छत्तीस
डाक्टर पर यहाँ की मिट्टी का मोह सवार हो गया। उसे लगता है, मानो वह युग-युग से इस धरती को पहचानता है। यह अपनी मिट्टी है। नदी तालाब, पेड़-पौधे, जंगल-मैदान, जीवन-जानवर, कीड़े-मकोड़े, सभी में वह एक विशेषता देखता है। बनारस और पटना में भी गुलमुहर की डालियाँ लाल फूलों से लद जाती थीं। नेपाल की तराई में पहाड़ियों पर पलास और अमलतास को भी गले मिलकर फूलते देखा है, लेकिन इन फूलों पर रंगों ने उस पर पहली बार जादू डाला है ।
“गोल्डमोहर-गुलमुहर-कृष्णचूड़ा !” गुलमुहर का कृष्णचूड़ा नाम यहाँ कितना मौजूँ लगता है ! काले कृष्ण के मुकुट में लाल फूल कितने सुंदर लगते होंगे !
आम से लदे हुए पेड़ों को देखने के पहले उसकी आँखें इंसान के उन टिकोलों पर पड़ती हैं, जिन्हें आमों की गुठलियों के सूखे गूदे की रोटी पर जिंदा रहना है और ऐसे इंसान ? भूखे, अतृप्त इंसानों की आत्मा कभी भ्रष्ट नहीं हो या कभी विद्रोह नहीं करे, ऐसी आशा करनी ही बेवकूफी है।…डाक्टर यहाँ की गरीबी और बेबसी को देखकर आश्चर्यित होता है। वह सन्तोष कितना महान है जिसके सहारे यह वर्ग जी रहा है ? आखिर वह कौन-सा कठोर विधान है, जिसने हजारों-हजार क्षुधितों को अनुशासन में बाँध रखा है ?
…कफ से जकड़े हुए दोनों फेफड़े, ओढ़ने को वस्त्र नहीं, सोने को चटाई नहीं, पुआल भी नहीं ! भीगी हुई धरती पर लेटा न्युमोनिया का रोगी मरता नहीं है, जी जाता है।…कैसे?
…यहाँ विटामिनों की किस्में, उनके अलग-अलग गुण और आवश्यकता पर लम्बी और चौड़ी फहरिस्त बनाकर बँटवानेवालों की बुद्धि पर तरस खाने से क्या फायदा !…मच्छरों की तस्वीरें, इससे बचने के उपायों को पोस्टरों पर चित्रित करके अथवा मैजिक लालटेन से तस्वीरें दिखाकर मैलेरिया की विभीषिका को रोकनेवाले किस देश के लोग थे ?…यहाँ तो उन मच्छरों की तस्वीरें देखते ही लोग कहते हैं- “पुरैनियाँ जिला को लोग मच्छर के लिए बेकार बदनाम करते हैं, देखिए पच्छिम का मच्छर कितना बड़ा है, एक हाथ लम्बा देह. चार हाथ मँड। बाप रे !”
डी.डी.टी. और मसहरी की बात तो बहुत बड़ी हुई, देह में कड़वा तेल लगाना भी स्वर्गीय भोग-विलास में गण्य है।…तेल-फुलेल तो जमींदार लोग लगाते हैं। स्वर्ग की परियाँ तेल-फुलेल लेकर पुण्य करनेवालों की सेवा करती हैं…।
खेतों में फैली हुई काली मिट्टी की संजीवनी इन्हें जिलाए रहती है। शस्य-श्यामला, सुजला-सुफला…इनकी माँ नहीं ? अब तो शायद धरती पर पैर रखने का भी अधिकार नहीं रहेगा। कानून बनने के पहले ही कानून को बेकार करने के तरीके गढ़ लिए जाते हैं। सूई के छेद से हाथी निकाल लेने की बुद्धि ही आज सही बुद्धि है।…और लोग तो बकवास करते हैं, बुद्धि-विभ्रम रोग से पीड़ित हैं। जिसके पास हजारों बीघे जमीन है, वह पाँच बीघे जमीन की भूख से छटपटा रहा है।…बेजमीन आदमी आदमी नहीं, वह तो जानवर है !
डाक्टर ममता को लिखता है-
“तुम जो भाषा बोलती हो, उसे ये नहीं समझ सकते। तुम इनकी भाषा नहीं समझ सकतीं। तुम जो खाती हो, ये नहीं खा सकते। तम जो पहनती हो. ये नहीं पहन सकते। तुम जैसे सोती हो, बैठती हो, हँसती हो, बोलती हो, ये वैसा कुछ नहीं कर सकते। फिर तुम इन्हें आदमी कैसे कहती हो।”
…वह आदमी का डाक्टर है, जानवर का नहीं।…’टेस्ट ट्यूबों’ में आदमी और जानवर के खून अलग-अलग रखे हुए हैं। दोनों के सिरम की अलग-अलग जरूरतें हैं। डाक्टर आदमी के खूनवाले ट्यूब को हाथ में लेकर, जरा और ऊपर उठाकर, गौर से ) देखता है। वह जानना चाहता है, देखना चाहता है, कि इन इंसानों और जानवरों की V रक्तकणिका में कितना विभेद है, कितना सामंजस्य है।…
खून से भरे हुए टेस्ट-ट्यूबों में अब कोई आकर्षण नहीं !…
क्या करेगा वह संजीवनी बूटी खोजकर ? उसे नहीं चाहिए संजीवनी। भूख और बेबसी से छटपटाकर मरने से अच्छा है मैलेग्नेण्ट मैलेरिया से बेहोश होकर मर जाना। तिल-तिलकर घुल-घुलकर मरने के लिए उन्हें जिलाना बहुत बड़ी क्रूरता होगी…सुनते हैं, महात्मा गाँधी ने कष्ट से तड़पते हुए बछड़े को गोली से मारने की सलाह दी थी। वह नए संसार के लिए इंसान को स्वच्छ और सुन्दर बनाना चाहता था। यहाँ इंसान हैं कहाँ ?…अभी पहला काम है, जानवर को इंसान बनाना !
उसने ममता को लिखा है-
“यहाँ की मिट्टी में बिखरे, लाखों-लाख इंसानों की जिन्दगी के सुनहरे सपनों को बटोरकर, अधूरे अरमानों को बटोरकर, यहाँ के प्राणी के जीवकोष में भर देने की कल्पना मैंने की थी। मैंने कल्पना की थी, हजारों स्वस्थ इंसान हिमालय की कंदराओं में, त्रिवेणी के संगम पर, अरुण, तिमुर और सुणकोशी के संगम पर एक विशाल डैम बनाने के लिए पर्वततोड़ परिश्रम कर रहे हैं। लाखों एकड़ बंध्या धरती, कोशी-कवलित, मरी हुई मिट्टी शस्य-श्यामला हो उठेगी। कफन जैसे सफेद बालू-भरे मैदान में धानी रंग की जिन्दगी के बेल लग जाएँगे। मकई के खेतों में घास गढ़ती हुई औरतें बेवजह हँस पड़ेंगी। मोती जैसे सफेद दाँतों की चमक…!”
डाक्टर का रिसर्च पूरा हो गया; एकदम कम्पलीट। वह बड़ा डाक्टर हो गया। डाक्टर ने रोग की जड़ पकड़ ली है…।
गरीबी और जहालत-इस रोग के दो कीटाणु हैं।
एनोफिलीज से भी ज्यादा खतरनाक, सैंडफ्लाई (कालाआजार का मच्छर) से भी ज्यादा जहरीले हैं यहाँ के…
नहीं। शायद वह कालीचरन की तरह तुलनात्मक उदाहरण दे बैठेगा।…कालीचरन किसानों के बीच भाषण दे रहा था, “ये पूँजीपति और जमींदार, खटमलों और मच्छरों की तरह सोसख हैं।…खटमल ! इसीलिए बहुत-से मारवाड़ियों के नाम के साथ ‘मल’ लगा हुआ है और जमींदारों के बच्चे मिस्टर कहलाते हैं। मिस्टर…मच्छर !”
दरार-पड़ी दीवार ! यह गिरेगी ! इसे गिरने दो ! यह समाज कब तक टिका रह सकेगा ?
…कविवर हंसकुमार तिवारी की कविता की कुछ पंक्तियाँ याद आती हैं-
दुनिया फूस बटोर चुकी है,
मैं दो चिनगारी दे दूंगा।
गुलमुहर-आज का फूल ! सारी कुरूपता जल रही है। लाल ! लाल !
…कमल-कमला नदी के गड्ढों में कमल की अधमुँदी कलियाँ अपने कोष में नई जिन्दगी के पराग भरकर खिलना ही चाहती हैं।
“ओ ! तुम ! कमला ! इतनी रात में ? अकेली आई हो ?’
“डाक्टर !” बोलो। सच बोलो । मैं डेढ़ घंटे से खड़ी देख रही हूँ। तुमको क्या हो गया है ? क्या तुम्हें भी अब डर लगता है ?- सिर चकराता है ? देखो, कान के पास गर्मी-सी मालूम होती है ? डाक्टर !: डाक्टर !” प्यारू !!’
”कमल की भीनी-भीनी खुशबू ! कोमल पंखुड़ियों का कमनीय स्पर्श । कमला !” ओ ! मैं कमला की गोद में हूँ ? मुझे नींद न लग जाए। मुझे उठकर बैठ जाना चाहिए। मेरी मंजिल ।
“कमला, चलो तुम्हें पहुँचा दूँ। ”
“लेटे रहो बेटा !”
“ओ ! मौसी ! तुम आ गई ?”
प्यारू कहता है, “कल सुबह से ही सिरफ चाय पीकर हैं, तो सिर नहीं चक्कर देगा ?”
सैंतीस
तहसीलदार विश्वनाथप्रसाद के दरवाजे पर पंचायत बैठी है। दोनों तहसीलदार के अगल-बगल में बालदेवजी और कालीचरन जी बैठे हैं। बाभन-राजपूत के साथ में बैठा है यादव-एक ही ऊँचे सफरे (बिछावन, दरी) पर। अरे ! जीबेसर मोची भी उसी कम्बल पर बैठा है ? बस, अब रास्ते पर आ रहा है। देखो, आज तहसीलदार हरगौरी किस तरह हँस-हँसकर कालीचरन से बात कर रहा है-मानो एक प्याली का दोस्त है। हाँ, तो यादवों को अब जमाहिरलाल भी छत्री मान लिए हैं। कौन क्या बोल सकता है ?…बावनदास कौन जात है ?…कहाँ है बावनदास ? पुरैनियाँ गया है ? आज पंचायत के दिन उसको रहना चाहिए था। अरे भाई बाहरी आदमी फिर बाहरी आदमी है। उसको इस गाँव से कौन जरूरत है.? यहाँ नहीं, वहाँ । लेकिन
“ठाकुर (नाई) टोले से और रजकटोले से एक-एक आदमी को ऊँचे सफरे पर बैठने के लिए चुन लिया जाए ।”
ओ ! आओ डोमन भाई ! अपने टोले से किसको पंच चुनते हो ? बोलो ! तुम्हीं आओ ! और रजकटोलने से तो प्यारेलाल है ही। आओ प्यारे !” कालीचरन प्यारे को अपने ही पास बिठलाता है ।
“तो बात यह है कि,” तहसीलदार विश्वनाथप्रसाठजी सुपारी कतरते हुए कहते हैं, “जमाना बहुत खराब आ रहा है! जो लोग अखबार-गजट पढ़ते हैं, वही जानते हैं कि कितना खराब जमाना आ रहा है।…बंगाल की तरह अकाल फैलेगा । बंगाल के अकाल के बारे में नहीं जानते ?… अरे, चरवाह्य सब गाता है, सुने नहीं हो-
बड़ जुल्म कइलक अकलवा रे
बंगाल मुलुकवा में ।
चार करोड़ आदमी मरल”
“– पूछो कालीचरन से, बालदेव भी कहेगा कि बंगाल के अकाल जैसा अकाल कभी पड़ा ?- उम्र ज्यादा होने से क्या हुआ ? जो लोग अखबार नहीं पढ़ते हैं, वे दुनिया की बातों से वाकिफ कैसे हो सकते हैं ? मैं ही पहले से यदि कर-कचहरी, कटिहार-पूर्णिया नहीं जाता तो कूपमण्डूक रहता। कुएँ का बेंग !” देखो, सरकार सभी धानवालो से धान वसूल रही है। क्यों ? सरकार को पूरा डर है कि अकाल फैलेगा । इसलिए अपने हाथ में बर-बखत के लिए पूरी स्टोक रखना जरूरी है। अरे, तुमको तो तीन आदमी की फिक्र करनी पड़ती है तो साल-भर बाप-बाप चिल्लाते हो, कभी इंद्र भगवान से पानी माँगते हो, सूरज भगवान से धूप उगाने के लिए कहते हो, नौकरी करते हो, कर्ज लेते हो ! और जिसको समूचा भारथवरश-हिंदुस्थान की फिक्र करनी पड़ती है, उसकी क्या हालत होती होगी ? अभी तुरत ही तो सभी लीडर जेहल से निकले हैं; तुरत मिनिस्टरी लिया है। यदि अकाल पड़ गया तो सुराज मिलनेवाला है, वह नहीं मिलेगा। यदि मिलेगा भी तो जो उसकी सारी ताकत तो लोगों का खिलाने में ही लग जाएगी। इसलिए हम लोगों को धरती से ज्यादा अन्न उपजाना चाहिए ।- अभी मान लो कि कर-कचहरी, फर-फौजदारी करके तुम खेत पर दफा 44 लगा देते हो, फिर 45 होगा, इससे जमीन में धान तो रोपा नहीं जाएगा ! खेत परती रहेगा और अन्न होगा नहीं । इसके बाद मालिक लोगों से ही यदि धान माँगोगे तो कहाँ से देंगे मालिक लोग ? अपने खर्च के लायक धान मालिकों के पास होगा नहीं और सरकार वसूल करेगी लाठी के हाथ से, कानून से । बड़े मालिकों के बखारों में भी चमगादड़ झूलेंगे।… तो हमारा यही कहना है कि सभी भाई आपस में विचारकर, मिलकर देखो कि किस काम में भलाई है !”
“ अरे ! तो यह पंचायत सिरफ बेजमीनवालों को ही सीख देने के लिए बैठाई गई है !” चुप रहो ! तहसीलदार जो कह रहे हैं, नहीं समझ रहे हो पक्की बात कहते हैं तहसीलदार ।” काबिल आदमी हैं। अरे, आज ही यह कालीचरन और बालदेव आया है न ! पहले तो हम लोगों के आँख-कान यही थे। इन्हीं के यहाँ बैठकर गजट में सुना था कि नेताजी सिंघापूर में पुसुप बिमान पर आ गए हैं। “ तहसीलदार ठीक कहते हैं।
“तहसीलदारबाबू ? माए-बाप,” आप ठीक ही कहते हैं। अब आप ही कोई रास्ता बताइए ।”
“हाँ, हाँ, तहसीलदार काका, आप ही जो कहिए ।”
“टीक है !“ क्या कालीचरन जी ?” तहसीलदार हरगौरी हँसकर पूछता है।
“कालीचरन को “जी” कहते हैं हरगौरी बाबू भी !”
“ठीक है। ठीक है। तहसीलदार साहब ठीक कहते हैं ।”
“- तो भाई, हम तो हिंदुस्थान, भारधवरश की बात नहीं जानते । हम अपने गाँव की बात जानते हैं। आप भला तो जग भला। हम तो इसी में गाँव का कल्याण देखते हैं कि सभी भाई, क्या गरीब कैया अमीर, सब भाई मिलकर एकता से रहें। न कोई जमीन छुड़ावे और न कोई गलत दावा करे । जैसे पहले जोतते-आबादते थे, आबाद करें, बाँट दें। न रसीद माँगें, न नकदी के लिए दर्खास्त दें।- दोनों को समझना होगा… क्यों हरगौरीबाबू ! सुनते हो तो ? अपने मैनेजर से जाकर कह देना कि हुजूर अब भी होश करें । यदि इस तरह रैयतों के साथ दुश्मनी करेंगे, कम-से-कम हमारे यहाँ के रैयतों से, तो फिर बात बिगड़ जाएगी ।” सभी बात तो हमारे ही हाथ में है। हम अभी गवाही देदें, कि हाँ हुजूरआली, यह सब फर्जी काम हमसे करवाया गया है, और कल कागज-पत्तर, चिट्ठी-चपाती, रुक्का-परवाना दिखला दें तो बस खोप सहित कबूतराय नमः…”
“हैं-हैं, हो-हो ।” पंचायत के सभी लोग मुक्त अट्टहास कर बैठते हैं।
“अरे तो, किस खानदान का तहसीलदार है, यह भी तो देखना चाहिए ?” सिंघ जी हँसते हुए कहते हैं।
“महारानी चंपावती” ”
हो-हो-हो-हो हँसी का दूसरा वेग, सैकड़ों सरलहदय इंसानों को गुदगुदी लगाती है ।
“अच्छा ! अच्छा ! अब काम की बात हो । सुनो कालीचरन बेटा ! लीडर बने हो तो बड़ा अच्छा काम है। बाबू-गाँव का नाम तो इसी में है। कोई सोशलिस्ट का लीडर है, तो कोई काँगरेस का, तो कोई काली टोपी का। लेकिन देख लो भैया, हम गाँव के सभी लौंडों के अकेले मालिक हैं। यदि गाँव में इधर-उधर कुछ किए तो पीठ की चमड़ी उधेड़ लें। : खेलावन ! जोतखी जी ! आप ही लोग कहिए, जो लौंडे हमको कहते हैं काका, मामा, भैया, फूफा, उन लड़कों की गलती पर यदि हम कान पकड़कर मल दें या दो कड़ी बात कह दें तो हमको कोई दोख देगा ?”
“नहीं, नहीं। आप वाजिब बात कहते हैं।”
“हम गाँव से बाहर थोड़े ही हैं, लेकिन एक बात हम भी पहले ही कह देते हैं। अभी आप जैसा करने के लिए कहते हैं, हम लोग करें। बाद में फिर हमारी गर्दन पर छुरी चले तब ?” कालीचरन कहता है।
“इसका जिम्मा हम लेते हैं। अरे, हमने कहा न कि सभी खेला मेरे हाथ में है।”
“तो ठीक है। हम गाँव से बाहर थोड़े हैं।”
“ठीक बात ! ठीक बात !”
“लेकिन सभी भाई सुन लीजिए। यदि गाँव के बाहर का कोई बाहरी हम पर हमला करे तो इसका मुकाबला सभी को मिलकर करना होगा। हाँ, यदि बाहरवाले इस गाँव के जमीनवालों पर हमला करें तो सबों को सहायता करनी होगी।…गाँव की जमीन गाँव में रहेगी। बाहरवाले क्यों लेंगे समझे ?”
“हाँ-हाँ, ठीक है। ठीक है। बहुत रात हो गई। आसमान में बादल उमड़ आए हैं। बरसा होगी।…दुहाई इन्द्र महाराज ! बरसो, बरसो !”
हर साल बरसात के मौसम में यही होता है। भगवान के हाथ की बात इंसान क्या जाने ! इन्द्र भगवान से प्रार्थना की जाती है-बरसाओ ! हे इन्द्र महाराज !…जरा भी आसमान के किसी कोने में काले बादलों का जमाव हुआ, बिजली चमकी, कि ‘बरसो’, ‘बरसो’ की पुकार घर-घर से सुनाई पड़ती है। जमीनवालों, बेजमीनों, सबों की रोटी का प्रश्न है। और यदि लगातार पाँच दिन तक घनघोर बरसा हुई और खेतों के आल डूबे कि ‘…जरा एक सप्ताह सबुर करो महाराज !’
इन्द्र महाराज की खुशी ! यदि उनका मिजाज अच्छा रहा तो प्रार्थना पर विचारकर एक सप्ताह सब्र कर गए। मौके से बरसा होती गई, धूप भी उगती रही तो फिर धान रखने की जगह नहीं मिलेगी। ‘भूसिन पूछे मूस से कहाँ के रखबऽधान”( घाघ की एक सूक्ति) ….तहसीलदार विश्वनाथप्रसाद के पास डाक-वचनामृत, भविष्यफल और खान-बचन है। पंजिका से हिसाब निकालकर बता देंगे कि यह पक्ष सूखेगा या झरेगा।…नक्षत्रों की गणना में यदि स्त्री-स्त्री का संयोग हुआ तो शून्य, यदि पुरुष-पुरुष संयोग निकला तो शून्य । एक बूँद भी बरसा नहीं होगी, चिल्लाने से क्या होगा ?…
…ततमाटोला, पासवानटोला, धानुक-कुर्मीटोला तथा कोयरीटोला की औरतें हर साल ऐसे समय में इन्द्र महाराज को रिझाने के लिए, बादल को सरसाने के लिए, ‘जाट-जट्टिन’ खेलती हैं।
आज भी ‘जाट-जट्टिन’ का आयोजन है। कल तो पिछयारीटोले की औरतों ने किया था। बादल का एक टुकड़ा थोड़ी देर के लिए आकर चाँद को ढंक गया था। आज पुरनिमाँ है। कल से यदि बरखा नहीं हुई तो सारा पख सूखा रहेगा।…ततमाटोली की औरतों ने बाबूटोला की औरतों को निमन्त्रण दिया है-“एक साथ सब मिलकर जाट-जट्टिन खेलें, जरूर बरखा होगी।”
गुआरटोली और कायस्तटोली के बीच में जो पन्द्रह रस्सी मैदान खाली है, उसी में औरतें जमा हुई हैं।
…जाट के पास हजारों-हजार भैंसे हैं। वह उन्हें चराने के लिए कोशी के किनारे जाता है। जट्टिन घर में रहती है; दूध, घी और दही की बिक्री करती है, हिसाब रखती है।…सास या पति से झगड़कर, रूठकर जट्टिन नैहर चली गई। जाट उसे ढूँढ़ने जा रहा है। जट्टिन बड़ी सुन्दरी थी, उसकी सुन्दरता की चारों ओर चर्चा होती थी।
सुनरी हमर जटिनियाँ हो बाबूजी,
पातरि बाँस के छौंकिनियाँ हो बाबूजी,
गोरी हमर जटिनियाँ हो बाबूजी,
चाननी रात के इँजोरिया हो बाबूजी !
नान्हीं-नान्हीं तवा, पातर ठोरवा…
छटके जैसन बिजलिया…।
इसलिए जाट को गाँव के हरेक मालिक, नायक या मंडल पर सन्देह ।…जट्टिन नैहर नहीं जा सकेगी, किसी ने जरूर उसे अपने घर में रख लिया होगा।…रास्ते में कितने गाँव हैं, कितनी नदियाँ हैं, कितने घाट हैं और घटवार हैं। वह रास्ते के हर गाँव के मालिक मड़र (मंडल प्रमुख, मालिक), और नायक के यहाँ जाता है :
नायक जी हो नायक हो,
खोले देहो किवड़िया हो नायक जी,
ढूँढ़े देहो जटिनियाँ हो नायक जी…
जट्टिन बनी है रमपियरिया, और जाट बनी है कोयरीटोला की मखनी। मखनी ठीक मर्दों-जैसी लगती है।
‘जाट-जट्टिन’ अभिनय के साथ और भी सामयिक अभिनय तथा व्यंग नाट्य बीचबीच में होते हैं।…फुलिया बनी है डाक्टर। उसने कमल के फल की डंडी को किस तरह जोड़-जोड़कर डाक्टर के गले में झूलनेवाला आला बनाया है। सनिचरा का नया पैजामा माँग लाई है और बिहुला नाचवालों के यहाँ से साहबी टोपा और कोट माँग लाई है।
“ए मैन ! इदार आता हाए। बोलो क्या होता हाए !”
“हुजूर ! थोड़ा सिर दुखता है, थोड़ा आँख भी दुखता है, थोड़ा कान भी दरद करता है और कलेजा भी धुक-धुक करता है। सर्दी भी होता है, गर्मी भी लगता है। भूख नहीं लगता है और जब भूख लगता है तो खाना नहीं मिलता है।”
…रोगी बनी है धानुकटोले की सुरती ! खूब बात जोड़ती है…हा-हँ-हँ-हँ-हँ !…
“अरे बाप रे बाप ! ऐसा बेमारी तो कभी नाहीं देखा। तुम्मारा नेबज देके ! (देखकर) उँहू ! तुम नेही बचेगा। तुमारा बेमारी को कीड़ा हो गया।…जकसैन लगेगा।”
दूसरी रोगिनी आती है-कुर्मीटोले की तराबत्ती।
“ऐ औरत ! तुमको क्या हुआ ?”
“हमरा दिल दकदक करता है।”
“अरे बाप ! यहाँ तो सबों का दिल धकधक करता हाए। अमारा भी दिल धकधक करने लगा !”
डाक्टर और रोगिनी दोनों डरते हुए एक-दूसरे को बाँहों में पकड़ लेती हैं-दिल धकधक दिल दकदक !
…औरतों की मंडली हँसते-हँसते लोटपोट हो जाती है। बूढ़ियों की खाँसी उभर आती है। हो-हो-हो, खों-खों, अक्खों !…खूब किया !
मर्दो को ‘जाट-जट्टिन’ देखने का एकदम हक नहीं है। यदि यह मालूम हो गया कि किसी ने छिपकर भी देखा है तो दूसरे ही दिन पंचायत में चली जाएगी बात !… जिसकी मूंछे नहीं उगी हैं, वह देख सकता है।
अन्त में औरतें मिलकर हल जोतती हैं। हल और बैल किसी का ले आती हैं और जोतते समय गाँव के बड़े-बड़े किसानों को गाली देती हैं- “अरे बिस्नाथ तहसीलदरवा ! जल्दी पानी ला रे ! पियास से मर रहे हैं रे !”
“अरे ! सिंघवा सिपहिया रे ! पानी लाओ रे !”
“अरे रमखैलोना रे !…पानी ला रे !”
…इस गाली को कोई बुरा नहीं मानते। बल्कि किसी बड़े किसान का नाम छूट जाए तो उसे तकलीफ होती है।…बहुत दुख होता है।
इस बार डाक्टर को भी गाली दी जाती है-“अरे डकटरवा रे !…अरे परसन्तो रे, जल्दी से बोतल में पानी लेके आ रे !…”
हो-हो-हा-हा…
आसमान में काले बादल घुमड़ रहे हैं।…बिजली भी चमक रही है।
अड़तीस
दो दिन से बदली छाई हुई है। आसमान कभी साफ नहीं होता। दो-तीन घंटों के लिए बरसा रुकी, बूंदा-बाँदी हुई, फिर फुहिया। एक छोटा-सा सफेद बादल का टुकड़ा भी यदि नीचे की ओर आ गया तो हरहराकर बरसा होने लगती है। आसाढ़ के बादल… !
रात में मेंढकों की टरटराहट के साथ असंख्य कीट-पतंगों की आवाज शून्य में एक अटूट रागिनी बजा रही है-टर्र ! मेंक् टर्ररर…मेंकू !…झि-झि-चि…किर-किर्र…सि, किटिर-किटिर ! झि…टर्र…।
कोठारिन लछमी दासिन को नींद नहीं आ रही है; चित्त बड़ा चंचल है। रह-रहकर ऐसा लगता है कि उसके शरीर पर कोई पतंगा घुरघुरा रहा है। वह रह-रहकर उठती है, बिछावन झाड़ती है, कपड़े झाड़ती है। लेकिन वही सरसराहट…। वह लालटेन की रोशनी तेज कर बीजक लेकर बैठ जाती है-
जाना नहिं बूझा नहिं
समुझि किया नहीं गौन
अंधे को अंधा मिला
राह बतावे कौन ?
कौन राह बतावे ? नहीं, उसने बालदेव जी को जाना है, अच्छी तरह पहचाना है। “महंथ सेवादास जी कहते थे-“लछमी ! बालदेव साधु पुरुष है।”- लेकिन बालदेव जी तो इतने लाजुक हैं कि कभी एकांत में बात करना चाहो तो थरथर काँपने लगें; चेहरा लाल हो जाए। लाज से या डर से ? …लेकिन बिरहबाण से घायल लछमी का मन सिसक-सिसककर रह जाता है।
बिरह बाण जिहि लागिया
ओषध लगे न ताहि ।
सुसकि-सुसकि मरि-मारि जिवैं,
उठे कराहि कराहि !
किंतु बालदेव जी को क्या पता !” लछमी क्या करे ?
टर्र-र-मेंक, मेंकद, झी …ई …टिंक-टिंक-झी रिं !… नहीं । लछमी अब नहीं सह सकेगी | वह बालदेव जी के पास जाएगी। मसहरी नहीं है बालदेव जी को ! मच्छर काटता होगा। …नहीं | वह नहीं जाएगी। वह क्यों जाएगी ?“
पानी प्यावत क्या फिरो
घर-घर सायर बारि,
तृषावंत जो होयगा,
पीवेगा झख मारिं
रामदास-महंथ रामदास अब लछमी से बहुत कम बोलते हैं। वे नाम के महंथ हैं। वे कुछ नहीं जानते, कुछ नहीं समझते । उन्हें कुछ भी नहीं मालूम | कितनी आमदनी और कितना खर्च होता है-उनको क्या पता ? बीस से ज्यादा तो गिनना नहीं जानते। कोड़ी का हिसाब जानते हैं। …रामदास जी समझ गए हैं कि यदि लछमी मठ को एक दिन के लिए भी छोड़ दे तो रामदास के लिए यहाँ टिका रहना मुश्किल होगा । लछमी जादू-मंतर जानती है | क्या कागज-पत्तर, क्या खेती-बारी और क्या हाकिम-महाजन, सभी में वह अव्वल है। महंथ रामदास जी समझ गए हैं कि यदि इज्जत के साथ बैठकर दूध-मलाई भोग करना हो तो लछमी को जरा भी अप्रसन्न नहीं किया जाए। …तन का ताप मन को चंचल तो करता है, लेकिन क्या किया जाए ! …यदि एक दासिन रखने का हुकुम लछमी दे दे तो…! गडगड़ाम “गड़गड़” बादल घुमड़ा। बिजली चमकी और हरहराकर बरसा होने लगी।
हाँ, अब कल से धनरोपनी शुरू होगी।…जै इन्दर महाराज, बरसो, बरसो !…लेकिन बीचड़’ के लिए धान कहाँ से मिलेगा ? आज तो पंचायत में सभी बड़े मालिक लोग बड़ी-बड़ी बात बोलते थे, कल ही देखना कैसी बात करते हैं… ‘अपने खर्चा के जोग ही धान नहीं है’, ‘बीहन (बीहन (बीज) धान, धान का छोटा पौधा) नहीं है’ अथवा ‘पहले हमको बोने दो।’
गड़गड़ाम…गुडुम !
“बीहन का धान मालिकों को देना होगा। हमेशा देते आए हैं, इस बार क्यों नहीं देंगे ?” कालीचरन आफिस में सोए, अधसोए और लेटे लोगों से कहता है, “और बार दूना लेते थे, बीहन का दूना, इस बार सो सब नहीं चलेगा। यदि तहसीलदार मामा ने ऐसा प्रबन्ध नहीं किया तो फिर…संघर्ख।”
बिजली चमकती है। बादल झूम-झूमकर बरस रहे हैं।
मंगला अब कालीचरन के आँगन में रहती है। कालीचरन की माँ अन्धी है। कालीचरन की एक बेवा अधेड़ फूफू है। मंगला की मीठी बोली सुनकर कालीचरन की माँ की आँखें सजल हो उठती हैं और फूफू की आँखें लाल ! जब-जब बिजली चमकती है, पछवारिया घर के ओसारे पर सोई फूफू पुअरिया घर की ओर देखती है। आदमी की छाया ? नहीं। बाँस है।…पुअरिया घर में सोई मंगला भी जगी है। बादलों के गरजने और बिजली के चमकने से उसे बड़ा डर लगता है। बचपन से ही वह बादल, बिजली और आँधी से डरती है। और यहाँ की बरसा तो..। फिर, बिजली चमकी। “कौन…!” मंगला फुसफुसाकर पूछती है-“कौन ?”
भीगे हुए पैरों के छाप बिजली की चमक में स्पष्ट दिखाई देते हैं।
सोनाये यादव अपनी झोंपड़ी में बारहमासा की तान छेड़ देता है :
एहि प्रीति कारन सेत बाँधल,
सिया उदेस सिरी राम है।
सावन हे सखी, सबद सुहावन,
रिमिझिमि बरसत मेघ हे !…
रिमिझिमि बरसत मेघ !…कमली को डाक्टर की याद आ रही है। कहीं खिड़कियाँ खुली न हों। खिड़की के पास ही डाक्टर सोता है। बिछावन भींग गया होगा। कल से बुखार है। सर्दी लग गई है।…न जाने डाक्टर को क्या हो गया है ?…कहीं मौसी सचमुच में डायन तो नहीं ? डाक्टर को बादल बड़े अच्छे लगते हैं। कल कह रहा था-‘मैं वर्षा में दौड़-दौड़कर नहाना चाहता हूँ।’
छररर ! छररर !…बादल मानो धरती पर उतरकर दौड़ रहे हैं। छहर…छहर… छहर !
बिरसा माँझी अब लेटा नहीं रह सकता।…परसों गाँववालों ने मिटिन किया है-बाहरी आदमी यदि चढ़ाई करे तो सब मिलकर मुकाबला करेंगे। कालीचरन भी था और बानदेव भी !संथाल बाहरी लोग हैं।
तहसीलदार हरगौरी का सिपाही आज जमीन सब देख रहा धा-अखता भदै धान पक गया है। काटेंगे क्या ! किस खेत में कौन धान बोएँगे ? तो क्या सचमुच में संथालों की जमीन छुड़ा लेंगे तहसीलदार ? जमींदारी पर्था ख़तम हुई, लेकिन तहसीलदार जमीन से बेदखल कर रहा है। …बात समझ में नहीं आ रही है ।…क्या होगा ? कल ही देखना है। जमीन पर हल लेकर आवेगा तहसीलदार, भदे धान काटने आवेगा, तब देखा जाएगा। पहले से क्या सोच-फिकर ? …वह अब लेटा नहीं रह सकता। ‘लेटे-ही-लेटे मादल पर वह हाथ फेरता है-रिं-रिं-ता-धिन-ता ।
गुड़गुडुम …गुड़म से गुदुम |
बिजलियाँ चमकती हैं !
कल बीचड़ मिलेगा या नहीं ? …बालदेव जी को मच्छर क्यों नहीं काटता है, कालीचरन की फूफी सोती क्यों नहीं, और डाक्टर की खिड़की बंद है या खुली, इसका जवाब तो कल मिलेगा। अभी जो यह सोनाय यादव बारहमासा अलाप रहा है, इसको क्या कहा जाए ?’गाँव-घर में गाने की चीज नहीं बारहमासा’ अजीब है यह सोनाय भी। कुमर बिजैभान या लोरिक नहीं, बारहमासा ! खेत में रोपनी करते समय गानेवाला गीत बारहमासा ! धान के खेतों में पाँवों की छप-छप आवाज के साध वह गीत इतना मनोहर लगता है कि आदमी सबकुछ भूल जाए। “यह संथालटोली में माँदर क्यों बजा रहा है, बेवजह, और जब यह सोनाय बारहमासा गा ही रहा है तो चार कडी सुनने दो बाबा ! बेताल के ताल बजा रहे हो ! बरसा की छपछपाहट और बादलों को घुमड़न में माँदर की आवाज स्पष्ट नहीं सुनाई पड़ती है, गनीमत है। ओ ! सोनाय ने अब झूमर बारहमासा शुरू किया है-
अरे फ़ागन मास रे गवना मोरा होइत
कि पहिरझू बसंती रंग है,
बाट चलैत-आ केशिया सँभारि बान्ह,
अँचरा हे पवन झरे है एए ए !
डाक्टर अब गाँव की भाषा समझता ही नही, बोलता भी है। ग्राग्य गीतों को सुनकर वह केस-हिस्ट्री लिखना भी भूल जाता है। गीतों का अर्थ शायद वह ज्यादा समझता है। सोनाय से भी ज्यादा ? -अँचरा हे पवन झरे है ! आँचल उड़ि-उड़ि जाए !
गाँव के और लोग कहेंगे कि रात में रह-रहकर वर्षा होती थी । आधा घंटा बंद, फिर झर-झर ! लेकिन डाक्टर कहेगा, सारी रात बरसा होती रही, कभी बूँद रुकी नही | विशाल बड़ के तने, ‘करकट टीन’ के छप्परवाले घर पर जो बूँदें पड़ती थीं ! कोठी के बाग में झरझराहट कभी बंद नहीं हुई !…
तो सुबह हो गर्दख। सोनाय अब खेत में गीत गा रहा है। सोनाय अकेला नहीं है, सैंकड़ों कण्ठों मे एक-एक विरहिन मैथिली बैठी हुई कूक रही है-
आम जे कटहन, तुत जे बड़हल
नेबुआ अधिक सूरेब !
मास असाढ़ हो रामा ! पंथ जनि चढ़िहऽ,
दूरहि से गरजत मेघ रे मोर !
बाग में आम-कटहल, तूत और बड़हल के अलावा कागजी नीबू की डाली भी झुकी हुई है और दूर से मेघ भी गरजकर कह रहा है-आ पन्थी ! अभी राह मत चलना !…लोग दूर के साथी को अपने पास बुलाते हैं, बिरह में तड़पते हैं, मेघों के द्वारा सन्देश भेजते हैं और घर आया हुआ परदेशी बाहर लौट जाना चाहता है ? नहीं, नहीं !…बिजली की हर चमक पर मैं चौंक-चौंककर रह जाऊँगी। बादल जब गरजते हैं तो कलेजे की धड़कन बढ़ जाती है।
अऽरे मास आ सा ढ़ हे ! गरजे घन
बिजूरी-ई चमके सखि हे ए ए !
मोहे तजी कन्ता जाए पर-देसा आ…आ
कि उमड़ कमला माई हे!
…हँऽरे ! हँऽरे…
कमला में बाढ़ आ जाए तो कन्त रुक जाएँ। इसलिए कमला नदी को उमड़ने के लिए आमन्त्रित किया जाता है।…जिनके कन्त परदेश से लौट आए हैं, उनकी खुशी का क्या पूछना ! झुलनी रागिनी उन्हीं सौभाग्यवतियों के हृदय के मिलनोच्छ्वास से झूम रही है खेतों में !
मास असाढ़ चढ़ल बरसाती
घर-घर सखी सब झूलनी लगाती
झूली गावे,
झूली गावति मंगलबानी
सावन सखि अलि हे मस्त जवानी…
देखो, देखो! देखो, देखो सखि री बृजबाला
कहाँ गए जशोधाकुमार, नन्दलाला
…देखो, देखो।
घर का कन्त कहीं गाँव में ही राह न भूल जाए !…देखो, देखो, कहाँ गए ? किसी की झूलनी पर झूल तो नहीं रहे ?
“चाय !”
“कौन ? कमला !” डाक्टर अकचका जाता है।
“हाँ, चमकते हो क्यों ? तुमको भी सूई का डर लगता है ! यह मीठी दवा नहीं, मीठी चाय है डाक्टर साहब ! जब चाय पीकर ही जीना है तो आँख खुलते ही गर्म चाय की प्याली सामने रखने की जरूरत है।” कमला पास की कुर्सी पर बैठकर चाय बनाती है। प्यारू खड़ा-खड़ा मुस्करा रहा है।…प्यारू को इतना खुश बहुत कम बार देखा गया है।… अब समझें ! यह प्यारू नहीं कि हर बात में ‘नहीं’ कर टाल दिया।…चाय बनावें? तो नहीं। अंडा बनावें ? तो नहीं। खाना परोसें ? तो नहीं।…अब समझें !’
उनतालीस
संथाल लोग गाँव के नहीं, बाहरी आदमी हैं ?
“…जरा विचार कर देखो। यह तन्त्रिमा का सरदार है…अच्छा, तुम्हीं बताओ जगरू, तुम लोग कौन ततमा हो ? मगहिया हो न ? अच्छा कहो, तुम्हारे दादा ही पच्छिम से आए और तुम्हारी बेटी तिरहुतिया तन्त्रिमा के यहाँ ब्याही गई है। मगहिया चाल-चलन भूल गए। अब तिरहुतिया और मगहिया एक हो गए हो। लेकिन संथालों में भी कमार हैं. माँझी हैं। वे लोग अपने को यहाँ के कमार और माँझी में कभी खपा सके ? नहीं। वे तो हमेशा हम लोगों को ही छोटा कहते हैं। गाँव से बाहर रहते हैं।…कहो तो गाने किसी संथाल को, बिदेशिया का गाना या एक कड़ी चैती ! कभी नहीं गावेगा। इसका दारू हरगिज नहीं पिएगा। जब पिएगा तो ‘पँचाय’ ही। समझो ! सोचो!” तहसीलदार साहब दरवाजे पर बैठे हुए बीहन लेनेवालों से कहते हैं।…डेढ़ सौ से ज्यादा लोग हैं।’ कालीचरन जी भी हैं, बासुदेव जी और बालदेव जी भी हैं।
तहसीलदार साहेब एकदम ठीक कह रहे हैं।…नीं भाई जो भी हो तहसीलदार साहेब ही एक आदमी हैं जो कि गाँव की भलाई-बुराई की बात समझते हैं…ठीक कहते हैं तहसीलदार साहेब । एकदम से ‘फाटक खोल’ हुकुम दे दिए हैं, “कोई बात नहीं। इस . बार तुम लोगों को सन्देह क्यों हुआ ? अधियादार लोग ही बीहन के वाजिब हकदार हैं। और जो लोग मेरे अधिया नहीं हैं, उन्हीं से पूछो कि किसी साल हमने लौटाया है किसी को ? तब यह है कि पिछले-साल जैसी उपज हुई थी सो तो देखा ही हुआ है। तिस पर पेडीलाभी (पैड़ी लेवी कानून) कानून का देना अभी बाकी है। बहुत कोशिश-पैरवी करके किसी तरह एक सौ मन कराया है। हरगौरीबाबू की किरपा से तो पाँच सौ मन लग गया था। इनसे शायद दरोगा साहेब ने पूछा और उन्होंने बता दिया कि पाँच हजार मन धान होता है। वह तो थाना काँग्रेस के सिकरेटरी ने कितनी कोशिश करके इसको एक सौ मन बनाया है।”…कल हरगौरीबाबू से पूछ रहे थे कि कहिए बाबू हरगौरी जी ! यदि पाँच सौ मन धान अभी दे देते तो गाँववालों को बीहन और खर्चा कहाँ से मिलता ? तहसीलदार होने से ही नहीं होता।…
ठीक बात ! ठीक बात !…वाजिब कहते हैं तहसीलदार साहेब।
…कालीचरन के मन में बहत-से सवाल आते हैं. पर वह नहीं पूछेगा। उस दिन सिकरेटरी साहेब ने साफ कह दिया कि ‘कामरेड, अभी संघर्ष मत छोड़ो। सबसे पहले अभी किसी एक इलाके में, एक एरिया लेकर इसको इसपारमिन (एक्सपेरिमेंट) करेंगे, तब इसके बाद और इलाके में इसके लिए हुकुम देंगे। सो भी संघर्ष से एक महीना पहले दरखास्त लेना होगा लोगों से, फिर इनकुआएरी, फिर ऐजुकूटी मिटिंग, तब जाकर राय मिलेगी कि संघर्ष करना चाहिए कि नहीं। मेल-माफत और पंचायत से अभी जो काम चले, चलाइए। कुछ दिनों के बाद तो पार्टी एकदम धावा बोल देगी।
“हाँ, तहसीलदार साहेब ठीक कहते हैं।” कालीचरन भी कहता है। बालदेव जी भी कहते हैं।…बौनदास कहाँ है ? पुरैनियाँ से लौटकर नहीं आया है।
हरगौरीबाबू भी अच्छी तरह समझ गए हैं कि काली टोपीवाले नौजवानों की लाठियों से ज्यादा खतरनाक हथियार है-कानूनी नुक्स ! तहसीलदार विश्वनाथप्रसाद इसके माहिर हैं। उनसे अभी बैर लेना ठीक नहीं।
सिंघ जी को हरगौरी की तहसीलदारी पर पूरा भरोसा था, काली टोपीवाले संयोजक जी पर पूरा विश्वास था…लेकिन तहसीलदार विश्वनाथ ने तो कानून की ऐसी लकड़ी लगाई है कि भूमिहार भी मात ! राजपूत का बल्लम-बर्जा उसके आगे क्या करेगा…? ऊपर से कितना हँसमुख और कितना मीठबोलिया है तहसीलदार बिसनाथ, लेकिन पेट में जिलेबी का चक्कर है। राज का नया सरकिल मैनेजर दाँतों तले उँगली दबाता है। ऐसा कानूनची आदमी !…कहा, इस्तीफा दे दो। इसीलिए तड़ाक् से दे दिया। काँगरेसी का लीडर हो गया। हद है ! इससे पार पाना मुश्किल है !
हरगौरी ने सिंघ जी के नाम संथालटोली की पच्चीस एकड़ जमीन बेनामी करवाई है, जिसमें से दो एकड़ सिंघ जी को मिलेगी।…
खेलावन ने भी पाँच बीघा संथालटोली की बन्दोबस्त ली है।
बेतार का खबर सुमरितदास कोयरीटोलावालों से कहता है, “यदि हरगौरी तहसीलदार ने तहसीलदार बिसनाथपरसाद के नाम दो सौ बीघे और मेरे नाम से पचास बीघे की लिखा-पढ़ी नहीं की तो फिर देख लेना ! हाँ कायस्त है, खेल नहीं।”
सुमरितदास बेतार अब फिर तहसीलदार विश्वनाथप्रसाद के साथ है। अब तो जैसे हरगौरी तहसीलदार, वैसे विश्वनाथ तहसीलदार। लेकिन शर्त यही है…।
संथालों को सब मालूम है।
अभी बालदेव जी, बावनदास जी और कालीचरन जी सब एक हो गए। संथाल लोग अच्छी तरह जानते हैं, कोई साथ देनेवाला नहीं। धरमपुर में देखा नहीं ? ऐसा ही हुआ। इसीलिए बड़े-बूढ़े ठीक कह गए हैं-यहाँ के लोगों का विश्वास मत करना। जब जिससे जो फायदा हो ले लेना, मगर किसी के साथ मत होना। संथाल संथाल है और दिक्कू दिक्कू (संथाल लोग गैर-संथाल को दिक्कू कहते हैं) पाँचाय देह को पत्थल की तरह मजबूत बनाता है और पीकर देखो यहाँ का दारू, पत्थल को गला देगा। हरगिन नहीं। दिक्कू आदमी, भट्ठी का दारू, इसका बिसवास नहीं।…अरे, तीर तो है ! यही सबसे बड़ा साथी है। साथी छोड़ सकता है, तीर कभी चूकता नहीं…।
चुनका माँझी क्या बोलता है ?…डाक्टर से क्या पूछने गया था पूछना चाहिए था कालीचरन से, बालदेव जी से, तहसीलदार साहब से।
बालदेव और कालीचरन लोगों को धान दिला रहे हैं, तहसीलदार साहब से।
“डाक्टर ने कहा कि तुम लोग ही जमीन के असल मालिक हो। कानून है, जिसने तीन साल तक जमीन को जोता-बोया है, जमीन उसी की होगी।”
“डाक्टर ने कहा है ?”
डाक्टर ने ? सीनियाँ मुरमु हँसती है-हँ हँ हँ ! “डाक्टर हम लोगों का नाच देखना चाहता है। रोज टोकता है। हँ हँ हँ !”
जबान जोगिया माँझी तीर से पूँछ पर जंगली हंस के पैरों को बाँधते हुए कहता है, “डाक्टर ने खरगोस का दाम दिया था दस रुपैया। बारह रुपैया दर्जन चूहा।… दो सियार के बच्चों का दाम पचास रुपैया। दे सकता है कोई बड़ा आदमी इतना दाम ?…सरकारी आदमी है, मगर घूसखोर नहीं।”
कालीचरन को एकान्त में कहती है मंगलादेवी। एकदम अनुनय करके कहती है, “काली, तुम मत जाना। संथाल लोग नहीं मानेंगे; जरूर तीर चलावेंगे। मैं जानती हूँ। तुम नहीं जानते कालीबाबू, ये लोग कैसे होते हैं, उनकी सूरतें भ्रम में डालनेवाली हैं।देखने से पता चलेगा कि बहुत सीधे हैं, मगर“ । तुम मत जाना काली, तुम्हें मेरे सिर की कसम ।”
टीक ही तो है, जो सरगना मेंवर हैं, वे क्यों जाएँगे !
“वासुदेव, सुनग और सनिचर भी नहीं जाएगा !
हाँ प्यारे भी नहीं जाएँगे।
…सोमा जट जाएगा ? जाने दो, वह मेंबर नहीं है।
बालदेव जी तो ऐसी जगह जाएँगे ही नहीं। वहाँ हिंसा का भय है; वे नहीं जा सकते । …तहसीलदार साहब लीडर हुए हैं, खुद जाएँ या लठैतों को भेजें | हिंसा करें या अहिंसा करें। बालदेव जी तो सिर्फ चवन्निया मेंबर हैं। बावनदास यदि रहता तो अभी अकेले सबको, मय तहसीलदार बिसनाथ के कानून के, मात कर देता | लेकिन उसका दिमाग खराब हो गया है। सात दिन हुए चिट्ठी लिखाने गया है, सो लौटा नहीं। गाँधी जी को चिट्ठी देगा। “गाँधी जी को इतनी फुर्सत कहाँ है, बाबा, जो तुमको जवाब देंगे ? “लेकिन नहीं, बावन ने बहुत बार चिट्ठी लिखवाई है और हर बार जवाब आया है-“भाई बावनदास जी, आपका ख़त मिला ।” उस वार ससांक जी सबको पढ़कर सुना रहे थे-महात्मा जी ने बावनदास को परनाम लिखा है। बावनदास को महात्मा भी भगवान कहते थे | बावन जरूर अवतारी आदमी है। वह ठीक कहता आा-भारथमाता और भी जार-बैजार रो रही है !
“मैया रे मैया… बाबा हो बाबा ! ”
कौन रोती है ? “रमपियरिया रोती है, उसके भाई गनोरी को तीर लग गया ? कहाँ गया । किसने मारा ? “संथालों ने ? कहाँ ? लोग भागे क्यों आ रहे हैं ?
गाँव में कुत्ते भूँक रहे हैं। कौए काँव-काँव कर रहे हैं। “जोतखी काका ठीक कहते थे-गाँव में चील-काग उड़ेगा।”
“हँसेरी ! बलवा ! लाठी निकार रे !”
“कहाँ हँसेरी ?’
“भाला निकालो रे !”
“कहाँ हँसेरी ? कैसा बलवा ? क्या बात है ?”
“संथाल लोग तहसीलदार बिसनाथपरसाद के चालीस बीघावाले बीहन के खेत में बीहन लूट रहे हैं।”
“नई बंदोबस्तीवाली जमीन में ?”
“नहीं भाई, अपनी खास जमीन में, कोठी के पासवाली जमीन में, “लाठी निकालो ।”
“गनोरी ने हल्ला किया; तीर छोड़ दिया। जाँघ में लगा है तीर। लहू की नदी बह रही है। बेहोस है। इसपिताल में डाक्टर लाया गया है। “संथाल लोग बेखौफ धान का बीचड़ उखाड़ रहे हैं।”
चलो ! चलो ! मारो | “साला संथाल ! बाहरी आदमी ! “जान जाए तो जाए।
तहसीलदार बिसनाथपरसाद की ही जमीन पर धावा किया है !…चलो रे !…
…भौं-भौं भूँ ऊँ-ऊँ ! कुत्ते परेशान हैं भूँकते-भूँकते। …रिंग-रिंग-रिंग-रिंग !
…डा-डा-डा-डा-डा-डा…
संथालों के डिग्गा और मादल एक स्वर में बोल उठे-रिंग-रिंग-रिंग-रिंग-रिंग ! डा-डा-डा-डा !
आज रिंग-रिंग-ता-धिन-ता अथवा डा-डिग्गा-डा-डिग्गा नहीं, सिर्फ रिंग-रिंग-रिंगरिंग…, डा-डा-डा-डा !…यह खेत में बजा रहा है, संथालियों को सचेत कर रहा है, तुम लोग भी तैयार रहो…डा-डा-डा-डा !…संथालिने जवाब देती…रिं-रिं-रिं-रिं ! अर्थात् तैयार है, जूड़े में फूल खोंसने में बस जितनी देर लगे ! तैयार हैं !…
“जै, काली माई की जै!” दो सौ गलों की आवाज सुनकर कालीथान के बड़गाछ पर बैठे हुए कौए एक ही साथ काँव-काँव कर उड़ते हैं। कुत्ते और भी जोर से भूँकने लगते हैं।
“जै ! काली माई की जै!”
“महात्मा गाँधी की जै।”
“इनकिलाब जिन्दाबाद !”
“भारथमाता की जै!”
“सोशलिस्ट पाटी जिन्दाबाद !”
“झंडा हिन्दू राज का !”
“हिन्दू राज की जै!”
“तहसीलदार बिस्नाथपरसाद की जै!”
“बालदेव जी की जै!”
“घेर लो चारों ओर से ! भागने न पावें !”…हो-हो-हो-हो-हो !…
अब नारा नहीं। सिर्फ हो-हो-हो-हो !…
“घेर। घेर।…मारो। हो-हो-हो !”
“तीर चला रहा है। लेट जाओ।…तीर चलाओ !”
“मारो ? गुलेटा चलाओ।”
“बिरसा माँझी भागा जा रहा है, मारो भाला !”
…बिरसा पानी में गिर पड़ा-छपु ! भाला लग गया।
…सुखानू को क्या हुआ। तीर लग गया, कलेजे में ?
संथालिन भी तीर चलाती हैं ?
बच्चे भी?
“बिरसा माँझी गिर पड़ल रे !” डा-डा-डा-डा-डा !
…रिं-रिं-रि-रिं ! “गिरने दो। तुम भी गिरो !”
“बैठके तीर चला सोनिया !”
“सुखी मुरमू गिरल रे !” डा-डा-डा-डा !
“गिरने दो ! “तुम भी गिरो !” रिंगरिं !
“जगारी बेटा, ठीक निसाना लगा बेटा । हरगौरी तहसीलदार के कलेजे पर !
हाँ वाह बेटा !”
“डा-डा-डा-डा !” हरगौरी तहसीलदार गिरलरे !”
‘गिरने दो !” – रि-रि-रिरिं !
“तहसीलदार ? हरगौरी तहसीलदार गिर पड़ा ? …भागों मत। ऐ ! सुनो ! तुम लोगों को अपना माँ-बहन की कसम, गुरु-देवता की कसम, काली किरिंया ! जो भागे वह दोगला ! ‘संथालो के तीर खतम हो रहे हैं। अब घेर के मारो। ‘मंगलदास को सँभालो।| चलो ! जै, काली माई की जै !
“मारो भाला ! अरे बच्चा नहीं है, इसी ने तहसीलदार को मारा है।”
“वाह बहादुर ! ठीक है। अब लगाओ गुलेटा उस बूढे को, साला डिंग्गा बजा रहा है !”
“भाग रहा है। साले सब भाग रहे हैं। घेरो ! भागने न पावे ! सथालिनें पाट के खेत में छिपी हुई हैं। घेर लो ।”
“ “एकदम ‘फिरी’ ! आजादी है, जो जी में आवे करो ! बूढ़ी, जवान, बच्ची जो मिले। आजादी है। पाट का खेत है। कोई परवाह नहीं है। …फासी हो या कालापानी, छोड़ो मत ।”
संथालिनें भी रोती हैं, दर्द से छटपटाती हैं – चिल्ला-चिल्लाकर रोती हैं या गाती हैं ?
“कुहटाम मचा हुआ है पाट के खेतो में, कोठी के जंगल में। कहाँ दो सौ आदमी और कहाँ दो दर्जन संथाल, डेढ़ दर्जन संथालिनें ! सब ठठा। सब ठंडा ?
संथालटोली के चार आदमी ठंडे हुए, सात घायल हुए और एक लड़के की हालत खराब है। संथालिनें दुहरे दर्द से कराह रही हैं।…
तहसीलदार की हँसेरी में दस गुंडे ठंडे …, बारह बुरी तरह जख्मी हुए और तीस आदमी को मामूली घाव लगा है।
संथालटोली को लूट लिया गया। तहसीलदार हरगौरी की हालत बहुत खराब है, शायद नहीं बचेंगे।
चालीस
जोतखी ठीक कहते थे-गाँव में चील-काग उड़ेंगे और पुलिस-दारोगा गली-गली में घूमेगा ।
पुलिस-दारोगा, हवलदार और मलेटरी, चार हवागाड़ी में भरकर आए हैं। दुहाई माँ काली !
इसपी, कलक्टर, हाकिम अभी आनेवाला है।
लहास ! …लहास ! …बाप रे-कौन कहता था कि अँगरेज बहादुर का अब राज नहीं रहेगा ?
“तहसीलदार हरगौरी भी मर गए ? …ऐं ! कोई घर से मत निकलो ! पाखाना-पेसाब सब घर के ही अंदर करो | घर से निकले कि गिरिफ्फ कर लेगा। “दुहाई काली माई !” “बालदेव जी को दारोगा साहेब ने बुलाया है ? कलिया “कालीचरन जी को भी ? “देखें, ये दोनों तो किसी से डरनेवाले नहीं हैं, क्या होता है ? “दो लीडर तो हैं।”
“ओ ! आप ही यहाँ के लीडर हैं” दारोगा साहब बालदेव जी से पूछते हैं। इसपिताल के फालतू घर में दारोगा साहब कचहरी लगाकर बैठे हैं, मलेयद्वी ने संथालों को गिरिफ्फ कर लिया है। जखमी, घायल और बूढ़े-बच्चों को भी !’ सबको गिरफ्तार किया है ? नहीं, जखमी लोगों को मरहम-पट्टी तो कल ही डाक्टर साहब ने कर दी है। दो संथाल और चौदह गैर-संथाल घायलों को पुरैनियाँ के बड़े इसपिताल भेजा गया है। सबों की लहास भी चली गई है। सिंघ जी, शिवशक्करसिंघ और हरेक टोला से दो-चार आदमी लहास के साथ गए हैं। न जाने कब लहास मिले ? ऊँह, चीर-फाड़कर मिलेगी ! हे भगवान !…
बालदेव जी क्या जवाब दें ?… लीडर हैं। किसके लीडर ? संथालों के या गैर-संथालों के ?…खखारकर गले को साफ करते हुए बालदेव जी के मुँह से बस वही पुराना जवाब निकलता है, जो उसने हरगौरी को दिया था जिस दिन कलिया पगला गया था।
“नहीं हुजूर ! हम तो मूर्ख और गरीब ठहरे। मूरख आदमी, चाहे गरीब आदमी, कभी लीडर हुआ है हूजूर ? ”
दारोगा साहब बालदेव जी को पास की कुर्सी पर बैठने को कहते हैं, “अरे, हम आपको जानते हैं। बालदेव जी, बैठिए ?”
बासुदेव और सुंदर एक-दूसरे का मुँह देखते हैं। “कालीचरन जी को कुछ पूछा भी नहीं ?” लो, तहसीलदार साहब सँभाल लेते हैं।
“दारोगा साहब यही हैं, कालीचरनबाबू, यहाँ के सोशलिस्टों के लीडर ! बहादुर हैं ! लेकिन सिर्फ बहादुर ही नहीं, मगज भी हैं !”
“ओ हो ! कालीचरन जी हैं ? आइए साहब, आप लोग तो साहब, क्या कहते हैं, जो न करवाइए ।” दारोगा साहब मुँह में पान-जर्दा डालते हुए कहते हैं, “लेकिन यहाँ तो सुना कि आप लोगों ने बड़े दिमाग से काम लिया है। हमको तो सुबह आते ही सारी बातों का पता चल गया | तारीफ करने के काबिल ! वाह ! बैठिए ।”
कालीचरन बैठते हुए कहता है, “देखिए दारोगा साहब यदि आपस की पंचायत से सारी बात का फैसला हो जाए तो हम लोगो को पागल कुत्ते ने नहीं काटा है जो , !!
“आपस की पंचायत से ? यह खूनी केस ?” दारोगा साहब का पान भरा मुँह एकदम गोल हो जाता है।
“नहीं, यह नहीं, यही आधी बट्टेदारी का सवाल !”
“ओ !” दारोगा साहब ने पीक की कुल्ली फेंकते हुए कहा, “ओ ! सो तो ठीक है ! अरे आप ही हैं, सोशलिस्ट पार्टीवाले हैं। कहिए तो, जो काम पंचायत से चार आदमी की राय से नहीं होगा, वह क्या कहते हैं, तूल-फजूल से हो सकता है-
“हिंसा के रास्ते पर तो हरगिज जाना ही नही चाहिए ।” बालदेव जी वहुत गंभीर होकर कहते हैं।
“क्या कहते हैं !” दारोगा साहब बालदेव जी की बात में टीप का बंद लगा देते हैं, “क्या कहते हैं !” दारोगा साहब बात करते समय हाथ खूब चमकाते हैं और कनखी भी मारते हैं।
बासुदेव और सुनहरा एक-दूसरे को देखते हैं-बालदेव जी जानते ही क्या हैं जो बोलेंगे। देखा, कालीचरन जी ने कैसा गटगटाकर जवाब दे दिया।
“हिंसा-अहिंसा का सवाल नहीं है बालदेव जी, असल है बुद्धि ! यहीं पर हमारी पार्टी के कोई और कामरेड रहते तो हो सकता है, दूसरी बात होती। बुद्धि की बात है।” कालीचरन बालदेव जी को जवाब देता है।
कालीचरन और बालदेव जी ने दारोगा जी को दिखला दिया कि बुद्धि है ! उमेर देखकर मत भूलिए दारोगा साहब, अब वह बात नहीं !
“अच्छा तो बालदेव बाबू; जब यह वकूआ हुआ तो, क्या कहते हैं, आप कहाँ थे ?” दारोगा साहब पूछते हैं।
बालदेव जी फिर खखारते हैं-“ह ख जी ! हुजूर ! हम तो मठ पर थे।…जी, बात यह है कि यह वैष्णव हैं। उस दिन हमको गुरु जी कंठी देनेवाले थे। सुबह तो धान दिलाने में ही कट गई। पिछले पहर को हम जैसे ही कंठी लेकर उठे कि…ततमाटोली की रमपियरिया रोती हुई गई।”
“ओ ! आपको पहले से कुछ पता नहीं था ?” दारोगा साहब गम्भीर होकर पूछते हैं।
“जी ! इनको क्या, किसी को पता नहीं।” खेलावनसिंह यादव हिम्मत से काम लेते हैं। आखिर दारोगा साहब के लिए इतना खाने का इन्तजाम भी तो वही कर रहे हैं। यह दारोगा साहब से क्यों नहीं बालेंगे ? तहसीलदार साहब कुछ नहीं बोलते हैं।
“ओ ! खेलावन जी आइए बैठिए !”
“ठीक है। हम यहीं हैं।…जरा हुजूर, जल्दी किया जाए ! उधर ठंडा हो जाएगा।” खेलावन जी कहते हैं।
सिर्फ यहाँ के दोनों लीडर ही बुद्धिवाले नहीं। और लोग भी बुद्धि रखते हैं !…
“हुजूर ! हमारा लड़का अभी रहता तो हुजूर से अभी अंग्रेजी में बतिया लेता। रमैन जैसी एक किताब है, लाल, मोटी…उसी में देखकर वह आपसे अंग्रेजी में बतिया लेता।” खेलावनसिंह यादव कहते हैं।
“अच्छा ? आपका लड़का अंग्रेजी बोल लेता है ?”
“हाँ, डागडरबाबू से बराबर अंग्रेजी में ही बोल लेता है।”
“मोकदमा का राय भी पढ़ लेता है।” बालदेव जी कहते हैं।
“एड किलास में पढ़ता है।” कालीचरन जी कहते हैं।
“अच्छा, आप कहाँ तक पढ़े हैं कालीचरन जी ?…कोई स्कूल में नहीं ?…वाह साहब, क्या कहते हैं, आपकी बोली सुनकर तो कोई नहीं कह सकता कि आप जाहिल…ओ ! पढ़-लिख लेते हैं, अखबार भी पढ़ लेते हैं ? वाह ! रमैन भी पढ़ते हैं ? महाभारत भी? ओ, क्या कहते हैं कि…।”
“बालदेव भी अकबार” पढ़ता है,” खेलावनसिंह यादव कहते हैं, “अकबार तो हम लोग भी पढ़ लेते हैं। “लेकिन बहुत झूठ बात लिखता है अकबार में | उस बार लिखा था कि एक औरत थी, सो कुछ दिनों के बाद मर्द हो गई । कहिए भला !”
“अच्छा तो कालीचरन जी, आप कहाँ थे, जब यह वकूआ हुआ ?” दारोगा साहब कमर के बेल्ट को खोलते हुए कहते हैं।
अगमू चौकीदार को डर होता है, कहीं दारोगा जी पेटी खोलकर मारना न शुरू कर दें बालदेव और कालीचरन जी को। “जहाँ दारोगा जी पेटी खोलते हैं कि अगमू का चेहरा फक् हो जाता है। “नहीं, ऐसा नहीं कर सकते हैं दारोगा जी !
“जी, मैं तो उसी दिन सुबह को धान दिलाकर, ठीक बारह बजे दिन में ही पुरैनियाँ चला गया था | तहसीलदार हरगौरी “तहसीलदार बिस्नाथपरसाद जी जानते हैं ।”
“ओ ! आप पुरैनियाँ गए थे।” दारोगा साहब एक लंबी साँस छोड़ते हैं।
“अच्छा, तो अब उस पहर को काम कीजिएगा दारोगा साहब !” तहसीलदार साहब कहते हैं।
“नहीं तहसीलदार साहब ! एम.पी. आनेवाले हैं। हमको अभी सब काम खत्म कर रखना है। गवाहों का इजहार”
“जी, कुछ असल गवाही, दो-तीन लीजिए । और सब बाद में । “अरे कालीबाबू, बालदेवबाबू, तुम लोग तो जो सच्ची बात है, वही कहोगे। कोई झूठी गवाही तो नहीं “लिख लीजिए इन दोनों के बयान, दस्तखत करना दोनों जानते हैं।”
“आप लोगों का क्या खयाल है ?” दारोगा साहब धीरे से पूछते हैं।
“हाँ, दसखत करने में क्या है ?” कालीचरन कहता है।
“कालीचरन जी हाथ झाड़कर दस्तखत करते हैं और बालदेव जी बड़े ‘परेम’ से आस्ते-आस्ते लिखते हैं। “भाई बालदेव जी सचमुच में साधु हैं।
“बलदेव ?” दारोगा साहब कहते हैं, “बानदेव जी, जरा “ब’ में एक लाटी लगा दीजिए और ‘द’ के ऊपर, कया कहते हैं, एक तलवार-सी। और बाकलम खुद !”
“दारोगा साहब, बालदेव जी नाम में भी लाठी-तलवार नहीं लगाते हैं। हिंसाबाद-…” कालीचरन मुस्कराकर खड़ा हो जाता है।
दारोगा साहब ठठाकर हँस पड़ते हैं। इसके बाद सभी लोग हँस पड़ते हैं।
अलबत्ता जवाब दिया कालीचरन जी ने। दारोगा साहब पानी-पानी हो गए।
देखो ! बुद्धि है या नहीं ?
इकतालीस
नौ आसामी का चालान कर दिया।
नौ संथालों के अलावा जो लोग घायल होकर इसपिताल में पड़े हैं वे लोग भी गिरिफ्फ हैं। पुरैनियाँ इसपिताल में बन्दूकवाले मलेटरी का पहरा है।
गैर-संथालों में कोई गिरिफ्फ नहीं हुआ।…लेकिन, यह मत समझो कि मुफ्त में यह काम हुआ है।…दारोगा साहब कहने लगे कि खेलावन जी, आपके बारे में एस.पी. साहब को सन्देह हो गया है कि आपने सभी यादवों को हँसेरी में जाने के लिए जरूर हुकुम दिया होगा।…खेलावन जी की हालत खराब हो गई। वह तो तहसीलदार भाई थे, तो पाँच हजार पर बात टूट गई। नहीं तो…नहीं तो अभी बड़े घर की हवा खाते रहते खेलावन जी ! सिंघ जी घर में नहीं थे; शिवशक्करसिंह भी नहीं। अब सिंघ जी लोगों के मन में क्या है सो कौन जाने ?…दरोगा भी तो राजपूत ही है। आदमी के मन का कुछ ठिकाना नहीं, कब क्या करे।…मुफ्त में सबकी गर्दन नहीं छूटी है। पाँच हजार !
तहसीलदार बिस्नाथ को कुछ लगा कि नहीं ?…सुमरितदास बेतार को आज तीन दिनों से पेट में सूल हो गया है, नहीं तो सब बात कह जाता।…अरे ! बहुत दिनों जिएँगे सुमरितदास जी ! बहुत उमेर है !”
“तो हमारा उमेर तुम लोग क्या लगाते हो ?”
“यही चालीस।”
“चालीस नहीं पैंतीस।…जामुन का सिरका बिना पानी के पी गए थे, इसीलिए दाँत सब झड़ गए।”
“अच्छा सुमरितदास जी, कुछ पता है कि…?”
“अरे ! यह मत समझो कि सुमरितदास सूल से घर में पड़ा हुआ था। रामझरोखे बैठके सबका मुजरा लें…। पूछो, क्या जानना चाहते हो ?”
“क्या तहसीलदार साहेब को भी रुपैया लगा है ?”
“तहसीलदार बिस्नाथपरसाद को इतना बेकूफ नहीं समझना। वह दारोगा तो यह तहसीलदार। ‘तुम कौआ तो हम कैथ’ वाली कहानी नहीं सुने हो ?”
“तहसीलदार हरगौरी बेचारा…”
“अति संघर्ष करे जो कोउ, अनल प्रगट चन्दन ते होहिं ! सियावर रामचन्द्र की जै!”
“लेकिन राजपूतटोले को तो इसपी साहेब भी नहीं छोड़ सकते हैं। जानते हो इसपी साहेब क्या कहते थे ? ‘…यह समझ में नहीं आता है कि तहसीलदार बिस्नाथपरसाद की जमीन से बीहन बचाने के लिए तहसीलदार हरगौरीसिंह क्यों गए ! जरूर कोई बात है !’…सिंघजी को एक चरन लगेगा।”
“गवाही में किन लोगों के नाम हैं?”
“अरे, गवाही क्या ? बोलो तुम्हीं, ईमान-धरम से कि संथाल लोग ने जोर-जबर्दस्ती किया है या नहीं ?”
“इसमें क्या सन्देह है !”
“तो गवाही के लिए कोई बात नहीं।…लेकिन गाँव की तकदीर चमकी है। इतना बड़ा केस कभी हाथ नहीं लगेगा। इसमें जो गवाही देने जाएगा, उसके तो तीन-तीन खिलानेवाले रहेंगे। तीनों एक ही केस में नत्थी हैं। समझे ? खबरदार ! मेरा नाम नहीं लेना। हाँ !…और मेरा भी तो फैसला नहीं हुआ है। हमको क्या देते हैं लोग ? जितना कागज-पत्तर, लिखा-पढ़ी होगी, सब तो सुमरितदास के मत्थे पड़ेगा। लेकिन इस बार नहीं। पहले फैसला कर लें।”
“संथालों में किस-किसकी गवाही हुई है ?”
“अरे, संथालटोली में गवाह आवेगा कहाँ से, सभी तो आसामी हैं। बड़का माझी का बारह साल का बेटा भी।…दारोगा जी ने जब पूछा कि बताओ क्यों बीचड़ लूट रहे थे, तो बिरसा ने जवाब दिया कि हम लगाया है। इसके बाद, दारोगा जी ने झाड़-झपटके पूछा तो बिरसा के बाद सबों ने तुरन्त कबूल कर लिया कि बीचड़ तहसीलदार बिस्नाथपरसाद का है। औरतों और बच्चों ने भी कहा-तहसीलदार का बीचड़ है। तब ? उखाड़ता था जबर्दस्ती क्यों तुम लोग ? तो जवाब दिया कि जमींदारी परथा खत्तम हो गई, लेकिन हमारे गाँव के जमींदारों ने मिलकर हमारी जमीन छुड़ा ली है। इसीलिए लूट लिया।…”
“हा-हा-हा-हा ! साफ जवाब ! जमीन छुड़ा लिया तो बीहन लूट लिया ! हा-हा-हा ! सच ? काली किरिया ! ऐसा ही जवाब दिया ?”
“नहीं तो तुम समझते हो कि सुमरितदास झूठ कहता है ? अरे, यदि संथालों ने ऐसा बयान नहीं दिया होता तो क्या समझते हो, तुम लोग अभी घर में बैठकर हा-हा ही-ही करते ? अभी जेहलखाना में कोल्हू पेड़ते रहते। समझे ! दारोगा जी ने भी सोचा कि आग लगते झोंपड़ा, जो मिले सो लाभ !…इसीलिए न कहा कि तहसीलदार इतना बेकूफ नहीं। तब, दारोगा जी का इलाका है, जो ऊपरी झाड़-झपड़, पान-सुपाड़ी वसूल सकें। इसमें तहसीलदार साहेब क्या कर सकते हैं ?…सिंघ जी को पाँच हजार और शिवशक्करसिंह को भी उतना ही लगेगा।…डागडर से भी कुछ पूछा है दारोगा साहब ने। पता नहीं, अंग्रेजी में क्या डिमडाम बात हुई। इसपी साहेब से भी डागडर साहेब अंग्रेजी में ही बोल रहे थे। आदमी काबिल है यह डागडर !…हरेक लहास के बारे में क्या लिखा है, जानते हो ? लिखा है कि संथालों की मार से मालूम होता है और घाव के मुँह देखकर मालूम होता है कि किसी ने अपनी जान बचाने के लिए ही इस पर हमला किया है।…और, इधरवालों के लहास को लिखा…।”
“…लहास ?”
….लहास ! लाश ! पुलिस-दारोगा, मलेटरी ! मार ! जेहल !…कालापानी ! नहीं, फाँसी !…सचमुच ! यदि तहसीलदार बिस्नाथपरसाद नहीं होते तो आज फाँसी !… कालीचरन के आफिस में जाने से और बातों का पता लग जाएगा।
सोशलिस्ट पार्टी के आफिस में भीड़ लगी हुई है। कालीचरन ने कहा है, आज सुरा जी, सोशलिस्ट और भगवान कीर्तन एक साथ गाए जाएंगे। सबसे पहले पुराने जमाने का कीर्तन नारदी-भठियाली कीर्तन होगा। बूढ़े लोगों के गले में अब भी जादू है !
आजु से बिराजु श्याम कदली के छैयाँ,
आवत मोहनलाल बंशी बजैयाँ !
पीतबसन मकराकृत कुंडल…!
यही नारदी है ! मृदंग कैसा बजता है-धिधनक-तिधनक ! धिधनक-तिधनक !
“अब किरांती कीर्तन। ‘…गंगा रे जमुनवाँ’ बहुत पुराना हो गया। वह रुलानेवाला कीर्तन मत गवाइए कालीचरन जी !…”
बम फोड़ दिया फटाक से मस्ताना भगतसिंह !
….है ! वाह रे सुनरा ! क्या सँभाला है ! वाह ! भारत का वीर लड़ाका था, मस्ताना भगतसिंघ ! “सिंघ ? भगतसिंघ कौन बता कौन जात था ?
मस्ताना भगतसिंघ जानते हो ? “कालीचरन जी कहते थे, पाँच बार फाँसी की रस्सी खींचा । दस-दस आदमी एक-एक ओर लटक गए। खींचने लगे, खींचते रहे और उधर भगतसिंघ के मुँह से निकलता जाता था-इनकिलाब, जिंदाबाघ ।
“इनकिलाब, जिंदाबाद ?”
हाँ, आज, कौन इतने जोरों से नारा लगा रहा है ? सोमा जट ? “अरे बाप ! तीन दिन से एकदम लापता था ! एकदम लापता ! लेकिन जानते हो, हँसेरी में सबसे ज्यादा मार किसने किया था ? चार को सोमा ने अकेले गिराया है।-हाँ खबरदार ! तहसीलदार साहेब ने मना किया है, सोमा का नाम कोई नहीं ले | दागी है ! लेकिन, देखते हैं, इधर सुधर रहा है। कालीचरन जी सुधार देंगे।
अब एक सुराजी कीर्तन होना चाहिए। हाँ, भाई ! सब संतन की जै बोलो | गाँव के देवताओं के परताप से, काली माय की कृपा से, महात्मा जी की दया से और किरांती ‘इनकिलास जिंदाबाघ’ से, गाँव के लोग बालबाल बच गए। सभी कीर्तन होना चाहिए।
भारत का डंका लंका में
बजवाया बीर जगाहिर ने
राजबलली महतो भी हरमुनिया बजाता है। कहाँ सीखा ? “सिरिफ दाँत बड़े हैं सामनेवाले । गाने के समय मुँह कुदाली की तरह हो जाता है। “ भारथ का डंका लंका में-
“बालदेव जी कहाँ हैं ? सुना कि बालदेव जी साधु हो रहे हैं। कंठी ले ली है। कंठी पर किसका नाम जपा करेंगे ? महतमा जी का या सतगुरु का ?
चर्खा स्कूल की मास्टरनी जी कितना मुटा गई हैं ! अरे बाप रे ! …सिर्रिफि कालीचरन जी से ही हँसकर बोलती हैं। कालीचरन जी आज कुर्ता में गोल-गोल क्या लगाए हुए हैं ? सुसलिट पाटी का मोहर है ? …देखा, कालीचरन जी मोहरवाले लीडर हो गए हैं। बालदेव जी को, बावनदास को या तहसीलदार साहब को मोहर है ? मास्टरनी जी उसमें क्या लगा रही हैं ? फूल ? वाह ! अब और बना ! फूलमोहर छाप सिकरेट ! …डाकडर साहब का नौकर कहाँ आया है ! ..ऐ ! चुप रहो ! चुप रहो ! शांती, शांती !”
“कालीचरन जी को डाक्टरबाबू बुलाते हैं,” प्यारू मंगलादेवी से कहता है। अज्जा ! काली ! डाक्टरबाबू को निमंत्रण नहीं दिया ? तहसीलदार साहेब, खेलावन जी वगैरह तो कचहरी गए हैं। डाक्टर साहेब तो थे। “जाओ, बुला रहे हैं –
क्या बात है ?- जरूर कोई बात है। -सुमरितदास बेतार कहाँ है ?
एक बार बोलिए प्रेम से-
काली माई की जै !
महात्मा गाँधी की जै
सोसलिट पाटी की जै
इनकिलास
“कालीचरन जी !”
“जी !!
“एक बात कहूँ ! बुरा मत मानिएगा। “हरगौरी बाबू की माँ रो रही है और दूसरे टोले में भी औरतें रो रही हैं। आप लोग कीर्तन कर रहे हैं, यह अच्छा नहीं लग रहा है। मुझे लगता है कि आज के कीर्तन से आपके भगवान भी दुखी होंगे ।”
“हम लोग भगवान को नहीं मानते,” कामरेड बासुदेव ने बीच में ही टोक दिया ।
“तुम चुप रहो !” कालीचरन कहता है, “हर जगह मत टपका करो |”
सब चुप हैं। हरगौरी की माँ अब भी रो रही है-राजा बेटा रे ! गौरी बेटा रे!
कालीचरन की आँखें भी सजल हो जाती हैं। बचपन से ही वह हरगौरी के साथ खेला-कूदा था। पूँजीवादी हो या बूर्जुआ, आखिर वह बचपन का साथी था। वह आज नहीं है। उसकी माँ रो रही है। यह हरगौरी की माँ नहीं रो रही है-सिर्फ माँ रो रही है !
“वासुदेव !”
“सबों से जाकर कहो-कीर्तन बंद करें । और कोठी के बगीचे में कल सोक-सभा होगी। ऐलान कर दो। समझे !”
बासुदेव सोचता है, सब बात तो समझे, मगर सोक-सभा का क्या मतलब ? उसमें गीत नहीं गावेगा, भाखन नहीं होगा ? बस, पाँच मिनट चुपचाप खड़ा रहना होगा ? वाह रे सभा !
बयालीस
हरगौरी की माँ रो रही है-“राजा बेटा रे ! “गौरी बेटा रे !”
हरगौरी की सोलह साल की स्त्री बिना गौना के ही आई है । वह बहुत धीरे-धीरे रोती है। घूँघट के नीचे उसकी आँखें हमेशा बरसती रहती हैं।
शिवशक्करसिंघ पूर्णिया से लौट आए हैं। पुत्र का दाह-कर्म करके लौटे हुए पिता को देखकर डर लगता है। झुकी कमर पर हाथ रख शिवशक्करसिंघ बैलों की ओर देख रहे हैं। दो दिनों से घास-पानी छोड़े बैठे है दोनों बैल। आँखों में आँसू भर-भरकर, दोनों कभी-कभी चौकन्ना होकर इधर-उधर देखते हैं। फिर एक लंबी साँस लेकर एक-दूसरे को देखते हैं। एक-दूसरे को जीभ से चाटते हैं, मानो ढाढ़स बँधा रहे हों। …हरगौरी इन्हें कितना प्यार करता था ! जब ये दो साल के बाछे थे, तभी से हरगौरी इनके साथ खेलता था | उसकी बोली सुनते ही दोनों खुशी से नाचने लगते थे। जान से भी बढ़कर प्यार करता था वह…।
शिवशक्करसिंह की आँखें आँसू से धुंधली हो रही हैं।…जब तक हरगौरी की लाश नहीं मिली थी, उन्हें अपने गिरफ्तार होने का डर लगा हुआ था। दाह-क्रिया समाप्त करके वोकील साहब ने रामकिरपालसिंह को रोका, तो शिवशक्करसिंह को लगा कि पुल नीचे धंस रहा है, धरती हिल रही है।
दारोगा साहब रामकिरपालसिंह को गिरिफ्त करके इधर ले गए और शिवशक्करसिंह अपने साथियों के साथ वहीं से लौट गए। टीसन तक दौड़ते ही आए थे। न जाने दारोगा साहब के मन में कब क्या हो ?…भाग की बात हई कि बिरजसिंह फिसलकर गिर गए और गाड़ी खड़ी हो गई, नहीं तो शिवशक्करसिंह वहीं लाटफारम पर ही खड़े रह जाते। सबने तो कूद-कूदकर हत्था पकड़ लिया, सिंघ जी ने ज्यों ही एक हत्था में हाथ लगाया कि एक काले कोटवाले ने पकड़कर खींच लिया। सिकन्नर के पास जाते-जाते बिरजूसिंघ गिर गए तो गाडी खडी हो गई। बेचारे बिरजूसिंघ का एक हाथ कट गया। गाटबाबू (गार्डबाबू) उसको कटिहार इसपिताल ले गए। जब तक घर नहीं पहुँच गए थे, शिवशक्करसिंह को भरोसा नहीं था। क्या जाने किधर से लाल पगड़ीवाला निकल पड़े ! हसलगाँव हाट के पास एक लाल चादरवाले को देखकर उनका कलेजा धुकधुका उठा था।…भले आदमी ने लाल चादर की पगड़ी क्यों बाँध ली थी ?
घर जाते ही हरगौरी की माँ को छाती पीटते और जमीन पर लोटकर रोते देखा, तो वे भी बच्चों की तरह बिलख-बिलख रोने लगे। ‘पुबरिया घर’ के ओसारे पर हरगौरी की विधवा बहू चूँघट काढ़े रो रही थी। सामने दीवार पर हरगौरी का फोटो टँगा हुआ है। रौतहट मेला में छपाया था-पगड़ी बाँधकर, हाथ में तलवार लेकर।
“बेटा रे !…गौरी बेटा रे !”
शिवशक्करसिंह बैल की गर्दन पकड़कर रो रहे हैं- “बेटा रे ! गौरी बेटा रे !”
सुमरितदास के कान में सबसे पहले आवाज पहुँचती है-ओ ! शिवशक्करसिंह आ गए शायद !
“शिवशक्करबाबू ! रोइए मत ! देखिए, कलेजा पोख्ता कीजिए।…आप ही इतना जी छोटा कीजिएगा तो औरतों का क्या हाल होगा ? हे… ! हरगौरी की माँ मर जाएगी। उसको समझाइए सिंह जी ! रोइए मत ! सुमरितदास शिवशक्करसिंह को अकबार (बाँहों में भरकर, अँकवार) में पकड़कर ले जाते हैं, समझाते हैं तथा आस-पास खड़े लोगों से कहते हैं- “भाई ! क्या समझाया जाए, किसको समझाया जाए ! पुत्रसोक से बढ़कर और कोई सोक क्या हो सकता है ? हम क्या समझाएँगे ! हमको तो…खुद भोगा हुआ है। एक-एक कर चार लाल को कमला किनारे अपने हाथ से जला आए हैं। कलेजा पत्थल हो गया है। पुत्रसोक ! हे भगवान ! किसी को न हो।”
शिवशक्करसिंह और जोर-जोर से रोने लगते हैं। धीरे-धीरे भीड़ बढ़ती जाती है।
सभी आकर यही जानना चाहते हैं कि और आगे क्या हुआ ? – हरगौरी की मृत्यु से ज्यादा दिल दहलानेवाली बात थी रामकिरपालसिंघ की गिरफ्तारी ! क्यों गिरफ्तारी किया ? कैसे गिरफ्तार हुआ ? और किन लोगों पर वारंट है ? तहसीलदार बिस्नाथ पर भी ?
“तहसीलदारसाहब आ रहे है। मोढ़ा दो रे !”
तहसीलदार को देखते ही शिवशक्करसिंघ फिर धरती पर लोट गए और जोर- जोर से रोने लगे-“बिस्नाथ भैया ! कलेजा टूक-टूक हो रहा है। भैया हो! ”
तहसीलदारसाहब समझाते है-“शिवशक्करसिंघ, रोइए मत ! यह रोना तो जिंदगी-भर के लिए मिला है। एक दिन रोने से दिल ठंडा नहीं होगा। लेकिन, अभी रोने का समय नहीं। मालूम होता हं, मुकदमा खराब हो गया। सिंघ जी के गिरफ्तार होने का मतलब ही है कि मुकदमा खराब हो गया। अब किसके सिर पर कौन आफत है, कौन जाने ! खूनी केस है ! उठिए, आपसे प्राइबिट में एक बात करना है।”
शिवशक्करसिंघ तुरत उठकर खड़े हो गए और तहसीलदार साहब के साथ दरवाजे से जरा दूर चले गए। सुमरितदास प्राइबिट सुनेगा …तब ठीक है, असल बात का पता भी तुरत लग जाएगा।
दरवाजे पर खड़े सभी एक ही साथ लंबी साँस छोड़ते हैं-अब किसके सिर पर क्या आफत है, कौन जाने ! हे भगवान !
“परनाम जोतखी काका !”
जोतखी काका के साथ खेलावन भी आया है। जोतखी जी पास के खाली मोढ़े पर बैठ जाते हैं। खेलावन भी तहसीलदार साहब के प्राइबिट में जाकर शरीक हो जाता है। जोतखी जी धीमी आवाज में लोगों से कहते हैं-तुम लोग यहाँ खड़े होकर क्या कर रहे हो ?” उनके कहने का ढंग ही ऐसा था, जिसके माने निकलते थे-“तुम लोगों की जान बलाई हुई क्या ? यहाँ से जितना जल्दी हो सके, खिसक जाओ ! वर्ना क्या ठिकाना !”
सब जल्दी से मौका देखकर उठ खड़े होते हैं। जोतखी जी कहते हैं-“यहीं चले आइए तहसीलदार ! सभी चले गए।”
“-लेकिन बात यह है कि एसपी ने तो यह नोक्स पकड़ा है-तहसीलदार विश्वनाथ की जमीन का बीहन बचाने के लिए तहसीलदार हरगौरी क्यों गया था ?” तहसीलदारसाहब कहते हैं।
“रामकिरपाल भैया तो हैं नहीं। हम आपको क्या क्या कहें ?’
‘लेकिन मोकदमा तो आपका ही है। वाजिबन खर्चा तो …आपको ही देना चाहिए ।” शिवशक्करसिंघ गिड़गिड़ाकर कहते हैं।
जोतखी जी कुछ कहने के लिए खखारते हैं, लेकिन सुमरितदास बेतार बीच में ही जवाब देता है-“शिवशक्करसिंघ मोकदमा तहसीलदार बिस्नाथ का नहीं, तहसीलदार हरगौरी का है। पूछिए कैसे ? तो बात यह है कि असल में यह सब ‘खुंखार’ बेदखली-नीलामी तो हरगौरीबाबू ने ही शुरू किया था। हमसे ज्यादे कौन जानेगा ?… तहसीलदारी कारबार को आप क्या समझिएगा ? यदि बेदखली और नई बन्दोबस्ती की बात नहीं उठती तो गाँव में यह लंकाकांड नहीं होता। पहले तो तहसीलदार हरगौरी ने ही सुरू किया। तहसीलदार बिस्नाथ उनके मदतगार हुए तो इन्हीं की जमीन पर संथालों ने धावा कर दिया। अब बताइए कि असल में यह मोकदमा किसका हुआ ? असल बात हम जानते हैं…दारोगा को दस हजार देना ही होगा।”
– खेलावन कहता है-“तहसीलदार, अब जैसे भी हो, सब कोई सलाह करके गाँव के इस गहर को टालिए।”
“रामकिरपालभैया हैं नहीं, हम क्या कहेंगे?” शिवशक्करसिंह बस यही एक जवाब देते हैं।
बहुत देर के बाद जोतखी जी कहते हैं, “जो भी हो न्याय बात तो यही है कि विश्वनाथबाबू इस मुकदमे में अभी पूरी पैरवी करें।”
अन्त में यही तय हुआ कि सबसे पहले रामकिरपालसिंह जी को जमानत पर छुड़ाया जाए। इसके बाद सब मिलकर, जो वाजिब हो, सोचें। जो खर्चा होगा, सिंह जी लोगों को देना होगा।
जोतखी जी ने मुस्कराते हुए कहा, “आज ‘शोशलिस्ट’ लोग शोक-शभा करने गए। एक भी आदमी शभा में नहीं गया। अब लोग शभा का अर्थ समझ रहे हैं !… हुँ, कोई बात हुई तो फुच्च से शभा ! हम कहते थे न, गाँव में एक दिन चील-काग उड़ेगा !”
“जोतखी काका, सभा-जुलूस को दोख मत दीजिए।” कालीचरन बगल में, अँधेरे में खड़ा था।
“आओ काली !” तहसीलदार साहब हँसते हुए कहते हैं, “तुम लोगों को गवाही देनी होगी, सो जानते हो न ? बालदेव जी को भी। तुम्हीं दोनों लीडरों की गवाही पर सारी बात है।”
कालीचरन ने मोढ़े पर बैठते हुए कहा, “गवाही देनी होगी तो देंगे। जो बात जानते हैं वह कहने में क्या है ! दारोगा हो, इसपी हो, चाहे मजिस्टर-कलक्टर हो। सच्ची बात कहने में किसका डर है !”
“वाजिब बात ! वाजिब बात !” जोतखी जी को छोड़कर बाकी सभी कहते हैं-वाजिब बात !”
तहसीलदार साहब का नौकर रनजीत दौड़ता-हाँफता आता है, “कमली दैया… फिर !”
“तो यहाँ क्या है ? डाक्टर के यहाँ जाओ!” तहसीलदार साहब झुंझलाते हुए उठते हैं, “भगवान जाने क्या दवा करते हैं डाक्टर लोग ! इतने दिन हो गए, बीमारी सोलह आना से बारह आना भी नहीं हुई !”
….तो असल में बात खुल गई ! मामले-मुकदमे की सोलहों आने बात जो है” कालीचरन और बालदेव के हाथ में है !
“शिव हो ! शिव हो !” जोतखी काका उठते हुए कहते हैं, “कालीबाबू, कल जरा अपना हाथ दिखाना तो ! देखें, तुम्हारे हाथ की रेखा क्या कहती है। जन्मदिन और महीना याद है ?”
जोतखी जी के पेट में डर समा गया है-कालीचरन और बालदेव के ही हाथ में जब सबकुछ है तो वे जिसका नाम बतला दें, वह गिरिफ्फ हो जाएगा-तुरत। और कालीचरन, कालीचरन ही क्यों, बालदेव भी उन पर मन-ही-मन नाराज है ?…बालदेव का तो उतना डर नहीं, मगर कलिया…शिव हो ! शिव हो…
तैंतालीस
लछमी दासिन आज मन के सभी दुआर खोल देगी। एक लक्ष दुआर !
“बालदेव जी !”
“जी!”
“रामदास फिर बौरा गया है। कल भंडारी से कह रहा था, लछमी से कहो एक दासी रखने की आज्ञा दे।…कहिए तो भला !”
बालदेव जी क्या जवाब दें। दासी रखना धरम के खिलाफ है, यह उनको नहीं मालूम।…दो-तीन महीने ही हुए, उन्होंने कंठी ली है। मठ के नियम-धरम, नेम-टेम के बारे में वे क्या कह सकते हैं ! लेकिन महन्थ सेवादास ने भी तो… ।
लछमी कहती है-“आप उसे समझाइए बालदेव जी ! वह बौरा गया है। आजकल ततमाटोली में आना-जाना शुरू कर दिया है। भगवान भगत ने कल हिसाब किया है, रमपियरिया की माँ को चार सेर चावल दिलवा दिया है रामदास ने। मैंने पूछा तो बोला-“मठ का पुराना नौकरान है, भूख से मरेंगे वे लोग ? जब दिन-भर बैठकर सिरिफ बीजक बाँचनेवाला दूध-मलाई खाता है तो…।” लछमी कहते-कहते रुक जाती है।
बालदेव जी आजकल कुछ “मतिसून्न’ हो गए हैं। सीधी बात भी समझ् में नहीं आती। …कुछ नहीं समझते हैं। कितने सीधे-सूधे हैं !
“आपका मठ पर रहना उसको पसंद नहीं ।” लछमी बालदेव की ओर देखती है।
“तो हम चले जाते हैं। यदि हमारे रहने से मठ का नियम भंग होता है तो हम चले जाते हैं।”
“कहाँ जाइएगा ?”
“चन्ननपट्टी !”
लछमी का कलेजा धड़क उठता है-धक्! इधर कई दिनों से बालदेव जी बहुत उदास रहते हैं। खाना-पीना भी बहुत कम हो गया है। कहीं घूमने-फिरने भी नहीं जाते। आसन पर पड़े बीजक पाठ करते रहते हैं। तहसीलदारसाहब कह गए हैं-‘बालदेव जी की गवाही पर ही मुकदमे की सारी बात है।” वालदेव जी सुनकर बोले, गवाही के लिए हम कठघरा में नहीं चढ़ सकते। महतमा जी कहिन हैं-झगड़ू न जाहू कचहरिया, बेइमनवाँ के ठाठ जहाँ | …आज मठ सूना है, आज ही लछमी सबकुछ कह देगी बालदेव जी से।
“आप चन्नपट्टी चले, जाइएगा” और मैं ?”
“आप ?”
लछमी बालदेव जी की आँखों में आँखें डालकर देखती है। लछमी जब-जब इस तरह देखती है, बालदेव जी न जाने कहाँ खो जाता है ! …एक मनोहर सुगंध हवा में फैल जाती है। पवित्र सुगंध ! बीजक से जैसी सुगंधी निकलती है।
“हाँ ! मैं कहाँ जाऊँगी ? मेरा क्या होगा ? महंथ की दासी बनकर ही मैं मठ पर रह सकती हूँ।” लछमी की आँखें भर आती हैं।
“नहीं लछमी, तुम रामदास की दासी नहीं। मैं- तुम… आप… ।”
“बालदेव जी !” लछमी पागल की तरह बालदेव जी से लिपट जाती है, “रच्छा करो बालदेव जी ! तुम कह दो एक बार-तुम्हें रामदास की दासी नहीं बनने दूँगा ! तुम बोलो-चन्ननपट्टी नहीं जाऊँगा। मुझे छोड़कर मत जाओ बालदेव ! दुहाई !”
“लछमी !” बालदेव जी लछमी को सँभालते हुए कहते हैं, “कोई देख लेगा ।”
लछमी बालदेव जी के गले से हाथ छुड़ाकर अलग बैठ जाती है। सिर नीचा करके सिसकती है।
बालदेव जी की सारी देह झन्न-झन्न कर रही है। कनपट्टी के पास, लगता है, तपाए हुए नमक की पोटली है। …एक बार आसरम में उसके कान में दर्द हुआ था। गाँगुली जी ने नमक की पोटली से सेंकने के लिए कहा था। …कलेजा धड़-धड़ कर रहा है। लछमी की बाँह ठीक बालदेव के नाक से सट गई थी। लछमी के रोम-रोम से पवित्र सुगन्धी निकलती है। चन्दन की तरह मनोहर शीतल गन्ध निकल रही है। बालदेव का मन इस सुगन्ध में हेलडूब (डूबना-तरना) कर रहा है। वह लछमी को छोड़कर चन्ननपट्टी में कैसे रह सकेगा ?…रूपमती, मायजी, लछमी !..
“महतमा जी के पन्थ को मत छोड़िए, बालदेव जी ! महतमा जी अवतारी पुरुष हैं। आजकल उदास क्यों रहते हैं ? महतमा जी पर भरोसा रखिए। जिस नैन से महतमा जी का दरसन किया है उसमें पाप को मत पैसने दीजिए। जिस कान से महतमा जी के उपदेस को सरबन किया है, उसमें माया की मीठी बोली को मत जाने दीजिए। महतमा जी सतगुरु के भगत हैं।” लछमी आँखें मूंदकर ध्यान की आसनी पर बैठ गई है। सफेद मलमल की साड़ी पर बिखरे हुए लम्बे-लम्बे, काले बाल !…और गोरा मुख-मंडल ! ध्यान-आसन पर इस तरह बैठकर उपदेश देनेवाली यह लछमी कोई और है !…बालदेवजी के हाथ स्वयं ही जुड़ जाते हैं।
लछमी की पवित्र आत्मा की वाणी फिर मुखरित होती है-“दुनिया के दोख-गुन को देखने के पहले अपनी काया की ओर निहारो ! मन मैला तन सूथरो, उलटी जग की रीत !…पहले मन को साफ करो। मन पवित्र नहीं, इसलिए वह दुखी होता है, निरास होता है। तुम पन्थ पर उदास होकर क्यों बैठ रहे हो ? डरते क्यों हो ?” ……
चलते-चलते पगु थका
नगर रहा नौ कोस,
बीचहिं में डेरा परां
कहह कौन का दोख!
बालदेव को लगता है, खुद भारथमाता बोल रही है। यही रूप है ! ठीक यही रूप. है जिसके पैर खून से लथपथ हैं। जिनके बाल बिखरे हुए हैं।…बावनदास कहता था, भारथमाता जार-बेजार रो रही हैं। नहीं, माँ रो नहीं रही। अब पन्थ बता रही है। उचित पन्थ पर अनुचित करम करनेवालों को चेता रही है। बावनदास ‘भरम’ गया है।…और खुद बालदेव, महतमा जी के पन्थ पर निरास और उदास होकर चल रहा है।
“…भारथमाता की जै ! महतमा जी की जै ! भारथमाता, भारथमाता !”
”महन्थ रामदास बहुत देर से कनैल गाछ की आड़ में खड़े होकर देख-सुन रहे थे।…ध्यान-आसन पर बैठी हुई लछमी उपदेश दे रही है और बालदेव जी हाथ जोड़े एकटक से लछमी को देख रहे हैं। अचानक बालदेव जी लछमी के चरन पड़कर हल्ला करने लगे-भारथमाता की जै!
– “भंडारी ! भंडारी !” महन्थ रामदास पिछवाड़े की ओर भागते हुए चिल्लाते हैं, “भंडारी ! बालदेव पागल हो गया ! दौड़ो !”
मठ पर तुरन्त भीड़ लग गई। डाक्टर साहब, तहसीलदार साहब, कालीचरन और खेलावनसिंह यादव भी आए हैं। बालदेव की बूढ़ी मौसी बीच-बीच में गा-गाकर रोने-रोने की सुरखुर (तैयारी) करती है, किन्तु एक ही साथ इतने लोग डाँट देते हैं कि वह चुप हो जाती है और बारी-बारी से सबके मुँह की ओर देखती है। कुछ देर के बाद ही वह फिर शुरू करती है-“बाबू रे !…”
“ऐ बूढ़ी ! ठहर !…चुप !”
डाक्टर साहब बालदेव के बाँह में रबड़ की पट्टी बाँधकर, मुट्ठी से एक छोटे-से गेंद को दबाते हैं।…ओ ! इसी मीसीन से तो तहसीलदार की बेटी कमली का भी जाँच होता है ! ओ!
बालदेव जी रह-रहकर बाँहें ऐंठकर, हाथ छुड़ाकर उठ खड़े होते हैं, “आप लोग क्या समझते हैं मैं पागल हो गया हूँ ? कभी नहीं, हरगिस नहीं।…हमको पागल कहते हैं ? इस गाँव में क्या था ? कोई जानता भी था इस गाँव का नाम ? इसको हौल इंडिया में मशहर कौन किया ? हमको छोड़ दीजिए ! हम महतमा जी के पन्थ से नहीं हट सकते।”
भीड़ में कोई कहता है-“मठ पर रहने से गाँजा पीने की आदत हो जाती है।”
“कौन कहता है हम गाँजा पीते हैं ? दारू-गाँजा-भाँग की दूकान में पिकेटिन किया है हम, और हम गाँजा पीयेंगे ? छिः छिः ! हम महतमा जी के पन्थ को कभी नहीं छोड़ सकते। साच्छी हैं महतमा जी !”
बालदेव की बुढ़िया मौसी अब नहीं मानती। वह गा-गाकर रोती है-“डागडर ने तहसीलदार की बेटी कमला की बेमारी को उतारकर बालदेव पर चढ़ा दिया है। यह भले आदमी का काम नहीं। तहसीलदार की बेटी अभी तक कुमारी है। हे भगवान ! अब बालदेव का बिहा नहीं होगा ! दैबा रे दैबा।”
“बालदेव जी !” लछमी कहती है, “चित्त को सांत कीजिए।”
“ओ ! लछमी !…लछमी दासिन ! साहेब बन्दगी !…ठीक है, कोई बात नहीं। हम पर कभी-कभी महतमा जी का भर (देवी-देवता का सवार होना) होता है। चुन्नी गुसाईं को तो रोज भोर को होता है।” बालदेव जी चुपचाप बैठ जाते हैं।
“डाकडर साहेब ! बालदेव जी इधर कई दिनों से बहुत उदास रहा करते थे। रात में नींद, पता नहीं, आती थी या नहीं। एक सप्ताह पहले, एक दिन बोखार लगा था। बोखार की पीली गोली एक ही साथ सात ठो खा गए।” ।
“पीली गोली ? सातों एक ही बार ?” डाक्टर आश्चर्य से पूछता है।
“जी ! बोखार की पीली गोली बाँटने के लिए मिली थी न ? उसी में से सात ठो एक ही बार खा गए। बोले कि रोज कौन खाए ! एक ही साथ सात दिनों का खोराक ले लेते हैं !”
डाक्टर ठठाकर हँस पड़ता है, “कितना बढ़िया हिसाब है। बालदेव जी, दस दिनों तक घोल का शर्बत पीजिए। ठीक हो जाएगा। कुछ नहीं है, दवा की गर्मी ही है।”
रामकिरपालसिंह कहते हैं, “बिहदाना, अनार, संतोला का रस तो ठंडा होता है, गरमी को सांती करेगा।…जेहल में हम सिरिफ बिहदाना-संतोला खाकर रहते थे। दो बिहदाना मेरे पास अभी भी हैं।”
बालदेव और कालीचरन के बयान पर ही सबकुछ है-जिसको चाहे फँसा दें, चाहें बचा दें। खुद दरोगा साहब कहते थे कि बालदेव की गवाही की बहुत कीमत है !
खेलावनसिंह यादव आजकल कालीचरन का आग-पीछा खब करते हैं। पार्टी आफिस के बगल में एक चौखड़ा घर बनवा देंगे, सुनते हैं, ‘साथी निवास’ घर ! जैसा घर जिला पाटी आफिस में है। मीटिंग के दिन जितने साथी आते हैं, उसी घर में रहते हैं। जो सिकरेटरी होगा, वह आफिस घर में रहेगा।…कालीचरन ने खेलावनसिंह से कहा तो वे तुरन्त तैयार हो गए।
जोतखी काका ने कालीचरन का हाथ देखा है-“खूब नक्छत्तरबली है कालीचरन ! राजसभा में जश है। बेटा-बेटी भी है। धन भी है। मगर एक गरह बड़ा ‘जब्बड़’ है…।”
सिंहजी बालदेव जी को बिहदाना-संतोला खाने के लिए मना रहे हैं- “खा लो बालदेव जी ! बड़ा पूस्टीकारी चीज है। दवा की गरमी दूर हो जाएगी।”
गवाही ने बालदेव जी की खोई हुई कीमत को फिर बहुत तेजदर कर दिया है।
बालदेव जी कहते हैं, “महतमा जी का रस्ता हम कभी छोड़ नहीं सकते। झगड़ न जाहू कचहरिया, दललवा के ठाठ जहाँ।”
लेकिन बालदेव जी को तो कुछ भी कहना नहीं पड़ेगा। उनसे पूछा जाएगा कि यह दसखत आपका ही है ? ये कहेंगे कि-हाँ। बस, और कुछ कहना ही नहीं है। दसखत तो बालदेव जी ने किया था। यह तो झूठ बात नहीं। कालीचरन ने भी किया था।
…चाहे जैसे भी हो, बालदेव जी को गवाही के लिए राजी करना ही होगा, नहीं तो सारे गाँव पर आफत है।…कोठारिन लछमी दासिन को तहसीलदार साहेब समझाकर कह दें तो बात बैठ जाएगी।
चवालीस
इधर कुछ दिनों से डाक्टर मौसी के यहाँ ज्यादा देर तक बैठने लगा है। मौसी के यहाँ जब तक रहता है, ऐसा लगता है मानो वह शीतल छाया के नीचे हो । काम में जी नहीं लगता है। ऐसा लगता है, उसका सारा उत्साह स्पिरिट की तरह उड़ गया। क्या होगा मानव-कल्याण करके ? मान लिया कि उसने कालाआजार की एक रामबाण औषधि का अनुसंधान कर लिया; अमृत की एक छोटी शीशी उसे हाथ लग गई | किंतु इसके बाद ? इसके बाद जो होता आया है, होगा | आखिर, पाँच आने का एक ऐंपुल पचास रुपए तक बिकेगा। यहाँ तक उसकी पहुँच नहीं होगी ! …और यहाँ का आदमी जीकर करेगा क्या ? ऐसी जिंदगी ? पशु से भी सीधे हैं ये इंसान । पशु से भी ज्यादा खूँखार हैं ये । …पेट ! यही इनकी बड़ी कमजोरी है। मौजूदा सामाजिक न्याय-विधान ने इन्हें अपने सैकड़ों बाजुओं में जकड़कर ऐसा लाचार कर रखा है कि ये चूँ तक नहीं कर सकते।…फिर भी ये जीना चाहते हैं। वह इन्हें बचाना चाहता है। क्या होगा ?
मौसी कहती है, “बेटा, तुम भागवत गीता नहीं पढ़ते ?”
डाक्टर मौसी की ओर अचकचाकर देखता है। जेल में उसने ‘गीता-रहस्य’ पढ़ने की चेष्टा की थी। ममता भी हमेशा ‘गीता’ तथा ‘राम-कृष्ण कथामृत’ झोली में लिए फिरती है। शायद समझती भी हो। ममता ने कई बार कहा है- ‘फुरसत के समय गीता जरूर पढ़ो, नहीं…समझे, कुछ ढूँढ़ो। कुछ-न-कुछ जरूर मिलेगा।’…वह गीता पढ़ेगा !
“डाक्टर साहेब ! जय हिन्द !”
“आओ कालीचरन ! क्या हाल है ? तुम भी पूर्णिया गए थे न ?” .
“जी। अभी तुरत आ ही रहा हूँ। उम्मीद है, गाँव के सभी लोग छूट जाएँगे। हम लोगों को तो सत्तो बाबू वोकील ने जिरह में बहुत तोड़ना चाहा, मगर उनको भी मालूम हो गया। बालदेव जी की बात हम नहीं जानते, लेकिन सुना है वह भी खूब डटकर जवाब दहिन हैं।…हमसे कहा कि आप पढ़ना-लिखना नहीं जानते, आप दसखत करना नहीं जानते। मैंने कहा, मैं पढ़ना-लिखना भी जानता हूँ और दसखत करना भी जानता हूँ। दरोगा साहब के सामने भी दसखत किया था। आप कहिए तो आपको भी दिखा दूँ।…हाकिम ने कहा कि आप अपना दसखत चीन्हिए। हमको भी क्या चसमा की जरूरत है ? फटाक से चिन्हिए तो दिया !”
“लेकिन जिस कागज पर तुम लोगों ने दस्तखत किया था उसमें क्या लिखा हुआ था ?” डाक्टर पूछता है।
“क्या लिखा हुआ था ? सो तो…सो…तो नहीं पढ़ा। दरोगा साहेब ने तो अंग्रेजी में लिखा था।…सरकारी कागज पर कोई खिलाफ बात थोड़ो लिखेगा।”
“हो-हो-हो-हो !” डाक्टर ठठाकर हँस पड़ता है, “और बालदेव जी ने भी वही कहा होगा!”
“हाँ, लेकिन इसमें हँसने की क्या बात है ?” कालीचरन जरा रूखा होकर कहता है।
“हाँ भाई, हँसने की बात नहीं।…बात रोने की है कालीचरन ! मुझे तो कुछ बोलना नहीं चाहिए लेकिन…! मत समझना कि संथालों की जमीन छुड़ाकर ही जमींदार सन्तोष कर लेगा। अब गाँव के किसानों की बारी आएगी। और तुमको तथा बालदेव जी को ही उन्होंने अपना पहला हथियार बनाकर इस्तेमाल किया है। यह रोने की बात नहीं है ?” डाक्टर एक ही साँस में सब कह गया।
“लेकिन…लेकिन, आपने भी तो लिख दिया है कि संथालों की मार को देखकर पता चलता है कि किसी ने अपनी जान बचाने के लिए इन पर हमला किया है ?” कालीचरन तमतमा गया है।
“यह किसने कहा तुमसे ?” डाक्टर आश्चर्य से मुँह फाड़ते हुए कहता है, “ऐसा कहीं लिखा जाता है ? मैंने तो सिर्फ़ जख्म के बारे में लिखा है। संथाल अथवा गैर-संथाल मैं नहीं जानता। मैं तो रोग और घावों की जाति के बारे में ही जानता हूँ।” डाक्टर उत्तेजित होकर कहता ही जाता है, “काली, तुम लोगों को दोष भी तो नहीं दे सकता हूँ।”
“तहसीलदार साहब तो आपको खूब मानते हैं।” कालीचरन सीधी बात करना जानता है, “कमली दीदी…कमली दीऽदी…” …
“क्या मतलब ?” डाक्टर बीच में ही टोक देता है।
“…क्या कहना चाहता है ? मौसी कहती हैं, कमली दीदी खूब मानती हैं। उसकी माँ भी इज्जत-खातिर करती हैं। यही न?”
“हाँ।” कालीचरन को मानो सहारा मिलता है।
“तो क्या हुआ ?” तहसीलदार साहब गाँव के रईस हैं। मुझसे उम्र में बड़े हैं। कमला की बीमारी के चलते मुझे कुछ ज्यादा आना-जाना पड़ता है। वे मुझे बहुत प्यार करते हैं। मैं भी उन लोगों की इज्जत करता हूँ। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि मैं तहसीलदार साहब के अन्याय का भी समर्थन करूँगा अथवा पक्ष लूँगा !”
कमली बहुत देर तक मौसी के आँगन में खड़ी होकर सुन रही थी। डाक्टर की अन्तिम बातों को सुनकर उसका कलेजा धक्-धक् करने लगता है। वह अपने को सँभाल नहीं सकती है। उस पर घटनाओं की प्रतिक्रिया बड़ी तीव्र गति से होती है। नाटकीय ढंग से वह प्रवेश करती है।
“इसीलिए आप आजकल मेरे यहाँ नहीं आते। इसीलिए आपने उस दिन कहला भेजा था कि तहसीलदार साहब कमली को पटना ले जाएँ, यहाँ इलाज नहीं होगा ? क्यों ?”
सभी एक ही साथ चमक उठते हैं। मौसी हँसकर कहती है, “तू आज लड़ने के लिए कमर कसकर आई है ? पगली !…बैठ।”
डाक्टर कमली की ओर टकटकी लगाकर देख रहा है-चेहरा लाल हो गया है कमला का। आँखें डबडबाई हुई हैं। गले के पास ही रग तीव्र गति से फड़क रही है।…डाक्टर ने बहुत बड़ा अन्याय किया है। रक्त का दबाव जरूर बढ़ गया होगा। कमला के ओठ फड़क रहे हैं, थरथरा रहे हैं।…वह रो पड़ती है-“मौसी !”
“कमला !” डाक्टर जोर से कहता है, “तुमने तो कुछ समझा-बूझा नहीं और लगीं आकर बरसने। मैं तो कालीचरन को समझा रहा था कि यदि मैं किसी राजनीतिक पार्टी में होता तो ऐसा नहीं करता…” ।
डाक्टर ने वातावरण को हल्का बनाने की पूरी कोशिश की। लेकिन अच्छा होता यदि कमला उससे रूठी रहती। इसी दिन के इन्तजार में वह था। आज कमला को पूर्ण स्वस्थ बनाया जा सकता था। लेकिन अब वह चूक गया।…अब परिणाम के लिए तैयार रहना था।
जब तक डाक्टर बोलता रहा, कमली चुपचाप सुनती रही। अचानक उसके मुख-मंडल पर छाए बादल फट गए। एक हल्की मुस्कराहट उसके ओठों पर धीरे-धीरे जगने लगी, नाक के बगल की नीली रेखा धीरे-धीरे खिल रही है, मानो कमल की पखुड़ियाँ धीरे-धीरे खुल रही हों।
मौसी चुपचाप कभी कमली की ओर, कभी डाक्टर की ओर देखती है। उसके ओठों __पर भी मन्द मुस्कराहट खिंची हुई है।
“प्यारू मेरे यहाँ दो बार खोज गया है। शायद आज भी कोई खरगोश भाग गया है।” कमली मौन भंग करती गई। उसकी बोली सहज हो गई है।
कालीचरन कमली के चेहरे पर कुछ देखकर चमक उठता है। उससे बातें करते-करते, कभी-कभी मंगला के चेहरे पर भी ऐसे ही भाव आ जाते हैं। इसी तरह तुनुक-तुनुककर बोलती है। वह डाक्टर की ओर देखता है, फिर उठ खड़ा होता है, “अच्छा तो बैठिए डाक्टर साहब ! हम अभी चलते हैं।…फिर कल भेंट करेंगे।”
मौसी भी उठकर जाते हुए कहती है, “तुम लोग चाय तो जरूर पीयोगे !”
कुछ देर तक दोनों चुप रहते हैं।…कमली पास में पड़ी सीकी की बनी हुई फूलडलिया को उठाकर उसकी बुनावट देखने लगती है। डाक्टर मुस्कराते हुए पूछता है, “एक बात पूछूँ कमला, बुरा तो न मानोगी ? अपने बाप की शिकायत कोई नहीं बरदाश्त कर सकता है, क्यों ?”
“कैसे बरदाश्त कर सकता है कोई ?”
“मुझे क्या मालूम ? मुझे…मुझको अपने बाप की याद नहीं।”
कमली मुस्कराती जाती है। कहती है, “विवाह के गीत में…एक जगह शिवजी पार्वती के पिता की टोकरी-भर शिकायत करते हैं-
एक बेर गेलीं गौरा तोहरो नैहरवा से,
बइठे ले देलक पुआर,
कोदो के खिचुड़ी रंधाओल मैना सासू…!”
“हा-हा-हा-हा !”
“हा-हा-हा-हा !” दोनों ही एक साथ हँस पड़ते हैं। मानो पंछी का एक जोड़ा एक ही साथ दिल खोलकर किलक पड़ा हो। नर और नारी के पवित्र आकर्षण की रुपहली डोरी लकपक रही है। नर आगे बढ़ता है…नारी को खींच लेता है…।
बड़ी-बड़ी, मद-भरी आँखों की जोड़ी ने मुस्कराकर पूछा, “आप…मेरी शिकायत बरदाश्त कर सकते हैं ?”
“रोज तो कर रहा हूँ।” दो लापरवाह आँखों ने मानो चुटकी ली, “कमली दवा नहीं पीती है। कमली रात में देर तक बैठकर पढ़ती है…कमली पगली है।…पगली है कमली।…तू पगली है ! तू मेरी पगली है ! पागल-पगली…”
…अधरक मधु जब चाखन कान्ह,
तोहर शपथ हम किछु यदि जानि !