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मैला आँचल द्वितीय भाग खंड1-10/फणीश्वरनाथ रेणु

एक

सुराज मिल गया ?

“अभी मिला नहीं है, पन्द्रह तारीख को मिलेगा। ज्यादा दिनों की देर नहीं, अगले हफ्ता में ही मिल जाएगा। दिल्ली में बातचीत हो गई।…हिन्दू लोग हिन्दुस्थान में, मुसलमान लोग पाखिस्थान में चले जाएँगे। बावनदास जी फिर एक खबर ले आए हैं। ताजा खबर !

…..दफा 40 की लोटस की तरह झूठ-मूठ कोई फाहरम तो नहीं लाया है बावनदास ?…झूठ नहीं सच बात है। डागडरबाबू के बेतार में भी बोला है, सुनते हैं।

“तहसीलदार साहेब भोज खिलाएँगे उस दिन,” सुमरितदास बेतार घर-घर खबर फैला रहा है। “सब इसमिट (एस्टिमेट) अभी-अभी हम पक्का करके आ रहे हैं। पूड़ी, जिलेबी, हलुआ, दही और चीनी !”

“जै हो ! जै हो।”

“महतमा गाँधी की जै!”

महन्थ साहेब के भंडारा से भी बड़ा भोज होगा। तीन मेर (दल) नाच होगा-बलवाही, बिदेसिया, कमला और महमदिया की नौटंगी कम्पनी। कालीचरन का सुसील कीरतन भी होगा। पुरैनियाँ में अंग्रेजी बाजा आएगा।…अरे ! अंग्रेजी बाजा नहीं जानते ? रौतहट मेला में सरकल के नाच में बजते नहीं सुना है-भेकर-भेकर भें-में !…धमदाहा-संकरपुर का बिदापद। बँसगढ़ा की बलवाही, औराही-हिंगना का भठियाली भकतै (भठियाली कीर्तन)। सुध नारदी (नारदी-सुर) गाते हैं औराहीवाले। कोयलू खोलवाहा और सीतानाथबाबू मुलगैन ! सीतानाथबाबू का गला बुढ़ारी में भी कितना तेज है !

“मुसलमानों का हिस्सा सुराज पाखिस्थान में चला जावेगा ?…एकदम काटकर हिस्सा लेगा ?”

“हाँ, जब हिन्दू-मुसलमान भाई-भाई हैं तो भैयारी हिस्सा तो रकम आठ आना के हिसाब से ही मिलेगा।”

“बावनदास ने सुराज को काटते देखा है या अन्दाज से ही बोल रहा है। चलो, पूछें।”

बावनदास कहता है-“अरे सुराज क्या कद्दू-कोहड़ा है जो काटकर बँटेगा ?”

“…तब सुराजी कीरतन में जो कहा है कि ‘जब तक फल सुराज नहीं पायें, गाँधीजी चरखा चलावें, मोहन हो ? गाँधी जी चरखा चलावें…”

“कीर्तन की बात छोड़ो। सुराज माने…” बावनदास जी समझाते हैं, “सुराज माने अपना राज, भारथवासी का राज। अब अँगरेज लोग यहाँ राज नहीं कर सकते।…’ए अँगरेजो। भारथ छोड़ो’ क्यों कहा था गाँधी जी ने ? इसीलिए।”

“अपने गाँव का तो राज तहसीलदार साहेब को ही मिलेगा। राज पारबंगा के तहसीलदार हरगौरी तो अब हैं नहीं।”

बालदेव जी का दिमाग बहुत शान्त हो गया है। जिस दिन उन्होंने परसाद उठाया (वैरागी धर्म स्वीकार करना), उसी दिन से माथा ठंडा हो गया। लछमी तीन-चार दिन तक सतसंग करती रही। आखिर बालदेव जी हार गए। बालदेव जी अब गृहस्थ नहीं रहे, साधू हो गए।…मोछभदरा (क्षौर कर्म) करवाकर बालदेव जी मुँह ठीक सोलह पटनियाँ आलू की तरह हो गया है।

“…साहेब बन्दगी बालदेव जी !”

“साहेब बन्दगी ! जाय हिन्द !” बालदेव जी आजकल साहेब बन्दगी और जाय हिन्द को एक साथ नत्थी करके बोलते हैं।

“जाय हिन्द कौमरेड बालदेव जी !” कालीचरन मुट्ठी बाँधकर कहता है-कौमरेड ! “नहीं ! हम कौमरेड नहीं हैं।” बालदेव जी ने नाक सिकोड़ते हुए कहा, “हमको कौमरेड क्‍यों कहते हो ?”

“कौमरेड कोई गाली नहीं बालदेव जी ! कौमरेड माने साथी। जो भी देस का काम करे, पब्लिक का काम करे, वह कौमरेड है।” कालीचरन हँसते हुए कहता है।

“तुम नहीं जानते,” बालदेव जी चिढ़कर कहते हैं, “ठुम तो आज आए हो, हम सन्‌ तीस से ही जानते हैं। टीक-मोंछ काटकर, मुर्गी का अंडा खिलाकर कौमरेड बनाया जाता है । कंफ-जेहल में कितने लोगों को कौमरेड होते देखा है | “मोजफ्फरपुर के एक सोसलिस्ट नेता थे। उनका काम यही था-लोगों की टीक-मोंछ काटना । जेब में कैंची रखे रहते थे। जाति के बामन थे। “और हमको कौमरेड का माने सिखाते हो तुम ?”

लगता है बालदेव जी फिर सनकेंगे।

सबों ने एकमत होकर कहा, “हाँ कालीचरनबाबू, यह गलती तुमसे हो गई। आज तुम लीडर हो गए हो, खुशी की बात है, लेकिन हो तो तुम बालदेव जी के ही चेला ! तुम मानो या नहीं मानो, बात वाजिब है।”

कालीचरन लजा जाता है। “तब उस दिन सिकरेटरीसाहब जो कह रहे थे, बाप-बेटा दोनों कौमरेड हो सकता है ? “शायद सुनने में ही गलती हो गई।“ वह अपनी गलती मान लेता है-“हाँ, अभिमन्नू-बध नाटक में अरजुन ने दुरनाचारज के पैर पर फूल का तीर मारा था।”

वाह रे कालीचरन ! अब बात समझता है ! पहले तो बात समझने के पहले ही लड़ाई कर लेता था।

बालदेव जी भी हँसते हैं। कहते हैं, “सुराज उतसब के लिए तुम लोगों की पाटी की ओर से क्या हुकुम आया है ?”

“टीक है। सुराज क्‍या अकेले काँगरेस को ही मिला है ?”

“सुराज उतसब के दिन रहोगे या नहीं ?” बालदेव जी पूछते हैं।

“जरूर ! उस दिन हाथी पर भारथमाता की मुरती बैठाकर जुलूस निकलेगा,” कालीचरन गर्व से छाती फुलाकर कहता है, “अपने गाँव का जुलूस, कटहा थाना में क्या, हौल इंडिया में फस्ट होगा। मुरती का औडर दे दिया है।”

बालदेव जी की आँखों के सामने भारतमाता के विभिन्‍न रूप आ रहे हैं-माँ, रूपमती, मायजी और लछमी।

…लछमी को हाथी पर नहीं बैठाया,जा सकता है ? भारतमाता का रूप ? आजकल लछमी भी खद्धड़ पहनती है, चरखा कातती है। …महीन सूत कातना तो वह पहले से ही जानती है।

जै ! भारथमाता की जै !

दो

मुकदमा में भी सुराज मिल गया।

सभी संथालों को दामुल हौज (आजीवन कारावास) हो गया। धूमधाम से सेसन केस चला। संथालों की ओर से भी पटना से बालिस्टर आया था। बालिस्टर का खर्चा संथालिनों ने गहना बेचकर दिया था। बालिस्टर पर भी बालिस्टर हैं। यदि इस मुकदमा में तहसीलदार साहेब जैसे कानूनची आदमी नहीं लगते तो इस खूनी केस से शिवशक्करसिंह, रामकिरपालसिंह और खेलावनसिंह तो हरगिस नहीं छूटते।…खर्चा ? अरे भाई ! जान है तो जहान है ! जब फाँसी ही हो जाती तो जगह-जमीन, रुपया-पैसा क्या काम देता ?

रामकिरपालसिंह ने संथालटोली की नई बन्दोबस्ती जमीन में से दस एकड़ तहसीलदार विश्वनाथ प्रसाद को लिख दी है …हाँ, सुमरितदास बेतार को भी चार कट्टा जमीन मिली है। “खेलावनसिंह यादव को भी देन हो गया है” देन कैसे नहीं होगा भाई, पास में जितना कच्चा रुपया था वह तो दारोगा साहब के पान-सुपाड़ी में चला गया। पुराना पटुआ हाथ से पहले ही निकल गया था। इसीलिए करीब डेढ़ हजार हथफेर-पैंचा हो गया है। तहसीलदार साहेब ने कहा, कागज बनाने की क्या जरूरत है, जब सन-पटुआ बिके तो दे देना।

मुकदमा उतसब भी सुराज उतसब के दिन होगा ? “हाँ, सुराज उतसब दिन में, मुकदमा उतसब रात में।

तहसीलदार साहब ने कहा है, महमदिया की नौटंकी कंपनी जितना में हो, एक सौ, दो सौ, जो ले, मगर सट्टा करा लेना । सुमरितदास कहते हैं-“इसमें कनकसन है, पीछे बतावेंगे ।”

“महमदियावाले भी पूरी तैयारी कर रहे है। नखलौ से बाई जी मँगाया है, चंदा करके । नौटंकी के कंपनी! हैं नितलरैन बाबू । लछमी महारानी ने उनको खूब निहारा है, अपनी आँखों से ही निहारा है!“

इस इलाके के मँझले दर्जे के किसानों के पास यदि थोड़ी पूँजी हो गई, तंबाकू, धान, पाट और मिर्चा का भाव एक साल चढ़ गया, घर में शादी-गमी नहीं हुई तो वह तुरंत टनमना जाते हैं। यदि मालिक जवान हो तो तुरंत औन-पौन करने लगता है। हरमुनियाँ, फर्श, शतरंजी, शामियाना, जाजिम, लैट, पंचलैट, पहाड़िया घोड़ा, शंपनी, टेबल-कुर्सी, बेंच खरीदकर ढेर लगा देता है। इससे भी जब गरमी कम नहीं होती है तब बन्नूक के लैसन के लिए आफिसरों को डाली देना शुरू करता है। ….लालबाग मेला के समय रात-रात-भर मुजरा सुनता है और दिन-भर आफिसरों के साथ कचहरी में घूमता है। बन्नूक के लैसन के बाद नौटंकी कंपनी खोलता है। इससे भी मगज ठंडा नहीं होता तो कोई खूनी केस होकर समापत्तन! । “महमदिया के नितलरैनबाबू के नौटंकी कंपनी हैं। तहसीलदार साहब ने कहा है, महमदिया की नौटंकी कंपनी का सट्टा लिखा जाना चाहिए।

“बड़ा भारी कनकशन है जी इसमें !” सुमरितदास बेतार कब तक पेट में बात रखे, “एकदम प्राइबिट गप है। महमदियावाली को क्‍यों बुलाया जा रहा है, समझे नहीं ? नौटंकी की बाई जी के बिलौज पर टका साटा जाएगा। अब समझे कुछ ?”

संथाल लोग इस सुराज उतसब में नाचेंगे …कहीं नाचने के समय तीर चला दें, तब ? नहीं, नहीं, डागडर साहेब बोलते थे कि संथालिनें खुद आकर कह गई हैं-नाचबौ । तहसीलदार साहेब को भी इसमें एतराज नहीं होना चाहिए ।… भाई, जो भी कहो, संथाली नाच देखते समय होस गुम हो जाता है। जूड़े में सादे फूलों के गुच्छे, कसमकस देह, उजले दाँत की पाँती की चमक ! सफेद आँचल ! जब झुमुर-झुमुर कर नाचने लगती हैं तो मन करता है, नाच में उतर पड़ें।

डा-डिग्गा डा-डिग्गा
रिं-रिं-ता धिन-ता !

आज से ही वे पराटिस कर रहे हैं। लेकिन माँदर और डिग्गा की बोली सुनकर डर लगता है। हँसेरी के दिन तो ऐसा लगता था कि जमराज नगाड़ा बजा रहा है और जमदूत सब उसी ताल पर नाचकर तीर चला रहे हैं।

तीन

“ख़बरदार ! गरम जिलेबी मत खाना !”

आजकल सुमरितदास बेतार का बोलबाला है | हमेशा एक नई खबर ! आजकल किसी भी टोले के नौजवान से भेंट होते ही वह फिक्‌ से हँसकर एक दिल्लगी कर लेता है, “खबरदार ! गरम जिलेबी मत खाना !”

“माने ?”

“माने सुनोगे ? गरम जिलेबी का तासीर बड़ा गरम होता है। सर्दी से नाक बंद हो, सिर दुख रहा हो, गरम जिलेबी खा ली ! भक से नाक खुल जाएगी। इतना जल्दी असर करता है ! “आज हम डागडरी में जरा दिनाय की दवा लाने के लिए गए थे। जानते हो ? डागडरबाबू ने फुलिया-अरे वही मँहगूदास की बेटी फुलिया-को क्या कहा है ?…फुलिया को गरमी की बेमारी हो गई है। चेहरे पर फुसरी-फुसरी (दाने-फुंसी) -सा हो गया है। डागडर ने कहा कि पुरैनियाँ जाओ।…इसीलिए लौजमान लोगों से कहते हैं कि खबरदार ! गरम जिलेबी मत खाना।”

“लेकिन दास जी ! लौजमानों से पहले बूढ़ों को सँभालिए।”

“चुप, चुप ! सभी बेपर्दे हो जाएँगे।”

सुमरितदास बेतार जब फिक् से हँसता है तो उसके लाल मसूड़े दिखाई पड़ते हैं। लाल हँसी हँसता है बेतार !…बेतार फिर फिक् से हँसकर कहता है, “और कुछ मालूम है ? महंथ रामदास जी रमपियरिया को दासिन रखेंगे। कोठारिन ने हुकुम दे दिया है।…बालदेव तो कोठारिन के पीछे बैरागी ही हो गया।”

कालीचरन का चेहरा अचानक उतर जाता है।…अब मंगला के बारे में तो कुछ नहीं बोलेगा बेतार ? लेकिन बेतार जानता है कि कहाँ कैसी बात करनी चाहिए। बात में उससे जीतना मुश्किल है।

चरखा-सेंटर के मास्टरों और मास्टरनी में लड़ाई-झगड़े हो गए हैं। टुनटुन जी इस्तीफा देकर चले गए। दूसरे मास्टर साहब का सूल उखड़ गया; देस चले गए। अब अकेली मंगलादेवी वहाँ चरखा-सेंटर के नाम पर गाँव-घर में घूमती है, बातें करती है गाँधी जी की, जमाहिरलाल की और सुराज की…कालीचरन कहता है, “हाथी पर भारतमाता की मुरती के पास बैठकर मुरछल (चँवर) डुलाने के लिए मंगलादेवी को ही कहना चाहिए।”

बालदेव जी तहसीलदार साहब से कहते हैं, “लेकिन यदि अपने गाँव में औरत नहीं रहे तब बाहरी औरत से कहना चाहिए। यदि गाँव में ही मिल जाए ! कमली दीदी ही क्यों न बैठेंगी ?”

“नहीं, कमली की बीमारी का बड़ा डर है। कब क्या हो जाए !”

“तब कोठारिनी जी से कहा जाए। अब तो खद्धड़ पहनती हैं। सूब नेमटेम भी करती हैं। रोज नहाने के बाद महतमा जी की छापी पर फूल चढ़ाती हैं।”

…लो मजा ! मंगला देवी को हाथी का बड़ा डर ! हाथी को देखते ही उसका सब सरीर केले की भालर (पत्ता) की तरह थर-थर काँपने लगता है। कालीचरन ने कितना समझाया-बुझाया, ‘बूध-भरोसा’ दिया, मगर तैयार नहीं हुई। आखिर में कहने लगी, कालीचरन यदि साथ में रहे तब तो वह हाथी पर चढ़ सकती है। लेकिन कालीचरन को लाज हो गई, सायद। बोला, “धत् !”

दुलरिया भी अलबत्त बात जोड़ता है। इधर-उधर देखकर, मटकी (कनखी) मारकर, देह-हाथ फैलाकर कहता है-“मंगलादेवी जी जब लीला सिलवार पहनकर निकलती हैं तो लगता है कि मोकनी हथिनी (जवान हथिनी) झूमती चली जा रही है।”

“हो-हो-हो-हो ! हा-हा खी-खी !”

भौऔथ !…औ औ!

डाक्टर साहब की घड़ी में ठीक दोपहर रात का ‘टैम’ देखकर टीन के करनाल में मुँह सटाकर कालीचरन ने हल्का किया, “भौ औ थ…औ औ !”

इसके बाद लौजवानों ने दोहराया-“भारथ आ जा द!”

मठ पर बँजड़ी डिमक उठी-डिम-डिम-डिम-डिमिक ! बालदेव जी ने भावावेश में चौकीदार की तरह हाँक लगाई-‘ह-ह-ह-ह-ह-ह ! भारथ आजाद हो गया। ह-ह-ह-ह-ह-हो-य ! महतमा गाँधी की जै!”

रिं-रि-ता-धिन-ता!
डा-डिग्गा !

संथालटोली में माँदर और डिग्गा घनघना उठते हैं।

तू-ऊ-ऊ-ऊ। मौसी शंख फूंकती हैं-तू-ऊ-ऊ-ऊ !

सात माइल दक्खिन, कटिहार की पाँचों बड़ी-बड़ी मिलों के भौंपे एक साथ बज रहे हैं- “भौं औं ओं…धू ऊ ऊ !” आवाज एकदम साफ सुनाई पड़ती है।

“…डिल्ली में बाँटबखरा करके सुराज मिल गया। जै ! जै ! इसलामपुर पाखिस्थान में रहेगा या हिन्दुस्थान में ? पाखिस्थान में ? अभी पाखिस्थान में मारे खुशी के खचाखच गोरू काट रहा होगा।…धत्, गोरू ने क्या बिगाड़ा है ?…बड़े भाग से मेरीगंज बच गया। दस मुसलमान भी होते तो पाखिस्थान लेकर ही छोड़ता !”

चार

भौ औ थ ! औ औ !

कालीचरन का गला बैठ गया। नारा लगाते समय भाथी की तरह गले से आवाज निकलती है–फोयें-फोयें सोयें-सोयें !…सुबह से कामरेड बासुदेव और कामरेड सोमा जट बारी-बारी से नारा लगा रहे हैं।…नारा बन्द नहीं हो, जारी रहे–’अष्ठजाम कीरतन’ की तरह ! सुराज-उतसब जब तक खतम नहीं हो, नारा बन्द नहीं हो !

टन-टनाक्, टन-टनाक् ! सजाई हुई मोकनी हथिनी जा रही है।

ढन-ढन, ढनाँग-ढनाँग ! कीर्तनियों का घड़ीघंट बोल रहा है।

धू-ऊ-ऊ-तू-तू-तू ! शंखनाद।

भों-भों-पों !…भों-पों-पों ! अँगरेजी बाजा।

तक-तक-तक-तक धिनाग-धिनाग ! अमहरा का चानखोल (एक तरह का बाजा) बजा।

पीं पीं पीं ई ई ई पीं पीं पीं…! चानखोलवालों की पीपही गा रही है :

चाँदो बनियाँ साजिलो बरात ओ हो
एक लाख हाथी सजिलो, दुई लाख घोड़ा
चार लाख पैदल, दुलहा बाला लखिंदर !

पीपही पर बिहला (सती बेहला) नाच का बरातवाला गीत बजा रहा है।

धू-धू-धू-धू-धू-तु-धुतु-धुतु ! करनाल (सिंघा बाजा) बोलता है।

हिं-हिं-हि-हिं-हिं-हिं-हिं ! पहड़िया घोड़ा हिनहिनाया। किसका घोड़ा है ? धरमनाथबाबू का या हरिबाबू का ?

भारत में आयल सुराज
चलु सखी देखन को…

वह नया सुराजी कीर्तन किसने जोड़ा है ? वाह ! एकदम ताजा माल है। सुनो, सुनो।

कथि जे चढ़िये आयेल
भारथमाता
कथि जे चढ़ल सुराज
चलु सखी देखन को !
कथि जे चढ़िये आयेल
बीर जमाहिर
कथि पर गंधी महराज। चलु सखी…
हाथी चढ़ल आवे भारथमाता
डोली में बैठल सुराज ! चलु सखी देखन को
घोड़ा चढ़िये आये बीर जमाहिर
पैदल गंधी महराज। चलु सखी देखन को।

वाह ! खूब कीर्तन जोड़ा है उजाड़दास ने। उजाड़दास को नहीं चीन्हते हो ? बारा-मानिकपुर में घर है। वह भी सन् तीस से ही सुराजी में है।

कू-कू ! मोकनी हथिनी ठीक ताल पर कैसा कूकती है ! वाह !

अलबत्त सजाया है हाथी को फिलवान ने। ठीक कपाल पर पुरैन (कमल) का फूल बनाया है-फुलखल्ली से। कितना रंग-टीप किया है ! भारथमाता की मुरती तो ठीक दुरगा माई की मुरती जैसी लगती है ! लछमी, सरस्वती, पारबती-गौरा और भारथमाता सब सगी बहन हैं। ओ।…इसलिए ! बालदेव जी देखते हैं-सदा खद्धड़ की साड़ी ! गले में फूल की माला ! लम्बे-लम्बे काले बाल बिखरे हुए पीठ पर ! ठीक भारथमाता के ठोर (ओठ) पर जैसी हँसी है कोठारिन वैसी ही हँसी हँस रही है और धीरे-धीरे मुरछल डुला रही है।

धिन, तक-तक-तक, ताक धिनाधिन, भठियाली कीर्तन का खोल बोल रहा है-

ताक धिनाधिन, तिन्‍नक-तिन्‍नक !
हो रे मोरी रे ए ए ए / हॉ ऑ ऑ
ऑ ऑ आऑ आ जॉ रे हे !
बहु कसटे सू रा ज पैलो रे
भारत संतान ओ रे
कोटि कोटि छइला प्रोयेला
दिलो बो लि दान आ रे
हॉरे मोरी रे ए ए ए / हॉ ऑ जॉ /

औराही-हिंगना का भकतिया है बाबू । खेल नही । सीतग्नाथबाबू ने पूबा बोली’ मै कैसा भठियाली कीर्तन जोड़ा है, देखो। मीतानाथबाबू ने जोड़ा है कि उनका छोटका बेटा महेंदर ने ? महेंदरबाबू भी गीत खूब जोड़ते है, सुना है।

झरक-झरक झर-झर्र ररर ! एकपूरिया ढोल तो सब बाजा को मात कर देता है। सभी बाजा को “झॉप’ लिया है।

डमाक्‌-डमाक्‌-डिम ! एकपूरिया ढोल के साथ एक छोटी ढोलकी बोलती है।

भौ औथ !’ औ औ ‘
“महतमा गाँधी की जै…”
“जमाहिरलाल नेहरू की जै !”
“रजिन्नर बाबू की जै !”
“जयपरगास जिंदाबाघ !”
आजादी झूटी है !”
“देस की जनता भूखी है।”
यह नया लारा कौन लगाता है ?
ऐ!।ऐ।! नहीं हुआ।’
“सुन लो पहले !’
“आजादी झूठी। मारो साले को ! कौन बोला ?”
“जरूर गाँव का नही, बाहरी आदमी है।”
“ऐ ऐ ! बाजा बंद करो !”
“डटो ! हटो !”
“ऐ कालीचरन ! ऐ बासुदे !”
“बालदेव ! साती करो !”
“अरे ! बात क्‍या हुई है ?”
“हर बात में ऐसे ही कोई ‘लेकिन’ लगाएगा ये लोग ?”

“सुनिए तहसीलदार साहेब ! बात यह हुई कि”…बालदेव जी आज फिर सनके हैं, “बात यह हुई कि बाबू कालीचरन के पेट में रहता है कुछ और, और कहता है कुछ और ! हम इससे पहले ही पूछ लिए थे कि तुम्हारी पार्टी की ओर से क्या हुकुम हुआ है सुराज उतसब के बारे में। तो बोला कि सुराज क्या सिरिफ कँगरेसी को मिला है !…अभी देखिए, सुभलाभ करके जब हम लोग जुलूस निकाला है तो बाहरी आदमी को मँगा करके हम लोगों के उतसब को भंग कर रहा है। यह कैसी बात ! अरे भाई, हिंगना-औराही का सोसलिट है तो हिंगना-औराही में जाकर अपने गाँव का लारा लगावे। यहाँ काबिलयती छाँटने का क्या जरूरत था ? अपना मुँह है-बस, लगा दिया लारा-यह आजादी झूठी है !”

“ठीक बात ! वाजिब बात !” जनता एक ही साथ कहती है।

“ओएँ सोंएँ सोंएँ…” कालीचरन क्या कहता है, समझा भी नहीं जाता है।

“अरे हाँ-हाँ गलती हो गई !” कामरेड बासुदेव समझा रहा है। यानी कालीचरन जी की बात को जोर-जोर से सुना रहा है-“अरे गलती हो गई। वह नहीं जानता था। चमड़े की जीभ है, लटपटा गई। कालीचरन जी का इसमें कोई दोख नहीं !”

यहाँ के सोसलिट पाटीवालों को भी यह बात अच्छी नहीं लगती है।…दूसरे गाँव से आकर यहाँ लारा लगाने की क्या जरूरत थी ? कालीचरन जी का गला बझ गया था तो बासुदेव और सोमा तो लारा लगा ही रहे थे। बीच में फुटानी छाँटकर सब गड़बड़ा दिया।

“अच्छा ! अच्छा ! माफ कर दो।”

“हाँ-हाँ, छोड़ो ! आज सुराज का दिन है।”

टन्-टनाक् टन्-टनाक् ! मोकनी हथिनी फिर चली। जुलूस आगे बढ़ा ! सभी ढोल-बाजे एक ही साथ बजने लगे। डिम्-डिम् झर्र-झर्र…पी-ओ-धू-ऊ-तक-तक-धिन।

भों-ओं-धू-तू-ताक्-धिनाधिन।

कूई-कू ! कूई-कू ! मोकनी हथिनी ताल पर कूकती है।

बालदेव जी फिर सनके हैं क्या ? हाथ में झंडा लेकर अब हाथी के आगे-आगे नाच रहे हैं। झंडे को इस तरह भाँजते हैं मानो गाटसाहेब रेलगाड़ी को झंडी दिखला रहे हों ! हाँ भाई, सुराज का असल हथियार है तेरंगा झंडा। पहले के जमाने में तलवार से लड़ाई होती थी, इसलिए लोग हाथ में तलवार लेकर नाचते थे। सुराज की लड़ाई का हथियार झंडा है। इसलिए झंडा नचा रहे हैं बालदेव जी। सनके हैं नहीं। जिसका जो हथियार…!

किर्र र र घन घन धड़ाम धा, धड़ाम धा ! नौटंकी का नगाड़ा बोल रहा है।

…भोज तो दिन से ही खाते-खाते मन अघ गया है।…इधर देरी तो आगे में जगह नहीं मिलेगी। चलो, जल्दी !

किर्र-र-र-घन-घन धड़ाम-धा, धड़ाम-धा !

अरे खिस्सा होता गुरु अब सुनह पंच भगवानों की
गाँधी महतमा वीर जमाहिर करे सदा कलियानों की !

किर्र-र-घन-घन-धड़ाम-धा, धड़ाम-धा !

…कौन खेला होगा ? क्या कहा ? मस्ताना भगतसिंह ! वाह ! अभी जाकर रंग औट किया। दिन से पूछते थे तो बोलता था कि सुलताना डाकू का पाठ होगा।

जिसका जो हथियार !…भगतसिंह का पाठ खुद नितलरैनबाबू लिए हैं। दाहिने हाथ में पिस्तौल है और बाएँ हाथ में बेल के बराबर गोल क्या है ? बम !…अरे बाप ! हाँ, जिसका जो हथियार ! भगतसिंह का हथियार तो बम-पिस्तौल ही था।

किर्र-र-घन-घन-धड़ाम-धा !

अजी बेटा हम मादरे बतन भारथ का
हमें डर नहीं फाँसी सूली का… !

किर्र-र-किर-किर-धड़ाम-धड़ाम-धड़ाम !

भगतसिंह नाच रहा है। एक हाथ में बम और दूसरे में पिस्तौल। नाचकर स्टेट (स्टेज) के एक कोने से दूसरे कोने पर जाता है। खूब नगाड़ा बजाता है नगड़ची ! ठीक पन्नालाल कम्पनी के तरह ! इटहरा का नकछेदी है। और कौन ऐसा साफ हाथ बजावेगा !…सिरिफ ताल काटने के समय जरा डर लगता है। ताल काटने के समय धड़ाम-धा, धड़ाम-धा ताल पर भगतसिंह बमवाले हाथ को दो बार पवलि की ओर चमकाता है, मानो बम फेंक रहा हो। और जब-जब वह ऐसा करता है आगे में बैठे सभी लोग जरा करबट होकर एक-दूसरे की पीठ के पीछे मुँह छिपा लेते हैं।…कौन डिकाना, कहीं इधर ही फेंक दे तब ?…कभी नकली तलवार से देह नहीं कटता है क्या ? तब नकली बम हो चाहे असली, हाथ से छूट जाने पर कुछ-न-कुछ घवैल जो जरूर करेगा ! अरे, नखलौ (लखनऊ) की बाई जी कहाँ है ? उसको सामने लाओ ! डोली में क्या छिपाकर रखा है ?…ताली बजाओ तब निकलेगी।

“आ गई ! ऐ, देखो नखलौ की बाई जी को !”

“आकर चुपचाप खड़ी काहे हो गई ?”

“गला से तो जरूर पकड़ी जाएगी। गाने तो दो जरा !”

“रोगन-पौडर लगाकर खपसूरत लगती है। दिन में देखना, खपरी की पेंदी की तरह…।”

“हो-हो-हो ! साला दुलरिया बात बनाने जानता है।”

बाई जी शुरू करती है :

खादी के चुनरिया रँग दे छापेदार रे रँगरेजबा
बहुत दिनन से लागल बा मन हमार रे रँगरेजबा !

धम-धड़ाम, धड़-धड़ाम !

“नाचती है तो नाचती है, दाँत बिचकाकर हँसती क्‍यों है ?”

“ए राम ! दाँत और ठोर तो एकदम काला भुजुंग है !”

“अजी दाँत नहीं, काबली अनार के दाने हैं दाने !”

हो-हो ! हो-हो ! वाह, ठीक कहा दुलरिया ने !

बाई जी गा रही है :

कहीं पे छापो गंधी महतमा
चर्खा मस्त चलाते हैं,

कहीं पे छापो वीर जमाहिर
जेल के भीतर जाते हैं ।
अँचरा पे छापो झंडा तेरंगा
बाँका लहरदार रे रँगरेजबा…“

किर-रि-रि-रि-रि-धड़क-धड़क, धड़क-धड़म-धा-धड़म-धा !

अजी आँगिया पर छापो”” ।

ऐ ! ऐ ! वाह ! हो-हो ! वाह-वाह !

“साटो इसके बिलोज पर टका !” एक आवाज आती है।

“जरूर साटो ?”

“अरे टका मत बोलो, मिडिल बोलो मिडिल | देहाती की तरह काहे बात करते हो ! चाँदी की चकती को “मिडिल” कहते हैं।”

“सुनो भगतसिंघ फिर काहे स्टेट पर आया ?”

“प्यारे भाइयो, आप लोग हल्ला मत कीजिए: अब एक गाना होगा- ‘मोरा बाँका सिपैहिया टट्टू से गिरा जाय’ !”

“अरे लचकर काहे झाड़ता है ? बजाओ नगाड़ा। रात-भर का सट्टा है। तेरी सिपैहिया की ऐसी तैसी ! खेला सुरु करो !”

“हाँ ये लोग तो यही चाहते हैं कि “रिंब-रिंब’ में ही रात काट दें। नाचो !”

“ए ! पंचलैट में हवा दो ! भुकभुका रहा है !”

“हवा क्‍या देगा, आँधी आ रही है। पानी भी वरसेगा ।”

“किर-घन घन-धड़ाम-धा धड़ाम धा ! नगाड़ा घनघनाया।

गुड़-गुड़म ! आसमान में बादल घुमड़े |

फटाक्‌ ! पटाखा फूटा |

अजी भगतसिंह है नामी इनमें सरदार अजी
करना है उसको गिरिफ़दार !

किर-किर-घन-घन-धडाम-धा !

“मारो साले को ! यही साला सब असल देशदुरोहित है, पहचान रखो |”

“मारो ! मारो ! “रे मार साले को !”

“हो-हो ! हो-हो !” आँधी आ रही है सायद…। गाय-बैलों को घर से निकालकर बाहर करना होगा। चूल्हों में आग छोड़कर ही जलाना (जनाना) लोग सो जाती है। बहुत खराब आदत है। आग रखती है हुक्का पीने के लिए। रे चलो… । बाँस-फूस के घर का क्या ठिकाना ! आँधी आई, उड़ा ले गई। बरसा हुई तो टपकने लगी और चिनगी भी कभी उड़ी तो सोहा !…चलो। क्या देखेंगे अब नाच ! कटिहार की चवनियाँ माल को उठा लाया है और कहता है कि नखलौ की है। चलो।

गुड़गुड्डुम ! गुडगुडुम !

कमली को डाक्टर ने अपनी बाँहों में जकड़ लिया है !…तीन बजे दिन में ही संथाली नाच देखने अस्पताल आई थी कमली ! नाच खत्म हो गया, शाम हो गई, उधर नौटंकी कब शुरू हुई, कब खत्म हुई, शायद दोनों में से कोई नहीं बता सकेगा।…जब बादल गरजे, बिजलियाँ चमकीं और हरहराकर वर्षा होने लगी तो कमली को डाक्टर ने अपनी बाँहों में जकड़ लिया।

कमली ने बाँहें छुड़ाने की एक हल्की चेष्टा की।…

बिजली चमकी।

गुड़गुडुम ! गुड़गुडुम !
रि-रि-ता-धिन-ता !
डिग्गा-डा-डिग्गा !

संथाली नाच के माँदर और डिग्गा की ताल पर दोनों की धुकधुकी चल रही है। छम्म-छम्…आज कमली इस इलाके में पहने जानेवाले सभी किस्म के गहनों से लदी है।…बाँक, हँसुली, बाजू, कँगना, अनन्त, चूर, अँझनी; अर्थात् झुनुक-झुनुक बजनेवाली बेड़ियाँ जिसे ‘गझनी-कड़ा’ कहते हैं।…और चूर तो देह के सिहरन पर भी खनकते हैं-टुन-टुन !

टुन-टुन !
छम-छम् !
गुड़गुडुम !
छम्म, जम् ! छम्म्, छम् !
टुन-टुन !
डाक्टर ! डा क ट र ! ओ !…प्र शान्त म हा सा ग र !
रा ज क म ल…!

पाँच

बावनदास को अब अपने पर भी परतीत नहीं होता है । “बालदेव जी कहते हैं-चित्त चंचल हो गया है बौनदास का और थोड़ा “भरम” भी गया है। बस, सिरिफ गाँधी जी पर भरोसा है बावन को । “ बापू सब पार लगावेंगे ! बहुत-बहुत कठिन परीच्छा मैं बापू अकेले सबको सँभाल लेंगे। जै ! बाबा ! बापू !

लेकिन उसके दिल में न जाने क्या समा गया है कि हर बात का खराब रूप ही पहले देखता है। संदेहात्मक दृष्टिकोण से ही वह सारी दुनिया को परखता है। बापू ने चिट्ठी का जवाब दिया है :

“भगवान बावनदास जी ! आप ही धीरज छोड़ दोगे तो भक्तजनों का क्‍या होगा ?

“बापू के प्रणाम !”

बावन कठहँसी हँसते हुए कहता है, “गंगुली जी ! बापू को देखिए ! “अब हम क्या करें ! मन में संदेह होता है, दिन उदास हो जाता है। फिर आदमी को अपने काम पर भी बिसवास कैसे हो ! बापू से पूछते हैं तो दिल्लगी में ही टाल देते हैं। लिखते हैं कि आप धीरज छोड दीजिएगा। अरे ! छलिया रे ! जनम-जनम छल करके ठगा, कभी राम औतार तो कभी क्रिसना औतार और-”

“कभी बावन अवतार !” गाँगुली जी चट से कह देते हैं।

“धत्‌ ! आप भी तो हो-हो-हो !” बहुत दिनों के बाद आज ही बावन ऐसा दिल खोलकर हँसा है।

बावनदास जब दिल खोलकर हँसता है तो उसकी आँखें खुद-ब खुद बंद हो जाती हैं, और तब ऐसा लगता है मानो एक बडा-सा सेलुलाइड का खिलौना हिल रहा हो। बावन अवतार !

रावन अवतार ! यह चलित्तर रावन का आतार बनकर आया है। ‘भाई, सुने हो या नहीं, हसलगंज के हरखू तेली के घर में डकैती हो गई !

“आँएँ | कब ? सुराज उतसब की रात में ही बंदूकवाले थे ? घवैल तो नहीं हुआ कोई ? दो खून ? ऐ ?

सुमरितदास बेतार अभी तुरत कटिहार से आया है।

“बात यह है कि हसलगंज के हरखू तेली की कंजूसी के बारे में तो सभी जानते ही हो ! चलित्तर करमकार, या भगवान जाने कौन था सो, एक दिन ठीक दोपहर को उसके दरवाजे पर आया । पानी पीने के लिए माँगा तो, सुनते हैं कि पैसा माँगा । लेकिन सहुआइन कहती हे, दुकान पर जलपान करके, हाथ-मुँह पोंछके जाने लगा तो हम पैसा माँगा। बोला कि तुम्हारे यहाँ एक गिलास पानी पिएँगे तो पैसा माँगोगी ? भाई, हम भी सुनती-उड़ती बात कहते हैं, खाँटी हाल एक-दो दिन में खुद औट हो जाएगा । “सुनते हैं कि सुराज उतसब की रात में एक दर्जन लोगों को लेकर, पहड़िया घोड़ा पर सवार होकर आ गया। आते ही बोला-कहाँ सहुआइन ! पूड़ी बनाओ !“नहीं बनाएगी कैसे ? हाथ में रैफल-बन्नूक लेकर दो-दो आदमी सहुआइन के अगल-बगल में एकदम तैयार। हरखू साह को चारों ओर से घेरकर चौकी पर बैठाया और कहा कि रमैन पढ़ो। गाँव में दो आदमी चले गए, लोगों से कहा कि हम लोग हरखू साह की लड़की को देखने आए हैं।- सुबह होते-होते सब काम फिनिस ! जहाँ-जहाँ मिट्टी के नीचे घड़ा गाड़कर रखा था, सब खोद लिया। एक जगह खोदकर गिनता था और हिसाब करके कहता था-“नहीं, और है। बताओ बुड्ढे ! नहीं तो चढ़ाओ इसको चूल्हे पर, ढालो ऊपर से किरासन तेल ।” सहुआइन तो रात-भर पूड़ी छानती रही और मिठाई बनाती रही । सुनते हैं, सहुआइन बीच-बीच में कहती थी-“ऐ बेटा ! तीरथ करे खातिर कुछ रखली है, कुछ छोड़ दिहऽऽ“।” उसको एक हजार रुपैया दे दिया। हरखू साह को कहा कि तुम आठ साल से एक ही धोती पहन रहे हो, तुमको रुपए नी क्‍या जरूरत है ? “जनाना लोगों को देह पर हाथ भी नहीं दिया, सुनते हैं ! मगर जाते-जाते दो खून कर दिया।”

सुमरितदास बात करते-करते चारों ओर देखते हैं। क्यों ?…कहते-कहते रुक क्यों जाते हैं ? आज फिक् से हँसते भी नहीं हैं। मुँह बड़ा चटपटाया हुआ देखते हैं। क्या बात है ? ऐसा तो कभी नहीं देखा ?… सुनते हैं, सुनते हैं’ की झड़ी लगाए हुए हैं। आखिर असल बात क्या है ?

“अरे दास जी ! कोई प्राइबिट बात ?”

“नहीं, प्राइबिट बात कुछ नहीं है !…दंगा हो रहा है। सुनते हैं कि डिल्ली, कलकत्ता नखलौ, पटना सब जगह हिन्दू-मुसलमान में लड़ाई हो रही है। गाँव-के-गाँव साफ !…आग लगा देते हैं।” सुमरितदास हाथ में लोटा लेकर दिसा मैदान की ओर चले जाते हैं।

…बालदेव अनसन करेंगे। क्यों, क्या बात हुई इस बार ? बालदेव जी कहते हैं, “पियारे भाइयो ! हम अभी डाक्टर साहेब के बेतार में खबर सुनकर आ रहे हैं। अँधेर हो गया। एकदम सब पगला गए हैं, मालूम होता है। गाँधी जी खिलाफत के जमाना से ही कह रहे हैं-हिन्दू-मुसलमान भाई-भाई हैं। तैवारी जी भी गीत में, आज से पन्द्रह-बीस साल पहले कहिन हैं :

अरे, चमके मन्दिरवा में चाँद
मसजिदवा में बंसी बजे!
मिली रहू हिन्दू-मुसलमान
मान-अपमान तजो!

“…सो, गाँधी जी की बात काटकर जो लोग यह सब अंधेर कर रहे हैं, वे भी एक दिन अपनी गलती मान लेंगे।…गाँधी जी अनसन करेंगे सायद।…आजकल नूवाँखाली गए हैं। अभी बावनदास आया है पुरैनियाँ से। बोलता है कि गाँधी जी ने रामलालबाबू को नूवाँखाली बुलाया है। गाँधी जी ने सिवनाथ चौधरी जी को चिट्ठी दिया कि सन् तीस में गाँधी आसरम में जो आदमी पुरैनियाँ से आया था, उसको नूवाँखाली भेज दो। रन पढ़ेगा।…रामलालबाबू जब गा-गाकर रमैन पढ़ने लगते हैं तो सुननेवालों की आँखों से वह खुद ही लोर ढरने लगता है।…”

जोतखी काका आजकल बहुत चुप रहते हैं। फिर भी इतनी बड़ी-बड़ी घटनाओं पर वह कुछ नहीं बोलें, यह कैसे हो सकता है ! उनकी राय है कि यह सब सिर्फ सुराज का नतीजा है।…जिस बालक के जन्म लेते ही माँ को पक्षाघात हो गया और दूसरे दिन घर में आग लग गई, वह आगे चलकर और क्या-क्या करेगा, देख लेना। कलियुग तो अब समाप्ति पर है। ऐसे-ऐसे ही लड़-झगड़कर सब शेष हो जाएँगे।

अब लोग सोशलिस्ट पार्टी आफ़िस में भी दरखास-फरियाद लेकर आते हैं। जुमराती मियाँ रोता हुआ आया है। सुमरितदास ने उससे पाँच रुपया छीन लिया है। “कालीबाबू ! जुलुम…अब गरीब लोग कैसे रहेंगे !”

“अच्छा-अच्छा ! आज साम को यहीं पाटी आफिस में रहिए। रात में हम आपकी पंचैती कर देंगे।” कालीचरन विश्वास दिलाता है।

“कामरेड बासुदेव !…सुमरितदास को बुला लाओ तो !” शाम को कालीचरन गम्भीर मुद्रा बनाए हुए हैं।

मच्, मच्, मच् ! बासुदेव कल पुरनियाँ से लौटा है। भाटा कम्पनी का जूता खरीदा है चौबीस रुपए में। चलने के समय मच्-मच् बोलता है। रात में भी, आँख पर धूप-छाँहा काला चसमा लगाकर, पैजामा-कुर्ता पहनकर, जूता मचमचाकर चलने के समय थोड़ा नसा जैसा लगता है। परेड करते हुए चलने का मजा आ जाता है।…बासुदेव स्टेशन पर पान-बीड़ी-सिकरेटवालों की तरह बात को ऐंठकर आवाज गहरी करके पुकारता है-“सो म रे ट डै स!”

सुमरितदास की पिल्ही चमक गई होगी। बासुदेव मन-ही-मन हँसता है-“स् यो म रेट डैस !”

एक छोटी-सी छपरी में किधर छिपेंगे दास जी ! बासुदेव ने पहले ही देख लिया है। वह उसे हाथ पकड़कर घसीट लाता है। सुमरितदास थरथर काँप रहे हैं। “ह जौ र, दुहाई…!” “बेतार, बुलाहट है !” बासुदेव हँसते हुए कहता है।

“कौ…कौन, बा…बासुदेव ? हेत् ! हम समझे कि…दारोगा साहेब हैं। वाह ! खूब डराया ! अलबत्त बोली सीखे हो बाबू ! होनी ही चाहिए। देस-बिदेस घूमते हो तुम लोग। किसने बुलाया है ?…कालीचरन ने ? अच्छा एक बात, बहुत दिन से, पूछते-पूछते भूल जाते हैं। कहो तो, तुम्हारी पाटी में भी दो पाटी है क्या ?”

“काहे ?”

“पहले बताओ तो,” सुमरितदास फिक् से हँसता है।

“नहीं, पहले आप बताइए,” बासुदेव कम जिद्दी नहीं।

“यही…कालीचरन एक दिन बोल रहा था कि सिकरेटरी-साहेब बासुदेव पर विश्वास नहीं करते हैं। हम बोले कि बासुदेव में तो कोई डिफेट नहीं तो बोला कि दास जी आप क्या जानिएगा भीतरी बात !…इसीलिए पूछते हैं कि…”

“अरे हाँ-हाँ दास जी, हम समझ गए। असल में कालीचरन है धरमपुरी जी की पाटी का। धरमपुरी जी भी सोशलिट पाटी में ही हैं, मगर हमारा सकरेटरी साहब के सामने वह कुछ नहीं हैं। एकदम ठंडा खेयाल के आदमी हैं। सभी से हँस-हँसकर बोलेंगे, काँगरेसियों के साथ बैठकर दुकान में दही-चूड़ा खाते हैं। अब सोचिए कि…यह फलहार करनेवाला आदमी, इस किरान्ती पाटी में कैसे ?…आप ही सोचिए दास जी ?”

“ओ ! ओ…ओ ! यह बात है ?” सुमरितदास गम्भीर होकर कहता है, “वाजिब बात है।”

“हाँ, और यह कालीचरन जी उन्हीं की पाटी में है।” फिर फिसफिसाकर कहा, “मंगलादेवी के साथ आजकल ऐसा रसलील्ला होता है कि क्या कहेंगे !…यही सब / बात हम सिकरेटरी साहब से बोले। कालीचरन को सिकरेटरी साहेब ने डाँटा है। इसीलिए ऐसा बोलता होगा…देखिए न ! इसी बार मजा लगेगा, सम्मलेन में जाने के समय।”

“ओ-ओ-ओ।…हाँ भाई ! हर जगह यह पाटीबन्दी ठीक नहीं।…लेकिन आखिर एक हद है। धरमपुरी जी के बारे में तुमने जैसा कहा, वैसा आदमी किरान्ती पाटी में कैसे रह सकता है ! वाजिब बात !…अलबत्त…बोलता है तुम्हारा सिकरेटरी किसनकान्त जी-गरमागरम ! बोलने के समय बाँह जब मरोड़ता है तो लगता है कि…अच्छा, हाकिम का परवाना क्यों जारी हआ है ? क्यों बुलाहट है !”

“अरे, वही जुमराती मियाँ ने न जाने क्या-क्या कहा है जाकर। बोलता था कि रुपैया छीन लिया है।” बासुदेव आँख पर काला चश्मा चढ़ाते हुए कहता है, “मुसलमानों का क्या बिस्वास !”

“समझो जरा !” सुमरितदास फिक् से हँसकर कहता है, “समझने की बात है !”

मैं जाकर कह दूँगा कि घर पर नहीं हैं। कोई लाट साहेब थोड़ी हैं जो लोग हाथ बाँधे खड़े रहेंगे। हम किसी का परवाह नहीं करते।” बासुदेव पैकेट से सिगरेट निकालकर दियासलाई के डब्बे पर ठोंकता है-“दिन-भर हम लेक्चर झाड़ते रहे हैं, सिगरेट मत पियो, अंडा मत खाओ। और भीतरे-भीतरे…” बासुदेव माचिस जलाकर सुलगाने लगता है।

…दियासलाई की रोशनी चश्मे के दोनों शीशों पर चमक उठती है। काले चश्मे पर जलती हुई माचिस ! सुमरितदास के सारे देह में एक सिहरन दौड़ जाती है, रोयें खड़े हो जाते हैं।…लेकिन वह हँसते हुए कहता है, “डूबकर पानी पियो, एकादसी का बाप भी न जाने।”

“हुँ !” बासुदेव धुएँ का गुबारा छोड़ते हुए खाँसता है।

….दारू की महक ! सुमरितदास की आँखें चमक उठती हैं, “बासुदेव-बाबू ! कुछ नेपलिया माल आया है क्या ? जरा हमको भी तो चखाओ !”

“औल रैट ! कल चखावेगा। लाल सलाम !”

मच्, मच्, मच्, मच्।

6

तंत्रिमाटोली में आज घमाघम (गरम) पंचायत हो रही है।

बहुत दिनों की बंदिस है कि पंचायत में कोई भी घर की बोली नहीं बोले । काहे-कूहे, याने कचराही-मोगलाही (कचहरी में बोली जाने वाली उर्दू) जितना बोल सको, अच्छा है। पंचायत में कोई हटा नहीं सकता । लौजमानों के दल ने रमपियरिया के दासिन होने का घोर विरोध किया है।

“खेल बात है ? जात है कि ठट्ठा है ? जब जिसका मन हुआ किसी की रखेलिन बन गई, दासिन बन गई, रंडी बन गई ?” आज गरभू भी गरम होकर बोलता है।

पंचायत में सबों को बोलने का हक है, इसीलिए घमाघम पंचायत हो रही है।

“कहाँ है रमपियरिया की माये ?”

सबों की निगाह टट्टी की आड़ में खड़ी औरतों पर जाती है। रमजूदास की स्त्री खखारकर गला साफ करती है, “रमपियरिया की माये को क्या कहते हैं ?”

“तुम मत बोलो !”

“धान न बोले, बोले भूसा टन !”

“हम बोलेंगे ही !” रमजूदास की स्त्री उठ खड़ी होती है।…लगता है आज मारपीट भी होगी।

“कहाँ, उचित और नोखे ! छड़ीदार काहे बने हो ?”

“हाँ, मारने कहो छड़ी।…जो न छड़ी से पीटे वह दोगला का बेटा !…रमपियरिया की माये के मुँह में बोली नहीं है तो आज घोंघी का भी मुँह खुला है !…रमपियरिया जवान है, उसके जो जी में आवे कर सकती है।…पंचायत में तो बड़ा फड़फड़ करते हो गरभू, रमपियरिया तो तुम्हारी भतीजी लगेगी न ? बोल, खोल दें बात ?…सात बेटे का बाप है छीत्तन, इससे पूछिए कि रमपियरिया के माये के मचान पर दिन-रात, भूख-पियास भूलकर पेट के बल क्यों पड़ा रहता है ? यही निसाफ है ?…अरे, जवान-जहान की बात हो तो कहा जा सकता है कि एक दिन पैर भंस (बहक जाना) गया। इस घुर-घुर बूढ़े की यह चाल !”

“चुप रहो।…ऐ ! चुप !…कहाँ छीत्तन ?”

“सिर में तो अब एक भी काला बाल खोजने पर मिलेगा नहीं और यह तेजी ?…काहे जी छीत्तन, क्या कहती है रमपियरिया की माये ?”

छीत्तन का तोतरहवा (तोतला) बेटा गरम हो जाता है, “मूँ सँभाय कय बोओ !”

“मारो ! पकड़ो !”

“ऐ ! ऐ ”

“लगाओ गले में कपड़ा ! मारो झाड़ू ऊपर से !…सान दिखाता है !”

नोखे और उचितदास छड़ीदार हैं। पंचायत जब घमाघम होने लगती है, तब वे दोनों छड़ी हाथ में लेकर नचाते रहते हैं। नोखे और उचितदास छीत्तन को पकड़कर गले में कपड़ा लगा देते हैं। मँहगूदास, चेथरू, मुसहरू, अनपू और घोतन बीच-बिचाव करते हैं-“मारो मत।”

“सभी बूढ़े एक तरफ हैं,” एक आवाज आती है।

अब रमपियरिया की माये के बदले छीत्तनदास की पंचैती होती है। छिः-छिः ! लाज से डूब मरने की बात है ! इस बार पाँच ही रुपैया जरिमाना हुआ। सस्ते छूट गए !

छीत्तनदास को पाँच रुपैया जुर्माना हुआ है और उसके तोतरहवा बेटा को पाँच बार कान पकड़कर उठने-बैठने की सजा। नोखे गिनता है-“एक, दो, तीन, चार, पाँच… बस !”

रमपियरिया की माये को एक साम भोज देना होगा। महंथ साहेब जात ले रहे हैं तो भात दें।…क्या कहती है रमपियरिया की माये ?…देगी ?…तब ठीक है। बोलिए पंच-परमेश्वर, क्या विचार ?…जो दस का विचार ।

दस का विचार हो गया-रमपियरिया दासिन बन सकती है। जाति का बन्दिस में जरा ढील देने से सब गड़बड़ा जाता है। इसी तरह बराबर पंचायत होती रहे तब तो ? अभी यह भोज तो फोकट में चला जाता हाथ से।

रमजू की स्त्री रमपियरिया की माये के आँगन में बैठी समझा रही है रमपियरिया को-“जब दूध की छाली और मालभोग केला खाकर आँख पर चरबी चढ़ जाएगी, तब मौसी को पहचानोगी भी नही। महंथ से कह देना, जोड़ा साड़ी से काम नहीं चलेगा। दही खिलाने से बाकी मोजर नहीं होगा।…कठसर (कंठसर, एक गहना) लेकर छोड़ेंगे।”

रमपियरिया हँसती है-“उनको तो जो कहेंगे, करेंगे। मगर कोठारिन..”

“कैसी पगली है रे ! कोठारिन वह कैसी ! अब तो कोठारिन तूं है। इसी मुँह से मठ पर रहेगी रे !…लछमिनियाँ को कम मत समझो। उसका जहर चौआ (विषदन्त) यदि नहीं उखाड़ सकी तब तो तुम्हारा महंथ सब दिन खंजड़ी बजाकर फटकनाथ गिरधारी गाता रहेगा। पगली ! इसी लूरमुँह से…”

“सुनती है रे ! रमपियरिया ! कहाँ गई उठकर ?…सायद महंथ आया है…” उसकी माँ पुकारती है।

“साहेब बन्दगी हो महंथ ! पिछवाड़े में अब काहे छिपे हो ? अब तो तुम अपने आदमी हुए…इधर आओ !” रमजू की स्त्री आँख टीपकर मुस्कराती है।

महंथ साहेब रमपियरिया के साथ केलाबाड़ी से निकलकर आँगन में आते हैं।

“पीढ़ी दो रे !…बैठिए !”

“जातवाले तो भात माँग रहे हैं। हमने तो कबूल लिया है,” रमपियरिया की माये चिलम फूंकते हुए कहती है।

“लछमी से पूछेंगे,” महंथ साहेब आँखें नीची करके कहते हैं। रमपियरिया की माये अब उनकी सास है। सास के सामने जरा लिहाज से बातें करनी चाहिएं।

“क्या बोले ?” रमजू की स्त्री फटे कनस्तर की तरह झनझना उठती है, “लछमी से पूछेंगे ? रमपियरिया की माये ! सुनती हो ? हम कहा था न, उसने तो इनको भेंड़ा बना लिया है। अरे, महंथ साहेब ! लछमी कौन होती है जो आप उससे पूछिएगा ?”

“नहीं, वह बोली है…!”

“महंथ साहेब ! बुरा मत मानिएगा, आप हिजड़ा हैं।” रमजू की स्त्री जाने के लिए उठ खड़ी होती है, “रमपियरिया को लछमिनियाँ की लौंडी बनावेंगे महंथ साहेब, हम सब समझ गए।”

“नहीं, नहीं ! ऐसा नहीं हो सकता। ड़मपियाड़ी जो कहेगी…वही होगा।” रामदास जी के दोनों हाथ जुड़ जाते हैं।

“…ड़मपियाड़ी जो कहेगी !” महंथ साहेब हर बात में अब कहते हैं-

“जाने ड़मपियाड़ी।”

“रमपियरिया क्या जानती है ?” लछमी कुढ़ जाती है, “सालभर तो उसे मठ के नेम-टेम सीखने में ही लग जाएगा। हाथ की सभी अंगुलियों को सही-सही गिन भी नहीं सकती है और उसके पास जन-मजूरी का हिसाब है। सतगुरु हो, सतगुरु हो !”

जिस दिन से रमपियरिया मठ पर दासिन होकर आई है, लछमी का मुँह हाँड़ी की तरह लटका रहता है।…महंथ रामदास सबकुछ समझते हैं। रमपियरिया को मजूरों की मजूरी का धान नापने को कहते हैं महंथ साहेब, “नहीं जानती है हिसाब-किताब, तो समझा दो ! सिखावेगी-पढ़ावेगी तो कुछ नहीं, बस खाली लचकर झाड़ती रहेगी!”

“मैं लचकर झाड़ती हूँ ? सतगुरु हो ! मुझे अपने पास बुला लो प्रभु ! अरे, अभी उसकी देह में एक मन साबून धंसो तब कहीं उसके सरीर में प्याज-लहसुन की गन्ध कम होगी। भोर को उठना सिखाओ। मुँह तो कभी धोती भी नहीं है। बीड़ी पीती है। डोलडाल (नित्यक्रिया) से आकर नहाती भी नहीं है। जूठे हाथ से बीजक उठाती है। मैं क्या सिखाऊँ-पढ़ाऊँगी ? तुम क्या कहते हो ? आँचल में चाबी लटकाए बिना कुछ नहीं सीख सकती, तो लो न चाबी अपने भंडार की। मुझे चाबी लटकाने का सौख नहीं है। जानते हैं सतगुरु !” लछमी झन से चाबी का गुच्छा फेंक देती है।

…महंथ रामदास देखते हैं, यह तो सिर्फ गोदाम-घर की चाबी है। सन्दूक की चाबी कहाँ है ?…”चाबी काहे फेंकती हो ! बात-बात में इतना गुस्सा होने से कैसे काम चलेगा !” महंथ साहेब गम्भीर होकर कहते हैं, “तुम मेरी गुरुमाई हो !…ड़मपियाड़ी को रास्ते पर लाना तुम्हारा काम है।”

“देह का मैल भी मैं ही छुड़ा दूंगी। कपड़ा मैं ही साफ कर दूंगी !…दस दिन भी नहीं हुए हैं, गद्दीघर (बीजक और महंथ के रहने का कमरा) की दीवाल पर थूक-खखार की ढेरी लग गई। अधजली बीड़ी के टुकड़ों से घर भरा हुआ है। वह भी मैं ही साफ करूँगी !…अब यह मठ नहीं, सूअर का खुहार है खुहार।”

“तुमको ड़मपियाड़ी के देह का मैल छुड़ाने के लिए कहेंगे ! हम पागल नहीं हैं। तुम बाबू बालदेव की गर्दन की मैल छुड़ाओ…” महंथ रामदास क्यों छोड़ देंगे ! सच्ची बात तो लोग अपने बाप के मुँह पर भी कह देते हैं।

“बालदेव जी का नाम मत लो।”

“क्यों नहीं लेंगे ?…मठ को सूअर का खुहार बनाया कौन ?”

“मैंने बनाया है ?”

“हाँ, तुमने बनाया है। मेरा भीतर जल रहा है। बात मत बढ़ाओ।”

“भीतर जलता है तो मारकर ठंडा कर लो।”

मारपीट का नाम सुनकर बालदेव जी कैसे चुप रहें ! हिंसाबात का डर है। “महंथ साहेब !…कोठारिन जी ! सान्ती ! सान्ती से सब बात कीजिए !”

“अहा-हा ! कोठारिन रे कोठारिन !” रमपियरिया को बचपन से ही झगड़ने की तालीम मिली है। वह किवाड़ की आड़ से निकल आती है और हाथ चमका-चमकाकर कहती है-“रोज आध पहर रात को कोठारिन की कोठरी खुलती है।…सन्दूक की चाबी कहाँ है ?…गुदामघर में है क्या ? सब तो बेंच-बाँचकर छुट्टी कर दिया।”

लछमी के नथने फड़कने लगते हैं। लगता है किसी ने बाँस की पतली छड़ से उसकी पीठ पर शपाक् से मार दिया।…बारह बजे रात को कोठरी खुलती है !…सब बेंच-बाँचकर छुट्टी कर दिया !…सतगुरु हो, किस पाप का दंड दे रहे हो प्रभू ?

“रामदास ! अपनी फेकसियारी (लोमड़ी की एक जाति) का मुँह बन्द करो, नहीं तो अच्छा नहीं होगा। क्या चाहते हो तुम लोग ?…सन्दूक की चाबी के लिए कलेजा ऐंठ रहा है तो ले लो !” लछमी सन्दूक की चाबी भी फेंक देती है।

रमपियरिया अब गद्दीघर से बकर-बकर कर रही है।…अलबत्त बोल सकती है रमपियरिया ! लौंगी-मिरचा की तरह वह तेज है। उसकी बातें सुनकर देह लहरने लगता है। बात में भी ऐसा…झाल ?

“लड़ि मरे बरदा, बैठल खाए तुरंग। दिन-भर बैठकर महतमाजी-महतमा जी कहता है बालदेव, कभी एक लोटा पानी भी किसी पेड़ में दे तो समझें कि हाँ ! सुबह से साम तक ऐना-ककही लेकर महरानी सिंगार-पटार करेगी ! यहाँ कोई किसी का नौकर नहीं।…मेरे देह में मैल है, मन में नहीं। ऊपर से तो गमकौआ साबून और चम्पा-चमेली का तेल लगाती हो-भीतर ? राम-राम ! रात-भर मुँह में मुँह सटाकर सोनेवाली, भोर में मुँह धोकर सुध तो नहीं हो सकती।…नट्टिन ! कसबिन !” रमपियरिया बड़बड़ा रही है।

“ड़मपियाड़ी ! बेसी मत बोलो, सिर में दरद हो जाएगा।” रामदास जी कहते हैं, “ऐसा जानता तो…।”

लछमी दासिन कुछ नहीं बोलती है। चुपचाप, टकटकी लगाकर नींबू के पेड़ की ओर देखती है।

रमपियरिया की एक-एक बात तीर की तरह उसके मर्मस्थल में गुंथ गई है।… गमकौआ साबून और चमेली का तेल !…महंथ सेवादास ने उसे यही एक बहुत खराब आदत लगा दी है, बिना साबून के वह नहा ही नहीं सकती है। मन पवित्र ही नहीं होता है बिना साबून के ! केशरंजन तेल तो सिर-दर्द के दिन ही अब लगाती है वह।… महंथसाहेब जब पुरैनियाँ कचहरी से लौटते तो झोरी में तेल, साबून, किसमिस-अखरोट और तरह-तरह का फल-मेवा ले आते थे। कोई भी नई चीज बिकते देखा, बस खरीद लिया।

…महंथ सेवादास के साथ सभी तीरथ कर चुकी है लछमी।…क्या इसी नरक भोग के लिए ! उसकी तकदीर ही खराब है। अब मठ में रहना नरकवास है ! है छिः-छिः, दस दिन हुए, परसाद जरा भी नहीं रुचता है, पानी में मछली की गन्ध पहले ही रोज लग गई, सो अब पानी पीते ही कै हो जाती है।…मठ पर आने के समय रमपियरिया की माये ने ठूँस-ठूँसकर मछली खिला दिया था। सतगुरु हो !…सबकुछ करो, पंथ मत भरस्ट करना गुरु !…वह कल ही अलग हो जाएगी मठ से। महंथ साहेब उसके नाम से तीस बीघा जमीन और कलमी आमों का एक बाग लिख गए हैं। उस पर मठ का कोई अधिकार नहीं !…सब एक सप्ताह में ही, सतगुरु की कृपा से, ठीक हो जाएगा।

लछमी की आँखों के आगे सपनों-जैसी एक दुनिया बस रही है।…कलमी आमों के बाग में, ठीक बम्बई आम के पेड़ के पास, दो खूबसूरत झोंपड़ियाँ हैं। वह चरखा चला रही है ! बालदेव जी बीजक बाँच रहे हैं…

बालदेव जी ! अब आसन तोड़िए!”

बालदेव जी लछमी के चेहरे की ओर भकर-भकर (अर्थ-भावहीन दृष्टि से देखना) देखते हैं। जब-जब वह लछमी की आँखों में खोते हैं, उनका चेहरा ठीक ऐसा ही अर्थ-भावहीन हो जाता है।…आसन तोड़ना होगा ?

“हाँ, आसन तोड़ना होगा। यहाँ धरम नहीं बचेगा,” लछमी की आँखें डबडबा आती हैं।

आ रे! जोगिया के नग्र बसे मति कोई
ओहो सन्तो…जा रे बसे सो जोगिया…होई !

…डिम डिमिक-डिमिक्, डिम डिमिक-डिमिक् !

7

कमली दिन-दिन खूबसूरत होती जा रही है।

गले में अब दो रेखाएँ ऐसी उभरती हैं जो उसके मुख-मंडल को और भी आकर्षक बना देती हैं। आँखों में चंचलता नहीं, एक मद है।…अचानक देखने पर लगता है कि आँखों में काजल पड़ा है।

“माँ ! अब तुम्हारा डाक्टर…खुद बेहोश होने लगा है। आध घंटे से दीवार की ओर एकटक देख रहा है।” कमली अपने कमरे में बाल झाड़ रही है।

माँ डाँटती है, “कमली ! डाक्टर साहेब गोल कमरे में बैठे हैं।”

“तो क्या हुआ ?”

कई दिनों से माँ चाहती है कि कमली को कहे, इतना हेल-मेल अच्छा नहीं। लेकिन, अभी उसकी ओर देखते ही माँ ने जाने क्या देखा कि मोम की तरह गल गई। “दुधिया वर्ण और सुडौल बाँहें, लंबे-लंबे बाल, सुगठित मांसपेशियाँ,और आँखों में यह क्‍या ? …काँप जाती है माँ। यह क्‍या रे अभागी ! हतभागिन ! आँचल को मैला मत करना बेटी, दुहाई ! नहीं, नहीं …वह भी कैसी है ! उसकी बेटी तो ‘माँ कमला’ है। …वह जो चाहे, करे ! माँ के ओठों पर स्वाभाविक मुस्कराहट लौट आती है, “मालूम होता है, तुम्हारा रोग उतारकर डाक्टर ने अपने ऊपर ले लिया है।”

“हो-हो !” डाक्टर अब हँसी जब्त नहीं कर सकता है, “हो-हो !” कमली पर्दे की आड़ से गला निकालकर इशारे से कहती है, “चुप ! आप बीमार हैं। मालूम ?”

तहसीलदार साहब की खड़ाऊँ ख़टखटाती है। हँसी सुनकर वे भला कोई और काम कर सकते हैं !

डाक्टर को तहसीलदार साहब के दोनो रूपों के दर्शन हो चुके हैं। जब वह घर-गृहस्थी, मामले-मुकदमे, लेन-देन, नफा-घटी वगैरह की बाते करते रहें तो उनका कोई और रूप देखिएगा। घर में, आराम से बैठकर दीन-दुनिया की बातें करते समय अथवा रामायण-महाभारत, देश-बिदेश से लेकर घरेलू चीजों पर टीका करने के समय, किसी और तहसीलदार साहब को आप देखिएगा। हास्यप्रिय, रसिक और कुशल गृहस्थ ! भोला-भाला इंसान !

डाक्टर को उनके प्रथम रूप से बेहद घृणा है, किंतु दूसरे रूप के इंद्रजाल में तो वह फँस ही चुका है।

“क्या बात थी ?” तहसीलदार साहब हँसी का टटका स्वाद लेने के लिए तुरत पूछ बैठते है-“कमली की माँ ! क्या बात थी ? ये दोनो नहीं बतावेंगे !”

“अरे, तुम्हारी पगली बेटी के मुँह में जो आता है बक देती है| तुम्हारी बहकाई हुई बेटी अभी कह रही थी कि डाक्टर साहेब अब खुद बेहोस हो जाते हैं।”

“अच्छा ! …तब ?” तहसीलदार, साहब मुस्कराहट को रोकने की मुद्रा बनाकर, चाय के प्याले में चुस्की लेते हुए पूछते हैं, “तब फिर ?”

माँ हँसी को रोकते हुए कहती है, “तो मैंने कहा कि मालूम होता है, तुम्हारा रोग उतारकर उन्होंने अपने ऊपर ले लिया है। डाक्टर साहेब भी सुन रहे थे …।”

“हा-हा-हा-हा !” तहसीलदार साहब की ऐसी हँसी को कमली कहती है, “बाबा पछतिया (देर से फलने-फूलनेवाली) हँसी हँसते हैं।

तहसीलदार साहब भी देखते हैं, कमली के स्वभाव में बहुत परिवर्तन हुए हैं। ऐसी बेटी का बाप चुपचाप बैठा है; लाचार है। भगवान ! शंकर भगवान ! कमली पर कृपा-दृष्टि फेरो !

डाक्टर तहसीलदार साहब की बुझती हुई हँसी को गौर से देखता है। “यह शायद एक तीसरा रूप है जिसे देखकर पत्थर भी पिघल जाए। कितना करुण!

“डाक्टर साहेब !” माँ दो प्लेटों में जलपान ले आती है, “कमली रेडियो की दीदी से मटर-पोलाव सीखकर आई है उस दिन !”

“तो यह ऑल-इंडिया रेडियोवाला मामला है ! शुरू कीजिए डाक्टर साहब ! देखिए कि मटर की घुघनी को किस सफाई से मटर-पुलाव बना दिया है।”

“कुछ भी हो, खयाली-पुलाव से तो अच्छा है,” डाक्टर कमली की ओर हँसते हुए देखता है।

“हो-हो-हो-हो !”

“हँसी-खुशी के इंद्रजाल में फंसकर डाक्टर अपने कर्त्तव्य की अवहेलना तो नहीं कर रहा है ? वह कभी-कभी रुककर सोचता है। वह जो कुछ भी कर रहा है, उसके विरोध में हृदय के किसी कोने का तार बेसुरा तो नहीं बज उठता है ? “नहीं, वह जो भी कर रहा है, सही हो या गलत, अच्छा लगता है उसे !”

प्यारू ने कई बार कहा है, आँगन की ओर खुलनेवाली खिड़की पर भी पर्दा रहना चाहिए। नंगी-सी लगती है यह खिड़की ! डाक्टर प्यारू को इसीलिए इतना प्यार करता है। …कमली अब रोज डाक्टर के यहाँ आती है।

“मौसी कहती थी…कहती थी कि… तू गलत कर रही है। तुम दोनों गलत कर रहे हो | … इसके बाद क्या होगा, सोचा है कभी ? क्या होगा इसके बाद डाक्टर ? कहो तो !” कमली आम के फांकों-जैसी आँखों से मधु ढालते हुए पूछती है |

“कहो तो डाक्टर ! क्‍या होगा ?”

“क्या होगा ! जो भी हो, बुरा न होगा |”

“तुम हमेशा मेरे पास नहीं रह सकते ?”

“फिर पागलपन ?”

“डाक्टर ! तुम जिन तो नहीं ?”

“जिन ! क्‍या जिन ?”

“जिन एक पीर का नाम है। वह कभी-कभी मन मोहनेवाला रूप धरकर कुमारी और बेवा लड़कियों को भरमाता है। गरीब-से-गरीब को धनी बना देना उसकी चुटकी बजाने-भर की बात है। जिस पर बिगड़े, बरबाद कर दे, जिस पर ढरे उसे निहाल कर दे ।” कमली के गले की दोनों नई रेखाएँ जल्दी-जल्दी बनती-बिगड़ती हैं…। वह डर तो नहीं रही ? …वह डाक्टर को पकड़ लेती है।

“क्यों झूंठ-मूठ डरने लगीं। फिजूल की बातें भरे रहती हो दिमाग में !”

“नहीं, मुझे डर नहीं लगता है। यदि तुम जिन भी रहो तो…मैंने तुमको जीत लिया है।”

“इतना भरोसा ?” डाक्टर कमली की आँखों में चमकते विश्वास का स्पष्ट रूप देख लेता है। कमला नीरोग है ! स्वस्थ है कमला !

“तुम बांहों पर उस दिन कौन-सा जेवर पहनकर आई थीं ? अब क्‍यों नहीं पहनती ?”

“बाजू। …क्यों, ग्वालिन-जैसी लगती थी न ? गोकुल की ग्वालिन !” कमली ठठाकर हँस पड़ती है।

इसी को रासलीला कहते हैं।…देखते हो ? अभी दो पहर रात को डाकडर का नेंगडा नौकर लैट भुकभुकता हुआ, तहसीलदार की बेटी को घर पहुँचाने जाता है।…सादी ही क्यों न करा देते हैं ? एकदम साहेब मेम ! डाकडर साहेब भी कैसे आदमी हैं !

“डाक्टर साहेब कैसा आदमी है ?” अगमू चौकीदार से कटहा थाना के नए दारोगा साहब पूछते हैं।

“हुजूर ! अच्छा आदमी है, मगर…”

“मगर क्या रे ? साला आधा बात बोलता है, बटच्…आधा बात पेट में रखता है। साले, हमको चीन्ह लो। हम दूसरे जिला के नहीं, हमारा घर इसी जिला में है। जानते हो न ? हमसे साले बात छिपाते हो। क्या मगर ?” नए दारोगा साहब जलजल करते हैं। हवा को भी गाली देते हैं, “साला ! रात में बटच्…ऐसा हवा बहता था हवलदार साहब, कि नींद तो बूझिए कि बोझ दिया। हवलदार साहब। जरा वह फाइल दीजिए तो ! देखें, क्या-क्या सब पूछा है। नया-नया पार्टी होता है, साला हम लोगों को जान जाता है।”

दारोगा साहब नई उम्र के हैं। कहते हैं कि इस जिले के पहले पाँच दारोगों में से एक हैं। बातें करते समय वह यह कहना नहीं भूलते-“साहब ! मैं बाहरी आदमी नहीं, इसी जिले का हूँ।” हर मौके पर इसका बढ़िया इस्तेमाल करते हैं-“मैं यदि एक पैसा खा भी लूँगा तो इसी जिले में रहेगा।” दारोगा साहब जबर्दस्त गलतफहमी से परेशान रहते हैं बाहर के जितने भी लोग यहाँ आए हैं, उन्हीं के हिस्से का सुख-मौज लूट रहे हैं।…फारबिसगंज के नवतुरिया नेता छोटनबाबू जिला कांग्रेस के सिक्रेटरी हुए हैं।…लिखा है…यह डाक्टर कौमनिस्ट पार्टी का है।

दारोगा साहब ने अस्पताल को चारों ओर से एक दर्जन सिपाहियों से घिरवा रखा है ।

“आपका घर…असल में कहाँ है ?” दारोगा साहब हैरान होकर पूछते हैं।

“विराटनगर।”

“विराटनगर तो नेपाल में है। आप नेपाली हैं ?”

“नहीं।”

“तब ?”

“आप इतना हैरान क्यों हो रहे हैं, दारोगा साहब ? मैं जो कुछ भी कहता हूँ, लिखते जाइए !”

“सो…लिखते जाइए ! वाह ! आखिर क्या लिखें ?”

“मैं जो कुछ भी जवाब देता हूँ।”

तहसीलदार साहब पसीने से तर-बतर हो रहे हैं। प्यारू का मुँह सूख गया है।…लेकिन आश्चर्य ! कमली पर इसकी कोई प्रतिक्रिया नहीं होती।…’डाक्टर को कुछ नहीं हो सकता। कोई बात नहीं है,’ कमली को दृढ़ विश्वास है।

दारोगासाहब डाक्टर को दो बात में ही पहचान गए हैं-“अजीब किस्म का आदमी है यह डाक्टर !”

सुमरितदास बेतार से आज बच्चा-बच्चा पूछता है-“सुमरितदास ! डागडर साहेब ने क्या किया है जो दारोगा साहेब पकड़ने आए हैं ?…घूस लेने की शिकायत तो नहीं किया है किसी ने ?”

“देखो न जी ! बड़ा खराब है यह दुनिया। किसी का बिसवास नहीं।…रमैन में कहा है न-बिस रस भरे कनक घट जैसे ! यह डाकडर तो सुनते हैं कि…जरमनवाला का आदमी है ! जोतखी जी ठीक ही कहते थे…जरमनवाला का सी-आई-डी है यह डाकडर। यहाँ के लोगों को सूई भोंककर कमजोर करने का काम करता था। कुआँ में दवा डालकर सचमुच में हैजा फैलाया है। जरमनवाला का एक पाटी है यहाँ, कमसीन…कौम-नीस पाटी सुनते हैं, उसी पाटी का आदमी है।”

इस दारोगा की हरकतों पर डाक्टर को ताज्जुब होता है। बार-बार कहता है, ‘हम इसी जिले के हैं। बेवकूफों की तरह सवाल करता है, “आपको…बहुत लड़कियों से ताल्लुक रहा है ?”

“रहा है। कम-से-कम चार सौ लड़कियों के साथ मैं दिन-रात रह चुका हूँ,” डाक्टर मुस्कराता है।

“चार सौ !” दारोगा साहब को जब किसी बात पर अचरज होता है तो उनकी आँखें उल्लू की आँखों की तरह गोल हो जाती हैं, “चार…चार सौ ! बटच्…इतनी लड़कियाँ कहाँ से मिलीं ?”

“मेडिकल कालेज हॉस्पिटल में।”

“ओ !…नहीं, मेरे पूछने का मतलब है कि भले घर की लड़कियाँ…”

“क्यों, हॉस्पिटल में भले घर की लड़कियाँ नहीं जाती ?”

“मेरा मतलब।…खैर, छोड़िए इन बातों को। ‘कौमनिस्ट पाटी’ वालों से आपका कैसा रिस्ता है ?”

“मेरे बहुत-से दोस्त कम्यूनिस्ट हैं।”

“आपने संथालों को भड़काया…समझाया था कि जमीन पर जबर्दस्ती हमला कर दो ? संथालों ने अपने बयान में कहा है।”

संथाल लोग समय-समय पर मुझसे पुराने कागजात पढ़वाने आया करते थे-जजमेंट वगैरह….”

“आप अपनी किताबें दिखला सकते हैं ?” दारोगा साहब उठकर किताबों की अलमारी के पास जाते हैं।

…साला, सब डाक्टरी किताबें हैं !…चिल्ड्रेन ऑफ़ यू.एस.एस.आर.। लाल रूस, लेखक : बेनीपुरी।…लाल चीन, लेखक : बेनीपुरी।

“ये सब तो रूस की किताब है !”

“रूस की नहीं, रूस के बारे मे।” “दोनो एक ही बात है,” दारोगा साहब उस किताब को निकालकर उलटते हैं-मानो किताब के पन्‍नो मे बम छिपा हो। बहुत सतर्क होकर पृष्ठ उलटते हैं।

“रूस की नहीं, रूस के बारे में ।”

“दोनों एक ही बात है,” दारोगा साहब उस किताब को निकालकर उलटते हैं-मानो किताब के पन्‍नो मे बम छिपा हो। बहुत सतर्क होकर पृष्ठ उलटते हैं।

…डागडर साहेब गिरिफ्फ। जुलुम बात ! संथालों को डागडर साहेब ने ही भडकाया था। गाँव में हैजा भी उन्होने फैलाया था।…गाँव के लोगो को कमजोर कर दिया | …हाँ, हैजा की सूई लेने के बाद …आज भी जब काम-धन्धा करने लगते हैं तो आँखों के आगे भगजोगनी उड़ने लगती है। …देखने में कैसा बमभोला था! मालूम होता था, देवता है। भीतर-ही-भीतर इतना बड़ा मारखू (बदमाश)आदमी था सो कौन जाने ! जोतखी काका ठीक ही कहते थे।

…गोनौरी के यहाँ फारबिसगंज का एक मेहमान आया है। कहता है, उसके गाँव के पास, सिझवा-गरैया में एक डागडर है जो डकैती कराता है। डागडर तो घर घर में जाता है, अगवार-पछवार सब देखता है, रुपैया का बक्सा भी वह देखता है। …वह अपने दल वालों को पूरा नकसा बता देता है। घर वाले को सोने की दवा दे देता है, उधर चोरी-डकैती करवा देता है। गाँव के आसपास के लोगों को सूई भोंककर डरपोक बना दिया है।…जो उसकी बात से बाहर हुआ, उसका बैल गाय कटवा देता है, भैंस चोरी करवा देता है या घर में आग लगवा देता है। कई बार बेल-केस (बी. एल. केस) उस पर चला, लेकिन रुपैया खर्च करके जीत जाता है। नाम भी अजीब है-डागडर नटखटपरसाद !

“हाँ भाई ! किसी का बिसवास नहीं।”

“सोमा जट कल तामगंज मेला मे गिरिफ्फ हो गया।” सोमन मोची कहता है-“अभी मेला से जो लोग आए हैं, बोल रहे हैं। अब हम अखाड़ा में ढोल नहीं बजाएँगे।”

8

जोतखी काका आजकल बहुत खुश रहते हैं।

गाँव के लोग आजकल दिन में पाँच बार परनाम करते हैं।…अलबत्त बरमगियानी हैं जोतखी काका ! कलजुग में भी यदि कुछ तेज बाकी है तो बाभन में ही।…जोतिस बिद्दा हँसी-खेल नहीं।…बरमतेज अभी भी है। सोना यदि कीचड़ में रहे तो उस पर काई नहीं लग सकती।…परनाम जोतखी काका !

“जीयो, आओ बैठो ! क्या बात है ?”

“जोतखी काका, हम लुट गए। मेरा तोता कल उड़ गया। हँसते-खेलते चला गया जोतखी काका !” पोलियाटोली का हीरू जोतखी काका के पाँव पर लोटकर रोता है।

“ऐ हीरू, क्या हुआ ?” जोतखी जी पूछते हैं।

“मेरा बेटा ! मेरा बच्चा जीबानन, कल ही…एक दिन के बुखार में…कलेजा तोड़कर चला गया। मेरा सिखाया-पढ़ाया तोता उड़ गया जोतखी कका !” हीरू अब सिर पर हाथ रखकर झुककर बैठा हुआ रो रहा है।

“इतना जल्दी ! कल कौन दिन था-सोमवार ? हुँ! सोम को मरा है न ?”

“हाँ, ठीक सूरज डूबने के समय !”

“करसामाँ (करिश्मा) है। डाइन का करसामाँ है। समझे हीरू ! शुक्रवार को अमावस्या है। जिस पर तुमको संदेह हो, उसके पिछवाड़े में बैठ रहना। ठीक दो पहर रात को वह निकलेगी | उसका पीछा करना ! वह तुम्हारे बच्चे को जिलाकर, तेल-फुलेल लगाकर, गोदी में लेकर जब नाचने लगेगी तो …उस समय यदि उससे बच्चा छीन लो तो फिर उस बच्चे को कोई मार ही नहीं सकता। इंद्र का वज्र भी फूल हो जाएगा ।”

“इसमें और संदेह की क्‍या बात है जोतखी काका ! …सफासफी ऐना की तरह बात झलकती है। …पाँच महीना पहले, दफा चालीस के समय, जब सभी लोग दरखास देने लगे तो हमने भी दे दिया। मेरा साला कचेहरी में मोहर्रिल है। उसके पैरवी से जमीन हमको नगदी हो गई। सभी की दरखास नामंजूर हो गई और हमको जमा बाँध दिया। एक दिन पारबती की माँ गेहूँ हिस्सा माँगने लगी तो हम कह दिया कि अब बाँटकर नहीं देंगे । हमको नगदी हो गया है जमीन-दफा चालीस में | बस, तुरत आसीखसराप देने लगी | इसकी दसों बीघा जमीन हम जोतते थे बस, वही गोस्सा मन में पालती रही और कल हमको लूट लिया राच्छसनी ने।”

“ऐ हीरू ! रोओ मत। हल्ला मत करो। चुपचाप, अमावस्या की रात को, दो पहर रात का । याद रखना !”

अमावस्या की रात !

पारबती की माँ के पिछवाड़े में मरद भर-भर भांग की झाड़ी है। हीरू उसी झाड़ी में बैठकर खैनी चुनता और खाता है।…मोरंगिया गाँजे का नशा बड़ा तेज होता है। कातिक महीने से ही रातमें सीत गिरने लगती है। हीरू का देह एकदम ठंडा हो गया। खैनी खाकर गर्म हो लेता है। कहता है-“साली घर मे गुटुर-गुटर कर बोलती है, बाहर नहीं निकलती है। निकलो आज !…कहीं घर में ही तो नहीं नाचेगी ? यदि बाहर नहीं हो …तब ? जोतखी काका ने भी नहीं बताया ।”

मौसी को शाम से परेशान कर रखा है गणेश ने ! आज उसकी आँखों से नींद गायब हो गई है। रह-रहकर वह ऐसी-ऐसी बात पूछ बैठता है कि मौसी को अच्छी तरह समझ-बूझकर जवाब देना पड़ता है।

“मामा को जेहल में मारता होगा ?”

“नहीं रे ! तुम्हारा मामा चोर-डकैत नहीं।”

“तो फिर, पकड़ा क्यों ? जेहल काहे ले गया ?”

“सरकार की जो मरजी।”

“सरकार की जो मरजी ! सरकार से तुम क्यों नहीं पूछती ?”

“चुप रहो ! सो जाओ बेटा !”

“नानी !”

“बाबू !”

“हमको बाहर ले चलो !…पेसाब करेंगे।”

“चलो!”

खट् ! किवाड़ खोलती है मौसी। पिछवाड़े से भाँग की झाड़ी हिलती है। हीरू बोतल में दारू ले आया है, जल्दी-जल्दी बोतल में मुँह लगाकर पीता है।…हाँ, निकली तो है राच्छसनी ! ठीक दो पहर रात है। रमडंडी सिर पर आ गया है। सियार बोल रहे हैं। ठीक दो पहर रात है।…कपड़ा क्यों सँभालती है ? नंगी हो रही है ?

-सटाक् !… !

“आ…ह… ! बेटा ग ने स!”

“ना…नी !”

-सटाक् ! सटाक् !…फट सटाक् !

“गि-गि-गि-गि…गि ि…”

“नानी !…कमली…दीदी ! नानी !”

सब शान्ति ! मगर जीवानन्द…हीरू का बेटा कहाँ है ? हीरू का नशा अचानक टूट गया। छर-छर बहती हुई खून की धारा को देखकर वह थर-थर काँपने लगता है। लाठी उसके हाथ से छूटकर गिर पड़ती है। खून?

पुलिस-दारोगा…जेहल…फाँसी-सुल्ली ! हीरू भागता है।

सबसे पहले तहसीलदार साहब हल्ला करते हुए, बन्दूक का दो-तीन फैर करते हैं। ठायँ-ठायँ !

सारा गाँव जग गया है। कुत्तों के मारे कुछ सुना भी नहीं जाता है कि हल्ला किधर हुआ, क्यों हुआ। क्या है ? क्या है ? सभी अपने आँगन से ही पूछते हैं। क्या है रामदेव ? अरे नागेसर ! क्या है ?…पता नहीं ?

तहसीलदार साहब चिल्लाते हैं, “अरे कालीचरन ! आवाज पारबती की माँ-जैसी लगी। तुम लोग घर से निकलते क्यों नहीं ?…लगता है सारे गाँव के लोग मुर्दा हो गए हैं।”

पारबती की माँ…अरे बाप ! खून से नहा गई है। साँस देखो। मरी है या…। हुक-हुक करती है ? तब अभी जान है। और…यह गनेस है ?…दाँती लगी हुई है। पानी लाओ…किसका काम है यह ? हे भगवान !…लाठी है ? तहसीलदार साहेब के जिम्मे लगा दो लाठी ! इसी से पता चल जाएगा।

“अगमू !” तहसीलदार साहब कहते हैं, “तुम अभी दौड़ जाओ थाना।…कल । पूर्णिया अस्पताल यदि ठीक समय पर पहुँच जाए…”

“नानी…नानी ! मामा ! डाक्टर मामा !…दीदी, दीदी !” गणेश रोता जाता है। कमली आँखों को पोंछते हुए गणेश को अपने घर ले आती है। बुद्धि यदि कम होती गणेश को तो अच्छा था।…कमली के साथ वह आता है।…बातें भी करता है। कमली कहती है, “भगवान हम सबों के बाप हैं…उन्होंने नानी को अपने पास बुला लिया।”

“हाँ…यें…” लम्बी हिचकी पर गणेश कब्जा नहीं पा सकता है, “नानी !…कमली दीदी ! नानी !”

…हाय रे अभागा ! तेरी कमली दीदी किसके पास रोने जाए ! “बाबू गनेस !… तुम्हारे मामा आवेंगे। रोओ मत।”

हीरू पकड़ा गया है।…पकड़ावेगा कैसे नहीं भाई ! गाँव में किसकी लाठी को कौन नहीं पहचानता ! हीरू की ठुट्ठी लाठी तो मसहूर है-हरहँसेरी में उसकी ठुट्ठी लाठी कमाल कर दिखाती थी न ! रात में ही लोगों ने पहचान लिया, मगर डर से नहीं बोला कोई ….इसके अलावे उसके दोनों पैर खून में लथपथ ! धोया भी नहीं था।…लगता है, मारने के बाद लहास को थोड़ी दूर घसीटने की कोशिश की थी हीरू ने।…सुबह को तो एकदम बघौछ (मतिशून्य) लगे हए पागलों की तरह ! उसे देखकर डर लगता था।

उसकी आँखें बताती थीं, वह अभी और भी कई खून कर सकता है।…मुँह से लार भी गिरता था। दारोगा ने गिरिफ्फ कर लिया, मगर वैसा ही ! दारोगा ने दो लात मारी, हवलदार ने दो-तीन हंटर गर्म किए और सिपाही ने तीन-चार तमाचे जड़े, “साला ! बोलता काहे नहीं ?…नाम गिनाव I अपन बाप के जे साथ र ह ल न। हौने मुंह का देखऽऽताड़ऽऽ-चच्चा के तरफ देखके बोलऽ ! साला हतियारा कहीं का !…नरक में भी जग्हा ना मिली ससुरे !”

मगर वह बकता रहा-“हम अकेले मारा।”

“ससुरे ! ई नीलगाय-जैसन औरत के तूं अकेले मारा ! बन्नूक-उन्नूक…”

“ऐ सिपाही जी ! छोड़ दीजिए !” छोटे दारोगा साहब बड़े भले आदमी हैं। कहते हैं, “साले ! यदि फाँसी से बचने के लिए पागल हुए हो तो दो ही दिन की मार में मर जाओगे।”

लहास को एकदम ढंककर पालकी में ले जाने का बन्दोबस्त करते हैं दारोगासाहब। एक उँगली भी नहीं दिखाई पड़े।…अतर-गुलाब भी डलवा दिया। अरे ! लहास के साथ गनेस भी जाएगा ? साथ में प्यारू जा रहा है। पुरैनियाँ खजाँचीधरमसाला के पास ही गनेस की एक चाची रहती है।…वह जब नहीं रखेगी तो अनाथालय में…

मौसी चली गई हमेशा के लिए। कमली फूटकर रो पड़ती है।

जोतखी जी को लकवा मार गया-अरधांग ! मुँह टेढ़ा हो गया है। एक आँख एकदम पथरा गई है। पैखाना-पेसाब सब बिछावन पर ही होता है। रामनारायण उनके पास अकेले बैठने में डरता है। रामनारायण जानता है सारी बातें।…पारबती की माँ की हत्या की रात से ही उनकी हालत खराब हो गई थी। पेट खूब चला ! खून का पैखाना होने लगा-एकदम टटका खून ! लाल-लाल…इसके बाद गाँव से लाश जैसे ही निकली, लकवा मार गया। भगवान के इस टटका इंसाफ को देखकर रामनारायण डर गया था। इतनी जल्दी पाप को फलते बहुत कम देखा है।…पैखाने में इतना दुर्गन्ध है कि चार बीघा आसपास के लोगों को कै हो जाए ! नरक-भोग और किसको कहते हैं ?

…लेकिन जोतखी जी ने कहा था ठीक।…सुनते हैं जिस दिन पारबती की माँ के केस में दारोगासाहब आए, उस दिन भी बोले हैं, “अभी क्या हुआ है…और भी बाकी है!”

भगवान जाने और क्या-क्या होगा ! जै बाबा ‘जिन-पीर’, गाँव की रच्छा करो महतमा !

9

कोठारिन लछमी दासिन बालदेव जी के साथ मठ से अलग हो गई।

कलम-बाग में बाँस-फूस के तीन सुन्दर बँगले खड़े हो गए हैं। इस इलाके की यह भी एक बड़ी कारीगरी है-बाँस-फूस का चौखड़ा। एक ही डर होता है आग का ! लेकिन होता है खूब ! मेहराव और जाफरी गूंथकर लगा दिया है। फूल तो पहले से ही लगे हैं ! बाग की खपसूरती तो अठारह गुना बढ़ गई है। वाह रे कोठारिन ! चार सौ रुपए में एक जोड़ा बाछा खरीदकर मँगवाई है-मोतीचूर हाट से। बड़ा तेज है। हल्की-सी बाछा-गाड़ी बनवाई है। बाँस के पोर-पोर को छीलकर उसमें तरह-तरह के रंग लगाए गए हैं। हर बन्धन को और खासकर बल्ला की डोरी को सतरंगे लड़ों में गूंथा है। छोटे-छोटे लटकन-फुदने लाल, हरे, पीले, नीले। बाँछों के सर पर पीतल के पान हैं, गले में कौड़ी की लड़ियाँ और घंटी है। एक छोर मीढ़ी झुनकी भी है। झुन-झुन टुन-टुन, झुन-झुन टुन-टुन !…सुनो…वही ! बालदेव जी गोसाईं साहेब की बग्घी-सम्पनी निकली ! झुन-झुन टुन-टुन !

…बालदेव जी अब कितने साफ-सुथरे रहते हैं ! बगुला के पाँखों की तरह खादी की लुंगी और मिर्जई दप-दप करती है। देह भी थोड़ा साफ हो गया है। लछमी अपने हाथों से सेवा करती है!… मठ पर तो अब कौआ-मैना के ‘गू’ के साथ आदमी के बच्चों के भी पैखाने भिनकते रहते हैं । रमपियरिया की माये दिन-भर पड़ी रहती है; साथ में छोटे-छोटे तीन-चार बच्चे रहते हैं। भंडारी उस दिन आकर कलप रहा था-“दासिन, परसाद चित्त से उतर गया है। रोज रात को सपना देखते हैं कि पीने के पानी में मछली छलमला रही है। सतगुरु हो !”

एक महीने में “ड़मपियाड़ी’ ने माया के जाल में महंथ रामदास के अंग-अंग को फाँस लिया है।

महंथ साहब इस जाल से निकल भागने के लिए छटपटा रहे हैं, मगर जाल की गिरहें और उलझती जा रही हैं। कल गाली-गलौज और मार-पीट हो गई। महंथ साहब ने रौतहट हटिया से सुबह को एक भरी गाँजा मँगवाया था; रात में सोने के समय ड़मपियाड़ी ने कहा, “महंथ साहेब, गाँजा फुरा गया ।”…सुनते ही महंथ साहब चिढ़ गए, “ऐं, सुबह को ही न एक भर ला दिया है भंडारी ने !”

रमपियरिया महंथ साहब की मर्दानिगी देख चुकी है ! वह चुप क्‍यों रहे ? दम लगाने के समय होस रहता है कि नहीं ? “दिन-भर घोड़ा के दुम की तरह चिलिम मुँह में तो लगा ही रहता है” !”

“चुप चमारिन ! अखाड़ा को भरस्ट कर दिया । सतगुरु हो“ लछमी ठीक कहती थी !”

इसके बाद रमपियरिया की माये और बच्चों ने मिलकर ऐसा हल्ला मचाया कि बात कुछ समझ में ही न आई !… महंथ रामदास चिल्ला रहे हैं, चिमट खनखना रहे हैं, और रमपियरिया गा-गाकर सर चढ़ाकर रो रही है, “अरे ! तोऽऽरा हाथ में कोढ़ फूटे रे कोढ़िया ! अरे लछमिनियाँ के खातिर…“

…सतगुरु हो ! सतगुरु हो ! बंद करो ! बंद करो !…

बालदेव जी को पारबती की माँ के खून के बाद से रात को बड़ा डर लगता है। रात-भर… कलेजा धड़-धड़ करता रहता है। जरा भी कुछ आवाज हुई कि बिछावन पर तड़क उठते हैं। लछमी कहती है-निरमल चित्त पर खराब छाप पड़ने से ऐसा ही होता है !… बालदेव जी की आँखें ही बता रही हैं।

डिम डिमिक-डिमिक्‌, रुन झुनुक-झुनुक ! लखछमी आज खुद खँजड़ी बजा रही है। बालदेव जी आसनी पर बैठे हुए हैं। खिड़की के कमरे में चाँदनी का एक टुकड़ा उतर पड़ा है। दीवारगीर की हल्की रोशनी में लछमी की आँखें स्पष्ट नहीं दिखाई पड़ती हैं।…

ज्वाला बिरह वियोग की, रही कलेजे छा-य।
प्रेमी मन मानै नहीं, दरसन से अकुला-य !

बालदेव जी टकटकी लगाकर लछमी की ओर देख रहे हैं। खँजड़ी बजाकर गाने के समय लगता है कि लछमी की बोटी-बोटी नाच रही है। घुटने के बल बैठी है… ! ‘इन्दर सभा’ नाटक में ‘हूर परी, मसहूर परी, सबुज परी’ झंझनी बजाकर जैसे गाती थी, उसी तरह।…रह-रहकर पारबती की माँ की खून से लथपथ लाश की याद आ जाती है, एक पलक के लिए।…बालदेव जी आँख मूंद लेते हैं।…लछमी की देह से जो सुगन्धी निकलती है, वह आज और तेज हो गई है…लछमी की आवाज काँप रही है।…रो रही है लछमी ? ऐ? गाल पर लोर ढुलक रहे हैं ?…लछमी !

“लछमी ! लछमी ! रोओ मत लछमी !” बालदेव जी की बाँहों में भी इतना बल है ?…लछमी को बाँहों में कसे हुए हैं। लछमी गाती ही जाती है।

गृह आँगन बन गए पराए
कि आहो सन्तो हो!
तुम बिनु कंत बहुत दुख पाए… !
डिम डिमिक-डिमिक् !
रुन झुनुक-झुनक् !

एके गृह, एक संग में, हौं बिरहिण संग कंत
कब प्रीतम हँस बोलिहैं जोह रही मैं पंथ !

ढन-ढन रुनुक-झुनुक ! झन-न…बँजड़ी हाथ से छूटकर गिर पड़ती है। बालदेव जी के ओठों पर आज पहली बार ऐसी मुस्कराहट देखती है लछमी। गेहुआँ मुख-मंडल, छोटी-छोटी दाढ़ी-मूंछ…

…बालदेव जी के पाँव के अँगूठों से आँखें छुलाते हुए लछमी नजर मिलाती है, “सा…हे…ब बन्द गी!”

10

कामरेड बासुदेव और सुन्दरलाल भी गिरिफ्फ़।…कैसे नहीं गिरिफ्फ होगा भाई ! एक साल पहले तक किसी ने कभी गंजी भी पहनते नहीं देखा सुनरा को, सो इस गरमी के मौसम में कोट, पेंट, गुलबन, मोजा, जूता और चस्मा लगाकर कटिहार जक्सन के मुसाफिरखाना में बैठने से, लोग सन्देह नहीं करेगा ? एक डिब्बा सिगरेट खरीदकर दसटकिया लोट तोड़ाते थे दोनों। सुनते हैं, आधा घंटा में ही दोनों ने करीब-करीब सभी फेरीवालों को बुलाया और सौदा किया, “ए चाहवाला, सुनता है नहीं ! देहाती समझ लिया है क्या ?…चाह लाओ। बिस्कुट खाओगे जी सुन्नर ? अरे, थड़किलासी बिस्कुट क्या खाओगे जी !” कटिहार के फेरीवाले कैसा चाँई (धूर्त) होते हैं सो सबों को मालूम है। उन लोगों ने बहुत बड़े-बड़े लोगों को देखा है, पर ऐसा नहीं | भिखमंगे को चौअन्नी दे दिया, “जाओ, नास्ता कर लो !” …लड़ाई के जमाना में अमरीकन साहेव लोग इसी तरह सिगरेट और बिस्कुट लुटाते थे। बस, सी-आई-डी कहाँ नहीं है ! तुरंत दोनों को गिरफ्फ कर लिया। भगवान जाने अब और किसका-किसका नाम गिनाता है !

जोतखी जी ठीक कहते थे-अभी क्या हुआ है, अभी और बाकी है !

“बासुदेव ने कालीचरन का भी नाम बताया है, सुनते हैं।”

“ऐ- ! कालीचरन है कहाँ ?”

“मंगलादेवी को कटिहार रखने गया है।”

मंगलादेवी कटिहार चली गई। गाँव का चरखा सेंटर टूट गया।… कटिहार में मंगला के दूर के रिश्ते के बहनोई रहते हैं। कालीचरन पहुँचाने गया है। पाटी आफिस में सुमेरन जी बोले, “सुनते हैं तुम पर भी वारंट है।”

“वारंट ?”

“हाँ, बासुदेव और सुनरा ने तुम्हारा भी नाम बताया है …जरा होशियारी से घर लौटना !”

“बासुदेव ! सुनरा ! बेईमान, झूठा !”

कालीचरन अँधेरे मे कोठी के बाग के पास छिपा हुआ है। जरा रात हो जाए तब घर जाएगा। बासुदेव और सुनरा को सोमा ने इतना आगे बढ़ा दिया। उसको ताज्जुब होता है। डकैती के तीन दिन बाद ही कालीचरन को सब पता लग गया था । सिकरेटरी साहब को चुपचाप कहने के लिए पुरैनियाँ गया वह, लेकिन सिकरेटरी साहब पटना चले गए थे। सिकरेटरी साहेब से सारी बातें कहनी होंगी। चलित्तर कर्मकार से हेलमेल बढ़ाने का यही फल है। हम पर बिसवास नहीं हुआ उनका तो …बासुदेव को चारिज दिए कि चलित्तर से मिलते रहो। बंदूक-पेस्तौल चलित्तर देता है। काली को जेहल का डर नहीं, पाटी की कितनी बड़ी बदनामी हुई ! अरे बाप, पटना के बड़े लीडर लोग को कैसे मुँह दिखलाएँगे ? सब चौपट कर दिया। कोई आ रहा है सायद !

कोठी-बाग के पास ही अंधेरे मे चेथरू से मुलाकात हुई। जड़ी उख़ाडने आया था। उसने बतलाया, “गाँव में पुलिस-दरोगा कम्फु लेकर आए हैं। कालीचरन ने चेथरू को दो रुपया दिया, “माँ को दे देना! और यह तुम लो एक रुपया !”

जड़ी उखाड़ने के बदले चेथरू गाँव की ओर भागा। …फिरारी किरान्ती को पकड़ा देने वालों को बहुत रुपैया इनाम मिलता है। तुरंत ही उसने दरोगा साहब को चुपचाप ख़बर दी, “हम कालीचरन को कोठी के बगीचे में देखा है।” …दारोगा साहब मलेटरी लेकर जब तक आवें, कालीचरन पवन हो गया।

चेथरू कहता है, “यहीं से पश्चिम की ओर हनहनाता हुआ चला गया, घोड़पाड़ा की तरह ।”

खेलावनसिंह यादव बेचारे को फिर एक चरन लग गया। इधर खेलावन जरा जादे हेलमेल रखता था कालीचरन से। दारोगा साहब ने कहा, “जरूर डकैती का माल आपके यहाँ रहता है। आपने उन लोगों को चौखड़ा घर बनवा दिया है। क्यों ?”

….लगता है, खेलावनसिंह यादव का दिन अब घटती पर है।…जब चढंती पर रहता है किसी का दिन, तब वह माटी भी छू देगा तो सोना हो जाएगा। दिन बिगड़ने पर चारों ओर से खराब खबरें ही आती हैं। तहसीलदार साहेब को डेढ़ हजार मुँहजुबानी बाकी था।…कमला किनारे की बन्दोबस्तीवाली जमीन में से दस बीघा सूद-रेहन रखकर और भी एक हजार रुपैया तहसीलदार से लिया है खेलावन ने। कल अररिया-बैरगांछी से खबर आई है, सकलदीप नानी का दस भर सोना चुराकर न जाने कहाँ भाग गया है।…सुनते हैं, मदनपुर मेला में एक ठेठर कम्पनी आई थी कलकत्ता से। उसमें एक लैला थी। उसी ने सकलदीप को फँसा लिया है। जवान तड़-तड़ बहू घर में है। सकलदीप के ससुर आसिनबाबू तो बड़े आदमी हैं, खोज निकाल लेंगे !…खेलावन की स्त्री कहती है, “जिन पीर बाबा के दरघा पर घर नहीं है, वहाँ एक झोंपड़ी बनाने के लिए तीन साल से कह रही थी, आखिर नहीं बनाए। कालीचरन की बात पर फुच्च हो गए, चौखड़ा घर बनवा दिया।…दुहाई बाबा जिन पीर ! भूल-चूक माफ करो। मेरे बच्चा का मति फेर दो महतमा ! सिरनी और बद्धी चढ़ाऊँगी, एक भर गाँजा दूंगी।”

मँहगूदास के यहाँ खलासी जी आए हैं !…फुलिया की सारी देह में घाव हो गया है। पैटमान जी के पास कई बार संवाद भेजा फुलिया ने। एतबारी बूढ़ा को उस दिन भेजा तो मालूम हुआ पैटमान जी की बहाली हो गई बथनाहा, नेपाल सीमा के पास। चौकी-खाट वगैरह सब बेच दिया है पैटमान जी ने। सरकारी नौकरीवाले की जब बदली होती है तो वह सभी चीजें बेच देता है। नई जगह में जाकर नई चीजें मिलती हैं ! इसलिए क्या जनाना को भी छोड़ देगा कोई ? खलासी जी ने सुना तो दौड़े आए हैं।…कोई कुछ कहे, खलासी का कोई दोख नहीं। सारा दोख फुलिया का है !…जो बेचारा इतना खरच करके तुमसे चुमौना किया, वह तुमको अगोरकर बैठा रहेगा तो चूल्हा कैसे जलेगा ? खलासी बेचारा दिन-भर रेलबी लैन पर काम करता था और इधर पैटमानजी लैन किलियर देकर, गाड़ी पास करने के बाद फुलिया के यहाँ आकर बैठे रहते थे। आखिर एक दिन लड़ाई-झगड़ा, मार-पीट करके फुलिया उनके यहाँ भाग गई। खलासी जी का इसमें क्या कसूर है ? पाप भला छिपे ?…सारी देह गल गई है, मगर अभी भी होस नहीं हुआ है फुलिया को।…रमपियरिया उसके यहाँ रोज आती है और फुलिया फुसुर-फुसुर करके उसको सिखाती है-महन्थ से कोई चीज माँगने का कौन समय है…कैसे क्या कहना चाहिए।

खलासी जी कहते हैं, “दुनिया भर के लोगों की गरमी की बेमारी आराम करें हम, और हमारी घरवाली इस रोग से भोगे ?…तीन गोली में ही ठीक हो जाएगी। एक बात है, गरमी निकलेगी तो एक अंग को लेकर-आँख, नाक, दाँत, अँगुली, इसमें कोई एक अंग झूठा हो जाएगा !”

गाँव के बारे में खलासी जी कहते हैं, “गाँव में बनरभुत्ता लगा है। बंदर का भूत ! गाँव-के-गाँव इसी तरह साफ हो जाते हैं। कोई बंदर मरा था इस गाँव में ?”

“ठीक बात ! एकदम ठीक ! डागडरबाबू तो तीन बंदर पालते थे। न जाने कौन सूई दिहिन कि दोनों बेचारा केंकाते-केंकाते मर गया । …रात-भर किकियाया था, याद नहीं ?”

“ठीक बात ! ठीक बात ! एह, यह डागडर ऐसा जुल्मी आदमी था ! सारे गाँव को चौपट कर दिया ।”

“कोई पर्वाह नहीं ।” खलासी जी कहते हैं, “हम रात में चक्कर पूजकर, इस टोला को बाँध देंगे। कुछ नहीं होगा ।”

रमजूदास के गुहाल में चक्कर पूजा है खलासी ने।… चावल, दूध और अड़हुल के फूल से चक्कर बनाया है। बीच में माटी का एक बड़ा-सा दीया है और उसमें एक बड़ी-सी बत्ती जल रही है। एक बोतल दारू पीकर खलासी जी बैठे हैं, रह-रहकर दीया की जलती बाती को मुँह में ले लेते हैं ।… अरे बाप ! अलबत्त ओझा है खलासी जी। अरे ! रे ! रे !… जीभ में सुई गड़ा लिए, इस पार से उस पार !

अरे आजु के रैनिगे मैया
बड़ा अन्हकाल लागे
दाहिने डाकिन, वामे पिचास बोले
हुं…हुं…हुं…हुं…हुं !

दोहाय गौरा पारबती इसर महादेव
नैना जोगिन, जो सत से बेसत जाय
…अंग अंग फूट बहराय !

…फूत…फूत !
हिं-हिं-हिं-हिं…!

“अब गाइए आप लोग ‘गोचर’ ।”

गाँव के ‘भकतिया’ लोग शुरू करते हैं-मृदंग पर देवी का गीत ‘गोचर’ !

धिधिनक्‌ तिधिनक्‌ !

कँहवाँ के जे आ गे गैया आ आ

खलासी जी दीया की बाती को नचा रहे हैं और मुँह में लेकर बत्ती बुझाते हैं, फूँक मारकर भक्‌ से फिर दीया जलाते हैं… कबूतर को कच्चा ही चबाकर खा रहे हैं।… असल ओझा हैं खलासी जी !

लेखक

  • फणीश्वरनाथ रेणु

    हिंदी-साहित्य में आंचलिक उपन्यासकार के रूप में प्रतिष्ठित कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु का जन्म 4 मार्च, 1921 को बिहार के पूर्णिया जिले (अब अररिया) के औराही हिंगना में हुआ था। इन्होंने 1942 ई० के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में बढ़-चढ़कर भाग लिया और सन 1950 में नेपाली जनता को राजशाही दमन से मुक्ति दिलाने के लिए भरपूर योगदान दिया। इनकी साहित्य-साधना व राष्ट्रीय भावना को मद्देनजर रखते हुए भारत सरकार ने इन्हें पदमश्री से अलंकृत किया। 11 अप्रैल, 1977 को पटना में इनका देहावसान हो गया। रचनाएँ-हिंदी कथा-साहित्य में रेणु का प्रमुख स्थान है। इनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं- उपन्यास-मैला आँचल, परती परिकथा, दीर्घतपा, कितने चौराहे । कहानी-संग्रह-ठुमरी, अगिनखोर, आदिम रात्रि की महक, एक श्रावणी दोपहरी की धूप। संस्मरण-ऋणजल धनजल, वनतुलसी की गंध, श्रुत-अश्रुत पूर्व। रिपोतज-नेपाली क्रांति कथा। इनकी तमाम रचनाएँ पाँच खंडों में ‘रेणु रचनावली’ के नाम से प्रकाशित हैं। साहित्यिक विशेषताएँ-हिंदी साहित्य में फणीश्वरनाथ रेणु आंचलिक साहित्यकार के रूप में प्रसिद्ध रहे हैं। इन्होंने विभिन्न राजनैतिक व सामाजिक आंदोलनों में भी सक्रिय भागीदारी की। इनकी यह भागीदारी एक ओर देश के निर्माण में सक्रिय रही तो दूसरी ओर रचनात्मक साहित्य को नया तेवर देने में सहायक रही। 1954 ई० में इनका उपन्यास ‘मैला आँचल’ प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास ने हिंदी उपन्यास विधा को नयी दिशा दी। हिंदी जगत में आंचलिक उपन्यासों पर विमर्श ‘मैला आँचल’ से ही प्रारंभ हुआ। आंचलिकता की इस अवधारणा ने उपन्यासों और कथा-साहित्य में गाँव की भाषा-संस्कृति और वहाँ के लोक-जीवन को केंद्र में लाकर खड़ा कर दिया। लोकगीत, लोकोक्ति, लोक-संस्कृति, लोकभाषा एवं लोकनायक की इस अवधारणा ने भारी-भरकम चीज एवं नायक की जगह अंचल को ही नायक बना डाला। उनकी रचनाओं में अंचल कच्चे और अनगढ़ रूप में ही आता है। इसलिए उनका यह अंचल एक तरफ शस्य-श्यामल है तो दूसरी तरफ धूल-भरा और मैला भी। आजादी मिलने के बाद भारत में जब सारा विकास शहरों में केंद्रित होता जा रहा था तो ऐसे में रेणु ने अंचल की समस्याओं को अपने साहित्य में स्थान दिया। इनकी रचनाएँ इस अवधारणा को भी पुष्ट करती हैं कि भाषा की सार्थकता बोली के साहचर्य में ही है। भाषा-शैली-रेणु की भाषा भी अंचल-विशेष से प्रभावित है।

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मैला आँचल द्वितीय भाग खंड1-10/फणीश्वरनाथ रेणु

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