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मैला आँचल प्रथम भाग खंड18-24/फणीश्वरनाथ रेणु

अठारह

“क्या नाम ?”

“सनिच्चर महतो।”

“कितने दिनों से खाँसी होती है? कोई दवा खाते थे या नहीं ?…क्या, थूक से खून आता है ? कब से ?…कभी-कभी ? हूँ !…एक साफ डिब्बा में रात-भर का थूक जमा करके ले आना।…इधर आओ।…ज़ोर से साँस लो।…एक-दो-तीन बोलो।…ज़ोर से। हाँ, ठीक है।”

“क्या नाम ?”

“दासू गोप।”

“पेट देखें ?..हूँ !..पिल्ही है। सूई लगेगी। सूई के दिन पुरजी लेकर आना। कल , खून देने के लिए सुबह ही आ जाना। समझे !”

“क्या नाम ?”

“निरमला।”

“डागडरबाबू !” एक बूढ़ा हाथ जोड़कर आगे बढ़ आता है। गिड़गिड़ाता है-“हमारी बेटी है। आज से करीब एक साल पहले भोंमरा ने एक आँख में झाँटा मारा। इसके बाद दोनों आँखें आ गईं। बहुत किस्म की जंगली दवा करवाए, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। अब तो एकदम नहीं सूझता।”

बला की खूबसूरत है यह निरमला। दूध की तरह रंग है चेहरे का।…विशुद्ध मिथिला की सुन्दरता। भौरे ने गलती नहीं की थी। आँखें देखें !…और आगे बढ़ आइए।… आह !…एक बूँद आईड्राप के बगैर दो सुन्दर आँखें सदा के लिए ज्योतिहीन हो गईं।…अब तो इलाज से परे हैं।…

डाक्टर ने आँखों की पपनियाँ उलटकर रोशनी की हल्की रेखा भी खोजने की चेष्टा की।…ऊँहूँ ! पुतलियाँ कफ़न की तरह सफेद हो गई हैं। वह सोचता है, यदि तूलिका से इन पुतलियों में रंग भरा जा सकता ! हाँ, कोई चित्रकार ही अब इन आँखों को सुन्दर बना सकता है, ज्योति दे सकता है।

“डागडरबाबू !” रोगिनी कहती है। आवाज़ में कितनी मिठास है ! “बहुत नाम सुनकर आई हूँ। बहुत उम्मीद लेकर आई हूँ, बाईस कोस से। भगवान आपको जस दें ।”

प्रकाश दो ! प्रकाश दो ! अँधेरे में घुटता हुआ प्राणी छटपटा रहा है, आत्मा विकल है-रोशनी दो ! डाक्टर क्या करे ?…डाक्टर को भावुक नहीं होना चाहिए।

“घबराइए नहीं, दवा दे रहा हूँ। यहाँ ठीक नहीं होगा तो पटना जाना पड़ेगा।”

“हाँ, दूसरा रोगी !…क्या नाम है ?”

“रामचलित्तर साह।”

“क्या होता है?”

“जी ! कुछ खाते ही कै हो जाता है। पानी भी…”

“कब से ?”

“सात दिन से।”

“अरे ! सात दिन से !…जरा इधर आओ।”

“जी? बेमारी तो घर पर है।”

“घर कहाँ ?”

“जी, सरसौनी बिजलिया। यहाँ से कोस दसेक है।”

हठात् सभी रोगी एक ओर हट जाते हैं, खूँखार जानवर को देखकर जिस तरह गाय-बैलों का झुंड भड़क उठता है; सभी के चेहरे का रंग उतर जाता है। औरतें अपने बच्चे को आँचल में छिपा लेती हैं। सबकी डरी हुई निगाहें एक ही ओर लगी हुई हैं।

डाक्टर उलटकर देखता है-एक अधेड़ स्त्री।…भद्र महिला !

“कहिए, क्या है ?”

“डागडरबाबू ! यह मेरा नाती है, बस यही एक नाती ! मेरी आँखों का जोत है यह। एक साल से पाखाने के साथ खून आता है। इसको बचा दीजिए डागडरबाबू ! …यह नहीं बचेगा।”

“घबराइए नहीं।…इधर आओ तो बाबू ! क्या नाम है ?…गनेश ! वाह ! जरा पेट दिखलाइए तो गनेश जी !”

गनेश की नानी दवा लेकर चली जाती है। रोगियों का झुंड फिर डाक्टर के टेबल को घेर लेता है।

चिचाय की माँ कहती है, “पारबती की माँ थी। डाइन है ! तीन कुल में एक को भी नहीं छोड़ा। सबको खा गई। पहले भतार को, इसके बाद देबर-देबरानी, बेटा-बेटी, सबको खा गई। अब एक नाती है, उसको भी चबा रही है।”

चिचाय की माँ ने ऐसा मुँह बनाया मानो वह भी कुछ चबा रही हो।…डाक्टर चिचाय की माँ को देखता है।…काली, मोटी, गन्दी और झगड़ालू यह बुढ़िया चिचाय की माँ, जो बेवजह बकती रहती है, चिल्लाती रहती है।…यह डाइन नहीं ? सुमरितदास उस दिन कहता था-“चिचाय की माये तो जनाना डागडर है। पाँच महीने के पेट को भी इस सफाई से गिरा देती है कि किसी को कुछ मालूम भी नहीं होता।” यह डाइन नहीं और गनेश की नानी डाइन है ? आश्चर्य !

…गनेश की नानी ! बुढ़ापे में भी जिसकी सुन्दरता नष्ट नहीं हुई, जिसके चेहरे की झुर्रियों ने एक नई खूबसूरती ला दी है। सिर के सफेद बालों को धुंघराले लट ! होंठों की लाली ज्यों-की-त्यों है। ठुड्डी में एक छोटा-सा गड्ढा है और नाक के बगल से एक रेखा निकल नीचे ठुड्डी को छू रही है। सुन्दर दन्तपंक्तियाँ !…जवानी की सुन्दरता आग लगाती है, और बुढ़ापे की सुन्दरता स्नेह बरसाती है। लेकिन लोग इसे डाइन कहते हैं। आश्चर्य !

“कहाँ रहती है ?”

“इसी गाँव में ! कालीचरन का घर देखा है न ! उसी के पास। बैस बनियाँ है।…कितना ओझागुनी थक गया, इसको बस नहीं कर सका। जितिया परब (जीताष्टमी) की रात में कितनी बार लोगों ने इसको कोठी के जंगल के पास गोदी में बच्चा लेकर, नंगा नाचते देखा है। गैनू भैंसवार ने एक बार पकड़ने की कोशिश की थी। ऐसा झरका बान (अग्निबाण) मारा कि गैनू के सारे देह में फफोले निकल आए। दूसरे ही दिन गैनू मर गया।…”

रोज रात में डाक्टर केस-हिस्ट्री लिखने बैठता है।…अभी उसके हाथ में कालाआजार के पचास ऐसे रोगी हैं, जिनके लक्षण कालाआजार के निदान को भटकानेवाले साबित हो सकते हैं।

एक : (क) सेबी मंडल, उम्र 35, हिन्दू (मद), गाँव मेरीगंज, पोलियाटोली। तकलीफ : दाँत और मसूड़े में दर्द । दतुअन करने के समय खून निकलना, मुँह महकना, देह में खुजली, भूख की कमी। बुखार : नहीं। निदान : पायोरिया। दवा : कारबोलिक की कुल्ली। विटामिन सी का इंजेक्शन।

(ख) पन्द्रह दिन के बाद : शाम को सरदर्द की शिकायत । बुखार 99.5, रात में पसीना।…कैलशियम पाउडर।

(ग) पाँच दिन के बाद पेट खराब हो गया है। बुखार : 100। कार्मिनटिव मिक्शचर। कालाआजार के लिए खून लिया गया।

(घ) अल्डेहाइट टेस्ट का फल : (

) कालाआज़ार ! चिकित्सा : नियोस्टिबोसन का इंजेक्शन।

दो : (क) तेतरी, उम्र : 17, हिन्दू (औरत), गाँव पासवानटोली, मेरीगंज।

तकलीफ : हड्डियों के हर जोड़ में दर्द। कभी-कभी नाक से खून गिरता है। बुखार : नहीं (थर्मामीटर से देखा 99.5) भूख : नहीं। रोग अनुमान : गठिया, वात।

दवा : विटामिन बी का इंजेक्शन। मालिश का तेल। डब्ल्यू.आर. के लिए खून लिया।

(ख) डब्ल्यू. आर. (गरमी) : (-) गरमी नहीं।

(ग) एक सप्ताह बाद नाक से खून गिरा।…पेट खराब हुआ। कालाआज़ार के लिए खून लिया।

(घ) अल्डहाइड टेस्ट का फल : सन्देहात्मक। फिर खून लिया।

(ङ) ब्रह्मचारी-टेस्ट का फल : (
)

चिकित्सा-युरिया स्टिबामाइन (ब्रह्मचारी)।

तीन : (क) रामेसर का बच्चा : उम्र 2 महीने। नाभी में घाव। रात में रोता है, दूध फेंकता है।…माँ को कैलशियम पाउडर।

(ख) एक सप्ताह के बाद सारे देह में चकत्ते। अनुमान : एलरजिक।

(ग) चार दिन के बाद : चकत्तों में पानी भर गया है। डब्ल्यू. आर. के लिए माँ का खून लिया। फल : (-) नहीं।।

(घ) कालाआजार के लिए माँ का खून लिया। फल : (-) नहीं। कालाआजार के लिए बच्चे का खून लिया। फल : (

) कालाआजार।

और इस बच्चे की यदि मृत्यु हुई तो जरूर किसी डाइन के मत्थे दोष मढ़ा जाएगा। देह में फफोले ! गनेश की नानी पर ही सन्देह किया जाएगा। गनेश की नानी ! न जाने क्यों वह गनेश की नानी से कोई प्यारा-सा सम्बन्ध जोड़ने के लिए बेचैन हो गया है। कमली कहती है, “मौसी ! मौसी में बहुत गुन हैं। सीकों से बड़ी अच्छी चीजें बनाती है-फूलदानी, डाली, पंखे। कशीदा कितना सुन्दर काढ़ती है ! पर्व-त्योहार और शादी-ब्याह में दीवार पर कितना सुन्दर चित्र बनाती है-कमल के फूल, पत्ते और मयूर ! चौक कितना सुन्दर पूरती है !”…वह भी उसे मौसी कहेगा !

“मौसी !”

“कौन ?”

“मैं हूँ। डाक्टर। गनेश कहाँ है ?”

“डागडरबाबू ! आप ? आइए, बैठिए। गनेश सो रहा है।…मैं तो अकचका गई, किसने मौसी कहकर पुकारा !” बूढ़ी की आँखें छलछला आती हैं।

“मौसी ! सुमा है तुम एक खास किस्म का हलवा बनाती हो ?” मौसी हँस पड़ती है, “अरे दुर ! किसने कहा तुमसे ? पगली कमली ने कहा होगा जरूर।…कमली कैसी है अब ? इधर तो बहुत दिन से आई ही नहीं। पहले तो रोज आती थी।” ।

“अच्छी है।…अच्छी हो जाएगी। मौसी ! एक बात पू ?…तुम्हारी कोई बहन, माँ, बेटी या और कोई…सहरसा इलाके में, हनुमानगंज के पास कभी रहती थी ?” डाक्टर अपने बेतुके सवाल पर खुद हँसता है।

“सहरसा इलाके में हनुमानगंज के पास ?…रहो, याद करने दो।…नहीं तो ? क्यों, क्या बात है ?”

“यों ही पूछता हूँ। ठीक तुम्हारे ही जैसी एक मौसी वहाँ भी है।” बात को बदलते हुए डाक्टर कहता है, “मुझे एक फूल की डाली दो न, मौसी !”

उफ !…सचमुच डाइन है यह बुढ़िया। इसकी मुस्कराहट में जादू है। स्नेह की बरसा करती है। ऐसी आकर्षक मुस्कराहट ?

गनेश बड़ा भोला-भाला लड़का है ! बड़ा खूबसूरत ! गोरा रंग, लाल ओठ और धुंघराले बाल उसे नानी के पक्ष से ही मिले हैं।…बड़ा अकेला लड़का मालूम होता है। मौसी कहती है, “किसके साथ खेले ! गाँव के बच्चे अपने साथ खेलने नहीं देते।…मेरे ही साथ खेलता है।”

“गनेश जी, जरा पेट दिखाइए तो !…मौसी ! कल इसे सुबह ले आना तो ! खून लूँगा। होंठ मुरझाए रहते हैं।”

गनेश को अब एक मामा मिल गया।

“सचमुच ऐसा हलवा कभी नहीं खाया मौसी !…विश्वास करो।…गनेश को भी दो ! कोई हरज नहीं।”

“मामा देखो!” गनेश गले में स्टेथस्कोप लटकाकर हँसता है।

“वाह ! मेरा भानजा डाक्टर बनेगा।”

डाक्टर जब मौसी के घर से निकला तो उसने लक्ष्य किया, कालीचरन के कुएँ पर पानी भरनेवाली स्त्रियों की भीड़ लग गई है। सभी आँखें फाड़े, मुँह बाए, आश्चर्य से डाक्टर को देखती हैं-“इस डाक्टर को काल ने घेरा है सायद।”

“लाल सलाम !” कालीचरन मुट्ठी बाँधकर सलाम करता है, और डाक्टर को एक लाल परचा देते हुए कहता है, “कामरेड मन्त्री जी आपको पहचानते हैं डाक्टर साहब !…हाँ, कृष्णकान्त मिश्र जी !”

आइए ! आइए ! जरूर आइए !

कमानेवाला खाएगा, इसके चलते जो कुछ हो !

किसान राज : कायम हो।

मजदूर राज : कायम हो।

प्यारे भाइयो ! ता. ……को मेरीगंज कोठी के बगीचे में किसानों की एक विशाल सभा होगी। सोशलिस्ट पार्टी पूर्णिया के सहायक मन्त्री साथी गंगाप्रसादसिंह यादव सैनिक जी…।

“परसों सभा है ! आइएगा।…लाल सलाम !”

उन्नीस

चलो ! चलो ! सभा देखने चलो !

सोशलिस्ट पार्टी की सभा की खबर ने संथालटोली को विशेष रूप से आलोड़ित किया है। गाँव में अस्पताल खुलने की खुशखबरी की कोई खास प्रतिक्रिया संथालों पर नहीं हुई थी। गाँव के लड़ाई-झगड़े और मेल-मिलाप से भी उन्हें कुछ लेना-देना नहीं। लेकिन यह सभा ? जमीन जोतनेवालों की ?…कर्तव्यनिष्ठ और मेहनती संथाल किसानों के दिमाग की मुद्दत से उलझी हुई गुत्थी का सही सुलझाव ! जमीन जोतनेवालों की सभा !

“जमीन किसकी ?…जोतनेवालों की ! जो जोतेगा वह बोएगा, जो बोएगा वह काटेगा। कमानेवाला खाएगा, इसके चलते जो कुछ हो !” कालीचरन समझा रहा है।

चारों ओर स्वस्थ, सुडौल, स्वच्छ और सरल इंसानों की भीड़। श्याम मुखड़ों पर सफ़ेद मुस्कराहट, मानो काले बादलों में तीज के चाँद के सैकड़ों टुकड़े। बिरसा माँझी का जवान बेटा मंगल माँझी कालीचरन के वाक्यों को गीतों की कड़ी में जोड़ने की चेष्टा करता है…

जोहिरे जोतबे सोहिरे बोयबे….. सनियाँ मुरमू कालीचरन की हर बात पर खिलखिलाकर हँसती है-हँ हँ हँ हँ हँ हँ हँ ! सरगम के सुर में हँसती है सनियाँ । तीतर की आवाज की तरह हँ हँ हँ हँ ! पीछे की ओर झूलता हुआ रंगीन आँचल रह-रहकर चंचल हो उठता है, मानो नाचने के लिए मोरनी पंख तौल रही हो। उसके चरण थिरकने के लिए चपल हो उठे हैं।

मनर की मन्द आवाज…रिंग रिंग ता धिन-ता!
डिग्गा की अटूट ताल…डा डिग्गा, डा डिग्गा !
उन्मुक्त स्वर लहरी…जोहिरे जोतबो सोहिरे बोयबे !
मुरली की लय पर पायलों का छुम छुम, छन्न छन्न !
डा डिग्गा डा डिग्गा
रिंग रिंग ता धिन-ता!
चल चल रे, सभा देखेला।…

चार पुश्त पहले की बात ! संथाल परगना के तीन पहाड़ी अंचल की पथरीली माटी का मोह तोड़कर, ऊबड़-खाबड़ पहाड़ी रास्ते को तय करके जब इनके पूर्वज इस गाँव की नरम माटी पर आकर बसे थे ! गाँववालों ने जमींदार के पास जाकर फरियाद की थी, “हुजूर ! माई-बाप ! जंगली लोग हैं। सुनते हैं तीर-धनुष से जान मार देने पर भी सरकार बहादुर इनको कुछ नहीं कर सकता है। इन्हें हरगिज नहीं बसाया जाए हुजूर !”

लेकिन जमींदार ने समझाकर कहा था, “ऐसी बात नहीं। वे बड़े मिहनती होते हैं। धरमपुर इलाके में जाकर देखो, राजा लछमीनाथसिंह ने इनसे हजारों बीघा बनजर जमीन आबाद करवा लिया है; परती और भीठ जमीन से ही तेजू बाबू को दो हजार मन गेहूँ उपजाकर संथालों ने दिया है। मालूम ?”

जमींदार ने गाँववालों को विश्वास दिलाया था कि इन्हें गाँव से अलग ही बसाएँगे। सभी जमींदारों ने इन्हें जंगलों में ही बसाया है।

उसके बाद से ही बबूल, झरबेर और साँहुड़ के पेड़ों से भरे हुए जंगल हर साल साफ़ होकर आबाद होते गए। आज जहाँ सैकड़ों बीघे जमीन में मोती के दानों से भरी हुई गेहूँ की बालियाँ पुरवैया हवा में झूम रही हैं, धरती का वह टुकड़ा सर्वे के कागजात और नक्शे में जंगल के नाम से दर्ज है, जिस जंगल में बाघ का शिकार खेलने के लिए जिले-भर के राजा और जमींदार जमा होते थे। गाँव के नई उम्र के लड़के तो विश्वास नहीं करते।

नीलहे साहबों के नील के हौज़ ज्यादातर इन्हीं मूक इंसानों के काले शरीर के पसीने से भरे रहते थे।

साहबों के कोड़ों की मार खाकर, जमींदारों की कचहरियों में दिन-भर मोगलिया बाँधी (एक कड़ी सजा) की सजा भुगतने के बाद शाम को मोहन की जादू-भरी वंश बजी और सब कष्ट दूर हो गए।

रिंग रिंग ता धिन-ता
डा डिग्गा डा डिग्गा !…

सोने के अनाज से भरे हुए, धरती के गुप्त भंडार का उद्घाटन करनेवाले पर धरती माता का कोप होना स्वाभाविक है। यही कारण है कि आज जमीन के मालिकों ने, जमीन के व्यवस्थापकों ने और धरती के न्याय ने धरती पर इनका किसी किस्म का हक नहीं जमने दिया है। जिस जमीन पर उनके झोंपड़े हैं, वह भी उनकी नहीं। हल में जुता हुआ बैल दिन-भर खेत चास (जोतना) करता है, इसलिए बैलों को भी धरती का हकदार कबूल किया जाए? यह कैसी बात है ?

1947 के कांग्रेसी मन्त्रिमंडल के समय इस जिले में एक अंग्रेज कलक्टर आया था। उसने इस व्यवस्था को अन्याय समझ सुधारने की चेष्टा की थी। जिले-भर के भूमिहार, जमींदार और राजा घबरा गए थे। जिले के अधिकांश नेता भूमिहार और जमींदार थे। अंग्रेज कलक्टर पर इलजाम लगाया गया-संथालों को उभारकर, जिले में अशान्ति फैलाकर, कांग्रेसी मन्त्रिमण्डल को असफल बनाने का षड्यन्त्र करता है ! ‘कांग्रेस सन्देश’ के सम्पादकीय में संथालों के प्रति थोड़ी समवेदना प्रकट की थी। बेचारे विद्यालंकार सम्पादक को उसी दिन मालूम हुआ था कि विद्या का अलंकार कितना बेमानी है। जिला-मन्त्री ने आँखें लाल करके कहा था, “विद्यापीठ का शास्त्र यहाँ काम नहीं देगा। विद्यापीठ में गधे के सर पर सींग तो नहीं जम सकती है।”

जमींदारों ने अपने भाड़े के लठैतों को जगह-जगह संथालों की लहलहाती फसलों पर हुलका (धावा करना) कर, संथाल टोली पर चढ़ाई करवाकर, रुपए लाठी के हिसाब से बटोरे हुए लठैतों को संथालों के तीरों से जख्मी करवाकर, सबल प्रमाण पेश कर दिया था-संथालों के जोर-जुल्म का मुख्य कारण है यह अंग्रेज कलक्टर। इसी के बल पर वे कूद रहे हैं।

अंग्रेज कलक्टर की तुरन्त बदली हो गई। बहुत-से संथाल सरकारी गोली से घायल हुए और सैकड़ों ने बिहार के विभिन्न जेलों में सफैयाकमान (मेहतर कमांड) में काम करते-करते सारी उम्र बिता दी। इसके बाद फिर कौन चूँ करता है ! लेकिन मानर और डिग्गा की आवाज कभी मन्द नहीं हुई, बाँसुरी कभी मन्द नहीं हुई और न उनके तीरों में ही जंग लगे। आज भी कभी-कभी बनैले जानवरों के शिकार के समय, सूरज की किरणों में चमकदार चकाचौंध पैदा कर देते हैं इनके तीर !

मलेरिया और कालाआज़ार की क्रीड़ा-भूमि में भी ये सबल और स्वस्थ रहकर क्रीड़ा करते हैं। हड्डियों पर कलापूर्ण ढंग से तराशकर बैठाए जैसे मांस का उभार कभी सूखा नहीं; ताजे फूलों की पंखड़ियों जैसे उनके ओठ कभी जर्द नहीं हुए और न किसी संथाल के पेट में कभी पिल्ही बढ़ जाने की बात ही सुनी गई। अस्पताल खुलने से उनका क्या फायदा होगा? लेकिन जमीन !…जोतनेवालों की ?…

“चलो ! चलो ! सभा देखने चलो !”
किसान राज कायम हो!
मजदूर राज कायम हो!
गरीबों की पारी सोशलिस्ट पाटी,
सोशलिस्ट पाटी जिन्दाबाद ! “…

यह जो लाल झंडा है, आपका झंडा है, जनता का झंडा है, अवाम का झंडा है, इन्कलाब का झंडा है। इसकी लाली उगते हुए आफताब की लाली है, यह खुद आफताब है। इसकी लाली, इसका लाल रंग क्या है ?…रंग नहीं ! यह गरीबों, महरूमों, मजलूमों, मजबूरों, मजदूरों के खून में रँगा हुआ झंडा है !” कामरेड सैनिक जी भाषण दे रहे हैं।

“ऐं ! खून में रँगा हुआ झंडा !” बादरदास ने कालीचरन के कहने से हाथ में झंडा लिया था। बादरदास वैष्णव है, मांस-मछली छूता भी नहीं; और यह आदमी के खून में रँगा हुआ झंडा ? उसका धरम भ्रष्ट कर दिया कालिया ने। छिः-छिः ! वह हाथ में झंडे का बाँस थामे खड़ा है ?…वह अचानक ही झंडे के बाँस को छोड़ देता है ! आदमी के खून में रँगा हुआ झंडा !

जोतकी काका कहते हैं, “पताखा पतन, अशुभ, अमंगल और अनिष्ट की सूचना है।

सैनिक जी अपना भाषण जारी रखते हैं। भाषण के बीच में रुक जाने से फिर, शुरू से याद करना पड़ता है-“जिस तरह सूरज का डूबना एक महान् सच है, पूँजीवाद का नाश होना भी उतना ही सच है। मिलों की चिमनियाँ आग उगलेंगी और उन पर मजदूरों का कब्जा होगा। जमीनों पर किसानों का कब्जा होगा। चारों ओर लाल धुआँ मँडरा रहा है। उट्ठो, किसानों के सच्चे सपूतो ! धरती के सच्चे मालिको, उट्ठो ! क्रान्ति का मशाल लेकर आगे बढ़ो !”

“बोलिए एक बार प्रेम से-सोशलिस्ट पाटी की जै!” यही पार्टी असली है। किसानों की पार्टी, गरीबों की पार्टी। सभा-स्थल पर ही तीन सौ मेम्बर बन गए। संथालटोली का एक आदमी भी गैर-मेम्बर नहीं रहा। सब लाल ! सिर्फ सरदार टुडू…तेरह साल का लड़का रह गया है। वह रोता है, सरदार टुडू सैनिक जी के पास जाकर अपील करता है, “इश्का नाम लेंबरी में नहीं लिखा जाएगा ? क्यों ? उमेर कम नहीं, देखिए, इश्को मोंच का रेख आ रहा है।”

बालदेव जी कुछ बोलने को खड़े होते हैं। बासुदेव तुरत उठकर कहता है, “बालदेव जी, आपका बिख्यान हम लोग बहुत सुन चुके हैं। आप पूँजीबाद हैं। इस सभा में आप नहीं बोल सकते।”

जनता ने भी विरोध किया, “बैठ जाइए, बैठ जाइए ! जाइए, कपड़ा का पुर्जी बाँटिए, चीनी बिलेक कीजिए।”

…अरे बाप ! कितना टीन छोआ कहा नेताजी ने ? एक हजार टीन छोआ बिलेक ‘ कर दिया मेनिस्टर कांग्रेसी ने ! इसीलिए तो देहात से हुक्का उठ रहा है। अब लोग बीड़ी न पीयें तो क्या करें। हुक्का के तम्बाकू के लिए छोआ गूड़ कहाँ से आएगा। सब बिलेक हो गया। अन्याय है!

तहसीलदार साहब को तो नेताजी ने भरी सभा में बेइज्जत कर दिया, अलबत्त गाली देते हैं नेताजी।…जमींदार के दुम ये तहसीलदार ! मुफ्तखोर !

मगर तहसीलदार साहब हँसते ही रहे थे। उस रात को बिदापत नाच के बिकटा की भँडैती सुनने के समय जैसी मन्द मुस्कराहट उनके चेहरे पर थी, आज भी है।

कालीचरन अब खेलावनसिंह के कब्जे से बाहर है। कालीचरन यादव कुल-कलंक है। बूढ़ा कुकरू बुढ़ापे तक खेलावन का बैल चराता था और उसका बेटा लीडर हो गया। सुश्लिग लीडर ! इसको काबू में रखने का कोई हथियार भी नहीं। अँगूठे का टीप भी कभी नहीं लिया इससे !

सिपैहियाटोली का एक बच्चा भी इस सभा में नहीं था। उनके टोले में कटिहार से काली टोपीवाले दल के संजोजकजी आए हैं। लाठी-भाला टरेनि देते हैं। छोटी जाति के लोगों की सभा में वे नहीं जा सकते।

कालीचरन ने सैनिक जी के रहने का प्रबन्ध मठ पर किया है। महन्थ रामदास जी तो नाम के महन्थ हैं, मठ की असल मालकिन तो लछमी है।…पन्द्रह सेर दूध को जलाकर खोआ बना है, मालपूआ की सोंधी सुगन्ध हवा में फैल रही है।

लछमी पूछती है, “काली बाबू ! नेताजी डोलडाल से आकर स्नान नहीं करेंगे ?”

सैनिक जी के साथ में ‘लाल पताका’ साप्ताहिक पत्र के सम्पादक श्री चिनगारी जी भी आए हैं। दुबले-पतले हैं, दिन-भर खाँसते रहते हैं; आँख पर बिना फ्रेमवाला चश्मा लगाते हैं। दिन-भर सिगरेट पीते रहते हैं, शायद इसीलिए चिनगारी जी नाम पड़ा है। डाक्टर ने अंडा खाने के लिए कहा है। बिना अंडा खाए इतना गरम अखबार कोई कैसे निकाल सकता है ?…लेकिन मठ पर अंडे का प्रबन्ध कैसे हो सकता है ?

लछमी के अतिथि-सत्कार को भूलना असम्भव है। चिनगारी जी रात में सोते समय सैनिक जी से कहते हैं, “मैं लछमी जी पर एक मुक्तछन्द लिखना चाहता हूँ…

“…ओ महान् सतगुरु की सेविका
गायिका पवित्र धर्मग्रन्थ की, .
ओ महान् मार्क्स के दर्शन की दर्शिका,
सुदर्शने, प्रियदर्शिनी,
तुम स्वयं द्वन्द्वयुक्त भौतिकवाद की
सिनथिसिस हो !”

बीस

कमली डाक्टर को पत्र लिखती है-

“प्राणनाथ !…तुम कल नहीं आए। क्यों नहीं आए ? सुना कि रात में…।”

कमली डाक्टर को रोज पत्र लिखती है। लिखकर पाँच-सात बार पढ़ती है, फिर फाड़ डालती है। उसकी अलमारी के एक कोने में फाड़ी हुई चिट्ठियों का ढेर लग गया है। पत्र लिखने और लिखकर पढ़ने के बाद उसको बड़ी शान्ति मिलती है। जी बड़ा हल्का मालूम होता है, और नींद भी अच्छी आती है।

…सुना कि रात में तुम गेहुँअन साँप से बाल-बाल बच गए। भगवान को इसके लिए लाख-लाख धन्यवाद !”

रात में डाक्टर गेहुँअन साँप से बाल-बाल बच गए। गेहुँअन नहीं, घोड़-करैत। गेहुँअन और करैत का दोगला। घोड़े से ज्यादा तेज भाग सकता है। घोड़-करैत का काटा हुआ आदमी ओझा-गुणी का मुँह नहीं देख सकता। आधी रात को खरगोश और चूहे अपने-अपने पिंजड़ों में घबराकर दौड़-भाग करने लगे। डाक्टर साहब ने प्यारू को पुकारा, लेकिन प्यारू की नींद नहीं टूटी। जानवरों के कमरे का दरवाजा खोलकर टार्च देते ही डाक्टर तड़पकर पीछे हट गए-साँप ठीक किवाड़ के पास ही अपनी पूँछ पर सारे धड़ को खड़ा किए फुफकार रहा था। तब तक प्यारू भी जग चुका था। उठते ही उसने बाएँ हाथ से ही ऐसी लाठी चलाई कि साँप वहीं ढेर हो गया। अढ़ाई हाथ का साँप ! डाइन का मन्तर अढ़ाई अक्षरों का होता है और डाइन का भेजा हुआ साँप अढ़ाई हाथ का !

सुबह को जिसने यह बात सुनी, बस एक ही राय कायम की-यह तो पहले से ही मालूम था। डाक्टरबाबू को इतना समझाया-बुझाया कि पारबती की माँ से इतना हेल-मेल नहीं बढ़ावें। नहीं माने, अब समझें। वह राच्छसनी किसी को छोड़ेगी ? जिसको प्यार किया, उसको जरूर खाएगी। डाक्टर बेचारा भी क्या करे ! वह अपने मन से तो कुछ नहीं करता। उस पर तो पारबती की माँ ने जादू कर दिया है। वह अपने बस में नहीं। मुफ्त में बेचारे की जान चली जाएगी एक दिन। च्: च्:।

कमली को डाइन, भूत और डाकिन पर विश्वास नहीं। तहसीलदार साहब भी इसे मूर्खता समझते हैं। कालीचरन तो आदमी से बढ़कर बलवान किसी देवता को भी नहीं समझता, फिर डाइन-भूत, ओझा-गुणी किस खेत की मूली हैं। इन्हें छोड़कर गाँव के बाकी सभी लोग डाइन के बारे में एकमत हैं। बालदेव जी ने तो बहुत बार भूत को अपनी आँखों देखा है। भैंस के पीछे-पीछे खैनी-तम्बाकू माँगता है भूत ! डाकिन का पाँव उलटा होता है और वह पेड़ की डाल से लटककर झूलती है। भूत-प्रेत झूठ है? तब कमला किनारे, कोठी के जंगल के पास में रात को जो भक्क-से राकस जल उठता है, दौड़ता है और देखते-ही-देखते एक से दस हो जाता है सो क्या है ?

“डाक्टर साहब अब रोज मौसी के यहाँ जाते हैं। मौसी के यहाँ एक बार बिना गए उनको चैन नहीं,” प्यारू कहता है। कमली सुनती है और हँसती है।

“डाक्टर साहब गनेश को देखने जाते हैं, प्यारू !”

“वह लड़का तो आराम हो गया है। मुटाकर कोल्हू होता जा रहा है। उसको क्या देखने जाते हैं !”

“अच्छा प्यारू, डाक्टर साहब तो मेरे यहाँ भी रोज आते हैं।”

“तुम्हारे यहाँ की बात दूसरी है दीदी !”

“क्यों ? दूसरी बात क्या है ?”

डाक्टर साहब हँसते हुए आते हैं, “अच्छा ! तो प्यारू जी यहाँ दरबार कर रहे हैं। वह बुखारवाला खरगोश कैसे भाग गया ?”

“जी, हम दोपहर का दाना देने गए तो देखा कि पिंजड़ा खाली।”

“सुबह सूई देने के बाद तो मैंने पिंजड़ा बन्द कर दिया था। तुमने पानी पिलाने के बाद पिंजड़ा बन्द नहीं किया होगा। महीने-भर की मेहनत बेकार गई।”

प्यारू को इन चूहों और खरगोशों से बेहद नफरत है।…आदमी के इलाज से जी नहीं भरता है तो जानवरों का इलाज करते हैं ! दिन-भर पिंजड़ों को लेकर पड़े रहते हैं। बुखार देखते हैं, सूई देते हैं और खून लेते हैं। जब से ये जानवर आए हैं, डाक्टर साहब को प्यारू से बात करने की भी छुट्टी नहीं मिलती।…अब भाँगड़टोली के लोगों से कह रहे हैं-“दो-तीन सियार के बच्चों की जरूरत है। उस दिन मदारी से बन्दर माँग रहे थे। अजीब सौख है !”

प्यारू चुपचाप चला जाता है। माँ हँसती हुई आती है, “डाक्टर साहब ! मैंने विषहरी माई को एक जोड़ी कबूतर और दूध-लावा कबूला है !”

“और मैंने भी विषहरी दवा के लिए लिख दिया है।”

“विषहरी दवा ?”

“हाँ, ऐंटिवेनम एक दवा है, साँप के काटे हुए का इलाज होता है ! मैं ऐंटिवेनम से भी ज्यादा प्रभावशाली और सस्ती दवा की खोज करना चाहता हूँ। सुनते हैं, रौतहट स्टेशन के पास सँपेरों का टोला है। साँप पकड़वाकर रखना होगा।”

“तब माटी के महादेव नहीं, असली महादेव हो जाइएगा।” कमली व्यंग करना जानती है।

डाक्टर साहब हँस पड़ते हैं और माँ हँसी को रोकते हुए कमली को डाँटती है, “जो मुँह में आया बोल दिया। जरा भी लाज-लिहाज नहीं। इसके बाप ने तो इसे और भी बतक्कड़ बना दिया है। तुम यहाँ आकर चुप बैठो तो जरा, मैं चाय बना लाऊँ।”

“तहसीलदार साहब कहाँ गए हैं ?” डाक्टर पूछता है।

“कटिहार। सर्किल मैनेजर के कैम्प में गए हैं,” कमली जवाब देती है। आज पहली बार कमली ने डाक्टर को अपने पास अकेला पाया है। वह अपने चेहरे को देख नहीं सकती, लेकिन ऐसा लगता है कि उसका चेहरा धीरे-धीरे लाल होता जा रहा है। आँखों की पलकों पर भारी बोझ लद गए हैं, कान की इयररिंग थरथरा रही है। सारी देह में गुदगुदी लग रही है। देह हलकी लग रही है।…बेहोशी ? वह बेहोश होना नहीं चाहती। नहीं, नहीं ! डा…क्टर !

“कमला !”

“जी!”

“कमला ! इधर देखो कमला !”

“डाक्टर, मुझे बचाओ !”

“कमला, आँखें खोलो !”

कमला ने आँखें खोल दीं। उसका सिर डाक्टर की गोद में है। माँ हाथ में चम्मच लिए खड़ी है, भय से माँ का मुँह पीला हो गया है, लेकिन डाक्टर साहब मुस्करा रहे हैं।

“डाक्टर साहब, इसकी बीमारी का तो टेर-पता ही नहीं चलता है।”

“लेकिन रोग तो धीरे-धीरे घट रहा है। बेहोश हुई, पर पाँच मिनट में ही स्वस्थ भी हो गई। इसी तरह एक दिन जड़ से यह रोग दूर हो जाएगा।…कमला को ही चाय बनाने दीजिए। जाओ कमला !”

कमला उठकर इस तरह दौड़ी मानो कुछ हुआ ही नहीं था। डाक्टर कमला की किताब हाथ में लेकर उलटता है-नल-दमयन्ती ! अस्याधिकारिणी कुमारी कमलादेवी।…दूसरी जगह कुमारी को काट दिया गया है और नाम के अन्त में बनर्जी जोड़ दिया गया है-कमलादेवी बनर्जी। डाक्टर जल्दी से पृष्ठ उलटता है-आर्ट पेपर पर नल-दमयन्ती की तस्वीर। नल के नीचे नीली पेंसिल से लिखा है ‘प्रशान्त’ और दमयन्ती के नीचे लाल पेंसिल से ‘कमला’ । डाक्टर के ललाट पर पसीने की छोटी-छोटी बूंदें चमक उठती हैं। उसे याद आता है, एक बार ममता के साथ बाँकीपुर स्टेशन से लौट रहा था। रिक्शा पर बैठने के समय एक भिखारी ने घेर लिया था-‘जुगल जोड़ी कायम रहे, सुहाग अचल रहे माँ का, बाल-बच्चा बनल रहे ! ममता ने बैग से इकन्नी निकालकर दी थी और डाक्टर की ओर देखकर खिलखिलाकर हँस पड़ी थी; और डाक्टर के ललाट पर इसी तरह पसीने की बूंदें चमक उठी थीं।

“डाक्टर साहब, कमली के लिए एक अच्छा-सा वर ढूंढ़िए न ! आपके देश में…आपके साथी-संगी…” माँ कहते-कहते सिर पर यूँघट सरकाकर चुप हो जाती है। तहसीलदार साहब आ गए। रनजीत के हाथ में एक बड़ी रोहू मछली है।

“यह नजराना कहाँ मिला ?” डाक्टर साहब हँसते हैं।

“पकरिया घाट पर मछुआ लोग आज मछली मार रहे थे,” तहसीलदार साहब ने मोढ़े पर बैठते हुए कहा।

कमला चाय ले आई।

“डाक्टर साहब, आज पाप की गठरी फेंक आया हूँ।” तहसीलदार साहब ने चाय की प्याली में चुस्की लेते हुए कहा।

“मतलब ?”

“यह तहसीलदारी पाप की गठरी ही तो थी। यह नया सर्किल मैनेजर आते ही ‘आग पेशाब’ करने लगा। ‘लाल पताका’ अखबार ने ठीक ही लिखा था, ‘राज पारबंगा के मीरापुर सर्किल का नया मैनेजर नादिरशाह का भतीजा है।’ अब आप ही बताइए डाक्टर साहब, कि जिन रैयतों के यहाँ सिर्फ एक ही साल का बकाया है, उन पर नालिश कैसे किया जाए ? फिर चुपचाप डिग्री जारी करवाकर नीलाम करो और जमीन खास कर लो। इतना बड़ा अन्याय मुझसे तो अब नहीं होगा। जमाना कितना नाजुक है, सो तो समझते हैं नहीं। मैंने साफ इनकार कर दिया तो कड़ककर बोले, ‘नहीं कर सकते तो इस्तीफा दे दो।’ गंगा-स्नान से भी बढ़कर ऐसे पुण्य का अवसर बार-बार नहीं मिलता। तुरन्त इस्तीफा दे दिया। सारी जिन्दगी तो गुलामी करते ही बीत गई।…कमला की माँ, आज मत्स भगवान आए हैं। कमला से कहो, डाक्टर साहब को निमन्त्रण दे दे।”

तहसीलदार साहब की रसिकता ने डाक्टर को एक बार फिर नल-दमयन्ती की याद दिला दी। कमली मुस्करा रही है। माँ कहती है, “बगैर मिर्च-मसाला की मछली कमली ही बना सकती है।”

डाक्टर महसूस करता है, कमला के निमन्त्रण को अस्वीकार करने की हिम्मत उसमें नहीं।…कमला बनर्जी।…कमला की आँखें !

चाँद बयरि भेल बादल, मछली बयरि महाजाल
तिरिया बयरि दुहु लोचन…

इक्कीस

रात को तन्त्रिमाटोली में सहदेव मिसर पकड़े गए !

यह सब खलासी की करतूत है। ऊपरी आदमी (परदेशी) के सिवा ऐसा जालफरेब गाँव का और कौन कर सकता है ? पुश्त-पुश्तैनी के बाबू लोग छोटे लोगों के टोले में जाते हैं। खेती-बारी के समय रात को ही जनों (मजदूर) को ठीक करना होता है, सूरज उगने से एक घंटा पहले ही खेतों पर मजदूरों को पहुँच जाना चाहिए। इसलिए सभी बड़े किसान शाम या रात को ही अपने-अपने जनों को कह आते हैं। तन्त्रिमाटोली में जब से खलासी का आनाजाना शुरू हुआ है, तभी से नई-नई बातें सुनने को मिल रही हैं। देखा-देखी, दूसरे टोले में भी नियम-कानून, पंचायत और बन्दिश हो गई है। बेचारे सहदेव मिसर को रात-भर तन्त्रिमा लोगों ने बाँधकर रखा।…फुलिया के घर में घुसा था तो फुलिया ने हल्ला क्यों नहीं किया ? जिसके घर में घुसा उसकी नींद भी नहीं खुली, माँ-बाप को आहट भी नहीं मिली और उसका कुत्ता भी नहीं दूंका। गाँव के लोगों को बेतार से खबर मिल गई। यह खलासी की बदमाशी है। रही हालत यही तो छोटे लोगों के टोले में जन के लिए जाना मुश्किल हो जाएगा। कौन जाने, किस पर कब झूठ-मूठ कौन-सी तोहमत लग जाए ? पंचायत होनी चाहिए। राजपूतों ने यदि इस पंचायत में ब्राह्मणों का पक्ष नहीं लिया तो ब्राह्मण लोग ग्वालों को राजपूत मान लेंगे।

“हमको कुछ नहीं मालूम,” फुलिया पंचों के बीच हाथ जोड़कर कहती है, “जब आँगन में हल्ला होने लगा तब मेरी आँखें खुलीं।”

सहदेव मिसर के पास मँहगूदास के अंगूठे की टीप है-सादा कागज पर। मँहगू की टीक (चुटिया) सहदेव के हाथ में है। सहदेव जो चाहे कर सकता है। दोनों गायें और चारों बाछे कल ही खूटे से खोलकर ले जाएगा। इसके अलावा साल-भर का खरचा भी तो सहदेव ने ही चला दिया है। एक आदमी की मजदूरी से तो एक आदमी का भी पेट नहीं भरता।…लेकिन अब फुलिया के हाथ में ही सहदेव मिसर की इज्जत और अपने बाप की दुनिया है; उसकी बोली में जरा भी हेर-फेर हुआ कि सहदेव की इज्जत धूल में मिल जाएगी और उसके बाप की दुनिया भी उजड़ जाएगी।

पंचायत में गाँव-भर के छोटे-बड़े लोग जमा हुए हैं। तहसीलदार साहब पुरैनिया गए हैं। पंचायत में अकेले सिंघ जी बोल रहे हैं। काली टोपीवाले संयोजक भी हैं। बालदेव जी भी हैं। कालीचरन बिना बुलाए ही आया है। सिंघ जी अकेले ही जिरह-बहस कर रहे हैं। तहसीलदार साहब रहते तो थोड़ी सहूलियत होती सिंघ जी को।

“…बात पूछने पर एक घंटे में तो जवाब मिलता है।…हाँ, जब आँगन में हल्ला होने लगा तब तुम्हारी नींद खुली।…सुन लीजिए सभी पंच लोग।…अच्छा, जब तुम्हारी नींद खुली तो तुमने क्या देखा ?”

“सहदेव मालिक को आँगन में घेरकर सभी हल्ला कर रहे थे।”

“अच्छा, तुम बैठो। कहाँ, सहदेव मिसर ? अब आप बताइए कि मँहगूदास के यहाँ उतनी रात को आप क्यों गए थे ?”

“रात में हमारे पेट में जरा दर्द हुआ। लोटा लेकर बाहर निकले। जब दिसा-मैदान से हम लौट रहे थे तो देखा कि कमला किनारेवाले खेत में किसी का बैल गहूँम चर रहा है। इसीलिए मँहगू को जगाने गया था।”

“क्यों ?” “कमला किनारेवाली जमीन का पहरा करने के लिए मँहगूदास को ही दिया है।”

“अच्छा, तब ?”

“जब हम जा रहे थे तो रबिया और सोनमा को आपके खेत में सकरकन्द उखाड़ते – पकड़ा। दोनों को डाँट-डपट दिया। मँहगूदास को जगाकर जैसे ही हम उनके आँगन से निकल रहे थे कि रबिता, सोनमा, तेतरा और नकछेदिया ने हमको पकड़ लिया और हल्ला करने लगे।”

“क्या बताएँ, हमारा पाँच बीघा सकरकन्द इन्हीं सालों ने चुराकर खतम कर दिया।…अच्छा, आप बैठ जाइए।…कहाँ मँहगू?”

“जी सरकार,” मँहगू बूढ़ा हाथ जोड़कर खड़ा होता है।

“सहदेव मिसर ने तमको जाकर जगाया था ?”

“जी सरकार !”

“अब पंच लोग फैसला करें कि असल बात क्या है।”

कालीचरन कैसे चुप रह सकता है ! पंचायत में एकतरफा बात नहीं होनी चाहिए। रबिया और सोनमा पार्टी का मेम्बर है। यह तो पंचायत नहीं, मुँहदेखी है। कालीचरन कैसे चुप रह सकता है-“सिंघ जी, जरा हमको भी कुछ पूछने दीजिए।”

पंचायत के सभी पंचों की निगाहें अचानक कालीचरन की ओर मुड़ गईं। सिंघ जी गुस्से से लाल हो गए। लेकिन पंचायत में गुस्सा नहीं होना चाहिए। राजपूतटोली के नौजवान आपस में कानाफूसी करने लगे। संयोजक जी ने पाकेट टटोलकर देख लिया-सीटी लाना भूल तो नहीं गए हैं ? जोतखी जी एतराज करते हैं-“कालीचरन को हम लोग पंच नहीं मानते।”

“तो पहले इसी बात का फैसला हो जाए कि पंचायत के कितने लोग हमको पंच मानते हैं और कितने लोग नहीं। एक आदमी के चाहने और न चाहने से क्या होता है !…अच्छा, पंच परमेसर ! क्या हमको इस पंचायत में बैठने, बोलने और राय देने का हक नहीं ? क्या हम इस गाँव के बासिन्द नहीं हैं ?” कालीचरन खड़ा होकर कहता है, “यदि आप लोग हमको पंच मानते हैं तो हाथ उठाइए।” ”

गुमसुम बैठे हुए सैकड़ों मूक जानवरों के सिर में मानो अरना (जंगली) भैंसा के सींग जम गए। सैकड़ों हाथ उठ गए।

“दोनों हाथ नहीं, एक हाथ ! ठहरिए, गिनने दीजिए। एक…दो, तीन, चार, पाँच…एक सौ पाँच।”

बालदेव जी ने हाथ नहीं उठाया।

“एक सौ पाँच। अब जो लोग हमको पंच नहीं मानते, हाथ उठाएँ।…एक, दो, तीन, चार, पाँच…पन्द्रह।”

“सिर्फ पन्द्रह !” सिंघ जी को विश्वास नहीं होता। खुद गिनते हैं। राजपूत और ब्राह्मणटोली के लोग कहाँ चले गए ? जोतखी जी के लड़के नामलरैन ने भी कलिया के पक्ष में ही हाथ उठाया है ?…

“फुलिया !” कालीचरन की बोली सुनकर डर लगता है। फुलिया फिर खड़ी होती “देखो, यह पंचायत है। पंचायत में परमेसर रहते हैं। पंचायत में झूठ बोलने से . हाथोंहाथ इसका फल मिलता है। सच-सच बताओ ! सच्ची बात क्या है ?”

“………..”

“बोलो!”

“सहदेव मिसर हमारे घर में घुसे थे।”

“तुमने हल्ला क्यों नहीं किया ?”

“………..”

“बोलो, डरने की कोई बात नहीं।”

“बाबा के डर से।”

“बाबा के डर से ?”

“हाँ, बाबा सहदेव मिसर का करजा धारते हैं।”

“बैठ जाओ।…मँहगू !”

मँहगू हाथ जोड़कर फिर खड़ा होता है।

“क्या बात है ?”

“………..”

“फुलिया जो कहती है, ठीक है ?”

“………..”

“डरो मत ! जो बात है, बताओ!”

“कौन गाछ ऐसा है जिसमें हवा नहीं लगती है और पत्ता नहीं झड़ता है !”

“दूसरों की बात मत कहो, अपनी बात बताओ !”

“अकेले हमको क्यों दोख देते हैं ? गाँव-भर का यही हाल है। कौन घर ऐसा है …”

“मैं तुमसे पूछता हूँ।”

“पहले तुम अपनी माँ से जाकर इमान-धरम से पूछो कि तुम किसके बेटा हो।” जोताखी जी हिम्मत करके कहते हैं। क्रोध से उनकी आँखें लाल हो उठी हैं।

“जोतखी काका, हमको अपने बाप के बारे में मालूम है।”

“जोतखी जी अपनी स्त्री से पूछे कि उनके पेट में किसका बच्चा है।” चिल्लाकर कहता है।

“कौन नहीं जानता कि जोतखी जी का नौकर…”

“चुप रहो सुन्दर !” कालीचरन लोगों को शान्त करता है, “चुप रहो ! शान्ती ! शान्ती !”

‘टू टू…टू टू,’ संयोजक जी सीटी फूंकते हैं।

और पंचायत को चारों ओर से घेरकर खड़े हो गए।

एक दर्जन से भी ज्यादा नौजवान राजपूतटोली से हाथ में लाठी लेकर दौड़ आए और पंचायत को चारों ओर से घेरकर खड़े हो गए।

“सिंघ जी, इन लाठीवाले नौजवानों को आपने बुलाया है ?…तो आप पंचायत नहीं, दंगा करवाना चाहते हैं ?” कालीचरन पूछता है।

सिंघ जी कहते हैं, “अब यह पंचायत नहीं हो सकती। पाटीबन्दी से कहीं इंसाफ होता है ?”

सिंघ जी राजपूतटोली के पंचों के साथ उठ खड़े होते हैं। काली टोपीवाले जवान, सिंघ जी को, संयोजक जी को और राजपूतटोली के पंचों को चारों ओर से घेरे में लेकर, फौजी कवायद करते हुए चले जाते हैं।

जोतखी जी के साथ ब्राह्मणटोली के पंच लोग भी चूहेदानी में फँस गए हैं। खेलावनबाबू का सहारा है। बालदेव जी भी हैं। लेकिन कालीचरन का गुस्सा ?…

“तो पंचायत का यह फैसला है कि मँहगूदास अपनी बेटी फुलिया का चुमौना खलासी के साथ करा दे, और आज से सभी टोले के लोग बाबू लोगों पर नजर रखें।”

पंचायत के सभी पंच एक स्वर से कालीचरन की राय का समर्थन करते हैं। जोतखी जी भी हाथ उठाते हैं और बालदेव जी भी।…यह तो नियाय बात है, इसमें डिफेट करना अच्छा नहीं।

“सहदेव मिसर के पास सादे कागज पर मेरा अँगूठा का टीप है। यदि उसे भरकर नालिस कर दे तब ?” मँहगूदास गिड़गड़ाकर कहता है।

“सहदेव मिसर जब मुकदमा करेंगे, सभी पंच तुम्हारी गवाही देंगे। वह एक पैसा भी तुमसे नहीं पा सकते।”

बाईस

सतगुरु हो ! सतगुरु हो !

महन्थ रामदास भी छींकने, खाँसने और जमाही लेने के समय महन्थ सेवादास जी की तरह ही चुटकी बजाते हैं, ‘सतगुरु हो’, ‘सतगुरु हो’ कहते हैं और आँखें स्वयं ही बन्द हो जाती हैं। भजन, बीजकपाठ और सतसंग को अब लछमी ही सँभालती है। महन्थ रामदास जी पढ़ना-लिखना नहीं जानते, सतगुरु-वचन की गम्भीरता की तह तक नहीं पहुँच सकते, लेकिन बँजड़ी पर तो उनका पूरा अधिकार है। यों तो बँजड़ी भंडारी भी बजाता है, लेकिन कोठारिन लछमी दासिन उसके ताल पर गड़बड़ा जाती है। तब महन्थ रामदास – जी भंडारी के हाथ से बँजड़ी ले लेते हैं। लछमी मुस्कराकर गाने लगती है…

सन्तो हो, करूँ बँहियाँ वल आपनी
छाइँ बिरानी आस !
सन्तो हो, जिंहिं अँगना नदिया बहै,
सो कस मरे पियास ! हो सन्तो, सो कस मरे पियास !

सो कस मरे पियास ? महन्थ रामदास के आँगन में नदी बह रही है और वह प्यास से मर रहे हैं।…सतगुरु बचन में कहा है-‘जस खर चन्दन लादे मारा, परमिल बास न जानु गमारा।’ परमिल वास महन्थ रामदास को नहीं लगती, सो बात नहीं। परमिल वास से उनका भी मन मत हो जाता है, लेकिन वह क्या करें ? एक दिन मुँह से निकल गया था, “लछमी ! जरा इधर आना तो।” बस, चार घंटे तक कोठारिन ने सतगुरु बचनामिरित की झड़ी लगा दी थी-“अन्तर जोति सबद इक नारी, हरि ब्रह्मा ताके त्रिपुरारी। ते तिरिए भंगलिंग अनन्ता, तेऊ न जाने आदि न अन्ता। महन्थसाहेब, आप अपने चित्त को मत विचलित कीजिए। यह आपके पूर्वजन्म का पुण्य है कि आपको महन्थी की गद्दी मिली है, नहीं तो आपके जैसे लोगों को भैंस चराने के सिवा और कोई काम भी नहीं मिल सकता। आप मेरे गुरुबेटा हैं, मैं आपकी गुरुमाई।”

एक-डेढ़ महीने में ही महन्थ रामदास जी का कलेवर बदल गया है। लछमी बड़े जतन से सेवा करती है। दूध, मक्खन और ताजे फलों के सेवन से महन्थ साहब के श्यामल मुखमंडल पर भी लाली दौड़ गई है। पेट जरा बाहर की ओर निकल रहा है, और तन का ताप भी कभी-कभी मन को बड़ा बेचैन कर देता है। लछमी सतगुरु वचनामृत बरसाकर शान्त करने की चेष्टा करती है। सतगुरु वचनामृत से भी बढ़कर तन के ताप को शीतल करती है कालीचरन की याद ! कालीचरन रोज मठ पर एक बार थोड़ी देर के लिए ही, जरूर आता है। कभी पार्टी के लिए चन्दा, आफिस-घर बनाने के लिए बाँस-खड़ माँगने आता है। लछमी कहती है-“कालीचरन असल नियायी आदमी है। गाँव के सभी बड़े लोग सिर्फ कहने को बड़े हैं। कालीबाबू का सुभाव जरा तिब्र है, लेकिन दुनिया के लोग अब इतने कुटिल हो गए हैं कि सीधे लोगों की यहाँ गुजर नहीं। फिर सुभाव में जरा कड़ापन तो सुपुरुख का लच्छन है…।”

महन्थ रामदास को पहले कालीचरन पर बड़ा सन्देह था। जब वह मठ पर आता तो महन्थसाहब छिपकर लछमी और काली की बातें सुनते थे, बाँस की टट्टी में छेद करके देखते थे। लेकिन कालीचरन हमेशा लछमी से चार हाथ दूर ही हटकर खड़ा रहता था। उसकी बोली में भी माया की मिलावट नहीं रहती थी। लछमी से बातें करते समय कभी उसकी पलकें शरमाकर झुकती नहीं थीं। बहुत कम लोगों को ऐसा देखा है रामदास ने। कालीचरन को बस अपनी सुशलिट पाटी से जरूरत है। लाल झंडा और सुशलिट पाटी को वह औरत की तरह प्यार करता है।…उस पर सन्देह करना बेकार है। लेकिन, बालदेव जी ? वह तो आजकल आते ही नहीं। उनकी नजर बड़ी मैली है।

लछमी बालदेव जी को भूली नहीं है। कहती है, साधू सुभाव के पुरुष हैं; किसी का चित्त दुखाना नहीं चाहते। बालदेव जी मठ पर नहीं आते हैं, कहते हैं, लछमी दासिन ने हिंसाबात करवाया है मठ पर, मठ पर नहीं जाएँगे।…बहुत सीधे हैं बालदेव जी। सच्चे साधू हैं। उनसे छिमा माँगना होगा।

महन्थ रामदास जी सोच-विचारकर देखते हैं, कालीचरन के डर से ही वह प्यासा है। कोई बात हुई कि लछमी उससे कह देगी; और उसके बाद ? चादरटीका के दिन कालीचरन और उसके गणों ने जो कांड किया था उसे भूलना मुश्किल है।…और उन्हीं की बदौलत तो रामदास महन्थ बना है।

माना कि कालीचरन के बल से उसे महन्थी मिली है। इसका यह अर्थ नहीं कि कालीचरन मठ के सभी मामले में दखल देगा। इंसाफन महन्थी की गद्दी पर तो उसका अधिकार था ही। यदि कल कालीचरन कहे कि गद्दी पर तुम्हारा हक नहीं तो क्या वह मान लेगा ?…महन्थ रामदास जी धीरे से उठते हैं। दबे पाँव लछमी की कोठरी के पास जाते हैं। किवाड़ी खुली है ? नहीं, बन्द है। महन्थसाहब बाहर से भी किवाड़ की छिटकनी खोलना जानते हैं। पतली-सी लकड़ी फँसाकर खोलते हैं।…लछमी अब किवाड़ में ओखल नहीं लगाती है।..लछमी सोई है। उसके कपड़े अस्त-व्यस्त हैं, बाल बिखरे हुए हैं। लालटेन की मद्धिम रोशनी में भी उसकी सूरत चमक रही है।…

“कौन ?”

“रामदास ?”

“………”

“रामदास ! हाथ छोड़ो। बैठो। आखिर तुम चित्त को नहीं सँभाल सके। माया ने तुम्हें भी अन्धा बना दिया।”

“माया से कोई परे नहीं। माया को कोई जीत नहीं सकता,” महन्थ साहब आज लछमी को हर बात का जवाब देंगे।

“तुम नरक की ओर पैर बढ़ा रहे हो। अब भी चेतो।”

“अब चेतने से फायदा नहीं। मुझे सरग नहीं चाहिए।…इस नरक में पहली बार नहीं आया हूँ।”

लछमी को बचपन की बातों की याद दिलाना चाहता है रामदास। लछमी हाथ छुड़ाकर बिछावन पर से उठना चाहती है, लेकिन महन्थ साहब ने दस मिनट पहले ही चौथी चिलम गाँजा फूंका है।

“मैं तुम्हारी गुरुमाई हूँ रामदास !”

“कैसी गुरुमाई ? तुम मठ की दासिन हो। महन्थ के मरने के बाद नए महन्थ की दासी बनकर तुम्हें रहना होगा। तू मेरी दासिन है।”

“चुप कुत्ता !” लछमी हाथ छुड़ाकर रामदास के मुँह पर जोर से थप्पड़ लगाती है। दोनों पाँवों को जरा मोड़कर, पूरी ताकत लगाकर रामदास की छाती पर मारती है। रामदास उलटकर गिर पड़ता है।…सतगुरु हो !

सन्तो अचरज भौ एक भारी
पुत्र धयल महतारी।
एके पुरुष एकहि नारी
ताके देखु बिचारी।

“भंडारी ! भंडारी !”

“सरकार !”

“पानी लाओ!”

लछमी थर-थर काँपती है। महन्थ सेवादास की दम तोड़ती हुई मूर्ति उसकी आँखों के सामने दिखाई पड़ रही है। नहीं, मरा नहीं। भंडारी कहता है, “महन्थ साहब को फिर मिरगी की बीमारी शुरू हुई ? कल रामपुर मठ से जो साधू आया है, मिरगी की दवा जानता है। कल ही दिलवा दीजिए।”

सतगुरु हो !

महन्थ साहब को बुखार है, छाती में दर्द है ! डाक्टर साहब ने मालिश का तेल भेजा है। लछमी महन्थ साहब की छाती पर तेल-मालिश कर रही है। महन्थ साहब कराह रहे हैं, “सतगुरु हो ! अब नहीं बचेंगे। हमको कासी जी भेज दो कोठारिन ! हम अपने पाप का प्राच्छित करेंगे।…हमको जाने से ही क्यों न मार दिया ?…हाय रे ? सतगुरु हो !”

“जाय हिन्द कोठारिन जी!”

“जै हिन्द ! आइए बालदेव जी ! बहुत दिन बाद ?”

“रामदा…महन्थ साहब को क्या हुआ है ?”

“बुखार है, छाती में दर्द है।”

“दर्द है ? पुरानी गाये के घी की मालिस कीजिए।”

पुरानी गाये का घी अर्थात् गाय का पुराना, सड़ा घी। सुनते ही लछमी को मिचली आने लगती है। महन्थ सेवादास को भी जब दमे का दौरा होता था तो गाय का घी ही मालिश करवाते थे।

“कोठारिन जी ! सिवनाथबाबू आ रहे हैं। यहाँ एक चरखा-संटर खुलना चाहिए। कुछ मदत दिया जाए।”

“चरखा-संटर ! इसमें क्या होगा ?”

“चरखा-संटर में ? यही चरखा, करघा, धुनकी और बिनाई की टरेनि होगी।”

“गाँव में तो रोज नया-नया संटर खुल रहा है-मलरिया-संटर, काली-टोपी संटर, लाल झंडा संटर, और अब यह चरखा संटर !”

“हाँ, नए जमाने में तो रोज नई-नई बात होगी। सुनते हैं आपने सोशलिट पाटी को काफी मदत दी है।…लेकिन कोठारिन जी ! गन्ही महतमा का रस्ता ही सबसे पुराना और सही रस्ता है। नई-नई पाटी खुल रही है, मगर किसी का रस्ता ठीक नहीं। सब हिंसाबाद के रस्ते पर हैं।”

“सतगुरु हो ! सतगुरु हो ! कोठारिन, इसको जो चन्ना देना है, देकर बिदा करो। सतगुरु हो !” महन्थ साहब दर्द से छटपटाते हैं।…बालदेव जी की नजर बड़ी मैली है।”

दस रुपए का एक नोट निकालकर देते हुए लछमी कहती है, “आजकल तो हाथ एकदम खाली है। आप तो आजकल इधर का रास्ता ही भूल गए हैं। हमसे जो अपराध हुआ है, छिमा कीजिए।”

“नहीं कोठारिन जी, आजकल छुट्टी ही नहीं मिलती है कभी। कपड़े की पुर्जी बाँटने का काम क्या मिला है, एक आफत में जान फँस गई है। काँगरेस का भी कोई काम नहीं कर सकता हूँ। उधर दूसरी पाटीवालों को मौका मिल गया है। कालीचरन दिन-रात खटता है। हमारे काँगरेस के मिम्बरों को भी सोशिलट पाटी का मिम्बर बना लिया है। इसलिए सिवनाथबाबू को बुला रहे हैं। चटखा-संटर खुलेगा। एक पुराना काजकर्ता बावनदास भी आ रहा है। पुराना तो नहीं है, मेरे ही साथ सुराजी में नाम लिखाया था।…बावनदास बौना है, सिरफ डेढ़ हाथ ऊँचा। वैष्णव है। आएगा तो यहाँ ले आएँगे। जाय हिन्द !”

“जै हिन्द”

बालदेव जी को फिर लछमी की देह की सुगन्ध लगी। कितनी मनोहर !

लछमी देखती है, बालदेव जी आजकल बहुत दुबले हो गए हैं। बालदेव जी के दिल में जरा भी मैल नहीं। कितने सरल हैं !…न जाने क्यों, लछमी का जी आज बालदेव जी को देखकर इतना चंचल हो रहा है। बालदेव जी सच्चे साधू हैं।

बिरह की ओदी लाकड़ी
सपुचै और धुधुआए।
दुख से तबहिं बाचिहौं
जब सकलौ जरि जाए !

तेईस

गाँव के लोग अर्थशास्त्र का साधारण सिद्धान्त भी नहीं जानते। ‘सप्लाई’ और ‘डिमांड’ के गोरख-धन्धे में वे अपना दिमाग नहीं खपाते। अनाज का दर बढ़ रहा है; खुशी की बात है। पाट का दर बढ़ रहा है, बढ़ता जा रहा है, और भी खुशी की बात है। पन्द्रह रुपए में साड़ी मिलती है तो बारह रुपए मन धान भी तो है। हल का फाल पाँच रुपए में मिलता है, दस रुपए में कड़ाही मिलती है तो क्या हुआ ? पाट का भाव भी तो बीस रुपए मन है। खुशी की बात है।

अनाज के ऊँचे दर से गाँव के तीन ही व्यक्तियों ने फायदा उठाया है-तहसीलदार साहब ने, सिंघ जी ने और खेलावनसिंह यादव ने। छोटे-छोटे किसानों की जमीनें कौड़ी के मोल बिक रही हैं। मजदूरों को सवा रुपए रोज मजदूरी मिलती है, लेकिन एक आदमी का भी पेट नहीं भरता। पाँच साल पहले सिर्फ पाँच आने रोज मजदूरी मिलती थी और उसी में घर-भर के लोग खाते थे।

तहसीलदार साहब ने धान तैयार होते ही न जाने कहाँ छिपा दिया है। दरवाजे पर दर्जनों बखार हैं, लेकिन इस साल सब खाली। चमगादड़ों के अड्डे हैं।…सरकार शायद धान-जप्ती का कानून बना रही है।

कपड़े के बिना सारे गाँव के लोग अर्धनग्न हैं। मर्दो ने पैंट पहनना शुरू कर दिया है और औरतें आँगन में काम करते समय एक कपड़ा कमर में लपेटकर काम चला लेती हैं; बारह वर्ष तक के बच्चे नंगे ही रहते हैं।

शिवनाथ चौधरी सभा में खादी के अर्थशास्त्र पर प्रकाश डाल रहे हैं। आँकड़े देकर साबित कर रहे हैं कि यदि घर का एक-एक व्यक्ति चरखा चलाने लगे तो गाँव से गरीबी दूर हो जाएगी; अन्न-वस्त्र की कमी नहीं रहेगी।

चरखा सेंटर खुल गया है। अब गाँव में गरीबी नहीं रहेगी। पटना से दो मास्टर आए हैं-चरखा मास्टर और करघा मास्टर। एक मास्टरनी भी आई हैं-औरतों को चरखा सिखाने के लिए। औरतों से कहती हैं, “चरखा हमार भतार-पूत, चरखा हमार नाती; चरखा के बदौलत मोरा दुआर झूले हाथी।”

चरखा की बदौलत हाथी ? जै…गाँधी जी की जै !

सैनिक जी और चिनगारी जी की तरह गरम भाखन शिवनाथ चौधरी जी नहीं देते हैं, लेकिन बात पक्की कहते हैं। एकदम हिसाब से सब बात कहते हैं। खूब ज्ञान की बात कहते हैं। कल का पिसा हुआ आटा नहीं खाते हैं। चीनी नहीं, गुड़ खाते हैं। त्यागी आदमी हैं। चौधरी जी के साथ में दरभंगा जिले में तमोडिया टीशन से रमलगीना बाबू आए हैं। सुनते हैं, पानी से ही बीमारी का इलाज करते हैं। आग में पकाई हुई चीज नहीं खाते हैं। साग की हरी पत्तियाँ चबाकर खाते हैं। कहते हैं, इसमें बहुत ताकत है। वह भी असल त्यागी हैं। देह में सिर्फ हड्डियाँ बाकी बच गई हैं, मांस का लेश भी नहीं। दिन-भर में करीब पन्द्रह बार हाथ में लोटा लेकर मैदान की ओर जाते हैं।

सादा कागजवाला एक फाहरम (परचा) बाँट हुआ है। फाहरम पर महतमा जी की छापी (तस्वीर) है और नीचे लिखा है…

बापू कहते हैं :

जो पहने सो काते,
जो काते सो पहने।

सोशलिट पाटीवालों ने भी फाहरम बाँट किया था। लेकिन वह लाल रंग का था और उसमें एक दोहा ज्यादा था…

जो जोतेगा सो बोएगा।
जो बोएगा सो काटेगा।
जो काटेगा वह बाँटेगा।

बालदेव जी की जगह पर बौनदास आया है। यही पुरैनियाँ सभा में रजिन्नरबाबू के सामने भाखन देता था। बालदेव जी को पुर्जी बाँटने से छुट्टी नहीं मिलती है, इसीलिए पबलि का काम करने के लिए बौनदास को यहाँ भेजा गया है। बड़ा बहादुर है बौनदास ! कहते हैं, जब 42 के मोमेंट में लोग कचहरी पर झंडा फहराने जा रहे थे तो मलेटरी ने घेर लिया था। बौनदास एक मलेटरी के फैले हुए पैर के बीच से उस पार चला गया और कचहरी के हाता में झंडा फहरा दिया…रमैन में हलुमान जी ने सुरसा को मसक रूप धरकर जिस तरह छकाया था, उसी तरह।

“इस आर्यावर्त में केवल आर्य अर्थात् शुद्ध हिन्दू ही रह सकते हैं,” काली टोपीवाले संयोजक जी बौद्धिक क्लास में रोज कहते हैं, “यवनों ने हमारे आर्यवर्त की संस्कृति, धर्म, कला-कौशल को नष्ट कर दिया है। अभी हिन्दू सन्तान म्लेच्छ संस्कृति की पुजारी हो गई है। शिव जी, महाराणा प्रताप…।”

बौद्धिक क्लास ! सोशलिस्ट पार्टी का बासुदेव कहता है…बुद्ध किलास। बासुदेव ही नहीं, काली टोपीवाले बहुत से जवान भी बुद्धू किलास ही कहते हैं।

लाठी, भाला और तलवार हाथ में लेते ही खून गरम हो जाता है राजपूत नौजवानों का। उस दिन हरगौरी कह रहा था-संयोजक जी ! यवनों पर मुझे क्रोध नहीं होता। यवनों का पक्ष लेनेवाले हिन्दुओं की तो गरदन उड़ा देने को जी करता है।” संयोजक जी जरा दूर हट गए थे, नहीं तो हरगौरी ने इस तरह तलवार चलाई थी कि संयोजक जी की गरदन ही धड़ से अलग हो जाती।…आरजाब्रत !…मेरीगंज का ही नाम अब शायद ‘आरजाब्रत’ हो गया है ! लेकिन इस गाँव में तो एक भी मुसलमान नहीं !…

गाँव-भर के हलवाहों, चरवाहों और मजदूरों का नेता कालीचरन है। छोटा नेता बासुदेव सबों को समझाता है, “भाई, आदमी को एक ही रंग में रहना चाहिए। यह तीन रंग का झंडा…थोड़ा सादा, थोड़ा लाल और पीला…यह तो खिचड़ी पाटी का झंडा है। कांग्रेस तो खिचड़ी पाटी है। इसमें जमींदार हैं, सेठ लोग हैं और पासंग मारने के लिए थोड़ा किसान-मजदूरों को भी मेम्बर बना लिया जाता है। गरीबों को एक ही रंग के झंडेवाली पार्टी में रहना चाहिए।”

तहसीलदार साहब भी कांग्रेसी हो गए हैं।

उन्होंने चरखा-सेंटर के लिए अपना गुहाल-घर दे दिया है; खद्दर पहनने लगे हैं। बोलते थे, सारी जिन्दगी तो झूठ-बेईमानी करते ही गुजर गई। आखिरी उम्र में पुण्य भी करना चाहिए। …तहसीलदार साहब चवन्निया मेम्बर नहीं बने हैं। चवन्निया मेम्बर तो सभी बनते हैं। तहसीलदार साहब चार-सौ-टकिया मेम्बर बने हैं। देखा नहीं ? शिवनाथबाबू ने रसीद काटकर दिया और तहसीलदार साहब ने तुरन्त मंधाता (तम्बाकू की एक किस्म) तम्बाकू के पत्तों के बराबर चार नम्बरी नोट निकालकर दे दिया। खड़-खड़ करता था नोट !…अब सोशलिस्ट पाटी का चलना मुश्किल है। पाटी में एक भी धनी आदमी नहीं है। मठ की कोठारिन कब तक पाटी चलाएगी।

दफा 40 की लोटिस आई है।

जिला कांग्रेस के मन्त्री जी ने लोटिस भेज दिया है। सोशलिस्ट पार्टी तो जोर-जबर्दस्ती जमीन पर कब्जा करने को कहती है। कांग्रेस के मन्त्री जी ने दफा 40 कानून पास करके नोटिस भेज दिया है। बालदेव जी हाट में लोटिस बाँट रहे हैं;…दफा 40 कानून पास हो गया। अधिया, बटैयादारी करनेवाले किसान अपनी जमीन नकदी करा लें, बहती गंगा में हाथ धो लें। नया कानून पास हो गया। हिंसाबाद करने की जरूरत नहीं। पुरैनियाँ कचहरी में दफा 40 का हाकिम आ गया है। दरखास दे दो, बस, जमीन नकदी हो जाएगी।

वाजिब बात कहते हैं बालदेव जी। यदि बिना तूलफजूल किए ही जमीन नकदी हो रही है तो सोशलिट पाटी में जाने की क्या जरूरत है ? कांग्रेस का राज है, जिस चीज की जरूरत हो, कांग्रेस के मन्त्री जी से कहो। कानून बना देंगे। तब, एक बात है। इस तरह छिटपुट होकर कहने से कांग्रेस के मन्त्री भी कुछ नहीं कर सकते हैं। सबों को एक जगह मिलना चाहिए, मिलकर एक ही बात बोलनी चाहिए। दस मिलकर करो काज, हारो-जीतो क्या है लाज !…गलती तो पबलि की ही है, कोई कांग्रेस में तो कोई सुशलिट में तो कोई काली टोपी में, इस तरह तितिर-बितिर रहने से पबलि की कोई भलाई नहीं हो सकती। बालदेव जी ठीक कहते हैं !

“फॉट्टी बी.टी. ऐक्ट ?” सोशलिस्ट पार्टी के जिला मन्त्री जी कॉमरेड कालीचरन को समझाते हैं, “फौट्टी बी.टी. ऐक्ट तो कोई नया कानून नहीं। यह तो पुराना कानून है। कांग्रेस के मन्त्री ने परचे बँटवाए हैं ? ठीक है। आप भी गाँव के किसानों से कहिए कि जितने बड़े किसान हैं, सबों की जमीन पर धावा कर दें। कोई किसी के खिलाफ गवाही नहीं दे। कानून से क्या होता है ? असल चीज है, साबित करना। सबूत पक्का होना चाहिए। गवाहों के इजहार में भी जरा डेढ़-बेढ़ नहीं हो। यह तो तभी हो सकता है जब सभी गरीब एक झंडे के नीचे एक पार्टी में, एक सूत्र में बंध जाएँ। तहसीलदार साहब कांग्रेसी हो गए हैं। बस, उन्हीं की जमीन पर किसानों द्वारा दावा करवा दीजिए। रंग खुल जाएगा। तब देखिएगा कि कांग्रेस के मन्त्री जी की नोटिस-बाजी की क्या कीमत है !…’लाल-पताका’ के इस अंक में चिनगारी जी का इस सम्बन्ध में एक विशेष आर्टिकल है, ज्यादे कौपी ले जाइए इस बार।”

“…दफा 40, आधी और बटैयादारी करनेवालों की जमीन पर सर्वाधिकार दिलाने का कानून है। लेकिन कानून में छोटा-सा छेद भी रहे तो उससे हाथी निकल जा सकता है।…जितने दफा 40 के हाकिम नियुक्त हुए हैं, सभी या तो जमींदार अथवा बड़े-बड़े किसानों के बेटे हैं। उनसे गरीबों की भलाई की आशा बेकार है। लेकिन, एकता की शक्ति कानून से भी बढ़कर है। सोशलिस्ट पार्टी के लाल झंडे के नीचे होकर हम प्रतिज्ञा करें कि जमींदारों और बड़े किसानों के पक्ष में गाँव का एक बच्चा भी गवाही नहीं देगा। ‘लाल पताका’ आधीदारों को विश्वास दिलाता है…।”

कहना वाजिब है!

“बात वाजिब नहीं, यह बात का बतंगड़ है !”

जोतखी जी सभी बात में मीन-मेख निकालते हैं, “दो भैंस की लड़ाई में दूव के सिर आफत। कांग्रेस और सुशलिंग अपने में लड़ रहा है। दोनों अपना-अपना मेम्बर बनाना चाहता है। चक्की के दो पाट में गरीब लोग ही पीसे जाएँगे।”

“गरीब पीसे नहीं जाएँगे, गरीबों की भलाई होगी। एक पाटी रहने से काम नहीं होता है। जब दो दलों में मुकाबला और हिडिस (प्रतियोगिता) होता है तो फायदा पबलि का ही होता है। उस बार रौतहट मेला में बिदेसिया नाचवाला आया था। मन लगाकर न तो नाच करता था और न गाना ही अच्छी तरह गाता था। तीसरे दिन बलवाही नाच (बाउल सुर में गीत गाकर नाचनेवाला दल) का भी एक दल आ गया। दोनों में मुकाबला हो गया। साम ही से दोनों ने नाच शुरू किया; कितना गजल, कौवाली, खेमटा और दादरा गाया, इसका ठिकाना नहीं। सूरज उगने तक दोनों दलवाले नाचते ही रहे। तब मेला मनेजर बाबू ने दोनों दलों के लोगों को समझा-बुझाकर नाच बन्द करवाया था।”

चलित्तर कर्मकार आया है।

किरांती चलित्तर कर्मकार ! जाति का कमार है, घर सेमापुर में है। मोमेंट के समय गोरा मलेटरी इसके नाम को सुनते ही पेसाब करने लगता था। बम-पिस्तौल और बन्दूक . चलाने में मसहूर ! मोमेंट के समय जितने सरकारी गवाह बने थे, सबों के नाक-कान काट लिए थे चलित्तर ने। बहादुर है। कभी पकड़ाया नहीं। कितने सीआईडी को जान से खतम किया। धरमपुर के बड़े-बड़े लोग इसके नाम से थर-थर काँपते थे। ज्यों ही चलित्तर का घोड़ा दरवाजे पर पहुँचा कि ‘सीसी सटक’ । दीजिए चन्दा।…पचास ! नहीं, पाँच सौ से कम एक पैसा नहीं लेंगे। नहीं है ? चाबी लाइए तिजोरी की। नहीं ?…ठाएँ। ठाएँ !…दस खूनी केस उसके ऊपर था, लेकिन कभी पकड़ा नहीं गया। आखिर हारकर सरकार ने मुकदमा उठा लिया ! किरांती चलित्तर कर्मकार कालीचरन के यहाँ आया है ? बस, तब क्या है ? करैला चढ़ा नीम पर। चलित्तर भी सोशलिट पाटी में है ? तब तो जरूर बम-पेस्तौल की टरेनि ही देने आया है। बम-पेस्तौल के सामने काली टोपीवालों की लाठी क्या करेगी ? हाथी के आगे पिद्दी !

चरखा-कर्घा, लाठी-भाला और बम-पेस्तौल ! तीन टरेनि ! :

चौबीस

हाँ रे, अब ना जीयब रे सैयाँ
छतिया पर लोटल केश,
अब ना जीयब रे सैयाँ !

महँगी पड़े या अकाल हो, पर्व-त्योहार तो मनाना ही होगा। और होली ? फागुन महीने की हवा ही बावरी होती है। आसिन-कातिक के मैलेरिया और कालाआजार से टूटे हुए शरीर में फागुन की हवा संजीवनी फूंक देती है। रोने-कराहने के लिए बाकी ग्यारह महीने तो हैं ही, फागुन-भर तो हँस लो, गा लो। जो जीयै सो खेलै फाग। दूसरे पर्व-त्योहार को तो टाल भी दिया जा सकता है। दीवाली में एक-दो दीप जला दिए, बस – छुट्टी। लेकिन होली तो मुर्दा दिलों को भी गुदगुदी लगाकर जिलाती है। बौरे हुए आम ‘के बाग से हवा आकर बच्चे-बूढ़ों को मतवाला बना जाती है।…चावल का आटा, गुड़ और तेल ! पूआ-पकवान के इस छोटे-से आयोजन के लिए मालिकों के दरवाजे पर पाँच दिन पहले से ही भीड़ लग जाती है। बखार के मुँह खोल दिये जाते हैं। मालिक बही-खाता लेकर बैठ जाते हैं, पास में कजरौटी खुली हुई रहती है। धान नापनेवाला धान की ढेरी से धान नापता जाता है।…बादरदास को एक मन !…सोनाय ततमा को तीन पसेरी।…सादा कागज पर अंगूठे का निशान देते जाओ। भादों महीने में यदि भदै धान चुका दोगे तो ड्योढ़ा, यानी एक मन का डेढ़ मन। यदि अगहनी फसल में चुकाओगे तो डेढ़ मन का तीन मन। सीधा हिसाब है।

गाँव के सभी बड़े-बड़े किसानों का अपना-अपना मजदूर टोला है-सिंघ जी का ततमाटोला और पासवानटोला; तहसीलदार साहब का पोलियाटोला, धानुकटोला, कुर्मीटोला और कियोटटोला; खेलावन यादव का गुआरटोला और कोयरीटोला। संथालटोली पर किसी का खास अधिकार नहीं।

इस बार तहसीलदार साहब को छोड़कर किसी ने मजदूरों को धान नहीं दिया।…अँगूठे का निशान नहीं देंगे और धान लेंगे ? बाप-दादे के अमल से अंगूठे का निशान देते आ रहे हैं, कभी बेईमानी नहीं हुई। इस साल बेईमानी कर लेंगे ? कालीचरन ने टीप देने को मना किया है तो कालीचरन से ही धान लो।

तहसीलदार को नए टीप की जरूरत नहीं। पुराने टीप ही इतने हैं कि कोई इधर-उधर नहीं कर सकता। दूसरे किसानों के मजदूरों को भी तहसीलदार साहब ने इस बार धान दिया है, लेकिन कालीचरन को जमानतदार रखकर। धान वसूलवा देना कालीचरन का काम होगा। अरे, ड्योढ़ नहीं तो सवैया ही सही।…जो भी हो, तहसीलदार के दिल में दया-धर्म है। बाकी मालिक लोग तो पिशाच हैं, पिशाच !

एक ओर लौटस बारी रे बिहउबा !

फागुआ का हर एक गीत देह में सिहरन पैदा करता है। फुलिया का चुमौना खलासी जी से हो गया है। खलासी जी बिदाई कराने के लिए आए थे। लेकिन फुलिया इस होली में जाने को तैयार नहीं हुई ! खलासी जी बहुत बिगड़े; धरना देकर चार दिन तक बैठे रहे। आखिर में रूठकर जाने लगे। फुलिया ने रमजू की स्त्री के आँगन में खलासी जी से भेंट करके कहा था-“इस साल होली नैहर में ही मनाने दो। अगले साल तो…।”

नयना मिलानी करी ले रे सैयाँ, नयना मिलानी करी ले।
अबकी बेर हम नैहर रहबौ, जे दिल चाहय से करी ले !

दोपहर से शाम तक रमजूदास की स्त्री के आँगन में रहकर फुलिया ने खलासी जी को मना लिया है। होली के लिए खलासी जी ने एक रुपया दिया है।…बेचारा सहदेव मिसिर इस बार किससे होली खेलेगा ? पिछले साल की बात याद आते ही फुलिया की देह सिहरने लगती है। “भाँग पीकर धुत्त था सहदेव मिसर। एक ही पुआ को बारी-बारी से दाँत से काटकर दोनों ने खाया था।…अरे, जात-धरम ! फुलिया तू हमारी रानी है, तू हमारी जाति, तू ही धरम, सबकुछ।”…बाबू को दारू पीने के लिए डेढ़ रुपया दिया था और माँ को अठन्नी।…रात-भर सहदेव मिसर जगा रह गया था।…फुलिया की देह के पोर-पोर में मीठा दर्द फैल रहा है। जोड़-जोड़ में दर्द मालूम होता है। कई बाँहों में जकड़कर मरोड़े कि जोड़ की हड्डियाँ पटपटाकर चटख उठे और दर्द दूर हो जाए।…सहदेव मिसर को खबर भेज दें !…लेकिन गाँववाले ?…ऊँह, होली में सब माफ है।…वह आवेगा ? नाराज जो है।

अरे बँहियाँ पकड़ि झकझोरे श्याम रे
फूटल रेसम जोड़ी चूड़ी
मसकि गई चोली, भींगावल साड़ी
आँचल उड़ि जाए हो
ऐसो होरी मचायो श्याम रे…!

कमली की आँखें लाल हो रही हैं। पिछले साल होली के ही दिन वह बेहोश हुई थी। इस बार क्या होगा ? वह बेहोश नहीं होगी इस बार। इस बार डाक्टर है; उसे बेहोश नहीं होने देगा।…लेकिन सुबह से ही डाक्टर बाहर है। रोगी देखने गया है रामपुर। यदि वह आज नहीं आया तो ?…नहीं, वह जरूर आएगा। माँ ने एक सप्ताह पहले ही निमन्त्रण दे दिया है। रंग, अबीर,…गुलाब ! पिचकारी !

“माँ !”

“क्या है बेटी ?”

“तुम्हारा डाक्टर आज नहीं आवेगा ?”

“क्यों, क्या बात है बेटी ?”

“मेरा जी अच्छा नहीं।”

“ऐसा मत कहो बेटी, दिल को मजबूत करो। कुछ नहीं होगा।”

…आजु ब्रज में चहुदिश उड़त गुलाल !

चारों ओर गुलाल उड़ रहा है। डाक्टर को कोई रंग नहीं देता है। रामपुर में भी किसी ने रंग नहीं दिया। रास्ते में एक जगह कुछ लड़के पिचकारी लेकर खड़े थे, लेकिन डाक्टर को देखते ही सहम गए।…रंग नहीं, गोबर है। रंग के लिए इतने पैसे कहाँ ! डाक्टर को लोग रंग नहीं देते। वह सरकारी आदमी है, सरकारी उर्दी पहन हुए है। सरकारी उर्दी को रंग देने से जेल की सजा होती है। डाक्टर सरकारी आदमी है, बाहरी आदमी है। वह गाँव के समाज का नहीं।…यह डाक्टर की ही गलती है। शुरू से ही वह गाँव से, गाँववालों से अलग-अलग रहा है। उसका नाता सिर्फ रोग और रोगी से रहा। उसने गाँव की जिन्दगी में कभी घुलने-मिलने की चेष्टा नहीं की। लेकिन डाक्टर को अब गाँव की जिन्दगी अच्छी लगने लगी है, गाँव अच्छा लगने लगा है और गाँव के लोग अच्छे लगते हैं। वह गाँव को प्यार करता है। उसे कोई रंग क्यों नहीं देता ? वह रंग में, गोबर में, कीचड़ में सराबोर होना चाहता है !.

“अर र र र ! कोई बुरा न माने, होली है !”

डाक्टर के सफ़ेद कुर्ते पर लाल-गुलाबी रंगों की छीटें छरछराकर पड़ती हैं।

“ओ कालीचरन !”

“बुरा मत मानिए डाक्टर साहब, होली है।”

डाक्टर मनीबेग से दस रुपए का नोट निकालकर कालीचरन को देता है-होली का चन्दा ! रंग और अबीर का चन्दा !

होली है ! होली है ! होली है !

गनेश हाथ में पिचकारी लिए मौसी का आँचल पकड़कर खड़ा है। मौसी हँसकर कहती है, “सुबह से ही रंग खेलने के लिए जिद्द कर रहा है। मेरी एक साड़ी को तो रंग से सराबोर कर दिया है। अब जिद्द पकड़ा है कि गाँव के लड़कों के साथ खेलेंगे।”

“आओ भैया गनेश !” कालीचरन गनेश का हाथ पकड़कर ले चलता है। गनेश खुश होकर डाक्टर पर रंग की पिचकारी से फुहारें बरसाता हुआ कालीचरन के साथ भाग जाता है। मौसी खुश है।

“जुगजुग जियो काली बेटा !”

“बड़ा मस्त नौजवान है।” डाक्टर कहता है।

“कमली पाँच बार पुछवा चुकी है-डाक्टर साहब लौटे हैं या नहीं। मुझे धमकी दे गई है-आज डाक्टर को तुम नहीं खिला सकतीं। आज मेरे यहाँ निमन्त्रण है।”

ढोल-ढाक, झाँझ-मृदंग और डम्फ !
होली, फगुआ, भड़ौवा और जोगीड़ा।

कालीचरन का दल बहुत बड़ा है। दो ढोल, एक ढाक है, झाँझ-डम्फ। सभी अच्छे गानेवाले भी उसी के दल में हैं। सुन्दरलाल, सुखीलाल, देवीदयाल और जोगीड़ा कहनेवाला महन्था। मिडिल में पढ़ता है; पढ़ने में बड़ा तेज ! दोहा-कवित्त जोड़ने में उसको चाँदी की चकत्ती मिली है। गाँव के छोटे-छोटे दल भी कालीचरन के दल में मिल गए हैं।

जोगीड़ा सर…र र……
जोगीड़ा सर- र…
जोगी जी ताल न टूटे
तीन ताल पर ढोलक बाजे।
ताक धिना धिन, धिन्नक तिन्नक
जोगी जी!
होली है ! कोई बुरा न माने होली है !
बरसा में गड्ढे जब जाते हैं भर
बेंग हजारों उसमें करते हैं टर्र
वैसे ही राज आज कांग्रेस का है
लीडर बने हैं सभी कल के गीदड़…
जोगी जी सर…र र…!
जोगी जी, ताल न टूटे
जोगी जी, तीन-ताल पर ढोलक बाजे
जोगी जी, ताक धिना धिन !
चर्खा कातो, खध्धड़ पहनो, रहे हाथ में झोली
दिन दहाड़े करो डकैती बोल सुराजी बोली…
जोगी जी सर…र र…!

सिर्फ जोगीड़ा ही नहीं। महन्था ने नया फगुआ गीत भी जोड़ा है। बटगमनी फगुआ-राह में चलते हुए गाने के लिए।

आई रे होरिया आई फिर से!
आई रे!
गावत गाँधी राग मनोहर
चरखा चलावे बाबू राजेन्दर
गुंजल भारत अमहाई रे ! होरिया आई फिर से !
वीर जमाहिर शान हमारो,
बल्लभ है अभिमान हमारो,
जयप्रकाश जैसो भाई रे ! होरिया आई फिर से !
होली है ! होली है ! होली !

कोयरीटोले का बूढ़ा कलरू महतो कहता है, “अरे डागडर साहेब ! अब क्या लोग होली खेलेंगे ! होली का जमाना चला गया। एक जमाना था जबकि गाँव के सभी बूढ़ों को नंगा करके नचाया जाता था, एकदम नंगा। उस बार राज के मनेजर जनसैन साहब के साथ तीन-चार साहेब आए थे। काला बक्सा में आँख लगाकर छापी लेते थे। बाद में खानसामाँ से मालूम हुआ कि बिलैत के गजट में छापी हुआ था। एकदम नंगा!”

कामरेड वासुदेव ‘भँडौवा’ गाने के लिए कह रहे हैं, “अब एक नया भँडौवा हो। एकदम नया ताजा माल ! जर्मनवाला !”

ढाक ढिन्ना, ताक ढिन्ना।

अरे हो बुड़बक बभना, अरे हो बुड़बक बभना,
चुम्मा लेवे में जात नहीं रे जाए।
सुपति-मउनियाँ लाए डोमनियाँ, माँगे पिपास से पनियाँ
कुआँ के पानी न पाए बेचारी, दौड़ल कमला के किनरियाँ,
सोही डोमनियाँ जब बनली नटिनियाँ, आँखी के मारे पिपनियाँ
तेकरे खातिर दौड़ले बौड़हवा, छोड़के घर में बभनिया।
जोलहा धुनिया तेली तेलनियाँ के पीये न छुअल पनियाँ
नटिनी के जोबना के गंगा-जमुनुवाँ में डुबकी लगाके नहनियाँ।
दिन भर पूजा पर आसन लगाके पोथी-पुरान बँचनियाँ
रात के ततमाटोली के गलियन में जोतखी जी पतरा गननियाँ।
भकुआ बभना, चुम्मा लेवे में जात नहीं रे जाए!
कोई बुरा न माने होली है ! होली है !

तहसीलदार साहब की ड्योढ़ी पर पैर रखते ही डाक्टर के मुँह पर गुलाल मल दिया गया। डाक्टर की आँखें बन्द हैं, लेकिन स्पर्श में ही वह समझ गया है कि गुलाल किसने मला है। कमली !…वसन्तोत्सव की कमली ! डाक्टर याद करने की चेष्टा करता है, एक बार किसी चित्रकार का ‘मैथिली’ शीर्षक चित्र किसी मासिक पत्रिका में देखा था !… कौन था वह चित्रकार !

“डाक्टर बेचारे के पास न अबीर है और न रंग की पिचकारी। यह एकतरफा होली कैसी !…लीजिए डाक्टरबाबू, अबीर लीजिए। और इस बाल्टी में रंग है।” माँ बेहद खुश है आज। पिछले साल होली के दिन इसी आँगन में मातम हो रहा था और इस साल उसकी बेटी चहकती फिर रही है।…दुहाई बाबा भोलानाथ !

बेचारा डाक्टर रंग भी नहीं देना जानता; हाथ में अबीर लेकर खड़ा है। मुँह देख रहा है, कहाँ लगावे !

“जरा अपना हाथ बढ़ाइए तो।”

“क्यों ?”

“हाथ पर गुलाल लगा दूँ ?”

“आप होली खेल रहे हैं या इंजेक्शन दे रहे हैं। चुटकी में अबीर लेकर ऐसे खड़े हैं मानो किसी की माँग में सिन्दूर देना है !” कमली खिलखिलाकर हँसती है। रंगीन हँसी!

डाक्टर अब पहले की तरह कमली की बोली को एक बीमार की बोली समझकर नहीं टाल सकता है। कमरे में लालटेन की हलकी रोशनी फैली हुई है; सामने कमली खड़ी हँस रही है। ऐसी हँसी डाक्टर ने कभी नहीं देखी थी। वह स्वस्थ हँसी हैविकारशून्य ! कमली का अंग-अंग मानो फड़क रहा है। डाक्टर अपने दिल की धड़कन को साफ-साफ सुन रहा है। उसके ललाट पर आज भी पसीने की बूंदें चमक रही हैं। सामने दीवार पर एक बड़ा आईना है। डाक्टर उसमें अपनी सूरत देखता है…ललाट पर पसीने की बूँदें मानो दूल्हे के ललाट पर चन्दन की छोटी-छोटी बिन्दियाँ सजाई गई हैं !…डाक्टर को भवभूति के माधव-मालती की याद आती है। होली को पहले मदनमहोत्सव कहा जाता था। आम की मंजरियों से मदन की पूजा की जाती थी। इसी मदनोत्सव के दिन माधव और मालती की आँखें चार हुई थीं और दोनों प्रेम की डोरी में बँध गए थे। जहाँ राधेश्याम खेले होरी !

डाक्टर अबीर की पूरी झोली कमली पर उलट देता है। सिर पर लाल अबीर बिखर गया-मुँह पर, गालों पर और नाक पर।…कहते हैं, सिन्दूर लगाते समय जिस लड़की के नाक पर सिन्दूर झड़कर गिरता है, वह अपने पति की बड़ी दुलारी होती है।…

ऐसी मचायो होरी हो,
कनक भवन में श्याम मचायो होरी !

लेखक

  • हिंदी-साहित्य में आंचलिक उपन्यासकार के रूप में प्रतिष्ठित कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु का जन्म 4 मार्च, 1921 को बिहार के पूर्णिया जिले (अब अररिया) के औराही हिंगना में हुआ था। इन्होंने 1942 ई० के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में बढ़-चढ़कर भाग लिया और सन 1950 में नेपाली जनता को राजशाही दमन से मुक्ति दिलाने के लिए भरपूर योगदान दिया। इनकी साहित्य-साधना व राष्ट्रीय भावना को मद्देनजर रखते हुए भारत सरकार ने इन्हें पदमश्री से अलंकृत किया। 11 अप्रैल, 1977 को पटना में इनका देहावसान हो गया। रचनाएँ-हिंदी कथा-साहित्य में रेणु का प्रमुख स्थान है। इनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं- उपन्यास-मैला आँचल, परती परिकथा, दीर्घतपा, कितने चौराहे । कहानी-संग्रह-ठुमरी, अगिनखोर, आदिम रात्रि की महक, एक श्रावणी दोपहरी की धूप। संस्मरण-ऋणजल धनजल, वनतुलसी की गंध, श्रुत-अश्रुत पूर्व। रिपोतज-नेपाली क्रांति कथा। इनकी तमाम रचनाएँ पाँच खंडों में ‘रेणु रचनावली’ के नाम से प्रकाशित हैं। साहित्यिक विशेषताएँ-हिंदी साहित्य में फणीश्वरनाथ रेणु आंचलिक साहित्यकार के रूप में प्रसिद्ध रहे हैं। इन्होंने विभिन्न राजनैतिक व सामाजिक आंदोलनों में भी सक्रिय भागीदारी की। इनकी यह भागीदारी एक ओर देश के निर्माण में सक्रिय रही तो दूसरी ओर रचनात्मक साहित्य को नया तेवर देने में सहायक रही। 1954 ई० में इनका उपन्यास ‘मैला आँचल’ प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास ने हिंदी उपन्यास विधा को नयी दिशा दी। हिंदी जगत में आंचलिक उपन्यासों पर विमर्श ‘मैला आँचल’ से ही प्रारंभ हुआ। आंचलिकता की इस अवधारणा ने उपन्यासों और कथा-साहित्य में गाँव की भाषा-संस्कृति और वहाँ के लोक-जीवन को केंद्र में लाकर खड़ा कर दिया। लोकगीत, लोकोक्ति, लोक-संस्कृति, लोकभाषा एवं लोकनायक की इस अवधारणा ने भारी-भरकम चीज एवं नायक की जगह अंचल को ही नायक बना डाला। उनकी रचनाओं में अंचल कच्चे और अनगढ़ रूप में ही आता है। इसलिए उनका यह अंचल एक तरफ शस्य-श्यामल है तो दूसरी तरफ धूल-भरा और मैला भी। आजादी मिलने के बाद भारत में जब सारा विकास शहरों में केंद्रित होता जा रहा था तो ऐसे में रेणु ने अंचल की समस्याओं को अपने साहित्य में स्थान दिया। इनकी रचनाएँ इस अवधारणा को भी पुष्ट करती हैं कि भाषा की सार्थकता बोली के साहचर्य में ही है। भाषा-शैली-रेणु की भाषा भी अंचल-विशेष से प्रभावित है।

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मैला आँचल प्रथम भाग खंड18-24/फणीश्वरनाथ रेणु

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