी पिलाया और अन्त में कमला के किनारे पचास बीघे जमीन की बन्दोबस्ती हो सकी। अब तो डेढ़ सौ बीघे की जोत है। बड़ा बेटा सकलदीप अररिया बैरगाछी में, नाना के घर पर रहकर, हाईस्कूल में पढ़ता है। खेलावनसिंह यादव को लोग नया मातबर कहते हैं। लेकिन यादव क्षत्रियटोली को अब ‘गुअरटोली’ कहने की हिम्मत कोई नहीं करता। यादवटोली में बारहो मास शाम को अखाड़ा जमता है। चार बजे दिन से ही शोभन मोची ढोल पीटता रहता है-ढाक ढिन्ना, ढाक ढिन्ना ! ढोल के हर ताल पर यादवटोली के बूढ़े-बच्चे-जवान डंड-बैठक और पहलवानी के पैंतरे सीखते हैं।

सारे मेरीगंज में दस आदमी पढ़े-लिखे हैं-पढ़े-लिखे का मतलब हुआ अपना दस्तखत करने से लेकर तहसीलदारी करने तक की पढ़ाई। नए पढ़नेवालों की संख्या है पन्द्रह। गाँव की मुख्य पैदावार है धान, पाट और खेसारी। रब्बी की फसल भी कभी-कभी अच्छी हो जाती है।

तीन

डिस्टीबोट के मिस्तिरी लोग आए हैं। बालदेव के उत्साह का ठिकाना नहीं है। आफसियरबाबू ने तहसीलदार साहब और रामकिरपालसिंघ के सामने ही कहा था-“आप तो देश के सेवक हैं।” सबों ने सुना था। दुनिया में धन क्या है ? तहसीलदार साहब और सिंघ जी के पास पैसा है, मगर जो इज्जत बालदेव की है, वे कहाँ पाएँगे ? यादवटोली के लोगों ने बालदेव से उसी दिन माफी माँग ली थी, “बालदेव भाई !…हम लोग मूरख ठहरे और तुम गियानी। हम कूप के बेंग (मेंढ़क) हैं। तुम तो बहुत देश-विदेश घूमे हो, बड़े-बड़े लोगों के साथ रहे हो। हमारा कसूर माफ कर दो।”

उसी दिन से खेलावनसिंघ यादव बालदेव को अपने यहाँ रहने के लिए आग्रह कर रहे हैं, “जात का नाम, जात की इज्जत तो तुम्हीं लोगों के हाथ में है। तुम कोई पराए हो ? तुम्हारी मौसी मेरी चाची होगी। हम-तुम भाई-भाई ठहरे।”

खेलावन की डेरावाली खुद आकर बालदेव की बुढ़िया मौसी से कह गई, “घर आँगन सब आपका ही है। जिस घर में एक बूढ़ी नहीं, उस घर का भी कोई ठिकाना रहता है ! मैं अकेली क्या करूँ, दूध-घी देखूँ कि गोबर-गुहाल ?”

बालदेव की बुढ़िया मौसी की दुनिया ही बदल गई। कल तक घर-घर घूमकर कुटाई-पिसाई करती फिरती थी और आज गाँव की मालकिन आकर उसे सारे घर की मालकिन बना गई।

मिस्तिरी लोग आए हैं। बालदेव गाँव के टोले में घूमता रहा। “डिस्टीबोट से मिस्तिरी जी लोग आए हैं। कल से काम शुरू हो जाना चाहिए।…मलेरिया बोखार मच्छड़ काटने से होता है। मगर कुनैन खाने से, जितना भी मच्छड़ काटे, कुछ नहीं होगा।” ततमाटोली (तन्त्रिमाक्षत्रियटोली) में मँहगूदास के घर के पास, बालदेव की बातों को लोग बड़े अचरज से सुन रहे हैं। आँगन की औरतें भी घूँघट काढ़े, टट्टी के पास खड़ी होकर सुन रही हैं, “अब रात-भर गोइँठा जलाकर धुआँ करने का झंझट नहीं, काटे जितना मच्छड़ !”

पोलियाटोली, तन्त्रिमा-छत्रीटोली, यदुवंशी छत्रीटोली, गहलोत छत्रीटोली, कुर्म छत्रीटोली, अमात्य ब्राह्मणटोली, धनुकधारी छत्रीटोली, कुशवाहा छत्रीटोली, और रैदासटोली के लोगों ने बचन दिया, “सात दिन तक कोई काम नहीं करेंगे। मालिक लोगों से कहिए-हल-फाल, कोड़-कमान बन्द रखें। करना ही क्या है ? एक इसपिताल का घर, एक डागडरबाबू का घर, एक भनसाघर (रसोईघर) और एक घर फालतू। सात दिनों में ही सब काम रैट हो जाएगा।”

धनुकधारीटोली के तनुकलाल ने एक सवाल पैदा कर दिया, “लेकिन हलफाल काम-काज बन्द करने से मालिक लोग मजूरी तो नहीं देंगे ! एक-दो दिन की बात रहे तो किसी तरह खेपा भी जा सकता है। सात दिन तक बिना मजूरी के ? यह जरा मुश्किल मालूम होता है !…ततमा और दुसाधटोली के लोगों की बात जाने दीजिए। उनकी औरतें हैं, सुबह से दोपहरिया तक कमला में कादो-पानी हिड़कर एक-दो सेर गैंची मछली निकाल लाएँगी। चार सेर धान का हिस्सा लग जाएगा। बाबू लोगों के पुआल के टालों (घास की ढेरी) के पास धरती खरोंचकर, चूहे के माँदों को कोड़कर भी कुछ धान जमा कर लेंगी। नहीं तो कोठी के जंगल से खमर आलू उखाड़ लाएँगी। रौतहट हाट में कटिहार मिल के कुल्ली लोग चार आने सेर खमर आलू हाथोंहाथ उठा लेते हैं। लेकिन, और लोगों के लिए तो बड़ा मुश्किल है।”

बालदेव ने निराश होकर पूछा, “अब क्या किया जाए ?”

तनुकलाल के पास समस्या का समाधान पहले से ही मौजूद था। बोला, “एक उपाय है, यदि मालिक लोग आधे दिन की मजूरी दे दें तो काम चल जाए।”

तनुकलाल के इस प्रस्ताव पर विचार करता हुआ बालदेव मालिकटोला की ओर चला। विश्वनाथबाबू तो मान लेंगे, सिंघ जी के बारे में कुछ कहना मुश्किल है। सिपैहियाटोली का बिरजूसिंघ कल कह रहा था, “सिंघ जी इसपिताल में कोई मदद नहीं करेंगे। कहते थे, इसपिताल का मालिक-मक्तियार है विश्वनाथ और बलदेवा !”

ब्राह्मणटोली से तो कुछ उम्मीद करनी ही बेकार है। जिस दिन से अस्पताल होने की बात उन लोगों ने सुनी है, दिन-रात डाक्टर और अंग्रेजी दवा के खिलाफ तरह-तरह की कहानियाँ सुनाते फिर रहे हैं। जोतखी जी का विश्वास है कि डाक्टर लोग ही रोग फैलाते हैं, सुई भोंककर देह में जहर दे देते हैं, आदमी हमेशा के लिए कमजोर हो जाता है; हैजा के समय कूपों में दवा डाल देते हैं, गाँव-का-गाँव हैजा से समाप्त हो जाता है। कालाबुखार का नाम पहले लोगों ने कभी सुना था ? पूरब मुलुक कामरू कमिच्छा हासाम (आसाम) से कालाबुखारवालों का लहू शीशी में बन्द करके यही लोग ले आए थे। आजकल घर-घर कालाबुखार फैल गया है।…इसके अलावा, बिलैती दवा में गाय का खून मिला रहता है। भगमान भगत की दुकान के पास ही विश्वनाथबाबू से भेंट हो गई। तनुकलाल के प्रस्ताव को सुनते ही विश्वनाथबाबू चिढ़ गए। “…धानुकटोली का तनुकलाल ? अपने को बड़ा काबिल समझता है। हर बात में वह एक-न-एक ‘लेकिन’ जरूर लगाएगा। तुम भी तो बालदेव पूरे ‘बमभोलानाथ’ हो। उससे पूछा नहीं कि अस्पताल से सिर्फ मालिक लोगों की भलाई होगी क्या ?” भगमान भगत हमेशा सुपारी चबाता रहता है। बोलने के समय ऐसा लगता है कि वह बात को भी चबा रहा है, “अरे ! ई तो दस आदमी के काम बा, जे-बा-से एकरा में सबके मिल के मतत (मदद) करे के चाहीं। का हो सीप्रसाद ?”

भगत की दुकान पर यों भी हमेशा चार-पाँच आदमी बैठे रहते हैं। विश्वनाथबाबू की आवाज सुनकर दो-चार व्यक्ति और जमा हो गए। बूढ़े सुमरितदास को लोग लबड़ा समझते हैं। मगर वह समय पर पते की बात बता जाता है। आते ही बोला, “अरे तहसीलदार, आप समझे नहीं। तनुकलाल अपने मन से नहीं बोला है, इसमें कनकशन है। जरा इधर एकान्त में आइए तो बतावें।” तहसीलदार और सुमरितदास भगत की दुकान से जरा दूर जाकर बतियाने लगे। दुकान में बैठे हुए किसी ने कुढ़कर कहा, “बूढ़ा लुच्चा इसी को कहते हैं-हर बात में एकान्ती !” ।

भगत ने आँख टीपकर मना कर दिया-जोर से मत बोलो, बालदेव है।

सुमरितदास से प्रायबिट करने के बाद तहसीलदार का मिजाज बदल गया। आकर बोले, “अच्छा तो बालदेव, तुम जाकर ततमाटोली और पोलियाटोलेवालों से कहो, मैंने पचास रुपया माफ कर दिया। उस दिन आफसियरबाबू को जो डाली दी गई थी सो वे लोग क्या कहते हैं। कोई कुछ करे, हमारा जो धरम है हम करेंगे ?”

बालदेव जब सिंघजी के दरवाजे पर पहुँचा तो सिंघजी घोड़े पर सवार हो चुके थे। शायद कटिहार जा रहे हैं। जात्रा का टोकना अच्छा नहीं, इसलिए बालदेव चुप ही रहा। सिंघजी के दरवाजे पर पाँच-सात आदमी बैठे हुए थे। किसी ने बालदेव को बैठने के लिए भी नहीं कहा। बालदेव ने सबों को एक ही साथ ‘जाय हिन्द’ कहा। शिवशक्करसिंघ के बेटे हरगौरी ने बालदेव से पूछा, “कहिए बालदेव लीडर, क्या समाचार है ?”

.. “आप लोगों की किरपा से सब अच्छा है। बाबूसाहेब, आप स्कूल से कब आए ?” बालदेव ने पास पड़े हुए खाली मोढ़े पर बैठते हुए पूछा।

“सुना कि आपकी लीडरी खूब चल रही है।”

“बाबासाहेब, गरीब आदमी भी भला लीडर होता है। हम तो आप लोगों का सेवक है।”

“आप तो लीडर ही हो गए। तो आजकल कांग्रेस आफिस का चौका-बर्तन कौन करता है।” हरगौरी अचानक उबल पड़ा। “अरे भाई, सभी काशी चले जाओगे ? पत्तल चाटने के लिए भी तो कुछ लोग रह जाओ। जेल क्या गए, पंडित जमाहिरलाल हो गए। कांग्रेस आफिस में भोलटियरी करते थे, अब अन्धों में काना बनकर यहाँ लीडरी छाँटने आया है। स्वयंसेवक न घोड़ा का दुम !”

“बाबूसाहेब, मुँह खराब क्यों करते हैं ? आप विदमान हैं और हम जाहिल। हमसे जो कसूर हुआ है कहिए।”

“उठ जाओ दरवाजे पर से। बेईमान कहीं के ! डिक्ट्रिक्ट बोर्ड से अस्पताल की मंजूरी हुई है, रुपया मिला है। सब चुपचाप मारकर अब बेगार खोज रहे हैं। चोर सब !…उठ जाओ दरवाजे पर से !”

हरगौरी तमतमाकर बालदेव को धक्का देने के लिए उठा। बैठे हुए लोगों ने ‘हाँ-हाँ’ करके हरगौरी को पकड़ लिया। बालदेव चुपचाप बैठा रहा, “मारिए, यदि मारने से ही आपका गुस्स ठंडा हो तो मारिए।”

हल्ला-गुल्ला सुनकर भीड़ जम गई। हरगौरी का लड़कपन किसी को पसन्द नहीं।

शिवशक्करसिंघ भी सुनकर दुखित हुए, “लीडरी करे या भोलटियरी, तुमको किस बात की चिढ़ लगी? तुम्हारा क्या बिगाड़ा था…अच्छा बालदेव, बुरा मत मानना। हँसीदिल्लगी में उड़ा दो।…छोटा भाई है।”

“शिवशक्कर मौसा, बाबूसाहब गाली-गलौज करके मारने चले। मगर हम कोई लाजमान (अपशब्द) बात मुँह से निकालते हैं ? पूछिए सबों से। महतमाजी कहिन हैं…”

नीम के पेड़ का कागा काय-कायँ कर उठा।

हरगौरी गुस्से से थर-थर काँप रहा है।…ये लोग भी अजीब हैं। एक घंटा पहले बालदेव की टोकरी-भर शिकायत कर रहे थे, लीडरी सटकाने की बात कह रहे थे, और अभी उसका बाप भी बालदेव की खुशामद कर रहा था ! ग्वाला होकर लीडरी…?

“गुअरटोलीवाले हँसेरी (बलवा करनेवाला दल) लेकर आ रहे हैं,” एक लड़का दौड़ता-हाँफता आकर खबर दे गया। ऐं !…गाँव के उत्तर में शोरगुल हो रहा है। खूटे में बँधे हुए बैलों ने चौकन्ने होकर कान खड़े किए। गाँव के बाहर चरती हुई बकरियाँ दौड़ती-मिमियाती हुई गाँव में भागी आ रही हैं। कुत्ते दूंकने लगे।…बात क्या हुई ?

“अरे बेटा रे ! गौरी बेटा रे !…आँगन में आ जा बेटा रे ! गुअरटोली का कलिया पगला गया है !” हरगौरी की माँ छाती पीटती और रोती हुई आई, और हरगौरी को घसीटकर आँगन में ले गई। बच्चे रोने लगे।

“अरे, बात क्या हुई ?”

“भाला निकालो छत्तर !”

“हमारी गंगाजीवाली लाठी कहाँ है ?”

“तीर निकाल रे !”

“अरे बात क्या है ? हँसेरी क्यों…?”

कौन किसका जवाब देता है ! किसे फुरसत है ! सारे गाँव में कुहराम मचा हुआ है। हरगौरी की माँ अब शिवशक्करसिंघ को आँगन में बुला रही है। चिल्ला रही है, “गुअरटोली का रौदी बूढ़ा आया है।…गुअरटोली में बूढ़े-बच्चे खौल रहे हैं कि हरगौरी ने बालदेव को जूते से मारा है। कुकुरू का बेटा कलचरना काली किरिया (कसम) खाया है-हरगौरी का खून पीएँगे।…आँगन में आ जाओ गौरी के बाबू !”

“ओ!” बालदेव दौड़ा, “आप लोग अकुलाइए मत। हम देखते हैं। नासमझ लोग हैं, समझा देते हैं।”

“एक बार बोलिए प्रेम से…महाबीरजी की…जै !”

“जै ! जाय…जाय !”

बालदेव को देखते ही यादव सेना खुशी से जयजयकार कर उठी। “बोलिए एक बार प्रेम से…गन्ही महतमा की…जै ! जाय…जाय। ऐ ! शान्ती ! शान्ती ! चुप रहो, बालदेवजी क्या कहते हैं, सुनो !…”

“पियारे भाइयो, आप लोग जो अंडोलन किए हैं, वह अच्छा नहीं। अपना कान देखे बिना कौआ के पीछे दौड़ना अच्छा नहीं। आप ही सोचिए, क्या यह समझदार आदमी का काम है !…आप लोग हिंसावाद करने जा रहे थे। इसके लिए हमको अनसन करना होगा। भारथमाता का, गाँधीजी का यह रास्ता नहीं…।”

सचमुच गियानी आदमी हैं बालदेव जी। अंडोलन, अनसन, और…और क्या ?… हिंसाबात ! किसी ने समझा ! गियानी की बोली समझना सभी के बूते की बात नहीं।…

“अनसन क्या करेंगे ?”

“अंट-संट ?”

कलिया कहता था-उपास करेंगे बालदेव जी। कलिया को बुलाकर बालदेव जी कहते थे-कालीचरन, तुम बहुत बहादुर लौजमान हो। लेकिन जोस में होस भी रखना चाहिए। हम खुस हैं, लेकिन उपास करेंगे।

“सचमुच यदि उस दिन बालदेव जी ठीक समय पर नहीं आ जाते तो कालीचरन इस पार चाहे उस पार कर देता।…अरे, हरगौरिया ! कल का छौंडा इस्कूल में चार अच्छर पढ़ क्या लिया है लाटसाहेब हो गया है।”

“अरे, पढ़ता क्या है, दाढ़ी-मोच हो गया है और अपना सकलदीप से दो किलास’ नीचे पढ़ता है। एकदम फेलियर है। इस साल भी फैल हो गया है। उसका बाप मास्टर को घूस देने गया था। मास्टर गुस्साकर बोला-भागो, नहीं तो तुमको भी फैल कर देंगे।”

“अरे पढ़ेगा क्या ! सुनते हैं कि लालबाग मेला में लाल पढ़ना में पास हो गया है।”

बात बनाने में दुलरिया से कोई जीत नहीं सकता। “लाल पढ़ना नहीं समझे ?…हा-हा…खी-खी ! लाल पढ़ना !”

-ढाक-ढिन्ना, ढाक-ढिन्ना !

“चलो रे, अखाड़ा का ढोल बोल रहा है।”

चार

सतगुरु हो ! सतगुरु हो !

महंथ साहेब सदा ब्रह्म बेला में उठते हैं। “हो रामदास। आसन त्यागो जी ! लक्ष्मी को जगाओ !…सतगुरु हो ! ये कभी जो बिना जगाए जागें। रामदास ! हो जी रामदास !”

रामदास आँखें मलते हुए उठता है, बाहर निकलकर आसमान में भुरूकुआ (भोर का तारा) को देखता है, फिर रामडंडी (तीन-तरवा) को खोजता है।…अभी तो बहुत रात बाकी है। महंथ साहब आज बहुत पहले ही जग गए हैं…“माघ का जाड़ा तो बाघ को भी ठंडा कर देता है।…सरकार, रात तो अभी बहुत बाकी है।”

“रात बहुत बाकी है तो क्या हुआ ? एक दिन जरा सवेरे ही सही। सोओ मत। धूनी में लकड़ी डाल दो। कोठारिन को जगा दो।…सतगुरु साहेब ने सपना दिया है।”

लछमी उठी। उठकर महंथसाहब के आसन के पास आई। हाथ जोड़कर ‘साहेब बन्दगी’ किया और आँखें मलते हुए कुएँ की ओर चली गई।

…लछमी के रग-रग में अब साधु-सुभाव, आचार-विचार और नियम-धरम रम गया है। साहेब की दया है। और यह रामदास ? गुरु जाने, इसकी मति-गति कब बदलेगी ! बचपन से ही साधु की संगति में रहकर भी जो नहीं सुधरा, वह अब कब सुधरेगा ?…भक्ति-भाव ना जाने भोंदू पेट भरे से काम ! बस, दो ही गुण हैं-सेवा अच्छी तरह करता है और खंजड़ी बजाने में बेजोड़ है। “अरे हो रामदास !…फिर सो गए क्या ?…गंगाजली में जल भर दो।”

जागहु सतगुरुसाहेब, सेवक तुम्हरे दरस को आया जी
जागहु सतगुरुसाहेब…।
…डिम-डिमिक-डिमिक, डिम-डिमिक-डिमिक !
भोर भयो भव भरम भयानक भानु देखकर भागा जी,
ज्ञान नैन साहेब के खुलि गयो, थर-थर काँपत माया जी।
जागहु सतगुरुसाहेब…

माघ के ठिठुरते हुए भोर को मठ से प्रातकी (प्रभाती) की निर्गुणवाणी निकलकर शून्य में मँडरा रही है। बूढ़े महंथ साहब पहला पद कहते हैं। दन्तहीन मुँह से प्रातकी के शब्द स्पष्ट नहीं निकलते। गले की थरथराहट सुर में बाधा डालती है, बेसुरा राग निकलता है। दमे से जर्जर शरीर में दम कहाँ !…लेकिन लछमी सब सँभाल लेती है। पाँच साल पहले प्रातकी गाने के समय उसकी आँखों की पलकें नींद से लदी रहती थीं। महन्थ साहब जब गीत की दूसरी पंक्ति ‘भोर भयो भव भरम’ गाते थे तो वह बहुत मुश्किल से अपनी हँसी रोक पाती थी-भोर भयो भव भरम…! लेकिन अब नहीं। उसकी बोली मीठी है। उसका सुर मीठा है। वह तन्मय होकर गाती है। उसकी सुरीली तान के साथ महन्थ साहब के बेसुरे और मोटे राग का मेल नहीं खाता, फिर भी संगीत की निर्मल धारा में कहीं विरोध नहीं उत्पन्न होता। महन्थ साहब का मोटा राग लछमी के कोमल लय को सहारा देता है। शहनाई के साथ सुर देनेवाली शहनाई की तरह-भों ओं ओं ओं ओं…!

रामदास की खंजड़ी की गमक निःशब्द वातावरण में तरंगें पैदा करती है। खंजड़ी में लगी हुई छोटी-छोटी झुनुकियों की हल्की झुनुक ! मानो किसी का पालतू हिरन नाच रहा हो, दौड़ रहा हो ! डिम डिमिक ! रुन झुनुक-झुनुक !

प्रातकी के बाद बीजक ‘शबद’ । ‘रामुरा झीं-झी जंतर बाजे। करचर्ण बिहुना नाचे। रामुरा झीं-झी…।’

और तब सत्संग ! रोज इसी वेला में सत्संग होता है। प्रातकी सुनते ही मठ के अन्य साधु-संन्यासी, अतिथि-अभ्यागत तथा अधिकारी-भंडारी वगैरह जग जाते हैं। प्रातकी और बीजक में कोई सम्मिलित हो या नहीं, सत्संग में भाग लेना अनिवार्य है। मठ का भंडारी इस समय रोज की हाज़िरी लेता है। इस समय जो अनुपस्थित रहे उसकी चिप्पी (राशन) बन्द हो जाती है। सत्संग में महन्थसाहब साधुओं और शिष्यों को उपदेश देते हैं, प्रश्नों के उत्तर देते हैं, अज्ञान अन्धकार को अपनी वाणी से दूर करते हैं।

…सतगुरु सेवा सत्य करि माने सत्य विचार।

सेवक चेला सत्य सो जो गुरु वचन निहार॥…

फिर सातचक्र परिचय !

प्रथम चक्र आधार कहावे गुद स्थल के माँही
द्वितीय चक्र अधिष्ठान कहिए लिंगस्थल के माँही।
तृतीय चक्र मणिपूरण जानो नाभी स्थल…

सत्संग समाप्त होते ही भंडारी उपरिथत ‘मूर्तियों’ की गिनती लेता है-“रानीगंज के तीन गो मुरती तो आज सात दिन से धरना देले हथुन । जाए ला कहै हियेन्ह त कहै हथिन बलु सरकार से आज्ञाँ ले ली है। बेला मठ के एक मुरती के बुखार लगलैन्ह है, दोकान में सबुरदाना न भेटाई है…”

कोठारिन लक्ष्मी दासिन का रोज इसी समय बक-बक झक-झक बहुत बुरा लगता है, सत्संग से प्राप्त की हुई मन की पवित्रता नष्ट हो जाती है। लेकिन क्या करे ? मठ के इस नियम को यदि जरा भी ढीला कर दिया जाए तो साधु-वैरागी एक महीने में ही मठ को उजाड़ देंगे। बाहर के साधुओं के लिए चार ही दिन रहने का नियम है, मगर…। “रानीगंज के मूर्तियों को खुद सोचना चाहिए। यहाँ कोई कुबेर का भंडार तो नहीं…”

“लक्ष्मी,” महन्थसाहब कहते हैं, “आज-भर रहने दो। भंडारी, जितने मुरती आज हैं, सबों का बालभोग (जलपान) और प्रसाद (भात) आज लगेगा। सभी मुरती बैठ जाइए। आज सतगुरु साहेब सपना दीहिन हैं।”

धूनी में फिर सूखी लकड़ियों के छोटे-छोटे टुकड़े डाल दिए गए। सभी मुरती फिर धूनी के चारों ओर अर्धवृत्ताकार पंक्ति में बैठ गए। लछमी की महन्थसाहब के आसन के पास ही लगती है…। सभी महन्थसाहब की ओर उत्सुकता से देख रहे हैं।

“आज मध्य रात्रि में, सतगुरु साहेब सपने में मेरे आसन के पास आए। हम जल्दी से उठके साहेब बन्दगी किया। हमको ‘दयाभाव’ देके साहेब कहिन-सेवादास, तुम नेत्रहीन हो, लेकिन तुम्हारे अन्तर के नैनों का जोत बड़ा विलच्छन्न है। हम भेख बदल करके आए और तूं पहचान लिया ? तुम्हारे ज्ञान-नेत्र में दिब्बजोत है। सो तुम्हारे गाँव में परमारथ का कारज हो रहा है और तुमको मालूम नहीं ? गाँधी तो मेरा ही भगत है। गाँधी इस गाँव में इसपिताल खोलकर परमारथ का कारज कर रहा है। तुम सारे गाँव को एक भंडारा दे दो। कहके साहब अन्तरधियान हो गए। हमारी निद्रा भंग हो गई। सतगुरु के विरह में चित्त चंचल हो गया। विरह अगिन तक कैसे बूझे, गृहबन अन्धकार नहीं सूझे। आखिर, सतगुरु आज्ञा शब्द विचारकर चित्त को शान्त किया।”

और यादव सेना के अचानक हमले ने गाँव की दलबन्दी को नया जीवन प्रदान कर दिया था। जोतखी जी की राय है, “यादव लोग बार-बार लाठी-भाला दिखाते हैं; राजपूतों के लिए यह. डूब मरने की बात है। फौजदारी में यतलाय (इत्तला) देकर इन लोगों का मोचिलका करवा लिया जाए। लेकिन सिंघजी थाना-फौजदारी से घबराते हैं। बात-बात में गाली और डेग-डेग पर डाली ! कानूनी-कचहरी की शरण जाना तो अपनी कमजोरी को जाहिर करना है। समय आने पर बदला ले लिया जाएगा। अकेले यादवों की बात रहती तो कोई बात नहीं थी, इसमें कायस्त समाया हुआ है। मरा हुआ कायस्त भी बिसाता है। फिर, वह बदमाशी हरगौरी की ही है। मेरे दरवाजे पर किसी को उठ जाने के लिए कहना, मेरे दरवाजे पर किसी को मारने के लिए उठना, यह तो अच्छी बात नहीं।”

यादवटोली में अब दोपहर से ही ढोल बजने लगता है-ढाक-ढिन्ना ढाक-ढिन्ना ! शोभन मोची को एक नया गमछा और नई गंजी मिली है। कालीथान के बड़ के पास गाय-भैंस बथान करके दोपहर से ही कुश्ती खेलने लगते हैं यादव सन्तान। बालदेव जी ने जिस दिन अनसन किया था, शाम को खेलावन यादव के दरवाजे पर कीर्तन हुआ था। बालदेव जी का सिखाया हुआ सुराजी कीर्तन ‘धन-धन गाँधी जी महराज, ऐसा चरखा चलानेवाले’ कीर्तन के बाद बालदेव जी ने भैंस का कच्चा दूध पीकर व्रत तोड़ा था। कहते थे, अब हिंसाबात करने से फिर अनसन करेंगे, अब के दो दिनों का ! सुराजी कीर्तन, लहसन का बेटा सुनरा खूब गाता है। बालदेव जी जबकि फिर उपवास करेंगे तो सुनना। अभी और सीख रहा है।…सिपैहियाटोला में तो अब दिन में ही उल्लू बोलता है। तहसीलदार कह रहे थे-राजपूतों की सिट्टी गुम हो गई है। हल्दी बोला (चित्त कर देना) दिया है। कालीचरन बहादुर है !

इसपिताल के सभी घर बनकर तैयार हो गए हैं। सिर्फ मिट्टी साटना बाकी है। बिरसा माँझी ने कहा है-संथालटोली की सभी औरतें आकर मिट्टी लगा देंगी आज। अलबत्त मिट्टी लगाती हैं संथालिने ! पोखता मकान भी मात ! अगले सनिचर को डागडरबाबू ने बालदेव जी से दसखत करा लिया है। भैंसचरमनबाबू (वाइस चेयरमैन) जरूर यादव ही होंगे। किसी दूसरी जाति का ऐसा नाम क्यों होगा-भैंसचरमनबाबू ! तहसीलदार के यहाँ जाकर देखो-खुरसी, ब्रींच, बड़े-बड़े बक्से में दवा, बाल्टी, कठौत, लोटा। पानी का कल गाड़ा जाएगा, जैसे रौतहट के मेला में गड़ता है। सनिच्चर को ही महन्थसाहेब का भंडारा है-पूड़ी-जिलेबी का भोज। सारे गाँव के औरत-मरद बूढ़े बच्चे और अमीर-गरीब को महन्थसाहेब खिलावेंगे। सपनौती हुआ है।

यादवटोली का किसनू कहता है, “अन्धा महन्त अपने पापों का प्राच्छित कर रहा है। बाबाजी होकर जो रखेलिन रखता है, वह बाबाजी नहीं। ऊपर बाबाजी भीतर दगाबाजी ! क्या कहते हो ? रखेलिन नहीं, दासिन है ? किसी और को सिखाना। पाँच बरस तक मठ में नौकरी किया है; हमसे बढ़कर और कौन जानेगा मठ की बात ? और कोई देखे या नहीं देखे, ऊपर परमेसर तो है। महन्थ जब लछमी दासिन को मठ पर लाया था तो वह एकदम अबोध थी, एकदम नादान। एक ही कपड़ा पहनती थी। कहाँ वह बच्ची और कहाँ पचास बरस का बूढ़ा गिद्ध ! रोज रात में लछमी रोती थी-ऐसा रोना कि जिसे सुनकर पत्थर भी पिघल जाए। हम तो सो नहीं सकते थे। उठकर भैंसों को खोलकर चराने चले जाते थे। रोज सुबह लछमी दूध लेने बथान पर आती थी, उसकी आँखें कदम के फूल की तरह फूली रहती थीं। रात में रोने का कारण पूछने पर चुपचाप टुकुर-टुकुर मुँह देखने लगती थी…ठीक गाय की बाछी की तरह, जिसकी माँ मर गई हो…! वैसा ही चंडाल है यह रमदसवा। वह साला भी अन्धा होगा, देख लेना।…महन्थ एक बार चार दिन के लिए पुरैनिया गया था। हमने सोचा कि चार रात तो लछमी चैन से सो सकेगी। ले बलैया। बाघ में मुँह से छूटी तो बिलार के मुँह में गई। उसके बाद लछमी ऐसी बीमार पड़ी कि मरते-मरते बची। पाप भला छिपे ? रामदास को मिरगी आने लगी और महन्थ सेवादास सूरदास हो गए। एकदम चौपट !…हमारा तीन साल का दरमाहा बाकी रखा है। भंडारा करता है ! हम उन लोगों को साधू नहीं समझते हैं।”

महन्थ सेवादास इस इलाके के ज्ञानी साधु समझे जाते थे-सभी सास्तर-पुरान के पंडित ! मठ पर आकर लोग भूख-प्यास भूल जाते थे। बड़ी पवित्र जगह समझी जाती थी। लेकिन जब महन्थ दासिन को लाया, लोगों की राय बदल गई। बसुमतिया मठ के महन्थ से इसी दासिन को लेकर कितने लड़ाई-झगड़े और मुकदमे हुए। बसुमतिया का महन्थ कहता था, लछमी दासिन का बाप हमारा गुरु-भाई था इसलिए बाप के मरने के बाद उस पर मेरा हक है। सेवादास की दलील थी, लछमी पर हमारा अधिकार है। अन्त में लछमी कानूनन सेवादास की ही हुई। सेवादास के वकील साहब ने समझाकर कहा था-महन्थसाहब ! इस लड़की को पढ़ा-लिखाकर इसकी शादी करवा दीजिएगा। महन्थसाहब ने वकीलसाहब को विश्वास दिलाया था-वकीलसाहब, लछमी हमारी बेटी की तरह रहेगी…लेकिन आदमी की मति को क्या कहा जाए ! मठ पर लाते ही किशोरी लछमी को उन्होंने अपनी दासी बना लिया। लछमी अब जवान हुई है, लेकिन लछमी के जवान होने से पहले ही महन्त सेवादास की आँखें अपनी ज्योति खो चुकी थीं। पता नहीं, लछमी की जवानी को देखकर उसकी क्या हालत होती ! अब तो महन्थ सेवादास को बहुत लोग प्रणाम-बन्दगी भी नहीं करते।…धर्म-भ्रष्ट हो गया है। बगुलाभगत है। ब्रह्मचारी नहीं, व्यभिचारी है।

पूड़ी-जिलेबी और दही-चीनी के भंडारे की घोषणा के बाद जनमत बदल रहा है।…कैसा भी हो, आखिर साधु है ! किसने आज तक इतना बड़ा भोज किया ! , तहसीलदार ने अपने बाप के श्राद्ध में जाति-बिरादरीवालों को भात और गैर जाति के लोगों को दही-चूड़ा खिलाया था। सिंघजी ने अपनी सास के श्राद्ध में अपनी जाति के लोगों को पूरी-मिठाई और अन्य जाति के लोगों को दही-चूड़ा खिलाया था। खेलावन के यहाँ, पिछले साल, माँ के श्राद्ध में जैसा भोज हुआ सो तो सबों ने देखा ही है। फिर, सारे गाँव के लोगों को, औरत-मरद बच्चों को, आज तक किसने खिलाया है ? चीनी मिलती नहीं। भगमान भगत ने कहा है कि बिलेक में एक बोरा चीनी का दाम है एक नमरी। (सौ रुपए का नोट) चर मन चीनी-दो नमरी !

तन्त्रिमा, गहलोत और पोलियाटोली के अधिकांश लोगों ने पूड़ी-जिलेबी कभी चखी भी नहीं। बिरंची एक बार राज की गवाही देने के लिए कचहरी गया तो तहसीलदार ने पूड़ी-जिलेबी खिलाई थी। गाँव में, न जाने कैसे, यह हल्ला हो गया कि बिरंची ने तहसीलदार का जूठा खाया है।…जनेऊ देने के लिए जाति के पंडित जी आए थे। बिरंची के सिर पर सात घंटे तक पैला-सुपाड़ी रखने की सजा दी गई थी-पाँच सुपारी पर पैला भर पानी ! ज़रा भी धैला हिला, एक बूंद भी पानी गिरा कि ऊपर से झाड़ की मार ! तहसीलदार साहब क्या कर सकते हैं ! जाति-बिरादरी का मामला है, इसमें वे कुछ नहीं बोल सकते। आखिर पाँच रुपैया जुरमाना और जाति के पंडित जी को एक जोड़ा धोती देकर बिरंची ने अपना हुक्का-पानी खुलवाया था।…पूड़ी-जिलेबी का स्वाद याद नहीं !

“जीवनदास !”

“बालदेव जी आए हैं। बनगी बालदेवबाबू !”

“बनगी नहीं, जाय हिन्द बोलो, जाय हिन्द !…हाँ जी, इस टोले में कितने लोग हैं, हिसाब करके बताओ तो। औरत-मरद, बच्चों का भी जोड़ना। क्या गिनना नहीं जानते ? बिरंची कहाँ है ?”

बालदेव जी घर-घर घूमकर मर्दुमशुमारी कर रहे हैं। बड़ा झंझट का काम है। सिर्फ पोलियाटोले में सात कोड़ी (एक कोड़ी में बीस संख्या होती है।) चार, नहीं…चार कोड़ी सात; ततमाटोली में पूरे पाँच कोड़ी, दुसाधटोली में दो कोड़ी, कोयरीटोले में छः कोड़ी तीन।…यादवटोली का हिसाब कालीचरन कर रहा है। भगवान जाने, सिपैहियाटोली के लोग इसमें भी मीनमेख निकालकर बखेड़ा न खड़ा कर दें। क्या ठिकाना है ! बाभनों ने तो साफ इनकार कर दिया है। यदि बाभनों के लिए अलग प्रबन्ध न हुआ तो सरब संघटन में नहीं खाएंगे। बाभन-भोजन ही नहीं हुआ तो फिर भोज क्या ! महन्थ जी से कहना होगा। बाभन हैं ही कितने, सब मिलाकर दस घर।

महन्थ साहब ने सब सुनकर कहा, “सतगुरु हो ! सतगुरु हो ! बाभन लोगों का अलग इन्तजाम कर दो बालदेवबाबू ! इसमें हर्ज ही क्या है ! नहीं हो, तो उन लोगों का प्रबन्ध मठ पर ही कर दो।”

इसी समय लछमी दासिन ने आकर खबर दी, “सिपैहियाटोला के लोग भी नहीं खाएँगे। हिबरनसिंघ का बेटा आकर कह गया है, ग्वाला लोगों के साथ एक पंगत में नहीं खाएँगे। हम लोगों के गाँव का आटा-घी-चीनी अलग दे दिया जाए, हम लोग अलग बनवा लेंगे।”

“सतगुरु हो ! यह तो अच्छा बखेड़ा खड़ा हुआ। अब यादव लोग कहेंगे कि धानुक लोगों के साथ एक पंगत में नहीं खाएँगे।”

“हिबरनसिंघ के बेटे ने तो यह भी कहा कि बालदेव यदि इन्तजामकार रहेगा तो महन्थ साहेब का भंडारा भंडुल होगा।”

“गुरु हो ! गुरु हो!”

“तो महन्थ साहेब, हमारे रहने से लोग विरोध करते हैं तो हम खुसी-खुसी…”

“वाह रे ! यह भी कोई बात है ! महन्थ साहेब, मैं कह देती हूँ, यदि बालदेव जी को छोड़कर और किसी को प्रबन्ध करने का भार दिया तो समझ लीजिए कि भंडारा चौपट हुआ। मैं इस गाँव के एक-एक आदमी को पहचानती हूँ।”

बालदेव ने पहली बार लछमी की ओर गरदन उठाकर देखने की हिम्मत की। निगाहें ऊपर उठीं और लछमी की बड़ी-बड़ी आँखों में वह खो गया।…आँखों में समा गया बालदेव शायद।

पांच

मठ पर गाँव-भर के मुखिया लोगों की पंचायत बैठी है। बालदेव जी को आज फिर ‘भाखन’ देने का मौका मिला है। लेकिन गाँव की पंचायत क्या है, पुरैनिया कचहरी के रामू मोदी की दुकान है। सभी अपनी बात पहले कहना चाहते हैं। सब एक ही साध बोलना चाहते हैं। बातें बढ़ती जाती हैं और असल सवाल बातों के बवंडर में दबा जा रहा है। सिंघ जी चिल्ला-चिल्लाकर कहते हैं, “उस दिन यदि हम घर में रहते तो खून की नदी बह जाती।” कालीचरन चुप रहनेवाला नहीं है, “वाह रे ! दरवाजे पर एक भले आदमी को बेइज्जत करना ‘इंसान’ आदमी का काम है ?” तहसीलदार साहब कहते हैं, “अस्पताल तो सबों की भलाई के लिए बन रहा है। इससे सिर्फ हमारा ही फायदा नहीं होगा। ओवरसियरबाबू कह गए थे कि तहसीलदार साहब जरा मदद दीजिएगा। हम अपने मन से तो अगुआ नहीं बने हैं। तुम्हीं बताओ खिलावन भाई !”

बूढ़े जोतखी जी भविष्यवाणी करते हैं, “कोई माने या नहीं माने, हम कहते हैं कि एक दिन इस गाँव में गिद्ध-कौआ उड़ेगा। लक्षण अच्छे नहीं हैं। गाँव का ग्रह बिगड़ा हुआ है। किसी दिन इस गाँव में खून होगा, खून ! पुलिस-दारोगा गाँव की गली-गली में घूमेगा। और यह इसपिताल ? अभी तो नहीं मालूम होगा। जब कुएँ में दवा डालकर गाँव में हैजा फैलाएगा तो समझना। शिव हो ! शिव हो !”

बालदेव भाखन के लिए उठना चाहता था कि लछमी हाथ जोड़कर खड़ी हो गई, “पंच परमेश्वर !”

मानो बिजली की बत्ती जल उठी। सन्नाटा छा गया। सफेद मलमल की साड़ी के खूट को गले में डालकर लछमी हाथ जोड़े खड़ी है, “पंच परमेश्वर !”

“लछमी,” महन्थ साहब शून्य में हाथ फैलाकर टटोलते हुए कहते हैं, “लछमी, तुम चुप रहो।”

लछमी रुकी नहीं, कहती गई, “जोतखी जी ठीक कहते हैं। गाँव के ग्रह अच्छे नहीं है। जहाँ छोटी-मोटी बातों को लेकर, इस तरह झगड़े होते हैं, जहाँ आपस में मेल-मिलाप नहीं, वहाँ जो कुछ न हो वह थोड़ा है। गाँव के मुखिया लोग ही इसके लिए सबसे बड़े दोखी हैं। सतगुरुसाहेब कहिन हैं-‘जहाँ मेल तहाँ सरग है।’ मानुस जन्म बार-बार नहीं मिलता है। मानुस जन्म पाकर परमारथ के बदले सोआरथ देखें तो इससे बढ़कर क्या पाप हो सकता है ? परमारथ में जो ‘विघिन’ डालते हैं वे मानुस नहीं। आप लोग तो सास्तर-पुरान पढ़े हैं, जग्ग भंग करनेवालों को पुरान में क्या कहा है, सो तो जानते ही हैं। हमारे कहने का मतलब यह है कि सब कोई भेदभाव तेयाग के, एक होकर के परमारथ कारज में सहयोग दीजिए। आप लोग तो जानते हैं- ‘परमारथ कारज देह धरो यह मानुस जन्म अकारथ जाए।’ बस हाथ जोड़कर पंच परमेश्वर से बिनै है, झगड़ा तेयागकर मेल बढ़ाइए। सतगुरु साहेब गाँव का मंगल करेंगे। आगे आप लोगों की मरजी।”

लछमी बैठ गई। उसका चेहरा तमतमा गया है, गाल लाल हो गए हैं और कपाल पर पसीने की बूंदें चमक रही हैं। पंचायत में सन्नाटा छाया हुआ है, मानो जादू फिर गया हो। बालदेव जी का भाखन देने का उत्साह कम हो गया है। वह दोहा-कवित्त नहीं जानता, सास्तर-पुरान भी नहीं पढ़ा है। जेहल में चौधरी जी उसे पढ़ाया करते थे। तीसरा भाग में-‘भारी बोझ नमक का लेकर एक गधा दुख पाता था’ के पास ही वह पढ़ रहा था कि चौधरी जी की बदली हो गई। उसी दिन से उसकी पढ़ाई भी बन्द हो गई। लेकिन…वह जरूर भाखन देगा। उसने लछमी की ओर देखा तो और मानो नशे में उठकर खड़ा हो गया, “पियारे भाइयो !”

“बोलिए एक बार प्रेम से…गंधी महतमा की जै !” यादवटोली के नौजवानों ने जयजयकार किया।

“पियारे भाइयो ! कोठारिन साहेब जितना बात बोली, सब ठीक है। लेकिन सबसे 7 बड़ा दोखी हम हैं। हमारे कारन ही गाँव में लड़ाई-झगड़ा हो रहा है। हम तो सबों का सेवक हैं। हम कोई बिदमान नहीं हैं, सास्तर-पुरान नहीं पढ़े हैं। गरीब आदमी हैं, मूरख हैं। मगर महतमा जी के परताप से, भारथमाता के परताप से, मन में सेवा-भाव जन्म हुआ और हम सेवक का बाना ले लिया। आप लोगों को तो मालूम है, जयमंगलबाबू, जो मेनिस्टर हुए हैं, अपना दस्तखत भी नहीं जानते हैं। बहुत छोटी जात का है। वह भी गरीब आदमी थे, मूरख थे। मगर मन में सेवा-भाव था और महतमा जी उसको मेनिस्टर चुन लिए। महतमा जी कहिन हैं-‘बैस्नब जन तो उसे कहते हैं जो पीर पराई जानता है रे।’ मोमेंट में जब गोरा मलेटरी हमको पकड़ा तो मारते-मारते बेहोस कर दिया। पानी माँगते थे तो मुँह में पेसाब कर दिया था…”

बालदेव जी का ‘भाखन’ शुरू होते ही पंचायत में फिर कानाफूसी शुरू हो गई थी। राजपूतटोली के लोग और भी जोर-जोर से बात करने लगे। बालदेव के भाखन के इस रोमांचक अंश ने ज़रा असर किया। मुँह में पेशाब करने की बात सुनते ही पंचायत में फिर सन्नाटा छा गया। बालदेव ने झट अपनी कमीज खोल ली, चारों ओर घूमकर पीठ दिखलाते हुए उसने अपना भाखन जारी रखा, “आप लोगों को विश्वास नहीं हो तो देख सकते हैं !”

“अरे बाप ! चीता-बाघ की तरह देह हो गया है…धन्न हैं।’

“देखिए आप लोग,” यादवटोली का एक नौजवान कहता है, “हम लोग गाँधी जी का जै करते हैं तो आप लोगों के कान में लाल मिर्च की बुकनी पड़ जाती है। देखिए !”

“अरे भाई ! यह सब महतमा जी का परताप है। कौन सह सकता है ? जब गुड़ गंजन सहे तो मिसरी नाम धराए।”

“…लेकिन पियारे भाइयो, हमने भारथमाता का नाम, महतमा जी का नाम लेना बन्द नहीं किया। तब मलेटरी ने हमको नाखून में सूई गड़ाया, तिस पर भी हम इसबिस (चूं-चमड़) नहीं किया। आखिर हारकर जेलखाना में डाल दिया। आप लोग तो जानते ही हैं कि सुराजी लोग जेहल को क्या समझते हैं-‘जेहल नहीं ससुराल यार हम बिहा करने को जाएँगे। मगर जेहल में अँगरेज सरकार हम लोगों को तरह-तरह की तकलीफ देने लगा। भात में कीड़ा मिला देता था, घास-पात का तरकारी देता था। बस, हम लोगों ने भी अनसन शुरू कर दिया। पियारे भाइयो ! पाँच दिन तक एकदम निरजला अनसन। उसके बाद कलकटर, इसपी, जज, सब आया। माँग पूरा कर दिया, खाने को दूध-हलुआ दिया। हम लोग बोले-दूध-हलुआ अपने बाल-बच्चों को खिलाओ, हम लोगों को बढ़िया चावल दो। सो पियारे भाइयो ! सेवा-वर्त जब हम लिया है तो इसको छोड़ नहीं सकते…। ‘अन्धी होकर पुलिस चलावे पर डंडों का परिवाह नहीं ! आप लोग अपने गाँव में सेवा नहीं करने दीजिएगा, हम चन्ननपटी चले जाएँगे। वहाँ आसरम है, घर-घर चरखा-करघा चलता है। घर-घर में औरत-मरद पढ़ते हैं। महतमा जी, जमाहिरलाल, रजीन्नरबाबू और दूसरे बड़े-बड़े लीडर लोग साल में एक बार जरूर आते हैं। चौधरी जी हमको बार-बार खबर भेज देते हैं।…बालदेव अपने गाँव में चले आओ। हम कहे कि चौधरी जी, आप हमारा गुरु हैं, आपका वचन हम नहीं काट सकते। लेकिन अपना गाँव तो उन्नति कर गया है। जो गाँव उन्नति नहीं किया है, हम वहीं सेवा करेंगे।…हम मेरीगंज को चन्ननपटी की तरह बनाना चाहते हैं। हम अपने से गाँव में झाड़ देंगे, मैला साफ करेंगे। हम लोगों का सब किया हुआ है। महतमा जी खुद मैला साफ करते थे। जहाँ सफाई रहती है वहाँ का आदमी भी साफ रहता है। मन साफ रहता है। साहेब लोगों को देखिए, उनके देस का गाछ-बिरिछ भी साफ रहता है। कोठी के बगीचे में कलकटर के गाछ को देखिए, एकदम बगुला की तरह उजला है। लेकिन, आप लोग हमको नहीं चाहते हैं तो हम चले जाएँगे। आप लोगों को बिसबास नहीं हो, जो पढ़ना जानते हैं, इस चिट्ठी को पढ़ लीजिए कि इसमें क्या लिखा हुआ है। टैप में छापी किया हुआ है। दो साल पहले की चिट्ठी है।”

कौन पढ़ेगा ! बड़े मौके से सभी इसकुलिया अंगरेजिया लोग भी घर में ही हैं। पढ़ो जी कोई। खेलावन ने अपने लड़के सकलदीप से कहा, “जाओ पढ़ दो।” लेकिन वह बड़ा शरमीला है। “हरगौरी, पढ़ो जी!”

पासवानटोले के रामचन्दर का भतीजा मेवालाल उठकर खड़ा हुआ, बालदेव के हाथ से चिट्ठी लेकर पढ़ने लगा।

“जरा जोर से पढ़ो। गला साफ कर लो। थर-थर क्यों काँपते हो ?”

“सेवा में, बालदेवसिंह जी। महाशय ! आपको विदित हो कि कस्तुरबा स्मारक निधि की एक अस्थाई कमेटी गठन करने के लिए कांग्रेसजनों की एक विशेष बैठक ता. 8-12-45 को पूर्णिया धर्मशाला में होगी। इस बैठक में बिहार के भूतपूर्व प्रीमियर भी उपस्थित रहेंगे। इस महत्त्वपूर्ण बैठक में आपकी उपस्थिति आवश्यक है। आपका, विश्वनाथ चौधरी।”

‘अरथ भी समझा दो मेवालाल !…अरे नहीं, अरथ क्या समझाएगा ! टैप में छापी किए हुए खत का अब अरथ समझाएगा ?”

“चौधरी जी भी बालदेव जी से राय लिए बिना कुछ नहीं करते हैं। यह अपने गाँव का भाग है कि बालदेव जी जैसा हीरा आदमी यहाँ आकर रहते हैं। अपना गाँव भी अब सुधर जाएगा जरूर…। सुनो, सिंघ जी क्या कहते हैं।”

“बालदेव ! तुम यहाँ से चले जाओगे तो यह मेरीगंज गाँव का दुरभाग होगा, सरम की बात होगी। गाँव में तो लड़ाई-झगड़े लगे ही रहते हैं। दो हंडी एक जगह रहे तो ढनमन होना जरूरी है। तुम लोगों का काम है, गाँव में मेल-मिलाप बढ़ाना, गाँव की उन्नति करना। इसमें जो बाधा डालता है, वह अधर्मी है। तुम लोग देश के सेवक हो। खल और कुटिल लोगों को सुमारग पर चलाना तुम्हीं लोगों का काम है। गोसाईं जी ने रमैन में पहले खल और कुटिल की ही वन्दना की है। तुम गाँव से मत जाओ। तहसीलदार और हम तो छोटे-बड़े भाई हैं। बचपन से साथ खेले-कूदे, लड़े-झगड़े और फिर मिल गए। आओ जी तहसीलदार भाई, लोग तो हम लोगों के खानदान को बदनाम करते ही हैं कि कायस्थ और राजपूत ने मिलकर महारानी चम्पावती के इस्टेट को ही पार कर दिया। अब हम लोग एक बार फिर मिल जाएँ।” सिंघ जी ने अपना लम्बा-चौड़ा वक्तव्य समाप्त करते हुए पंचायत में बैठे लोगों की ओर देखा।

पंचायत में जोर का ठहाका पड़ा। लोग हँसते-हँसते लोट-पोट हो गए।…एकदम ‘बम भोलानाथ’ हैं सिंघ जी ! मन में कोई सात-पाँच नहीं रखते। सादा दिल के आदमी हैं।

सिंघ जी ने तहसीलदार को हाथ पकड़कर उठा लिया। दोनों गले मिलने लगे।

“बोलिए एक बार प्रेम से…गन्ही महतमा की जै!”

“जै ! जै!”

अब भंडारा जमेगा। दो दिन से तो ऐसा मालूम होता था कि लोगों के पत्तल में परोसी हुई पूड़ी-जिलेबी अब गई तब गई।…उस दिन कीर्तन और नाच करेंगे।…अगमू चौकीदार क्या कहता था, महतमा जी का झंडा पत्तखा नहीं उड़ाना होगा, वह मार खाएगा अब। उसको कहो, अपने नाना दारोगा साहेब से पूछे कि राज किसका है। अनसन करने से लाट, हाकिम, कलट्टर सब डर जाता है।

सारी पंचायत में दो ही व्यक्ति ऐसे हैं जिनके ऊपर मेल-मिलाप की खुशी का उलटा असर हुआ है। खेलावनसिंह यादव को सिंघ ने जिस चालाकी से एक किनारे किया है, इसे कोई नहीं समझ पाए, लेकिन खेलावन ने सब समझ लिया। खेलावन की चर्चा भी नहीं की सिंघ ने। और इस तहसीलदार को तो देखो, तुरत गिरगिट की तरह रंग बदल लिया। लड़ाई-झगड़ा यादवटोली से था और गले मिले तहसीलदार जी। खेलावन को सठबरसा (साठ वर्ष तक समझदारी का न आना) नहीं समझना। सब चालाकी समझते हैं। दुनिया की ज्ञान-गुदड़ी बघारता है बालदेव, मगर इतना भी समझ में नहीं आया कि सिंघ तहसीलदार से क्यों मिल रहा है। मेल-मिलाप तो यादवटोली के मुखिया से होना चाहिए। सुराजी होने से क्या हुआ, जात सुभाव नहीं छूटते। इतना मान-आदर से अपने यहाँ रखते हैं, खिलाते-पिलाते हैं और समय पड़ने पर सब धान बाईस पसेरी !

जोतखी जी खेलावन के चेहरे को देखकर ही सबकुछ समझ लेते हैं। मोटी चमड़ी पर असर हुआ है ! “खेलावनबाबू, सकलदीप बबुआ की जन्मपत्री काशी जी से बनकर आ गई क्या ! जरा एक बार हम भी देखते। आज तक हम जो गणना किए हैं उसको काशी के पंडितों ने भी कभी नहीं काटा।”

“कल सुबह में आइएगा जोतखी काका ! आप तो बहुत दिन से आए भी नहीं हैं। सकलदीप तो हायस्कूल में संसकिरत भी पढ़ता है। जरा आकर देखिएगा तो संसकिरत में उसका जेहन कैसा है ?”

ठीक दोपहर से पंचायत की बैठक शुरू हुई, शाम को खत्म हुई। बहुत दिन बाद गाँव-भर के लोग पंचायत में बैठे थे। बहुत दिन बाद फिर मेल-मिलाप हुआ।

कल ही भंडारा है। सुबह से ही इसपिताल के सामने की जमीन को साफ करके जाफरा से घेरना होगा, शामियाना टाँगना होगा, सजाना होगा। हलवाई लोग सुबह से ही आ जाएँगे। आजकल दिन छोटा होता है। बिजै होते-होते शाम हो जाएगी। डाक्टर साहब को लाने के लिए चार बैलगाड़ियाँ जाएँगी टीशन-भैंसचरमनबाबू ने बालदेव से कहा है। कल भोर को ही इसपिताल में सब-कोई जमा होंगे; काम का बँटवारा होगा। इतने बड़े भोज को सँभालना खेल नहीं।

सभी बारी-बारी से महन्थ साहब को साहेब-बन्दगी करके विदा हुए। बालदेव जी को महन्थ साहब ने रोक लिया है। “बालदेवबाबू, तुम जरा ठहर जाना। कल फिर समय नहीं मिलेगा। अभी एक बार हिसाब-किताब कर लेना अच्छा होगा। थोड़ी देर बैठ के बीजक बाँचो, हम डोलडाल (नित-क्रिया) से हो आएँ। कहाँ हो रामदास ! गंगासागर में जल भर दो !”

बालदेव धुनी के पास बैठकर बीजक के पन्ने उलटता है-

…बीजक बतावे बित्त को
जो बित्त गुप्ते होय,
शब्द बतावे जीव को
बूझे बिरला कोय॥

लछमी लालटेन जलाकर सामने रख गई। अक्षर स्पष्ट हो गए-‘सन्तो, सारे जग बौराने।’…लछमी के शरीर से एक खास तरह की सुगन्ध निकलती है। पंचायत में लछमी बालदेव के पास ही बैठी थी। बालदेव को रामनगर मेला के दुर्गा मन्दिर की तरह गन्ध लगती है-मनोहर सुगन्ध ! पवित्र गन्ध !…औरतों की देह से तो हल्दी, लहसुन, प्याज और घाम की गन्ध निकलती है !

लेखक

  • फणीश्वरनाथ रेणु

    हिंदी-साहित्य में आंचलिक उपन्यासकार के रूप में प्रतिष्ठित कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु का जन्म 4 मार्च, 1921 को बिहार के पूर्णिया जिले (अब अररिया) के औराही हिंगना में हुआ था। इन्होंने 1942 ई० के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में बढ़-चढ़कर भाग लिया और सन 1950 में नेपाली जनता को राजशाही दमन से मुक्ति दिलाने के लिए भरपूर योगदान दिया। इनकी साहित्य-साधना व राष्ट्रीय भावना को मद्देनजर रखते हुए भारत सरकार ने इन्हें पदमश्री से अलंकृत किया। 11 अप्रैल, 1977 को पटना में इनका देहावसान हो गया। रचनाएँ-हिंदी कथा-साहित्य में रेणु का प्रमुख स्थान है। इनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं- उपन्यास-मैला आँचल, परती परिकथा, दीर्घतपा, कितने चौराहे । कहानी-संग्रह-ठुमरी, अगिनखोर, आदिम रात्रि की महक, एक श्रावणी दोपहरी की धूप। संस्मरण-ऋणजल धनजल, वनतुलसी की गंध, श्रुत-अश्रुत पूर्व। रिपोतज-नेपाली क्रांति कथा। इनकी तमाम रचनाएँ पाँच खंडों में ‘रेणु रचनावली’ के नाम से प्रकाशित हैं। साहित्यिक विशेषताएँ-हिंदी साहित्य में फणीश्वरनाथ रेणु आंचलिक साहित्यकार के रूप में प्रसिद्ध रहे हैं। इन्होंने विभिन्न राजनैतिक व सामाजिक आंदोलनों में भी सक्रिय भागीदारी की। इनकी यह भागीदारी एक ओर देश के निर्माण में सक्रिय रही तो दूसरी ओर रचनात्मक साहित्य को नया तेवर देने में सहायक रही। 1954 ई० में इनका उपन्यास ‘मैला आँचल’ प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास ने हिंदी उपन्यास विधा को नयी दिशा दी। हिंदी जगत में आंचलिक उपन्यासों पर विमर्श ‘मैला आँचल’ से ही प्रारंभ हुआ। आंचलिकता की इस अवधारणा ने उपन्यासों और कथा-साहित्य में गाँव की भाषा-संस्कृति और वहाँ के लोक-जीवन को केंद्र में लाकर खड़ा कर दिया। लोकगीत, लोकोक्ति, लोक-संस्कृति, लोकभाषा एवं लोकनायक की इस अवधारणा ने भारी-भरकम चीज एवं नायक की जगह अंचल को ही नायक बना डाला। उनकी रचनाओं में अंचल कच्चे और अनगढ़ रूप में ही आता है। इसलिए उनका यह अंचल एक तरफ शस्य-श्यामल है तो दूसरी तरफ धूल-भरा और मैला भी। आजादी मिलने के बाद भारत में जब सारा विकास शहरों में केंद्रित होता जा रहा था तो ऐसे में रेणु ने अंचल की समस्याओं को अपने साहित्य में स्थान दिया। इनकी रचनाएँ इस अवधारणा को भी पुष्ट करती हैं कि भाषा की सार्थकता बोली के साहचर्य में ही है। भाषा-शैली-रेणु की भाषा भी अंचल-विशेष से प्रभावित है।

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मैला आँचल प्रथम भाग खंड1-5/फणीश्वरनाथ रेणु

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