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काजर की कोठरी खंड6-13/देवकीनन्दन खत्री

काजर की कोठरी : खंड-6

पारसनाथ अपने चाचा के हाल-चाल बराबर लिया करता था। उसने अपने ढंग पर कई ऐसे आदमी मुकर्रर कर रखे थे जो कि लालसिंह का रत्ती-रत्ती हाल उसके कानों तक पहुँचाया करते और जैसा कि प्रायः कुपात्रों के संगी-साथी किया करते हैं उसी तरह उन खबरों में बनिस्बत सच के झूठ का हिस्सा बहुत ज्यादे रहा करता था।

रात को लालसिंह के पास सूरजसिंह के आने की इत्तिला भी पारसनाथ को हो गई, मगर उसमें दो बातों का फर्क पड़ गया। एक तो उसका जासूस इस बात का पता न बता सका कि आने वाला कौन था, क्योंकि सूरजसिंह अपने को छिपाए हुए लालसिंह तक पहुँचे थे और इस बात का गुमान भी किसी को नहीं हो सकता था कि सूरजसिंह लालसिंह के पास आवेंगे, दूसरे जब सूरजसिंह के साथ लालसिंह बाहर चले गए, तब पारसनाथ को इस बात की खबर लगी।

शैतानी का जाल फैलानेवाला हरदम चौकन्ना ही रहा करता है, अस्तु, पारसनाथ का भी वही हाल था। खबर पाते ही वह लालसिंह की तरफ गया मगर कमरे के दरवाजे पर पहुँचते ही उसने सुना कि ‘लालसिंह किसी के साथ कहीं बाहर गए हैं।’ थोड़ी देर तक उनके आने का इंतजार किया, जब वे न आए तो लौटकर अपने स्थान पर चला गया, मगर इस बात का प्रबंध करता गया कि जब लालसिंह लौटकर आवें तो उसे खबर मिल जाए।

तरह-तरह के सोच और विचारों ने उसकी आँखों में नींद को आने न दिया और वह तीन पहर रात जाने तक भी अपनी चारपाई पर करवटें बदलता रहा। इस बीच में लालसिंह के लौट आने की भी उसे इत्तिला न मिली, जिससे उसके दिल का खुटका भी और बढ़ता ही गया। आखिर तरद्दुदों और फिक्रों से हाथापाई करती हुई निद्रा ने उसकी आँखों में अपना दखल जमा लिया और वह तीन-चार घंटे-भर के लिए बेखबर सो गया।

जब उसकी आँख खुली तो दिन कुछ ज्यादे चढ़ चुका था। आँख खुलने के साथ ही वह घबड़ाकर उठ बैठा और धीरे-धीरे यह बुदबुदाता हुआ अपनी कोठरी के बाहर निकला, “ओफ, बड़ी देर हो गई, चाचा कभी के आ गए होंगे” उसी समय उसके नौकर ने सामने पड़कर उसे झार दी, ”सरकार (लालसिंह) बरामदे में बैठे तंबाकू पी रहे हैं।”

जल्दी-जल्दी हाथ-मुँह धोकर वह लालसिंह की तरफ रवाना हुआ और जब उनके बरामदे में पहुँचा तो उन्हें कुर्सी पर बैठे तंबाकू पीते देखा। अदब के साथ झुककर सलाम करने के बाद एक किनारे खड़ा हो गया। लालसिंह की कुर्सी के पास ही एक छोटी-सी चौकी बिछी हुई थी, जिस पर इशारा पाकर पारसनाथ बैठ गया और यह बातचीत होने लगी-

लालसिंह: रात को तुम कहाँ चले गए थे? जब हमने तुमको बुलाया तब तुम घर में नहीं थे।’ 1

पारसनाथ: (ताज्जुब से) “मैं तो रात को घर में ही था! किस समय आपने याद किया था?”

लालसिंह: “उस समय मैं अपने तरद्दुदों में डूबा हुआ था, इसलिए ठीक-ठीक नहीं कह सकता कि कितनी रात गई होगी।”

पारसनाथ: ठीक है, तो बहुत रात न गई होगी, क्योंकि जब मैं लौटकर घर आया था तब पहर-भर से ज्यादे रात न गई थी।”

लालसिंह: “शायद ऐसा ही हो।”

पारसनाथ: “मैं रात को आपके पास आया भी था मगर सुना कि आप किसी अनजान आदमी के साथ बाहर गए हैं।”

लालसिंह: “उस समय तुम क्यों आए थे?”

पारसनाथ: “दो-एक नई खबरें जो कल मुझे मिली थीं वही आपको सुनाने के लिए आया था। मैंने सोचा था कि अगर जागते हों तो इसी समय-दिल का बोझ हलका कर लूँ।”

लालसिंह: “वह कौन-सी खबर थी?”

पारसनाथ: “उस खबर का असल मतलब यही था कि आज रात हरनंदन को रंडी के यहाँ बैठे आपको दिखा सकूँगा।”

लालसिंह: (कुछ सोचकर) “बात तो ठीक है, मगर मैं सोचता हूँ कि हरनंदन को रंडी के यहाँ देखने से मेरा मतलब ही क्या निकलेगा?”

पारसनाथ: (कुछ उदास होकर) “भला मेरे कहने का आपको विश्वास तो हो जाएगा! और मैंने जो आपकी आज्ञा से बहुत कोशिश करके और कई आदमियों को बहुत कुछ देने का वादा करके इस काम का बंदोबस्त किया है वह.. ।”

लालसिंह: (लापरवाही के ढंग पर) “खैर देने-लेने की कोई बात नहीं है, उन लोगों को जिनसे तुमने वादा किया है, जो कुछ कहोगे यदि उचित होगा तो दे दिया जाएगा, और जब हम लोग उनसे काम ही न लेंगे या हरनंदन को रंडी के घर देखने ही न जाएँगे, तो उन्हें कुछ देने की भी जरूरत ही क्या है?”

पारसनाथ: “आपको अख्तियार है, उसे देखने जाएँ या न जाएँ, मगर वे लोग तो अपना काम कर ही चुके हैं, और जब उन्हें कुछ देना पड़ेगा ही तो जरा-सी तकलीफ करने में हर्ज ही क्या है? और कुछ नहीं तो मुझे आपके आगे सच्चे बनने का.. ।“

लालसिंह: (बात काटकर) “केवल हरनंदन को रंडी के यहाँ दिखाकर तुम सच्चे नहीं बन सकते। तुमने हमें सरला के जीते रहने का विश्वास दिलाया है।“

पारसनाथ: “ठीक है, मगर मैंने साथ ही इसके यह भी तो कहा था कि सरला अगर मारी गई तो, या जीती है तो, मगर उसके साथ बुराई करनेवाला हरनंदन ही है। मैं सरला को भी खोज निकालने का बंदोबस्त कर रहा हूँ, मगर उसके पहिले हरनंदन की बदचलनी दिखाकर कुछ तो अपने बोझ से हलका हो जाऊँगा।“

लालसिंह: “हाँ, सो हो सकता है, मगर मेरा कहना यह है कि जब तक सरला का ठीक पता न लग जाए तब तक मैं हरनंदन की बदचलनी देखकर भी क्या जस लगा लूँगा? बिना सबूत के किसी तरह का शक भी तो उस पर नहीं कर सकता! क्योंकि उसका एक दोस्त ऐसा आदमी है, जिसकी महाराज के यहाँ बड़ी इज्जत है, उसका खयाल भी तो करना चाहिए। हाँ अगर सरला का पता लगता हो तो जो कुछ कहो देने या खर्च करने के लिए मैं तैयार हूँ।“

पारसनाथ: “सरला का पता भी शीघ्र ही लगा चाहता है। अभी कल ही उन लोगों ने मुझे सरला के जीते रहने का विश्वास दिलाया है, जिन लोगों ने आज हरनंदन को रंडी के यहाँ दिखा देने का प्रबंध किया है। यदि उनका पहिला उद्योग व्यर्थ कर दिया जाएगा तो आगे किसी काम में उनका जी न लगेगा और न फिर वे मेरे काम का कोई उद्योग ही करेंगे, बल्कि ताज्जुब नहीं कि मेरी बेइज्जती पर उतारू हो जाएँ।“

लालसिंह: “ठीक है, रुपया ऐसी ही चीज है। रुपए के वास्ते लोग सभी कुछ कर गुजरते हैं, भले-बुरे पर ध्यान नहीं देते। लेकिन जिस तरह वे लोग रुपए के लिए तुम्हारी बेइज्जती कर सकते हैं, उसी तरह तुम भी तो अपना रुपया बचाने के लिए बेइज्जती सह सकते हो। मेरे इस कहने का मतलब यह नहीं है कि मैं रुपए खर्च करने से भागता हूँ या रुपए को सरला से बढ़ के प्यार करता हूँ, मगर हाँ, व्यर्थ रुपए खर्च करना भी बुरा समझता हूँ। यों तो तुम जो कुछ कहोगे उन लोगों के लिए दूँगा, मगर घड़ी-घड़ी मेरे दिल में यही बात पैदा होती है कि रंडी के यहाँ हरनंदन को देख लेने से ही मेरा क्या मतलब निकलेगा?

मान लिया जाए कि उसकी बदचलनी का सबूत मिल जाएगा, तो मैं बिना कष्ट उठाए और बिना रुपए बर्बाद किए ही अगर यह मान लूँ कि हरनंदन बदचलन है तो इसमें नुकसान ही क्या है? बल्कि फायदा ही है। इसके अतिरिक्त मैं एक बात और भी सोचता हूँ, वह यह कि यदि मैंने रंडी के मकान पर जाकर हरनंदन को देख लिया और उसने मुझे अपने सामने देखकर किसी तरह की परवाह न की या दो-एक शब्द बेअदबी के बोल बैठा तो मुझे कितना रंज होगा?

अपने चाचा लालसिंह की दोरंगी और चलती -फिरती बातें सुनकर पारसनाथ कुछ नाउम्मीद और उदास हो गया। उसके दिल में तरह-तरह के खुटके पैदा होने लगे। लालसिंह की बातों से उसके दिली भेद का कुछ पता नहीं चला था और न रुपए मिलने की ही पूरी-पूरी उम्मीद हो सकती थी, अस्तु, आज बाँदी को क्या देंगे, इस विचार ने उसे और भी दुखी किया तथापि बलवती आशा ने उसका पीछा न छोड़ा और वह जल्दी के साथ कुछ विचारकर बोला, “आप तो हरनंदन को बड़ा नेक और सुजन समझते हैं, तो क्या उससे ऐसी बेअदबी होने की भी आशा करते हैं?”

लालसिंह: “जब तुम हमारे विचार को रद करके कहते हो कि वह नालायक और ऐयाश है तथा इस बात का सबूत देने के लिए भी तैयार हो, तो अगर मैं तुम्हें सच्चा मानूँगा तो जरूर दिल में यह बात पैदा होगी ही कि अगर वह मेरे साथ बेअदबी का बर्ताव करे तो ताज्जुब नहीं।“

पारसनाथ: (कुछ लाजवाब होकर) “खैर आप बड़े हैं, आपसे बहस करना उचित नहीं समझता, जो कुछ आप आज्ञा देंगे मैं वही करूँगा।“

लालसिंह: “अच्छा इस समय तुम जाओ, मैं स्नान-पूजा तथा भोजन इत्यादि से छुट्टी पाकर इस विषय पर विचार करूँगा, फिर जो कुछ निश्चय होगा तुम्हें बुलवाकर कहूँगा।“

उदास मुख पारसनाथ अपने चाचा के पास से उठकर चला गया और उसके रोब तथा बातों की उलझन में पड़कर यह भी पूछ न सका कि आप रात को किसके साथ कहाँ गए थे।

यह बात लालसिंह ने बिलकुल झूठ कही।

काजर की कोठरी : खंड-7

अब हम अपने पाठकों को एक ऐसी कोठरी में ले चलते हैं जिसे इस समय कैदखाने के नाम से पुकारना बहुत उचित होगा, मगर यह नहीं कह सकते कि यह कोठरी कहाँ पर और किसके आधीन है तथा इसके दरवाजे पर पहरा देनेवाले कौन व्यक्ति हैं।

वह कोठरी लंबाई में पंद्रह हाथ और चौड़ाई में दस हाथ से ज्यादे न होगी। बेचारी सरला को हम इस समय इसी कोठरी में हथकड़ी-बेड़ी से मजबूर देखते हैं। एक तरफ कोने में जलते हुए चिराग की रोशनी दिखा रही है कि अभी तक उस बेचारी के बदन पर वे ही साधारण कपड़े मौजूद हैं, जो ब्याह वाले दिन उसके बदन पर थे या जिन कपड़ों के सहित वह अपने प्यारे रिश्तेदारों से जुदा की गई थी। हाँ, उसके बदन में जो कुछ जेवर उस समय मौजूद थे, उनमें से आज एक भी दिखाई नहीं देते। यद्यपि इस वारदात को गुजरे अभी बहुत दिन नहीं हुए मगर देखने वालों की आँखों में इस समय वह वर्षों की बीमार होती है।

शरीर सूख गया है और अंधेरी कोठरी में बंद रहने के कारण रंग पीला पड़ गया है। उसके तमाम बदन का खून पानी होकर बड़ी-बड़ी आँखों की राह बाहर निकल गया और निकल रहा है। उसके खूबसूरत चेहरे पर इस समय डर के साथ-ही-साथ उदासी और नाउम्मीदी भी छाई हुई है और वह न मालूम किस खयाल या किस दर्द की तकलीफ से अधमुई होकर जमीन पर लेटी है। यद्यपि वह वास्तव में खूबसूरत, नाजुक और भोली-भाली लड़की है, मगर इस समय या इस दुर्दशा की अवस्था में उसकी खूबसूरती का बयान करना बिलकुल अनुचित-सा जान पड़ता है, इसलिए इस विषय को छोड़कर हम असल मतलब की बातें बयान करते हैं।

सरला के हाथों में हथकड़ी और पैरों में बेड़ी पड़ी हुई है और वह केवल एक मामूली चटाई के ऊपर लेटी हुई आँचल से मुँह छिपाए सिसक-सिसककर रो रही है। हम नहीं कह सकते कि उसके दिल में कैसे-कैसे खयालात पैदा होते और मिटते हैं और वह किन विचारों में डूबी हुई है। यकायक वह कुछ सोचकर उठ बैठी और इधर-उधर देखती हुई धीरे-से बोली, ”तो क्या जान दे देने के लिए भी कोई तरकीब नहीं निकल सकती?”

इसी समय उस कोठरी का दरवाजा खुला और कई नकाबपोश एक नए कैदी को उस कोठरी के अंदर डालकर बाहर हो गए। कोठरी का दरवाजा पुन: उसी तरह से बंद हो गया। जब वह कैदी सरला के पास पहुँचा तो सरला उसे देखकर चौंकी और इस तरह उसकी तरफ झपटी, जिससे मालूम होता था कि यदि सरला हथकड़ी से जकड़ी हुई न होती तो उस कैदी से लिपटकर खूब रोती, मगर मजबूरी थी इसलिए ‘हाय भैया!’ कहकर उसके पैरो पर गिर पड़ने के सिवाय और कुछ न कर सकी।

यह कैदी सरला का चचेरा भाई पारसनाथ था। उसने सरला के पास बैठकर आँसू बहाना शुरू किया और सरला तो ऐसा रोई कि उसकी हिचकी बँध गई। आखिर पारस ने उसे समझा-बुझाकर शांत किया और तब उन दोनों में यों बातचीत होने लगी-

सरला : भैया ! क्या तुम लोगों को मुझ पर कुछ भी दया ने आई? और मेरे पिता भी मुझे एकदम भूल गए, जो आज तक इस बात की खोज तक न की कि सरला कहाँ और किस अवस्था में पड़ी हुई है?

पारसनाथ: मेरी प्यारी बहिन सरला ! क्या कभी ऐसा हो सकता था कि हम लोगों को तेरा पता लगे और हम लोग चुपचाप बैठे रहें? मगर क्या किया जाए, लाचारी से हम लोग कुछ कर न सके ! जब से तू गायब हुई है तभी से मैं तेरी खोज में लगा था, मगर जब मुझे तेरा पता लगा तब मैं भी तेरी तरह उन्हीं दुष्टों का कैदी बन गया जिन्होंने रुपए की लालच में पड़कर तुझे इस दशा को पहुँचाया।

सरला: मैं तो अभी तक यही समझे हुई थी कि तुम्हीं ने मुझे इस दशा को पहुँचाया, क्योंकि न तुम मुझे बुलाकर चोर-दरवाजे के पास ले जाते और न मैं इन दुष्टों के पंजे में फंसती।

पारस.: राम राम राम, यह बिलकुल तेरा भ्रम है ! मगर इसमें तेरा कुछ कसूर नहीं। जब आदमी पर मुसीबत आती है तब वह घबड़ा जाता है, यहाँ तक कि उसे अपने-पराए की मुहब्बत का भी कुछ खयाल नहीं रहता, और वह दुनिया-भर को अपना दुश्मन समझने लगता है। अगर तूने मेरे बारे में कुछ शक किया तो यह कोई ताज्जुब की बात नहीं है।

सरला : मगर नहीं, अब मुझे तुम पर किसी तरह का शक न रहा, लेकिन तुम यह बताओ कि आखिर हुआ क्या?

पारसनाथ: वास्तव में मैं चाचा जी की आज्ञानुसार तुझे बाहर की तरफ ले चला था, मगर मुझे इस बात की क्या खबर थी कि दरवाजे ही पर दस-बारह दुष्ट मिल जाएँगे।

सरला : तब क्या मेरे पिता ही ने ऐसा किया और उन्होंने ही इन दुष्टों को दरवाजे पर मुस्तैद करके मुझे उस रास्ते से बुलवाया था?

पारस.: हरे हरे हरे ! वे बेचारे तो तेरे बिना मुर्दे से भी बदतर हो रहे हैं। जब से तू गायब हुई है तब से उनका ऐसा बुरा हाल हो गया है कि मैं कुछ बयान नहीं कर सकता।

सरला : तब यह सब बखेड़ा हुआ ही कैसे?

पारस: : जब वे लोग तुझे जबरदस्ती उठाकर घर से बाहर निकले तो मैंने उनका पीछा किया मगर दरवाजे के बाहर निकलते ही उनमें से एक आदमी ने घूमकर मुझे ऐसा लट्ठ मारा कि चक्कर खाकर जमीन पर गिर पड़ा और दो घंटे तक मुझे तनबदन की सुध न रही। आखिर जब मैं होश में आया, तो धीरे-धीरे चलकर चाचा जी के पास पहुँचा और उनसे सब हाल कहा। बस उसी समय चारों तरफ रोना-पीटना मच गया, पचासों आदमी इधर-उधर तुम्हें खोजने के लिए दौड़ गए, तरह-तरह की कार्रवाइयाँ होने लगीं।

मगर सब व्यर्थ हुआ, न तो तुम्हारा ही पता लगा और न उन दुष्टों ही की कुछ टोह लगी। यह खबर तुम्हारे ससुरालवालों को भी पहुँची और वहाँ भी खूब रोना-पीटना मच गया। मगर हरनंदन पर इस घटना का कुछ भी असर न पड़ा और वह महफिल में से उठकर बाँदी रंडी के डेरे पर चला गया जो उसके यहाँ नाचने के लिए गई थी। सब लोगों ने उसे इस नादानी पर शर्मिंदा करना चाहा, तो उसने लोगों को ऐसा उत्तर दिया कि सब कोई अपने कान पर हाथ रखने लगे और उसका बाप भी उससे बहुत रंज हो गया।

सरला : (हरनंदन की खबर सुन दुख और लज्जा से सिर नीचे करके) खैर. यह बताओ कि आखिर मेरा पता तुम्हें कैसे लगा?

पारसनाथ: मैं सबकुछ कहता हूँ तुम सनो तो सही। हाँ तो जब हरनंदन की बात तुम्हारे पिता को मालूम हुईं तो उन्हें बड़ा ही क्रोध चढ़ आया। उन्होंने मुझे बुलाकर सब हाल कहा और यह भी कहा कि ‘मुझे यह सब कार्रवाई उसी हरनंदन की मालूम पड़ती है, अस्तु, तुम पता लगाओ कि इसका असल भेद क्या है? इस मामले में जो कुछ खर्च होगा मैं तुम्हें दूँगा।’ बस उसी समय से मैंने अपनी जान हथेली पर रख ली और तुम्हें खोजने के लिए घर से बाहर निकल पड़ा।

इस कार्रवाई में क्या-क्या तकलीफें उठानी पड़ी और मैंने कैसे-कैसे काम किए, इसका कहना व्यर्थ है। असल यह कि मुझे शीघ्र इस बात का पता लग गया कि यह सब जाल हरिहरसिंह के फैलाए हुए हैं, जिसके साथ तुम्हारी वह मौसेरी बहिन ‘कल्याणी’ ब्याही गईं थी, जो आज इस दुनिया में तुम्हारा दुख देखने के लिए न रहकर वैकुंठ धाम चली गई।

सरला. : मैंने हरिहरसिंह का क्या बिगाड़ा था, जो उसने मेरे साथ ऐसा सलूक किया? मेरे पिता ने भी तो उसके साथ किसी तरह की बुराई नहीं की थी?

पारसनाथ: ठीक है, मगर मैं इसका सबब भी तुमसे बयान करता हूँ, तुम सुनती चलो। तुम्हारे पिता ने जो वसीयतनामा लिखा है उसका हाल तो तुम्हें मालूम ही होगा?

सरला. : हाँ मैं अपनी माँ की जबानी उसका हाल सुन चुकी हूँ।

पारसनाथ: बस वही वसीयतनामा तुम्हारी जान का काल हो गया, और उसी रुपए की लालच में पड़कर हरिहर ने ऐसा किया।

सरला बहुत ही नेक, बुद्धिमान तथा पढ़ी-लिखी लड़की थी। यद्यपि उसकी अवस्था कम थी मगर उसकी पतिव्रता और बुद्धिमान माता ने उसके दिल में नेकी और बुद्धिमानी की जड़ कायम कर दी थी और वह इसीलिए ऊँची-नीची बातों को बहुत नहीं तो थोडा-बहुत अवश्य समझ सकती थी, मगर इतना होने पर भी वह न मालूम क्या सोचकर पूछ बैठी, ”क्या ऐसा करने से हरिहर को मेरे बाप की दौलत मिल जाएगी?”

इसके जवाब में पारसनाथ ने कहा–

“पारसनाथ: हाँ, मिल जाएगी, अगर उसकी शादी तुम्हारे साथ हो जाएगी तो !

सरला : मगर उस हालत में तो उसमें से आधी दौलत तुम लोगों को भी मिलने की आशा हो सकती है।

पारसनाथ: (कुछ झेंपकर) हाँ, तुम्हारे पिता की लिखावट का मतलब तो यही है मगर हम लोग ऐसी दौलत पर लानत भेजते हैं, जिसमें तुम्हारा और चाचा जी का दिल दुखे, हाँ, इतना जरूर कहेंगे कि जान से ज्यादे दौलत की कदर न करनी चाहिए और इस समय तुम्हारे हाथ में कम-से-कम चार आदमियों की जान तो जरूर है, अगर अपनी जान नहीं तो अपने प्यारे रिश्तेदारों की जान का जरूर ही खयाल करना चाहिए।

सरला : (कुछ चौंककर) मेरी समझ में न आया कि तुम्हारे इस कहने का मतलब क्या है?

पारसनाथ: बस यही कि अगर तुम हरिहरसिंह के साथ ब्याह करना स्वीकार कर लोगी तो इस समय तुम्हारी, तुम्हारे पिता की, तुम्हारी माता की, और साथ ही इसके मेरी भी जान बच जाएगी और रुपया-पैसा तो हाथ-पैर का मैल है तथा यह बात भी मशहूर है कि लक्ष्मी किसी के पास स्थिर भार से नहीं रहती, इधर-उधर डोला ही करती है।

सरला : क्या हम लोगों में किसी और का दूसरा ब्याह भी होता है! मैं तो दिल से समझे हुए हूँ कि मेरी शादी हो चुकी! हाँ, इसमें कोई संदेह नहीं कि मैं अपनी जान समर्पण करके तुम लोगों की जान बचा सकती हूँ, मगर उस ढंग से नहीं जिस ढंग से तुम कहते हो, क्योंकि मेरे पिता के जीते-जी न तो वह वसीयतनामा ही कोई चीज है और न किसी को उनकी दौलत ही मिल सकती है। नतीजा यही होगा कि जिस लालची को मैं धर्म त्याग करके स्वीकार कर लगी, वह मेरे बाप की दौलत शीघ्र पाने की आशा से मेरे पिता को अवश्य मार डालेगा और ताज्जुब नहीं कि अब भी उनके मारने का उद्योग कर रहा हो। हाँ, एक दूसरी तरकीब से उन लोगों की जान अवश्य बच जाएगी जो मैं अच्छी तरह सोच चुकी हूँ”।

पारसनाथ: (बात काटकर) न मालूम तुम कैसी-कैसी अनहोनी बातें सोच रही हो जिनका न सिर है न पैर!

सरला : जो कुछ मैंने सोचा है वह बहुत ठीक है। मेरे साथ चाहे कितनी ही बुराई की जाए या मेरी बोटी-बोटी भी काट डाली जाए मगर मैं अपनी दूसरी शादी तो कदापि न करूँगी! तुम मुझे यह नहीं समझा सकते कि यह दूसरी शादी नहीं है और न तुम्हारा समझाना मैं मान सकती हूँ मगर हाँ, किसी के साथ शादी न करके भी अपने पिता की जान दो तरह से बचा सकती हूँ और इसमें किसी तरह की कठिनाई भी नहीं है।

पारसनाथ: खैर और बातों पर तो पीछे बहस करूँगा पहिले यह पूछता हूँ कि वे दोनों ढंग कौन-से हैं जिनसे तुम हम लोगों की जान बचा सकती हो?

सरला : उनमें से एक ढंग तो मैं बता नहीं सकती मगर दूसरा ढंग साफ-साफ है कि मेरी जान निकल जाने ही से वे सब बखेड़ा तै हो जाएगा।

पारसनाथ: यह सब सोचना तुम्हारी नादानी है! अगर तुम अपने हिंदू धर्म को जानती होतीं या कोई शास्त्र पढ़ी होतीं तो मेरी बातों पर विश्वास करतीं, यह न सोचतीं कि मेरी शादी हो चुकी, अब जो शादी होगी वह दूसरी शादी कहलावेगी, और जान देने में किसी तरह का’।

सरला : (बात काटकर) अगर मैं कोई शास्त्र नहीं भी पढ़ी तो भी शास्त्र के असल मर्म को अपनी माता की कृपा से अच्छी तरह समझती हूँ। उसने मुझे एक ऐसा लटका बता दिया है जिससे पूरे धर्मशास्त्र का भेद मुझे मालूम हो गया है। उसने मुझसे कहा था कि ‘बेटी, जो बात चित्त को बुरी मालूम हों या जिस बाते के ध्यान से दिल में जरा भी खुटका पैदा हो, अथवा जिस बात से लज्जा का कुछ भी संबंध हो अर्थात जिसके कहने से लज्जित होना पड़े, उसके विषय में समझ रक्खो कि शास्त्र में कहीं-न-कहीं उसकी मनाही जरूर लिखी होगी।’ अस्तु, मेरे स्वार्थी भाई, इस विषय में तुम मुझे कुछ भी नहीं समझा सकते, क्योंकि मैं माता की इस बात को आज्ञा बल्कि उसकी सब बातों को ‘वेद-वाक्य’ के बराबर समझती हूँ।

पारसनाथ: (कुछ लज्जित होकर) अब तुम्हारी इन लड़कपन की-सी बातों का मैं कहाँ तक जवाब दूँ? और जब तुम मुझी को स्वार्थी कहकर पुकारती हो तो अब तुम्हें किसी-तरह का उपदेश करना भी व्यर्थ ही है।

सरला : निःसंदेह ऐसा ही है, अब इस विषय में तुम मुझे कुछ भी समझाने-बुझाने का उद्योग न करो। जो कुछ समझना था मैं समझ चुकी और जो कुछ निश्चय करना था उसे मैं निश्चय कर चुकी।

पारस.: (लज्जा और निराशा के साथ) खैर अब मुझे तुम्हारे हृदय की कठोरता का हाल मालूम हो गया और निश्चय हो गया कि तुम्हें किसी के साथ मुहब्बत नहीं है और न किसी की जान जाने की ही परवाह है।

सरला : ठीक है, अगर तुम उस ढंग और कहने पर नहीं समझे तो इस दूसरे ढंग से जरूर समझ जाओगे कि जब मुझे अपनी ही जान प्यारी नहीं है तो दूसरे की जान का खयाल कब हो सकता है?

पारस: : अच्छा तब मैं अपनी जान से भी हाथ धो लेता हूँ और कह देता हूँ कि इस विषय में अब एक शब्द भी मुँह से न निकालूँगा।

सरला : केवल इसी विषय में नहीं बल्कि मेरे किसी विषय में भी अब तुम्हें बोलना न चाहिए क्योंकि मैं तुम्हारी बातें सुनना नहीं चाहती। इतना कहकर सरला पारसनाथ से कुछ दूर जा बैठी और चुप हो गई।

पारसनाथ की आँखों में क्रोध की लाली दिखाई देने लगी मगर सरला को कुछ कहने या समझाने की उसकी हिम्मत न पड़ी। थोड़ी देर के बाद पुन: उस कोठरी का दरवाजा खुला और एक नकाबपोश ने कोठरी के अंदर आकर इन दोनों कैदियों से पूछा, ‘क्या तुम लोगों को किसी चीज की जरूरत है?”

इसके जवाब में सरला ने तो कहा, ‘हाँ, मुझे मौत की जरूरत है।’ और पारसनाथ ने कहा, ‘मैं पायखाने जाया चाहता हूँ।’

वह आदमी पारसनाथ को लेकर कोठरी के बाहर निकल गया और कोठरी का दरवाजा पुन: पहिले की तरह बंद हो गया। …

काजर की कोठरी : खंड-8

इस समय हम बाँदी को उसके मकान में छत के ऊपरवाली उसी कोठरी में अकेली बैठी हुई देखते हैं जिसमें दो दफे पहिले भी उसे पारसनाथ और हरनंदन के साथ देख चुके हैं। हम यह नहीं कह सकते कि उसके बाद पारसनाथ और हरनंदन बाबू का आना इस मकान में दो दफे हुआ या चार दफे, हाँ, इसमें कोई शक नहीं कि उसके बाद भी उन लोगों का आना यहाँ जरूर हुआ, मगर हम उसी जिक्र को लिखेंगे जिसमें कोई खास बात होगी।

बाँदी अपने सामने पानदान रक्खे हुए धीरे-धीरे पान लगा रही है और कुछ सोचती भी जाती है। दो ही चार बीड़े पान के उसने खाए होंगे कि लौंडी ने खबर दी कि ‘पारसनाथ आए हैं, बड़ी बीबी उन्हें बरामदे में रोककर बातें कर रही हैं।’ इतना सुनते ही बाँदी ने लौंडी को तो चले जाने का इशारा किया और खुद पानदान को किनारे कर एक बारीक चादर से मुँह लपेट सो रही। जब पारसनाथ उस कोठरी में आया, तो उसने बाँदी को ऊपर लिखी हालत में पाया। वह चुपचाप उसके पास बैठ गया और धीरे-धीरे उसकी पीठ पर हाथ फेरने लगा।

बाँदी : (लेटे-ही-लेटे) कौन है?

पारसनाथ: तुम्हारा एक ताबेदार!

बाँदी : (उठकर) वाह! वाह, मैं तो तुम्हारा ही इंतजार कर रही थी।

पारसनाथ: पहिले यह तो बताओ कि आज तुम्हारा चेहरा इतना सुस्त और उदास क्यों है?

बाँदी: कुछ नहीं, यों ही बेवक्त सो रहने से ऐसा हुआ होगा।

पारसनाथ: नहीं -नहीं, तुम मुझे धोखा देती हो, सच बताओ क्या बात है?

बाँदी : कह तो चुकी और क्या बताऊँ? तुम तो खाहमखाह की हुज्जत निकालते हो और यों ही शक करते हो।

पारसनाथ: बस-बस, रहने भी दो, मुझसे बहाना न करो, जहाँ कुछ है वह मैं तुम्हारी अम्मा से सुन चुका हूँ। ह

बाँदी : (कुछ भौवें सिकोडकर) जब सुन ही चुके हो तो फिर मुझसे क्या पूछते हो?

पारसनाथ: उन्होंने इतना खुलासा नहीं कहा जितना मैं तुम्हारी जुबान से सुना चाहता हूँ।

बाँदी : (ठट्ठा उडाने के तौर पर: हँसकर) जी हाँ ! क्या बात है आपकी चालाकी की, अब दुनिया में एक आप ही तो समझदार और सच्चे रह गए हैं!!

पारसनाथ: (चौंककर) यह ‘सच्चे’ के क्या मानी? आज ‘ सच्चे के उल्टे’ खिताब पर तुमने ताना क्यों मारा? क्या मैं झूठा हूँ या क्या मैं तुमसे झूठ बोलकर तुम्हें धोखे में डाला करता हूँ?

बाँदी : तो तुम इतना चमके क्यों? तुम्हें सच्चा कहा तो क्या बुरा किया? अगर मुझे ऐसा ही मालूम होता तो दावे के साथ तुम्हें ‘झूठा’ कहती।

पारसनाथ: फिर वही बात ! वही ढंग !! .

बाँदी : खैर इन सब बातों को जाने दो, इन पर पीछे बहस करना, पहिले यह बताओ कि कल तुम आए क्यों नहीं? तुम तो हरनंदन बाबू को दिखा देने के लिए अपने चाचा को साथ लेकर आने का वादा न कर गए थे! तुम्हारी जबान पर भरोसा करके न मालूम किन-किन तरकीबों से मैंने आधी रात तक हरनंदन बाबू को रोक रक्खा था। आखिर वही ‘टाँय टाँय फिस!’ मैं पहिले ही कह चुकी थी कि अब हरनंदन बाबू को तुम्हारे चाचा का कुछ भी डर नहीं रहा और इस बारे में तुम्हारे चाचा को मुँह-तोड़ जवाब मिल चुका है। अब वह बड़े भारी बेवकूफ होंगे जो हरनंदन बाबू को देखने के लिए यहाँ आवेंगे।

पारसनाथ: (तरद्दुद की सूरत बनाकर) बात तो कुछ ऐसी ही मालूम पड़ती है, मगर इतना मैं फिर भी कहूँगा कि कल के पहिले इस किस्म की कोई बात न थी, पर कल मुझे भी रंग बुरे ही नजर आए जिसका सबब अभी तक मालूम नहीं हुआ, पर मैं बिना पता लगाए छोड़ने वाला भी नहीं।

बाँदी : (मुस्कराकर) अजी जाओ भी, तुम्हें बगात की कुछ खबर तो हुई नहीं, कहते हैं कि ‘कल से कुछ बुरे रंग नजर आते हैं। ‘ हाँ यह कहते तो कुछ अच्छा भी मालूम पड्ता कि ‘मेरे होशियार कर देने पर कल कुछ पता लगा है।’

पारसनाथ: नहीं-नहीं, ऐसा नहीं। मैं तुम्हारे सर की कसम खाकर कहता हूँ कि कल जो कुछ मैंने देखा वह निःसंदेह एक अनूठी और ताज्जुब की बात थी। सुनोगी तो तुम भी ताज्जुब करोगी। मगर मैं यह नहीं कहता कि जो कुछ तुमने कहा था उसकी कुछ भी असलियत नहीं है, शायद वैसा भी हुआ है।

बाँदी : बस, लाजवाब हुए तो मेरे सर की कसम खाने लगे! इनके हिसाब मेरा सर मुफ्त का आया है! खैर पहिले मैं सुन तो लूँ कि कल तुमने क्या देखा?

पारसनाथ: चेहरा उदास बना के) तुम्हें मेरी बातों का विश्वास ही नहीं होता। क्या तुम समझती हो कि मैं यों ही तुम्हारे सर की कसम खाया करता हूँ और तुम्हारे सर को कद्दू समझता हूँ?

बाँदी.: (मुस्कराकर) खैर तुम पहले कलवाली बात तो कहो।

पारसनाथ: क्या कहूँ, तुम तो दिल दुखा देती हो।

बाँदी : अच्छा -अच्छा, मैं समझ गई कि तुम्हारे दिल में गहरी चोट लगीं और बेशक लगी होगी, चाहे मेरी बातों से या और किसी की बातों से!

पारसनाथ: फिर उसी ढंग पर तुम चलीं! और जब ऐसा ही है तो फिर मेरी बातों का तुम्हें विश्वास ही क्यों होने लगा? (लंबी साँस लेकर) हाय, क्या जमाना आ गया है! जिसके लिए हम मरें, वही इस तरफ चुटकियाँ ले !!.

बाँदी : जी हाँ, मरते तो सैकड़ों को देखती हूँ मगर मुर्दा निकलते किसी का भी दिखाई नहीं देता! इतना कहकर बाँदी बात उड़ाने के लिए खिलखिला कर हँस पड़ी और पारसनाथ के गाल पर हल्की चपत लगा के मुस्कराती हुई पुन: बोलीं, “जरा-सी दिल्लगी में रो देने का ढंग अच्छा सीख लिया है, इतना भी नहीं समझते कि मैं कौन-सी बात ठीक कहती हूँ और कौन-सी दिल्लगी के तौर पर ! अच्छा बताओ कल क्या हुआ और तुम आएं क्यों नहीं? मुझे तुम्हारे न आने का बड़ा रंज रहा।”

पारसनाथ: (खुश होकर और बाँदी के गले में हाथ डालकर) बेशक रंज हुआ होगा और मुझे भी इस बात का बहुत खयाल था, मगर लाचारी हैं कि वहाँ एक आदमी ने पहुँचकर चाचा साहब के मिजाज का रंग ही बदल दिया और अब वह दूसरे ढंग से बातें करने लगे।

बाँदी : (गले में से हाथ हटाकर) तो कुछ कहो भी तो सही !

पारसनाथ: परसों रात को एक आदमी चाचा साहब के पास आया और उन्हें अपने साथ कहीं ले भी गया, तथा जब से वे लौटकर घर आए हैं, तभी से उनके मिजाज का रंग कुछ बदला हुआ दिखाई देता हैं।

बाँदी : वह आदमी कौन था? “

पारसनाथ: अफसोस ! अगर उस आदमी का पता ही लग जाता तो इतनी कबाहत क्यों होती ! मैं उसका ठीक इलाज कर लेता।

बाँदी : तो क्या किसी ने उसे देखा न था?

पारसनाथ: देखा तो सही, मगर बह ऐसे ढंग पर स्याह कपड़ा ओढ़कर आया था कि कोई उसे पहिचान न सका। सुबह को जब मैं चाचा साहब के पास गया, तो उनसे कहा कि आज हरनंदन को बाँदी के यहाँ दिखा देने का बंदोबस्त हो गया है मगर उन्होंने इस बात पर विशेष ध्यान न दिया और बोले कि ‘हरनंदन को रंडी के यहाँ देखने से फायदा ही क्या होगा जब तक कि इस बात का पूरा-पूरा सबूत न मिल जाए कि सरला को तकलीफ पहुँचाने का सबब वही हरनंदन है।’ इसके बाद मुझसे और उनसे देर तक बातें होती रहीं, मैंने बहुत तरह से समझाया मगर उनके दिल में एक न बैठी!

बाँदी : ठीक है मगर फिर भी मैं वही बात कहूँगी कि तुम्हारे चाचा का खयाल कल से नहीं बदला बल्कि कई दिन पहिले ही से बदल गया है। जबकि हरनंदन के बाप.ने टका-सा सूखा जवाब दे दिया और हरनंदन खुल्लमखुल्ला रंडियों के यहाँ आने-जाने लगा, तब वे हरनंदन का कर ही क्या सकते हैं और ताज्जुब नहीं कि उन्हें हरनंदन की इस नई चाल चलन का पता लग भी गया हो! ऐसी हालत में तुम्हारा सूम चाचा रुपया क्यों खर्च करने लगा? अब तो जहाँ तक जल्द हो सके सरला की शादी किसी के साथ हो जानी चाहिए। हाँ, मैंने तो आज यह भी सुना है कि तुम्हारा चाचा दूसरा वसीयतनामा तैयार कर रहा है।

पारसनाथ: (चौंककर) यह तुमसे किसने कहा?

बाँदी : आज राजा साहब का एक मुसाहब अपने लड़के की शादी में नाचने के लिए ‘बीड़ा’ देने के वास्ते मेरे यहाँ आया था। वही इस बात का जिक्र करता था। उसका नाम तो मैं इस वक्त भूल गई, अम्मा को याद होगा।

पारसनाथ: अगर ऐसा हुआ तो बड़ी मुश्किल होगी !

बाँदी : बेशक !

पारसनाथ: भला यह भी कुछ मालूम हुआ कि दूसरे वसीयतनामे में उसने क्या लिखा है?

बाँदी : तुम भी अजब ‘ऊद’ हो ! भला इस बात का जवाब मैं क्या दे सकती हूँ और मैं उस कहनेवाले से पूछ भी क्यों कर सकती थी?

पारसनाथ: ठीक है, (कुछ सोचकर) अगर यह बात ठीक है तो मैं समझता हूँ कि अपने चाचा को जहन्नुम में पहुँचा देने के सिवाय मेरे लिए और कोई उचित कार्य नहीं है।

बाँदी : अब इन सब बातों को तुम ही समझो, मगर मैं यह पूछती हूँ कि अब तक तुमने सरला की शादी का इंतजाम क्यों नहीं किया? अगर वह हो जाती तो सब बखेरा ही तै था!

पारसनाथ: ठीक है मगर जब तक सरला शादी करने पर दिल से राजी न हो जाए तब तक हमारा मतलब नहीं निकलता। मान लिया जाए कि अगर हमने उसकी शादी जबरदस्ती किसी के साथ कर दी और प्रगट होने पर उसने इस बात का हल्ला मचा दिया कि मेरे साथ जबरदस्ती की गई, तब मेरे लिए बहुत बुराई पैदा हो जाएगी और शादी हो जाने के बाद भी उसे छिपाए रहना उचित नहीं होगा। ताज्जुब नहीं कि बहुत दिनों तक सरला का पता न लगने के कारण मेरा चचा उसकी तरफ से नाउम्मीद होकर अपनी कुल जायदाद खैरात कर दे या कोई दूसरा वसीयतनामा ही लिख दे। हमारा काम तो तब बने कि सरला शादी के होने के बाद एक दफे किसी बड़े के सामने कह दे कि ‘हाँ यह शादी मेरी इच्छानुसार हुई है। ‘ इसके अतिरिक्त हमारी गुप्त कमेटी ने भी यही निश्चय किया है कि ‘चचा साहब को किसी तरह खतम कर देना चाहिए, जिसमें उन्हें दूसरा वसीयतनामा लिखने का मौका न मिले।’ उन लोगों ने जो कुछ चाल सोची थी वह तो अब पूरी होती नजर नहीं आती।

बाँदी : वह कौन-सी चाल?

पारसनाथ: वही कि मेरा चचा खुद हरनंदन से रंज होकर यह हुक्म दे देता कि सरला को खोजकर उसकी दूसरी शादी कर दी जाए। बस उस समय मुझे खैरखाह बनने का मौका मिल जाता। मैं झट सरला को प्रगट करके कह देता कि इसे हरनंदन के दोस्त डाकुओं के कब्जे में से निकाल लाया हूँ और जब उसकी शादी किसी दूसरे के साथ हो जाती तब इसके पहिले कि मेरा चचा दूसरा वसीयतनामा लिखे मैं उसे मारकर बखेड़ा मिटा देता। ऐसी अवस्था में मुझे उनके लिखे वसीयतनामे के अनुसार आधी दौलत अवश्य मिल जाती। इसके अतिरिक्त और भी बहुत-सी बातें हैं जिन्हें तुम नहीं समझ सकतीं। (कुछ गौर करके) मगर अब जो हमलोग गौर करते हैं तो हम लोगों की पिछली कार्रवाई बिलकूल जहन्नुम में मिल गई-सी जान पड़ती है, क्योंकि मेरे चचा हरनंदन के खिलाफ कोई कार्यवाही करते दिखाई नहीं देते। आज हरिहरसिंह ने भी यही बात कही थी, ‘खाली तुम्हारे चचा के मारे जाने से कोई फायदा नहीं हो सकता। फायदा तभी होगा जब चाचा भी मारा जाए और सरला भी अपनी खुशी से शादी कर ले।’ मगर बड़े अफसोस की बात है कि मैं सरला को भी किसी तरह समझा न सका। मैं स्वयं कैदी बनकर उसके पास गया और बहुत तरह से समझाया-बुझाया मगर उसने एक न मानी, उल्टे मुझी को बेवकूफ बना के छोड़ दिया।

बाँदी : (ताज्जुब से) हाँ ! तुम सरला के पास गए थे ! अच्छा तो वहाँ क्या हुआ, मुझसे खुलासा कहो?

पारस ने अपना सरला के पास जाने और वहाँ से छुच्छु बनकर बैरंग लौट आने का हाल बाँदी से बयान किया और तब बाँदी ने मुस्कराकर कहा, ”अगर मैं सरला को दूसरे के साथ शादी करने पर राजी कर दूँ और वह इस बात को खुशी से मंजूर कर ले तो मुझे क्या इनाम मिलेगा?” इतना सुनकर पारस ने उसके गले में हाथ डाल दिया और प्यार की निगाहों से देखता हुआ खुशामद के ढंग पर बोला, ‘तुम मुझसे पूछती हो कि मुझे क्या इनाम मिलेगा? तुम्हें शर्म नहीं आती! हालाँकि तुम इस बात को बखूबी जानती हो कि यह सब कार्यवाही तुम्हारे ही लिए की जा रही है और इस काम में जो कुछ मिलेगा उसका मालिक सिवा तुम्हारे दूसरा कोई नहीं हो सकता, तुम जो कुछ हाथ उठाकर मुझे दे दोगी वही मेरा होगा।”

बाँदी : यह सब ठीक है, मुझे तुमसे रुपए-पैसे की लालच कुछ भी नहीं है, मैं तो सिर्फ तुम्हारी मोहब्बत चाहती हूँ, मगर क्या करूँ, अम्मा के मिजाज से लाचार हूँ। आज बात-ही-बात में तुम्हारा जिक्र आ गया था, तब अम्मा बोलीं, ” मैं तो दो ही तीन दिन की मेहनत में सरला को राजी कर लूँ! मैं ही नहीं बल्कि मेरी तरकीब से तू भी वह काम कर सकती है, मगर मुझे फायदा ही क्या जो इतना सिर-खप्पन करूँ!” मैंने बहुत कुछ कहा कि अम्मा वह तरकीब मुझे बता दो, मैं उनका काम कर दूँ तो मुझे भी फायदा होगा, मगर उन्होंने एक न मानी, बोलीं कि ‘फलाने–फलाने ढंग से मेरी कर दी जाए तो मैं सब कुछ कर सकती हूँ। जो किसी के किए न हो सके वह हम लोग कर सकती हैं।’ उन्हीं की बात मुझे इस समय याद आ राई, तब मैं तुमसे कह बैठी कि अगर मैं ऐसा करूँ तो मुझे क्या इनाम मिलेगा, नहीं तो मैं भला तुमसे क्या माँगूँगी! खैर इन बातों को जाने दो, अम्मा तो पागल हो गई हैं, तुम जो कुछ कर रहे हो करो उनकी बातों पर ध्यान न दो।

पारसनाथ: नहीं-नहीं, तुम्हें ऐसा न कहना चाहिए, आखिर जो कुछ तुम्हारी अम्मा के पास है या रहेगा वह सब तुम्हारा ही तो है, और अगर मैं इस समय उनकी इच्छानुसार कुछ करूँगा, तो उसमें तुम्हारा ही तो फायदा है। मेरे दिल का हाल तो तुम जानतीं ही हो कि मैं तुम्हारे मुकाबले में किसी चीज की भी हकीकत नहीं समझता ! खैर पहिले यह बताओ कि वे चाहती क्या थीं?

बाँदी : अजी जाने भी दो, उनकी बातों में कहाँ तक पड़ोगे? वह तो कहेंगी कि अपना घर उठाकर दे दो, तो कोई क्या अपना घर उठाकर दे दे?

पारसनाथ: और कोई चाहे न दे मगर मैं तो अपना घर तुम्हारे ऊपर न्योछावर किए बैठा हूँ, अस्तु, मैं सबकुछ कर सकता हूँ। तुम कहो भी तो सही, मतलब तो अपना काम होने से है।

बाँदी : (सिर झुकाती हुई नखरे के साथ) मैं क्या कहूँ, मुझसे तो कहा नहीं जाता!

पारसनाथ: फिर वही नादानी की बात ! तुम तो अजब बेवकूफ औरत हो! कहो-कहो, तुम्हें मेरे सर की कसम, कहो तो सही वे क्या माँगती थीं?

बाँदी : कहती थीं कि ‘इस समय तो सरला के कुल गहने मुझे दे दो, जो ब्याह वाले दिन उस वक्त उसके बदन पर थे, जब तुम लोगों ने उसे घर से बाहर निकाला था और जब तुम्हारा काम हो जाए अर्थात सरला प्रसन्नता से दूसरे के साथ शादी कर ले बल्कि सभों से खुल्लमखुल्ला कह दे कि हाँ यह शादी मैंने अपनी खुशी से की है, तब दस हजार रुपया नकद मुझे मिले।’ मगर वे चाहती हैं कि रुपए की बाबत आप एक पुर्जा पहिले ही लिखकर उन्हें दे दें। बस यही तो बात है जो अम्मा कहती थीं।

पारसनाथ: तो इसमें हर्ज ही क्या है? आखिर वह रुपया जो मुझे मिलेगा तुम्हारा ही तो है। फिर आज अगर दस हजार देने का पूर्जा मैं लिख ही दूँगा तो क्या हर्ज है? मगर हाँ एक बात जरा मुश्किल है!

बाँदी : वह क्या?

पारसनाथ: गहने जो सरला के बदन पर थे उनमें से आधे के लगभग तो हम लोगों ने बेच डाले हैं। .

बाँदी : तो हर्ज ही क्या है, जो कूछ हो उन्हें दे दो, मैं उन्हें कह-सुनकर ठीक कर लूँगी, आखिर कुछ भी मेरी बात मानेंगी या नहीं? ऐसी ही जिद करने पर उतारू होंगी तो मैं उनका साथ ही छोड़ दूँगी। वाह रे, जिसे मैं प्यार करती हूँ उसी को वह मनमाना सतावेंगी! यह मुझसे बर्दाश्त न हो सकेगा! अच्छा तो बुलाऊँ निगोड़ी अम्मा को?

पारस. . हाँ-हाँ बुलाओ, पुर्जा तो मैं इसी समय लिख देता हूँ और बचे हुए गहने कल इसी समय लेकर हाजिर हो जाऊँगा। मगर तुम उन्हें निगोड़ी क्यों कहती हो? वह बड़ी हैं, उन्हें ऐसा न कहना चाहिए!

बाँदी : (तुनककर) उफ! जबकि वह मेरी तबीयत के खिलाफ करके मेरा दिल जलाती हैं तो मैं उन्हें कहने से कब बाज आती हूँ। इतना कहकर बाँदी चली गई और थोड़ी ही देर में अपनी अम्मा को साथ लेकर चली आई। उस समय उसकी निगोड़ी अम्मा के हाथ में कलम-दवात और कागज भी मौजूद था। मरातबे हों, अल्लाह सलामत रक्खे !’ इत्यादि कहती हुई वह पारसनाथ के पास बैठकर धीरे-धीरे बातें करने लगी और थोड़ी ही देर में उल्लू बनाकर उसने पारसनाथ से अपनी इच्छानुसार पुर्जा लिखवा लिया। मामूली सिरनामे के बाद उस पुर्जे का मजमून यह था-

 

“बाँदी की अम्माजान ‘रसूल बाँदी’ से मैं एकरार करता हूँ कि उसकी कोशिश से अगर ‘सरला’ (जो इस समय हमारे कब्जे में है) मेरी इच्छानुसार हरनंदन के अतिरिक्त किसी दूसरे के साथ प्रसन्नतापूर्वक विवाह कर लेगी तो मैं ‘रसूल बाँदी’ को दस हजार रुपए नगद दूँगा।”

पुर्जा लिखवाकर बुढ़िया विदा हुई और बाँदी पारसनाथ को अपने नखरे का आनंद दिखाने लगी। मगर पारसनाथ के लिए यह खुशकिस्मती का समय घंटे-भर से ज्यादे देर तक के लिए न था, क्योंकि इसी बीच में लौंडी ने हरनंदन बाबू के आने की इत्तला दी, जिसे सुनकर पारसनाथ ने बाँदी से कहा, ”ल्लो, तुम्हारे हरनंदन बाबू आ गए, अब मुझे विदा करो ”

बाँदी : मेरे काहे को होंगे, जिसके होंगे उसके होंगे। मैं तो तुम्हारे काम का खयाल करके उन्हें. अपने यहाँ आने देती हूँ, नहीं तो मुझे गरज ही क्या पड़ी है?

पारसनाथ: उनकी गरज तो कुछ नहीं मगर रुपए की गरज तो है?

बाँदी : जी नहीं, मुझे रुपए की भी लालच नहीं, मैं तो मुहब्बत की भूखी हूँ, सो तुम्हारे सिवाय और किसी में देखती नहीं।

पारसनाथ: तो अब हरनंदन से मेरा क्या काम निकलेगा?

बाँदी : वाह-वाह! क्या खूब? इसी अक्ल पर सरला की शादी दूसरे के साथ करा रहे हो?

पारस.: सो क्या?

बाँदी : आखिर दूसरी शादी करने के लिए सरला को क्योंकर राजी किया जाएगा? और तरकीबों के साथ एक तरकीब यह भी होगी कि हरनंदन के हाथ की लिखी हुईं चिट्ठी सरला को दिखाई जाएगी, जिसमें सरला से घृणा और उसकी निंदा होगी।

पारसनाथ: (बात काटकर) ठीक है, ठीक है, अब मैं समझ गया! शाबाश! बहुत अच्छा सोचा! सरला हरनंदन के अक्षर पहिचानती भी है। (उठता हुआ) अच्छा तो मेरे जाने का रास्ता ठीक कराओ, वह कमबख़्त मुझे देखने न पावे।

बाँदी : बस तुम सीढ़ी के बगलवाले पायखाने में घुसकर खड़े हो जाओ, जब वे ऊपर आ जाएँ, तब तुम नीचे उतर जाना और गली के रास्ते बाहर हो जाना, क्योंकि सदर दरवाजे पर उनके आदमी होंगे।

पारसनाथ: (मुस्कराते हुए) बहुत खूब ! रंडियों के यहाँ आने का एक नतीजा यह भी है कि कभी-कभी पायखाने का आनंद भी लेना पड़ता है !

इसके बाद जवाब में बाँदी ने मुस्कराकर एक चपत (थप्पड़) से पारसनाथ की खातिर की और मटकती हुई नीचे चली गई। जब तक हरनंदन बाबू को लेकर वह ऊपर न आई तब तक पायखाने का विमल अथवा समल आनंद पारसनाथ को भोगना पड़ा।

काजर की कोठरी : खंड-9

बाँदी की अम्मा पारसनाथ से मनमाना पुर्जा लिखवाकर नीचे उतर गई और अपने कमरे में न जाकर एक दूसरी कोठरी में चली गई जिसमें सुलतानी नाम की एक लौंडी का डेरा था। यह सुलतानी लौंडी पुरानी नहीं है, बल्कि बाँदी के लिए बिलकुल ही नई है। आज चार ही पाँच दिन से इसने बाँदी के यहाँ अपना डेरा जमाया है।

इसकी उम्र चालीस वर्ष से कम न होगी। बातचीत में तेज, चालाक और बड़ी ही धूर्त है। दूसरे को अपने ऊपर मेहरबान बना लेना तो इसके बाएँ हाथ का करतब है। यद्यपि उम्र के लिहाज से लोग इसे बुढ़िया कह सकते हैं, मगर यह अपने को बुढ़िया नहीं समझती। इसका चेहरा सुडौल और रंग अच्छा होने के सबब से बुढ़ापे का दखल जैसा होना चाहिए था, न हुआ था और अब भी यह खूबसूरतों के बीच में बैठकर अपनी लच्छेदार बातों से सभों का दिल खुश कर लेने का दावा रखती है। इसने बाँदी के घर पहुँचकर उसकी अम्मा को खुश कर लिया और उसकी लौंडी या मुसाहब बनकर रहने लगी। इसके बदन पर कुछ जेवर और एक हजार नगद रुपया भी था, जो उसने बाँदी के पास यह कहकर अमानत में रख दिया था कि ‘एक नजूमी (ज्योतिषी) के कहे मुताबिक मैं समझती हूँ कि मेरी उम्र बहुत कम है, अब मैं और चार-पाँच साल से ज्यादे इस दुनिया में नहीं रह सकती, साथ ही इसके मेरा न तो कोई मालिक है न वारिस। एक लड़की थी वह जाती रही, अस्त, इस एक हजार रुपए को जो मेरे पास है, अपनी आकबत सुधारने का जरिया समझकर तुम्हारे पास अमानत रख देती हूँ और उम्मीद करती हूँ कि इससे मेरे मरने के बाद मेरी आकबत ठीक करके कब्र वगैरह बनवा दोगी।’

रुपए वाले की कदर सब जगह होती है, अस्तु, बाँदी की माँ ने भी खुशी-खुशी उसे रुपए सहित अपने घर में रख लिया और लौंडी के बदले में उसे अपना मुसाहब समझा। बस इस समय बाँदी की माँ ने जो कुछ पारसनाथ से लिखवाया, वह इसी की सलाह का नतीजा था।

बाँदी की अम्मा को देखकर सुलतानी उठ खड़ी हुई और बोली, ”कहिए, क्या रंग है!’

बाँदी की अम्मा : सब ठीक है, जो कुछ मैंने कहा उसने बेउज्र लिख दिया, देखो, यह उसके हाथ का पुर्जा है।

सुलतानी : (पुर्जा पढ़कर) बस इतने ही से मतलब था, आइए बैठ जाइए। गहने के बारे में उसने क्या कहा?

बाँदी की अम्मा : (बैठकर) गहना आधा तो उसने बेच खाया, बाकी आधा कल ले आवेगा। जो कुछ करना है तुम्हीं को करना हैं, क्योंकि तुम्हारे ही कहे मुताबिक और तुम्हारे ही भरोसे पर कार्रवाई की गई है।

सुलतानी : आप किसी तरह का तरद्दुद न करें, सरला को राजी कर लेना मेरे लिए कोई बात नहीं है, इस काम के लिए केवल हरनंदन बाबू के हाथ की एक चिट्ठी उसी मजमून की चाहिए जैसा कि मैं कह चुकी हूँ, बस और कुछ नहीं।

बाँदी की अम्मा : यकीन तो है कि हरनंदन बाबू भी सरला के बारे में चिट्ठी लिख देंगे। जब उन्हें सरला से कुछ मतलब ही नहीं रहा तो चिट्ठी लिख देने में उनको हर्ज क्या है?

सुलतानी: अगर वे लिखने में कुछ हील करें तो मुझे उनके सामने ले चलिएगा, फिर देखिएगा कि मैं किस तरह समझा लेती हूँ।

इसी तरह की बातें इन दोनों में देर तक होती रहीं, जिसे विस्तार के साथ लिखने की कोई जरूरत नहीं, हाँ बाँदी और हरनंदन बाबू का तमाशा देखना जरूरी है।

हरनंदन बाबू की खातिरदारी का कहना ही क्या? बाँदी ने इन्हें सोने की चिड़िया समझ रखा था और समय तथा आवश्यकता ने इन्हें भी दाता और ओला-भाला ऐयाश बनने पर मजबूर किया था। दिल में जो कुछ धुन समाई थी उसे पूरा करने के लिए हर तरह की कार्रवाई करने का हौसला बाँध लिया था, मगर बाँदी इन्हें आधा बेवकूफ समझती थी। बाँदी को विश्वास था कि हरनंदन का दिल हाथ में लेना उतना आसान नहीं है, जितना पारसनाथ का–और इन्हीं सबबों से इनकी खातिरदारी ज्यादा होती थी।

हरनंदन बाबू बड़ी खातिर और इज्जत के साथ उसी ऊपरवाले बँगले में बैठाए गए। बरसनेवाले बादल के घिर आने से पैदा हुई उमस ने जो गमीं बढ़ा रक्खी थी, उसे दूर करने के लिए नाजुक पंखी ने बाँदी के कोमल हाथों का सहारा लिया और इस बहाने से समय के खुशनसीब हरनंदन बाबू का पसीना दूर किया जाने लगा। ” आह, मेरा दिल इतना बर्दाश्त नहीं कर सकता!” यह कहकर हरनंदन बाबू ने बाँदी के हाथ से पंखी लेनी चाही, मगर उसने नहीं दी और मुहब्बत के साथ झलती रही। दो ही चार दफे की ‘हाँ-नहीं’ के बाद इस नखरे का अंत हुआ और इसके बाद मीठी-मीठी बातें होने लगीं।

हरनंदन: मालूम होता है कि पारसनाथ आया था?

बाँदी: (मुस्कराती हुई) जी हाँ।

हरनंदन : है या गया?

बाँदी : (मुस्कराती हुई) गया ही होगा।

हरनंदन : इसके क्या मानी ! क्या तुम नहीं जानतीं कि वह है या गया?

बाँदी : जी हाँ, मैं नहीं जानती, क्योंकि जब आपके आने की खबर हुई, तब मैंने उसे पायखाने में छिपे रहने की सलाह दी, क्योंकि उसे आपका सामना करना मंजूर न था और मुझे भी उसके छिपने के लिए इससे अच्छी जगह दूसरी कोई न सूझी।

हरनंदन : ठीक है, रंडियों के घर आकर पायखान में छिपना, उगालदान का उठाना, तलवे में गुदगुदाना अथवा नाक पर हँसी का बुलाना बहुत जरूरी समझा जाता है, बल्कि सच तो यों है कि ऐयाशी के सुनसान मैदान में ये ही दो-चार खुशनुमा दरख्त हरारत को दूर करनेवाले हैं।

बाँदी : (दिल में शरमाती मगर जाहिर में हँसती हुई) आप भी अजब आदमी हैं। मालूम होता है आपने खानगियों के बहुत-से किस्से सुने हैं, मगर किसी खानदान रंडी की शराफत का अभी अंदाजा नहीं किया है!

हरनंदन : (हँसकर) ठीक है, या अगर अंदाजा किया है तो पारसनाथ ने!

बाँदी: (कुछ झेपकर) यह दूसरी बात है! ‘जैसा मुँह वैसी थपेड़।’ न मैं उसके लिए रंडी हूँ और न वह मेरे लिए लायक सरदार। वह दिवालिया और कंगला सरदार और मैं अम्मा के दबाव से जैरबार! हाँ अगर कोई आप ऐसा सरदार मुझे मिला होता, तो मैं दिखाती कि खानदानी रंडी की वफादारी किसे कहते हैं! (अपना कान छूकर) शारदा की कसम, हम लोग उन खानगियों में नहीं हैं जिन्होंने हमारी कौम की बदनामी कर रखी है।

हरनंदन : (प्यार से बाँदी को अपनी तरफ खींचकर) बेशक, बेशक ! मुझे भी तुमसे ऐसी ही उम्मीद है और इसी खयाल से मैंने अपने को तुम्हारे हाथ बेच भी डाला है।

बाँदी : (हरनंदन के गले में हाथ डालकर) मैं तो तुम्हारे कहने से और तुम्हारे काम का खयाल करके उस मूँडी-काटे से दो-दो बातें भी कर लेती हूँ, नहीं तो मैं उसके नाम पर थूकना भी नहीं चाहती।

हरनंदन : (इस बहस को बढ़ाना उचित न जानकर और बाँदी को बगल में दबाकर) मारो कमबख़्त को, जाने भी दो, कहाँ का पचड़ा ले बैठी हो! अच्छा यह बताओ, वह कब से बैठा हुआ था?

बाँदी: कमबख़्त दो घंटे से मगज चाट रहा था।

हरनंदन: मेरा जिक्र तो आया ही होगा?

बाँदी: भला इसका भी कुछ पूछना है !

हरनंदन : क्या-क्या कहता था?

बाँदी : बस वही सरलावाली बातें, मैंने तो उस कमबख़्त से कई दफे कहा कि अब हरनंदन बाबू सरला से शादी न करेंगे, मगर उसको विश्वास ही नहीं होता और विश्वास न होने का एक सबब भी है।

हरनंदन : वह क्या?

बाँदी : तुमने चाहे अपने दिल से सरला को भुला दिया है, मगर सरला ने तुम्हें अभी तक नहीं भुलाया।

हरनंदन : इसका क्या सबूत?

बाँदी : इसका सबूत यही है कि वह (पारसनाथ) कैदी बनकर उस कैदखाने में गया था, जिसमें सरला कैद है और सरला को कई तरह से समझा-बझाकर दूसरे के साथ ब्याह करने के लिए राजी करना चाहा था, मगर उसने एक न मानी।

हरनंदन : (ताज्जुब के ढंग से) हाँ ! उसने तुमसे खुलासा कहा कि किस तरह से सरला के पास गया और क्या-क्या बातें हुईं?

बाँदी : जी हाँ, उसने जो कुछ कहा है मैं आपको बताती हूँ।

इतना कहकर बाँदी ने वह हाल जिस तरह पारसनाथ से सुना था, उसी तरह बयान किया जिसे सुनकर हरनंदन ने कहा, ”अगर ऐसा है तो मुझे भी कोई तरकीब करनी चाहिए, जिससे सरला के दिल से मेरा खयाल जाता रहे!”

बाँदी : इससे बढ़कर और कोई तरकीब नहीं हो सकती कि तुम उसे कैद से छुड़ाकर उसके साथ ब्याह कर लो। मैं इस काम में हर तरह से तुम्हारी मदद करने के लिए तैयार हूँ, बल्कि उसका पत्ता भी करीब-करीब लगा चुकी हूँ। दो ही एक दिन में बता दूँगी कि वह कहाँ और किस हालत में है, साथ ही इसके मैं यह भी की कसम खाकर कहती हूँ कि मुझे इस बात का जरा भी रंज न होगा, बल्कि मुझे एक तरह पर खुशी होगी, क्योंकि मेरा दिल घड़ी-घड़ी यह कहता है कि सरला जब इस बात को जानेगी कि मेरा कैद से छूटना और अपने चहेते के साथ ब्याह होना बाँदी की बदौलत है, तो वह मुझे भी प्यार की निगाह से देखेगी और ऐसी हालत में हम दोनों की जिंदगी बड़ी हँसी-खुशी के साथ बीतेगी।

हरनंदन : (बाँदी की पीठ पर हाथ ठोंक के) शाबाश! क्यों न हो! तुम्हारा यह सोचना तुम्हारी शराफत का नमूना है। मगर बाँदी ! मैं क्या करूँ, लाचार हूँ कि मेरे दिल से उसका खयाल बिलकुल जाता रहा और अब मैं उसके साथ शादी करना बिलकुल पसंद नहीं करता। मैं नहीं चाहता कि मेरी उस मुहब्बत में कोई भी दूसरा शरीक हो जो मैंने खास तुम्हारे लिए उठा रखी हैं।

बाँदी : मेरे खयाल से तो कोई हर्ज नहीं है।

हरनंदन : नहीं-नहीं, ऐसी बातें मत करो और अब कोई ऐसी तरकीब करो जिससे उसके दिल से मेरा खयाल जाता रहे!

बाँदी : (दिल में खुश होकर) खैर तुम्हारी खुशी, मगर यह बात तो तभी हो सकती है जब वह तुम्हारी तरफ से बिलकुल नाउम्मीद हो जाए और उसकी शादी किसी दूसरे के साथ हो जाए।

हरनंदन : हाँ तो मैं भी तो यही चाहता हूँ, मगर साथ ही इसके इतना जरूर चाहता हूँ कि वह किसी नेक के पाले पड़े!

बाँदी : अगर मेहनत की जाए तो ऐसा भी हो सकता है, मगर यह काम किसी बड़े चालाक के किए ही हो सकता है जैसी कि इमामीजान।

हरनंदन: कौन इमामीजान?

बाँदी : इमामीजान एक खबीस बुढ़िया है जो बड़ी चालाक और धूर्त है। कभी-कभी अम्मा के पास आया करती है। मैं तो उसे देख के ही जल जाती हूँ।

हरनंदन : खैर मेरे लिए तुम इतनी तकलीफ और करके इमामीजान को इस काम के लिए मुस्तैद करो, मगर यह बताओ कि इमामीजान को सरला के पास पहुँचने का मौका कैसे मिलेगा?

बाँदी : इसका इंतजाम मैं कर लूँगी, किसी-न-किसी तरह आपका काम करना जरूरी है। मैं पारसनाथ को कई तरह से समझाकर कहूँगी कि अगर सरला तुम्हारी बात नहीं मानती तो मैं एक औरत का पता बताती हूँ, तुम उसे सरला के पास ले जाओ, बेशक वह सरला को समझाकर दूसरे के साथ ब्याह करने पर राजी कर देगी। उम्मीद है कि पारसनाथ इस बात को मंजूर करके इमामी को सरला के पास ले जाएगा, बस।

हरनंदन : बस-बस -बस, मैं समझ गया। यह तरकीब बहुत ही अच्छी है और पारसनाथ इस बात को जरूर मान लेगा।

बाँदी : मगर फिर यह भी तो उसे बताना चाहिए कि वह किसके साथ ब्याह करने पर सरला को राजी करे।

हरनंदन : मैं सोचकर इसका जवाब दूँगा, क्योंकि इसका फैसला करना होगा कि वह आदमी भी सरला के साथ ब्याह करने से इनकार न करे, जिसके साथ उसका संबंध होना मैं पसंद करूँ।

बाँदी : हाँ यह तो जरूर होना चाहिए, साथ ही इसके इसका बंदोबस्त भी बहुत जरूरी है कि सरला के दिल से तुम्हारा ध्यान जाता रहे और उसे तुम्हारी तरफ से किसी तरह की उम्मीद बाकी न रहे।

हरनंदन : यह तो कोई मुश्किल नहीं है, मैं एक चिट्ठी ऐसी लिख दूँगा जिसे देखते ही सरला का दिल मेरी तरफ से खट्टा हो जाएगा ! और उसमें..

बाँदी : बस-बस, मैं आपका मतलब समझ गईं, बेशक ऐसा करने से मामला ठीक हो जाएगा ! (कुछ सोचकर) मगर कमबख़्त इमामी को लालच हद से ज्यादा है।

हरनंदन : कोई चिंता नहीं, जो कुछ कहोगी उसे दे दूँगा। और फिर उसे चाहे जो कुछ दिया जाए मगर इसमें कोई शक नहीं कि अगर यह काम मेरी इच्छानुसार हो जाएगा तो मैं तुम्हें दस हजार रुपए नकद दूँगा और अपने को तुम्हारे हाथ बिका हुआ।

बाँदी : (मुहब्बत से हरनंदन का हाथ पकड़ के) जहाँ तक होगा मैं तुम्हारे काम में कोशिश करूँगी। मुझे इस बात की लालच नहीं है कि तुम मुझे दस हजार रुपए दोगे। तुम मुझे चाहते हो, मेरे लिए यही बहुत है। जबकि मैं अपने को तुम्हारी मुहब्बत पर न्योछावर कर चुकी हूँ, तब भला मुझे इस बात की ख्वाहिश कब हो सकती है कि तुमसे रुपए वसूल करूँ? (लंबी साँसें लेकर) अफसोस कि तुम मुझे आज भी वैसा ही समझते हो जैसा पहिले दिन समझे थे!

इतना कहकर बाँदी नखरे में दो-चार बूँद आँसू को बहाकर आँचल से आँख पोंछने लगी। हरनंदन ने भी उसके गले में हाथ डालकर कसूर की माफी माँगी और एक अनूठे ढंग से उसे प्रसन्न करने का विचार किया। इसके बाद क्या हुआ सो कहने की कोई जरूरत नहीं। बस इतना ही कहना काफी है कि हरनंदन दो घंटे तक और बैठे तथा इसके बाद उन्होंने अपने घर का रास्ता लिया।

काजर की कोठरी : खंड-10

अब हम थोडा-सा हाल लालसिंह के घर का बयान करते हैं। लालसिंह को घर से गायब हुए आज तीन या चार दिन हो चुके हैं। न तो वे किसी से कुछ कह गए हैं और न कुछ बता ही गए हैं कि किसके साथ कहाँ जाते हैं और कब लौटकर आवेंगे। अपने साथ कुछ सफर का सामान भी नहीं ले गए, जिससे किसी तरह की दिलजमई होती और यह समझा जाता कि कहीं सफर में गए हैं, काम हो जाने पर लौट आवेंगे। वह तो रात के समय यकायक अपने पलंग से गायब हो गए और किसी तरह का शक भी न होने पाया। न तो पहरेवाला ही कुछ बताता है और न खिदमतगार ही किसी तरह का शक जाहिर करता है। सब-के-सब और परेशानी में पड़े हैं तथा ताज्जुब के साथ एक-दूसरे का मुँह देखते हैं। इसी तरह पारसनाथ भी परेशान चारों तरफ घूमता है और अपने चाचा का पता लगाने की फिक्र कर रहा है। उसने भी लालसिंह की तलाश में कई आदमी भेजे हैं, मगर उसका यह उद्योग चचा की मुहब्बत के खयाल से नहीं है, बल्कि इस खयाल से है कि कहीं यह कार्यवाही भी किसी चालाकी के खयाल से न की गई हो। वह कई दफे अपनी चाची के पास गया और हमदर्दी दिखाकर तरह-तरह के सवाल किए मगर उसकी जुबानी भी किसी तरह का पता न लगा बल्कि उसकी चाची ने उसे कई दफे कहा कि ‘बेटा ! तुम्हारे ऐसा लायक भतीजा भी अगर अपने चचा का पता न लगावेगा तो और किससे ऐसे कठिन काम की उम्मीद हो सकती है?

इस तरद्दुद और दौड़-धूप में चार दिन गुजर गए, मगर लालसिंह के बारे में किसी तरह का कुछ भी हाल न मालूम हुआ।

संध्या का समय है और लालसिंह के कमरे के आगेवाले दालान में पारसनाथ एक कुर्सी पर बैठा हुआ कुछ सोच रहा है। उसके दिल में तरह-तरह की बातें पैदा होती और मिटती हैं और एक तौर पर वह गंभीर चिंता में डूबा हुआ मालूम पड़ता है। इसी समय अकस्मात एक परदेसी आदमी ने उसके सामने पहुँचकर सलाम किया और हाथ में एक चिट्ठी देकर किनारे खड़ा हो गया। हाथ-पैर और सूरत-शक्ल देखने से मालूम होता था कि वह आदमी कहीं बहुत दूर से सफर करता हुआ आ रहा है।

पारसनाथ ने लिफाफे पर निगाह दौड़ाई जो उसी के नाम का लिखा हुआ था। अपने चचा के हाथ के अक्षर पहिचानकर वह चौंक पड़ा और व्याकुलता के साथ चिट्ठी खोलकर पढ़ने लगा। उसमें यह लिखा हुआ था-

“चिरंजीव पारसनाथ यौग्य लिखी लालसिंह की आसीस।

‘ “अपनी राजी-खुशी का हाल लिखना तो अब व्यर्थ ही है, हाँ, ईश्वर से तुम्हारा कुशल-क्षेम मनाते हैं। बेशक तुम लोग ताज्जुब और तरद्दुद में पड़े होवोगे और मेरे यकायक गायब हो जाने से तुम लोगों को रंज हुआ होगा, मगर मैं क्या करूँ! अपनी दिली उलझनों से लाचार होकर मुझे ऐसा करना पड़ा। सरला के गायब होने और हरनंदन की ऐयाशी ने मेरे दिल पर गहरी चोट पहुँचाई। अब मैं गृहस्थ आश्रम में रहना और किसी को अपना मुँह दिखाना पसंद नहीं करता, इसलिए बिना किसी से कुछ कहे-सुने चुपचाप यहाँ चला आया और आज इस आदमी के सामने ही सिर मुँड़ाकर संन्यास ले लिया है। अब मुझे न तो गृहस्थी से कुछ सरोकार रहा और न अपनी मिलकियत से कुछ वास्ता। जो कुछ वसीयतनामा मैं लिख चुका हूँ, आशा है कि तुम ईमानदारी के साथ उसी के मुताबिक कार्रवाई करोगे तथा मेरे रिश्तेदारों को धीरज व दिलासा देकर रोने-कलपने से बाज रक्खोगे। आज मैं इस स्थान को छोड़ अपने गुरु जी के साथ बदरिकाश्रम की तरफ जाता हूँ और उधर ही किसी जंगल में तपस्या करके शरीर त्याग दूँगा। अब हमारे लौटने की रत्ती-भर भी आशा न रखना और जिस तरह मुनासिब समझना घर का इंतजाम करना।

लालसिंह”

चिट्ठी पढ़कर पारसनाथ तबीयत में तो बहुत खुश हुआ मगर जाहिर में रोनी सूरत बनाकर अफसोस करने लगा और दस-बीस बूँद आँसू की गिराकर उस चिट्ठी लानेवाले से यों बोला-

पारसनाथ: तुम्हारा नाम क्या है?

आदमी : लोकनाथ !

पारसनाथ: मकान कहाँ है?

लोकनाथ : काशीजी।

पारसनाथ: हमारे चाचा साहब ने तुम्हारे सामने ही संन्यास लिया था?

लोकनाथ : जी हाँ, उस समय जो कुछ उनके पास था, दो सौ रुपए मुझे देकर बाकी सब दान कर दिया और यह चिट्ठी जो पहिले लिख रक्खी थी देकर कहा कि ‘यह चिट्ठी मेरे भतीजे पारसनाथ के पास पहुँचा देना और जो दो सौ रुपए हमने तुम्हें दिए हैं, उसे इसी की मजूरी समझना। दूसरे दिन जब वे दंड-कमंडल लिए हरिद्वार की तरफ गए, तब मैं भी किराए के इक्के पर सवार होकर इस तरफ रवाना हुआ।

पारसनाथ: अफसोस ! न मालूम चाचा साहब को यह क्या सूझी! उनका अगर पता मालूम हो तो मैं उनके पास जरूर जाऊँ और जिस तरह हो घर लिवा लाऊँ। अगर संन्यास ले लिया है तो क्या हुआ, अलग बैठे रहेंगे, हम लोगों को आज्ञा दिया करेंगे। उनके सामने रहने ही से हम लोगों को आसरा बना रहेगा।’

लोकनाथ : एक तो अब उनका पता लगाना ही कठिन है, दूसरे वह ऐसे कच्चे संन्यासी नहीं हुए हैं जो किसी के समझाने बझाने से घर लौट आवेंगे। अब आप लोग उनका ध्यान छोड़ दें और घर-गृहस्थी के धंधे में लगें।

पारसनाथ: तो क्या अब हम लोग उनकी तरफ से बिलकुल निराश हो जाएँ?

लोकनाथ : निःसंदेह ! अच्छा अब मुझे बिदा कीजिए तो मैं अपने घर जाऊँ।

पारसनाथ: नहीं-नहीं, अभी तुम बिदा न किए जाओगे। अभी मैं हवेली में जाकर औरतों को यह संवाद सुनाऊँगा, कदाचित चाची साहिबा को तुमसे कुछ पूछने की जरूरत पड़े। इसके बाद उनकी आज्ञानुसार कुछ देकर तुम्हारी विदाई की जाएगी, तब तुम अपने घर जाना।

लोकनाथ: ठीक है, आप इसी समय महल जाकर अपनी चाची साहिबा से जो कुछ-कहना-सुनना हो कह-सुन लें, यदि उन्हें कुछ पूछना हो तो मैं जवाब देने के लिए तैयार हूँ, परंतु किसी के रोकने से मैं यहाँ रुक नहीं सकता और न विदाई या भोजन के तौर पर कुछ ले ही सकता हूँ, क्योंकि ऐसा करने के लिए लालसिंह ने कसम दिला दीं है बल्कि यहाँ तक कसम देकर कह दिया है कि जब तक तम वहाँ रहना तब तक अन्न-जल तक न छूना। इसलिए मैं कहता हूँ कि मुझे यहाँ से जल्द छुट्टी दिलाइए क्योंकि इस इलाके से बाहर हो जाने के बाद ही मैं अपने खाने-पीने का बंदोबस्त कर सकूँगा। मुझे इस काम की पूरी मजदूरी लालसिंह दे गए हैं, अस्तु, अब मैं उनकी कसम को टालकर अपना धर्म न बिगाड़ूँगा।

लोकनाथ की बातें सुनकर पारसनाथ को ताज्जुब मालूम हुआ, मगर वास्तव में ये सब बातें उसकी दिली खुशी को बढ़ाती जाती थीं। वह हाथ में चिट्ठी लिए वहाँ से उठा और सीधे अपनी चाची के पास चला गया। जो कुछ देखा-सुना था बयान करने के बाद उसने लालसिंह की चिट्ठी पढ़कर सुनाई। सबकुछ सुनकर जवाब में उसकी चाची ने कहा, “हाँ, वह तो होना ही था, वे पहिले से ही कहते थे कि अब हम संन्यास ले लेंगे। उन्होंने तो जो कुछ सोचा सो किया, मगर अब दुर्दशा हम लोगों की है !!” इतना कहकर लालसिंह की स्त्री आँखों से आँसू गिराने लगी।

पारसनाथ ने उसे बहुत-कुछ समझा-बुझाकर शांत किया और फिर लोकनाथ के बारे में पूछा कि वह जाने को तैयार है, जब तक यहाँ रहेगा पानी भी न पीएगा, उसे क्या कहा जाए? लालसिंह की स्त्री ने जवाब दिया, ‘मुझे तुम्हारी बातों पर विश्वास है और यह चिट्ठी भी ठीक उनके हाथ की लिखी हुई मौजूद है, फिर मैं उस आदमी से क्या और उसे किसलिए अटकाऊँगी? तुम जाओ और उसे विदा करके मेरे पास आओ।’

पारसनाथ खुशी-खुशी बाहर गया जहाँ उसने दो-चार बातें करके लोकनाथ को विदा कर दिया। इसके बाद खुशी-खुशी एक चिट्ठी लिखकर अपने खास नौकर के हाथ किसी दोस्त के पास भेजकर पुन: महल के अंदर चला गया।

काजर की कोठरी : खंड-11

आज हम फिर हरनंदन और उनके दोस्त रामसिंह को एक साथ हाथ में हाथ दिए उसी बाग के अंदर सैर करते देखते हैं जिसमें एक दफे पहिले देख चुके हैं। यों तो उन दोनों में बहुत देर से बातें हो रही हैं, मगर हमें इस समय की थोड़ी-सी बातों का लिखना जरूरी जान पड़ता है।

रामसिंह : ईश्वर न करे कोई इन कमबख़्त रंडियों के फेर में पड़े! इनकी चालबाजियों को समझना बड़ा ही कठिन है। रास्ते में चलनेवाले बड़े-बड़े धूर्तों और चालाकों को मुँह के बल गिरते मैं अपनी आँखों से देख चुका हूँ।

हरनंदन : ठीक है, मेरा भी यही कौल है, मगर मेरे बारे में तुम इस तरह बदगुमानियों को दिल में जगह न दो। कोई बुद्धिमान और पढ़ा-लिखा आदमी इन लोगों के हथकंडे में पड़कर बरबाद नहीं हो सकता, चाहे वह अपनी खुशदिली के सबब इन लोगों की सोहबत का शौकीन ही क्यों न हो!

रामसिंह : कभी नहीं, मेरा दिल इस बात को नहीं मान सकता, यद्यपि यह हो सकता है कि तुम उसकी मुट्ठी में न आओ, क्योंकि सोहबत थोड़े दिन की और दूसरे ख्याल से है, तिस पर मैं डंडा लिए हरदम तुम्हारे सर पर मुस्तैद रहता हूँ, मगर जो आदमी अपना दिल खुश करने की नीयत से इनकी सोहबत में बैठेगा, वह बिना नुकसान उठाए बेदाग नहीं बच सकता, चाहे वह कैसा ही चालाक क्यों न हो। और जिस पर रंडी आशिक हो गईं, समझ लो कि वह तो जड़-मूल से नाश हो गया। जो रंडियों की बातों पर विश्वास करता है, उस पर ईश्वर भी विश्वास नहीं करता। क्या तुम्हें याद नहीं है कि पहिले-पहिल जब हम-तुम दोनों अपने दोस्त नारायण के जिद करने पर गौहर के मकान पर गए थे, तो दरवाजे के अंदर घुसते समय पैर काँपते थे, मगर जब ऊपर जाकर उनके सामने दो घंटे बैठ चुके तब वह बात जाती रही और यह सोचने लगे कि यहाँ की किस बात को लोग बुरा कहते हैं?

हरनंदन : ठीक है और इसमें भी कोई संदेह नहीं कि इस दुनिया में जितनी बातें ऐब की गिनी जाती हैं, उन सभों में निपुणता भी इन्हीं की कृपा का फल होता है : झूठ बोलना, बहाना करना, बात बनाना, बेईमानी या दगाबाजी करना, इत्यादि तो इनकी सोहबत का साधारण और मामूली पाठ है मगर साथ ही इसके पुराने विद्वानों का यह भी कौल है कि इनकी सोहबत के बिना आदमी चतुर नहीं हो सकता। यह बात मैं इस ख्याल से नहीं कहता कि इनकी सोहबत मुझे पसंद है बल्कि एक मामूली तौर पर कहता हूँ।

रामसिंह : (मुस्कराकर) ‘काजर की कोठरी में कैसहू सयानो जाय, काजर की रेख एक लागि है पै लागि है!’ और कुछ नहीं तो इन दो है दिनों की सोहबत का इतना असर तो तुम पर हो ही गया कि इनकी सोहबत कुछ आवश्यक समझने लगे।

हरनंदन: नहीं-नहीं, मेरे कहने का यह मतलब नहीं था, तुम तो खामखाह की बदगुमानी करते हो।

रामसिंह : अच्छा-अच्छा, दूसरा ही मतलब सही मगर यह तो बताओ कि क्या जमींदार लोग कम धूर्त और चालाक तथा फरेबी होते हैं?

हरनंदन : (हँसकर) बहुत खासे ! अब आप दूसरे रास्ते पर चले, तो क्या आप जमींदारों की पंक्ति से बाहर हैं?

रामसिंह : (हँसकर) खैर इन पचड़ों को जाने दो, ऐसी दिल्लगी तो हमारे-तुम्हारे बीच बहुत दिनों तक होती रहेगी, हाँ यह बताओ कि अब तुम बाँदी के यहाँ कब जाओगे?

हरनंदन : आज तो नहीं मगर कल जरूर जाऊँगा, तब तक यकीन है कि सब काम ठीक हुआ रहेगा।

रामसिंह : अब केवल दिन और समय ठीक करना ही बाकी है।

हरनंदन : उसका निश्चय तो तुम ही करोगे।

रामसिंह : अगर बाँदी से सरला का पता लग गया होता तो ज्यादे तकलीफ करने की जरूरत न पड़ती और सहज ही में सब काम हो जाता।

हरनंदन : मैंने बहुत चाहा था कि वह किसी तरह सरला का पता बता दे, मगर कमबख़्त ने बताया नहीं और कहने लगी कि मुझे मालूम ही नहीं, मैंने भी ज्यादे जोर देना उचित न जाना।

रामसिंह : खैर कोई हर्ज नहीं, हमारा यह हाथ भी भरपूर बैठेगा, मगर इन सब बातों की खबर महाराज को अवश्य कर देनी चाहिए।

हरनंदन : तो चलिए शिवनंदन से मिलते हुए महाराज से भी मुलाकात कर आवें। .

रामसिंह : अच्छी बात है, अभी गाड़ी तैयार करने के लिए कहता हूँ।

इतना कहकर रामसिंह ने एक माली को आवाज दी और जब वह आ गया तब हुक्म दिया कि कोचवान को शीघ्र गाड़ी तैयार करने के लिए कहो।

जब तक गाड़ी तैयार होती रही तब तक दोनों दोस्त बाग में टहलते और बातें करते रहे, जब मालूम हुआ कि गाड़ी तैयार है तब कमरे में आए और पोशाक बदलकर वहाँ से रवाना हुए। कहाँ गए और क्या किया इसके कहने की कोई जरूरत नहीं। हाँ इस जगह पर थोडा-सा हाल पारसनाथ का जरूर लिखेंगे, जिसने इन दोनों को बाजार में गाड़ी पर सवार जाते देखा था और चाहा था कि किसी तरह इन दोनों का सत्यानाश हो जाए तो बेहतर है।

काजर की कोठरी : खंड-12

पारसनाथ बाजार को तय करता हुआ ऐसी जगह पहुँचा, जहाँ से बहुत तंग और गंदी गलियों का सिलसिला जारी होता था और इन गलियों में घूमता हुआ एक उजाड़ मुहल्ले में पहुँचा, जहाँ दिन-दोपहर के समय भी आदमियों को जाते डर मालूम पड़ता था। यहाँ पर एक मजबूत मगर पुराना मकान था जिसके दरवाजे पर पहुँचकर पारसनाथ ने कंडी खटखटाई। थोड़ी देर बाद किसी ने भीतर से पूछा, ‘कौन है?” इसके जवाब में पारसनाथ ने कहा, ‘गूलर का फूल!”

दरवाजा खुला और पारसनाथ उसके अंदर चला गया। इसके बाद मकान का दरवाजा भी बंद हो गया। इस मकान की भीतरी कैफियत बयान करने की इस समय कोई जरूरत नहीं है क्योंकि हम मुख्तसर ही में उन बातों को बयान करना चाहते हैं जिन्हें असल फैक्ट कह सकते हैं।

एक लंबे-चौड़े दालान में पारसनाथ के कई दोस्त और मददगार बैठे आपस में बातें और दम-दम-भर पर गाँजे का दम लगाकर मकान को सुवासित कर रहे थे। इसी मंडली में हमारा पुराना परिचित हरिहरसिंह भी बैठा हुआ था।’

पारसनाथ क्या देखकर सब उठ खड़े हुए और हरिहरसिंह ने बड़ी खातिर से पास बैठाकर करना शुरू किया।

हरिहरसिंह : कहो दोस्त, क्या रंग-ढंग है?

पारसनाथ: बहुत अच्छा है। आनंद-ही-आनंद दिखता है। हमारे मामले का पुराना कोढ़ भी निकल गया और अब हम लोग इस तरह से बेफिक्र होकर अपना काम करने लायक हो गए।

हरिहरसिंह : (चौंककर) कहो-कहो, जल्दी कहो क्या हुआ ! वह कोढ़ कौन-सा था और कैसे निकल गया?

दूसरा. : हाँ यार, सुनाओ तो सही, यह तो तुम बड़ी खुशखबरी लाए!

पारसनाथ: बेशक खुशखबरी की बात है, बल्कि यों कहना चाहिए कि हम लोगों के लिए इससे बढ़कर खुशखबरी हो ही नहीं सकती।

हरिहरसिंह: भला कुछ कहो भी कि यों ही जी ललचाया करोगे !

पारसनाथ: सच यों है कि दम लगा लेंगे तभी कुछ कहेंगे।

दूसरा : (तैयार चिलम पारसनाथ की तरफ बढ़ाकर) लीजिए दम भी तैयार है, मलते -मलते मोम कर डाला है।

पारसनाथ: (दम लगाकर) हम लोगों को अपने कमबख़्त चचा लालसिंह का बड़ा ही डर लगा हुआ था। यह सोचते थे कि कहीं ऐसा न हो कि कमबख़्त दूसरा ही वसीयतनामा लिखकर हमारी सब मेहनत की मिट्टी कर दे, ऐसी हालत में सरला की शादी दूसरे के साथ हो जाने पर भी इच्छानुसार लाभ न होता और इसी सबब से हम लोग उसे मार डालने का विचार भी कर रहे थे।

तीसरा: हाँ-हाँ, तो क्या हुआ, वह मर गया?।

पारसनाथ: मरा तो नहीं पर मरे के बराबर हो गया।

हरिहरसिंह : सो कैसे? तुमने तो कहा था कि वह कहीं चला गया।

पारसनाथ: हाँ ठीक है, ऐसा ही हुआ था, मगर आज उसके हाथ की लिखी हुई एक चिट्ठी मुझे मिली जिसे एक आदमी लेकर मेरे पास आया था।

हरिहरसिंह : उसमें क्या लिखा था?।

पारसनाथ: (जेब से चिट्ठी निकालकर और हरिहरसिंह का दिखाकर) लो जो कुछ है पढ़ लो और हमारे इन दोस्तों को भी सुना दो।

हरिहरसिंह : (चिट्ठी पढ़कर) बस-बस-बस, अब हमारा काम हो गया। जब उसने संन्यास ही ले लिया, तब उसे अपनी जायदाद पर किसी तरह का अधिकार न रहा और न वह किसी तरह का वसीयतनामा ही लिख सकता है, ऐसी अवस्था में केवल सरला की शादी ही किसी दूसरे के साथ हो जाने से काम चल जाएगा और किसी को किसी तरह का उज्र न रहेगा। मगर एक बात की कसर जरूर रह जाएगी।

पारसनाथ: वह क्या?

हरिहरसिंह : यही कि शादी हो जाने के बाद सरला अपने मुँह से किसी बड़े बुजुर्ग या प्रतिष्ठित आदमी के सामने कह दे कि ‘यह शादी मेरी प्रसन्नता से हुई है।’

पारसनाथ: हाँ, यह बात बहुत जरूरी है मगर मैं इसका भी पूरा-पूरा बंदोबस्त कर चुका हूँ।

हरिहरसिंह : वह क्या?

पारसनाथ: बाँदी ने इस काम के लिए एक बुड्ढी खन्नास को ठीक कर दिया है। वह सरला को दूसरे के साथ शादी करने पर राजी कर लेगी।

हरिहरसिंह: मगर मुझे विश्वास नहीं होता कि सरला इस बात को मंजूर कर लेगी या किसी के कहने-सुनने में आ जाएगी। उस रोज खुद तुम्हीं ने सरला से बातें करके देख लिया है।

पारसनाथ: ठीक है, मगर उसके लिए बाँदी की माँ ने जो चालाकी खेली हैं, वह भी साधारण नहीं है।

हरिहरसिंह : सो क्या?

पारसनाथ: उसने हरनंदन से एक चिट्ठी लिखवा ली है कि ‘मुझे सरला के साथ शादी करना स्वीकार नहीं है। जो नौजवान और कुँवारी लड़की घर से निकलकर कई दिन तक गायब रहे, उसके साथ शादी करना धर्मशास्त्र के विरूद्ध है, इत्यादि।’ इसके अतिरिक्त हरनंदन ने उस चिट्ठी में और भी ऐसी कई गंदी बातें लिखी हैं जिन्हें पढ़ते ही सरला आग हो जाएगी और हरनंदन का मुँह देखना भी पसंद न करेगी।’

हरिहरसिंह : अगर हरनंदन ने ऐसा लिख दिया है तो कहना चाहिए कि अब हमारे काम में किसी तरह की अंडस बाकी न रही।

पारसनाथ: ठीक है, मगर दो बातें बाँदी ने हमारी इच्छा के विरूद्ध की हैं।

हरिहरसिंह : वह क्या?

पारसनाथ: एक तो उसने सरला के गहने मुझसे ले लिए और काम हो जाने पर दस हजार रुपए नकद देने का भी एकरारनामा लिखा लिया है।

हरिहरसिंह : खैर इसके लिए कोई चिंता की बात नहीं है, जब इतनी दौलत मिलेगी तो दस हजार रुपया,कोई बड़ी बात नहीं है।

पारसनाथ: यही तो मैंने भी सोचा।

हरिहरसिंह : और दूसरी बात कौन-सी है?

पारसनाथ: दूसरी बात उसने हरनंदन की इच्छानुसार की है, क्योंकि अगर वह उस बात को कबूल न करती तो हरनंदन उसको इच्छानुसार चिट्ठी न लिख देता। इसके अतिरिक्त वह हरनंदन से भी कुछ रुपया ऐंठना चाहती थी। अस्तु, लाचार होकर मुझे वह भी कबूल करना ही पड़ा।

हरिहरसिंह : खैर वह बात क्या है सो तो कहो?

पारसनाथ: हरनंदन ने बाँदी से कहा था कि मैं सरला से शादी न करूँगा, मगर ऐसा जरूर होना चाहिए कि उसकी शादी मेरे दोस्त के साथ हो जिसमें मैं कभी-कभी सरला को देख सकूँ। अगर ऐसा तुम्हारे किए हो सके तो मैं चिट्ठी लिख देने के लिए तैयार हूँ और चिट्ठी के अतिरिक्त काम हो जाने पर बहुत-सा रुपया भी दूँगा। इसी से बाँदी को हरनंदन की बात कबूल करनी पड़ी। बाँदी को क्या उस बुढ़िया खन्नास को रुपए के लालच ने घेर लिया और वह इस बात पर तैयार हो गई कि जिस आदमी के साथ शादी करने के लिए हरनंदन कहेंगे उसी आदमी के साथ शादी करने पर सरला को राजी करूँगी।

हरिहरसिंह : (रंज से कुछ मुँह बनाकर) खैर जो चाहो सो करो मगर मैं तो समझता हूँ कि अगर तुम कुछ और रुपया देने का एकरार बाँदी से करते तो शायद यह पचड़ा ही बीच में न आन पड़ता।

पारसनाथ: नहीं-नहीं, मेरे दोस्त ! यह काम मेरे अख्तियार के बाहर था, रुपए की लालच से नहीं निकल सकता था। मैंने बहुत कुछ बाँदी से कहा और चाहा, मगर उसने कबूल नहीं किया। सबसे भारी जवाब तो उसका यह था कि ‘अगर मैं हरनंदन की बात कबूल नहीं करती और उसकी इच्छानुसार काम कर देने की कसम नहीं खाती तो वह सरला के नाम की चिट्ठी कदापि नहीं लिखेगा और जब वह हरनंदन की लिखी हुई चिट्ठी सरला को दिखाई न जाएगी तब तक सरला भी बातों के फेर में न आवेगी और उसका कहना भी वाजिब ही था, इसी से लाचार होकर मुझे भी स्वीकार करना ही पड़ा।

हरिहरसिंह : (लंबी साँस लेकर) खैर किसी तरह तुम्हारा काम हो जाए वही बड़ी बात है। मेरे साथ सरला की शादी हुई तो क्या और न भी हुई तो क्या!

पारसनाथ: (हरिहर का पंजा पकड़कर) नहीं-नहीं, मेरे दोस्त, तुम्हें इस बात से रंज न होना चाहिए, मैं तुम्हारे फायदे का भी बंदोबस्त कर चुका हूँ। सरला के साथ शादी होने पर जो कुछ तुम्हें फायदा होता सो अब भी हुए बिना न रहेगा।

हरिहरसिंह : (कुछ चिढ़कर) सो कैसे हो सकता है?

पारसनाथ: ऐसे हो सकता है–जिस आदमी के साथ सरला की शादी होगी, वह रुपए के बारे में तुम्हारे नाम एक वसीयतनामा लिख देगा। 1

हरिहरसिंह : यह बात तो जरा मुश्किल है। मगर मुझे उन रुपयों की कुछ ऐसी परवाह भी नहीं है। मैं तो इतना ही चाहता हूँ कि किसी तरह तुम्हारा यह काम हो जाए।

पारसनाथ: मुझे विश्वास है कि ऐसा हो जाएगा और अगर न भी हुआ तो इकरार करता हूँ कि मुझे जो कुछ मिलेगा उसमें आधा तुम्हारा होगा।

हरिहर. : (कुछ खुश होकर) खैर जो होगा देखा जाएगा। अब यह बताओ कि बुढ़िया यहाँ कब आवेगी और सरला के पास कब जाएगी?

पारसनाथ: वह आती ही होगी।

ये बातें हो ही रही थीं कि बाहर से किसी ने दरवाजा खटखटाया। मामूली परिचय देने के बाद दरवाजा खोला गया तो हरनंदन के एक दोस्त के साथ सुलतानी दरवाजे के अंदर पैर रखती हुई दिखाई पड़ी। यह सुलतानी वही औरत है, जिसे हम बाँदी के मकान में दिखला आए हैं और लिख आए हैं कि इसने हाल ही में बाँदी के यहाँ नौकरी की है। बाँदी की तरफ से इसी ने सरला को समझाने का ठीका लिया है और यही इस काम का बीड़ा उठाकर लाई है कि सरला को दूसरे के साथ शादी करने पर राजी कर लूँगी।

जिस समय वह उन लोगों के सामने पहुँची, पारसनाथ बोल उठा, ” लीजिए, वह आ गई। अब इसे सरला के पास पहुँचाना चाहिए।”

सरला कहीं दूर न थी, इसी मकान की एक अंधेरी मगर हवादार कोठरी में अपनी बदकिस्मती के दिनों को नाजुक उँगलियों के पोरों पर गिनती और बड़ी-बड़ी उम्मीदों को ठंडी साँसों के झोंकों से उड़ाती हुई जमाना बिता रही थी। साधारण परिचय देने और लेने के बाद सुलतानी उस कोठरी में पहुँचाई गई, जिसमें केवल एक चिराग सरला की अवस्था को दिखलाने के लिए जल रहा था। जब से सरला को यह कोठरी नसीब हुई तब से आज तक उसने किसी औरत की सूरत नहीं देखी थी। इस समय यकायक सुलतानी पर निगाह पड़ते ही वह चौंकी और ताज्जुब से उसका मुँह देखने लगी। सुलतानी ने सरला के पास पहुँचकर धीरे-से कहा, ”मुझे देखकर यह न समझना कि तुम्हारे लिए कोई दुखदाई खबर या सामान अपने साथ लाई हूँ, बल्कि मेरा आना तुम्हें दुख के अथाह समुद्र से निकालने के लिए हुआ है। अपने चित्त को शांत करो और जो कुछ मैं कहती हूँ उसे ध्यान देकर सुनो।“

पाठक! इस जगह हम यह न लिखेंगे कि सुलतानी ने सरला से क्या-क्या कहा और सरला ने उसकी चलती-फिरती बातों का क्या और किस तौर पर जवाब दिया अथवा उन दोनों में कितनी देर तक हुज्जत होती रही। हाँ, इतना जरूर कहेंगे कि सुलतानी के आने का नतीजा इस समय पारसनाथ वगैरह को खुश करने के लिए अच्छा ही हुआ अर्थात घंटे-भर के बाद जब सुलतानी मुस्कराती हुई उस कोठरी के बाहर निकली और कोठरी का दरवाजा पुन: बंद कर दिया गया तब उसने (सुलतानी ने) पारसनाथ से कहा,

“लीजिए बाबू साहब, मैं आपका काम कर आई। हरनंदन की लिखी हुई चिट्ठी का नतीजा तो अच्छा होना ही था, मगर मेरी अनूठी बातों ने सरला का दिल मोम कर दिया और जब उसने मेरी जुबानी यह सुना, बाप लालसिंह उसी के गम में संन्यासी हो गया तब तो और भी उसका दिल पिघलकर बह गया और जो कुछ मैंने उसे समझाया और कहा उसे उसने खुशी से कबूल कर लिया। उसने इस बात का भी मुझसे वादा किया है कि ब्याह हो जाने पर मैं अपने हाथ अपने बाप को इस मजमून की चिट्ठी लिख दूँगी कि मैंने अपनी खुशी और रजामंदी से शिवनंदन के साथ शादी कर ली। मगर मुझसे उसने इस बात की शर्त करा ली है कि शादी होने के समय मैं उसके साथ रहूँगी।”

सुलतानी की बातें सुनकर ये लोग बहुत प्रसन्न हुए और पारसनाथ ने खुशी के मारे उछलते हुए अपने कलेजे को रोककर सुलतानी से कहा, ‘क्या हर्ज है अगर एक रोज दो घंटे के लिए तुम और भी तकलीफ करोगी। तुम्हारे रहने से सरला को ढाढ़स बनी रहेगी और वह अपने कौल से फिरने न पावेगी। तुम यह न समझो मैं तुम्हें यों ही परेशान करना चाहता हूँ, बल्कि विश्वास रखो कि शादी हो जाने पर मैं तुम्हें अच्छी तरह खुश करके विदा करूँगा।”

सुलतानी ने खुश होकर सलाम किया और जिसके साथ आई थी उसी के साथ मकान के बाहर होकर अपने घर का रास्ता लिया।

हमारे पाठक यह जानना चाहते होंगे कि यह शिवनंदन कौन है जिस के साथ शादी करने के लिए सरला तैयार हो गई। इसके जवाब में हम इस समय इतना ही कहना काफी समझते हैं कि बाँदी ने शिवनंदन के बारे में पारसनाथ से इतना ही कहा था कि शिवनंदन एक साधारण और बिना बाप-माँ का गरीब लड़का है। उसकी और हरनंदन की उम्र एक ही है, बातचीत और चाल-ढाल में भी विशेष फर्क नहीं है। हरनंदन और शिवनंदन एक साथ ही पाठशाला में पढ़ते थे, उसी समय से हरनंदन के दिल में उसका कुछ खयाल है और उसी के साथ सरला की शादी हरनंदन पसंद करता है।

शिवनंदन को पारसनाथ भी बहुत दिनों से जानता था और उसे विश्वास था कि यह बिलकुल साधारण और सीधे मिजाज का लड़का है।

सुलतानी को विदा करने के बाद पारसनाथ और हरिहरसिंह शिवनंदन के मकान पर गए और उसकी शादी के बारे में बहुत देर तक चलती -फिरती बातें करते रहे। हरिहरसिंह वहाँ अपनी चालाकी से बाज न आया, शिवनंदन को शादी के बंदोबस्त से खुश देखकर उसने उससे इस बात का इकरार लिखा लिया कि शादी होने के बाद सरला की जो जायदाद उसे मिलेगी उसमें से आधा हरिहरसिंह को वह बिला उज्र दे देगा। शादी की बातचीत खतम हुई। दिन और समय ठीक हो गया। शादी करानेवाले पंडित जी भी स्थिर कर लिए गए और यह भी तै पा गया कि बिना धरम धाम के मामूली रस्म और रिवाज के साथ रात्रि के समय शादी की जाएगी। इन बातों में शिवनंदन ने अपने खानदान की रस्मों में से दो बातों का होना बहुत जरूरी बयान किया और उसकी वे दोनों बातें भी खुशी से मंजूर कर ली गईं। एक तो चेहरे पर रोली का जमाना और दूसरे बादले का बंददार सेहरा बाँधकर घर से बाहर निकलना। साथ ही इसके यह बात भी तै पा गई कि शादी के समय पर केवल एक आदमी को साथ लिए हुए शिवनंदन उस मकान में पहुँचाए जाएँगे, जिसमें सरला है अथवा जिसमें शादी का बंदोबस्त होगा।

बातचीत खतम होने पर पारसनाथ और हरिहरसिंह घर चले गए और उसके दो घंटे बाद शिवनंदन ने भी रामसिंह के घर की तरफ प्रस्थान किया।

काजर की कोठरी : खंड-13

सरला और शिवनंदन के शादीवाले दिन का हाल बयान करते हैं। वह दिन पारसनाथ और हरिहरसिंह के लिए बड़ी खुशी का दिन था। हरनंदन की इच्छानुसार बाँदी ने पूरा-पूरा बंदोबस्त कर दिया था और इसी बीच में हरनंदन और पारसनाथ को कई दफे बाँदी के यहाँ जाना पड़ा और इसका नतीजा जाहिर में दोनों ही के लिए अच्छा निकला। जिस दिन शादी होनेवाली थी उस दिन पारसनाथ ने शादी का कुल सामान उसी मकान में ठीक किया जिसमें सरला कैद थी। आदमियों में से केवल पारसनाथ, हरिहरसिंह, सुलतानी, सरला और शिवनंदन के पुरोहित उस मकान में दिखाई दे रहे थे, इनके अतिरिक्त पारसनाथ का भाई धरणीधर भी इस काम में शरीक था, जो आधी रात के समय शिवनंदन को लाने के लिए उसके मकान पर गया हुआ था।

रात आधी से ज्यादा जा चुकी थी, मकान के अंदर चौक में शादी का सब सामान ठीक हो चुका था, कसर इतनी ही थी कि शिवनंदन आवें और दो-चार रस्में पूरी करके शादी कर दी जाए। थोड़ी ही देर में वह कसर भी जाती रही अर्थात दरवाजे का कंडा खटखटाया गया और जब मामूली परिचय लेने के बाद पारसनाथ ने उसे खोला तो शिवनंदनसिंह को साथ लिए हुए धरणीधर ने उस मकान के अंदर पैर रक्खा। इस समय शिवनंदन के साथ केवल एक आदमी था, जिसे पारसनाथ वगैरह पहिचानते न थे। शिवनंदन पूरे तौर से दूल्हा बने हुए थे। वह मकान के अंदर जिस समय दाखिल हुए उस समय मोटे और स्याह कपड़ों से अपने तमाम बदन को छिपाए हुए थे, पर जिस समय वह स्याह कपड़ा उतारकर उन्होंने दूर रख दिया उस समय लोगों ने देखा कि उनके ठाठ में किसी तरह की कमी नहीं है। अबा-कबा और जामा -जोड़ा से पूरी तरह लैस हैं। सिर पर बहुत बड़ी मंदोल और बादले का बना सेहरा और उसके ऊपर फूलों के सेहरे ने उनके चेहरे को पूरी तरह से ढक रक्खा था।

खैर शिवनंदनसिंह नाम मात्र के मड़वे में बैठाए गए और पुरोहित जी ने पूजा की कार्रवाई शुरू की। यद्यपि पारसनाथ वगैरह को जल्दी थी और वे चाहते थे कि दो पल ही में शादी हो-हवा के छुट्टी हो जाए, मगर पुरोहित जी को यह बात मंजूर न थी। वे चाहते थे कि पद्धति और विधि में की कमी न होने पावे, अस्तु, लाचार होकर पारसनाथ वगैरह को उनको इच्छानुसार चलना पड़ा।

पारसनाथ ने कन्यादान किया और एक तौर पर यह शादी राजी-खुशी के साथ तै पा गई। इसी समय में पारसनाथ ने कलम-दवात और कागज सरला के सामने रख दिया और कहा, ”अब वादे के मुताबिक तू लिख दे कि मैंने अपनी प्रसन्नता से शिवनंदन के साथ अपना विवाह कर लिया, इसमें न तो किसी का दोष है और न किसी ने मुझ पर किसी तरह का दबाव डाला है।“

सरला ने इस बात को मंजूर किया और पुर्जा लिखकर पारसनाथ के हाथ में दे दिया। जब पारसनाथ ने उसे पढ़ा तो उसमें यह लिखा हुआ पाया–

“मुझे अपने पिता की आज्ञानुसार हरनंदनसिंह के अतिरिक्त किसी दूसरे के साथ विवाह करना स्वीकार न था। यद्यपि मेरे भाइयों ने इसके विपरीत काम करने की इच्छा से मुझे कई प्रकार के दुख दिए और बड़े-बड़े खेल खेले, मगर परमात्मा ने मेरी इज्जत बचा ली और अंत में मेरी शादी हरनंदनसिंह ही के साथ हो गई।”

पुर्जा पढ़कर पारसनाथ को ताज्जुब मालूम हुआ और वह क्रोध-भरी आँखों से सरला की तरफ देखने लगा, पर उसी समय यकायक दरवाजे पर किसी के खटखटाने की आवाज आई। जब धरणीधर ने जाकर पूछा कि ‘आप कौन है?’ तो जवाब में बाहर से किसी ने बही पुराना परिचय अर्थात ‘गूलर का फूल’ कहा। दरवाजा खोल दिया गया और धडधडाते हुए कई आदमी मकान के अंदर दाखिल हो गए।

जो लोग इस तरह मकान के अंदर आए, वे गिनती में चालीस से कम न होंगे। उनके साथ बहुत-सी मशालें थीं और कई आदमी हाथ में नंगी तलवारें लिए हुए मारने-काटने के लिए भी तैयार दिखाई दे रहे थे। उन लोगों ने आते ही पारसनाथ, धरणीधर और हरिहरसिंह की मुश्कें बाँधी लीं और एक आदमी ने आगे बढ़कर पारसनाथ से कहा, ”कहो मेरे चिरंजीव, मिजाज कैसा है? क्या तुम इस समय भी अपने चाचा को संन्यासी के भेष में देख रहे हो?”.

मशालों की रोशनी से इस समय दिन के समान उजाला हो रहा था। पारसनाथ ने अपने चाचा लालसिंह को सामने खड़ा देख भय और लज्जा से मुँह फेर लिया और उसी समय उसकी निगाह शिवनंदन, रामसिंह, सूरजसिंह और कल्याणसिंह पर पड़ी, जिन्हें देखते ही तो वह एकदम घबड़ा गया।

अब हम थोड़ी-सी रहस्य की बातों का लिखना उचित समझते हैं! सुलतानी असल में बाँदी की लौंडी न थी। उसे रामसिंह ने बाँदी के यहाँ रहकर भेदों का पता लगाने के लिए मुकर्रर किया था और रामसिंह की इच्छानुसार सुलतानी ने बड़ी खूबी के साथ अपना काम पूरा किया। वह हरनंदन के हाथ की लिखी हुई केवल उसी चिट्ठी को लेकर सरला के पास नहीं गई थी, जो बाँदी ने लिखवाई थी बल्कि और भी एक चिट्ठी लालसिंह के हाथ की लेकर गई थी, जिसमें लालसिंह ने सच्चा-सच्चा हाल लिखकर सरला को ढाढ़स दी थी और यह भी लिखा था कि तुम्हारा बाप वास्तव में संन्यासी नहीं हुआ बल्कि समयानुसार काम करने के लिए छिपा हुआ है, अस्तु, इस समय जो कुछ सुलतानी कहे, उसके अनुसार काम करना तुम्हारे लिए अच्छा होगा।

यही सबब था कि सरला ने सुलतानी की बात स्वीकार कर ली और जो कुछ उसने मंत्र पढ़ाया, उसी के अनुसार काम किया। शिवनंदनसिंह, रामसिंह के आधीन था और जो कुछ उसने किया वह सब रामसिंह की इच्छानुसार था। दूल्हा बनकर दुष्टों के घर जाने के समय शिवनंदन अलग हो गया और दूल्हा का काम हरनंदन ने पूरा किया। सेहरा इत्यादि बँधे रहने के सबब किसी तरह का गुमान न हुआ और तब तक राजा साहब की भी मदद आन पहुँची, जिसका बंदोबस्त पहिले ही से सूरजसिंह ने कर रक्खा था। यद्यपि यह सब बातें उपन्यास में गुप्त थीं परंतु ध्यान देकर पढ़नेवालों को ऊपर के बयानों से अवश्य झलक गया होगा, तथापि जिन्होंने न समझा हो उनके लिए संक्षेप में लिख देना हमने उचित जाना।

पारसनाथ, धरणीधर और हरिहरसिंह इत्यादि जेल में पहुँचाए गए और हरनंदनसिंह, सरला तथा अपने मित्रों को लिए लालसिंह अपने घर पहुँचे। उस समय उनके घर में जिस तरह की खुशी हुई उसका बयान करना व्यर्थ कागज रंगना है, मगर बाजार में हर एक की जुबान से यही निकलता था कि अपनी रंडी बाँदी की बदौलत हरनंदनसिंह ने सरला का पता लगा लिया।

लेखक

  • देवकीनन्दन खत्री

    बाबू देवकीनन्दन खत्री (18 जून 1861-1 अगस्त 1913) हिंदी के प्रथम तिलिस्मी लेखक थे। उन्होने चंद्रकांता, चंद्रकांता संतति, काजर की कोठरी, नरेंद्र-मोहिनी, कुसुम कुमारी, वीरेंद्र वीर, गुप्त गोदना, कटोरा भर खून, भूतनाथ जैसी रचनाएं की। 'भूतनाथ' को उनके पुत्र दुर्गा प्रसाद खत्री ने पूरा किया। हिंदी भाषा के प्रचार प्रसार में उनके उपन्यास चंद्रकांता का बहुत बड़ा योगदान रहा है। इस उपन्यास ने सबका मन मोह लिया। इस किताब का रसास्वादन के लिए कई गैर-हिंदीभाषियों ने हिंदी सीखी। बाबू देवकीनंदन खत्री ने 'तिलिस्म', ऐय्यार' और 'ऐय्यारी' जैसे शब्दों को हिंदीभाषियों के बीच लोकप्रिय बनाया। जितने हिन्दी पाठक उन्होंने उत्पन्न किये उतने किसी और ग्रंथकार ने नहीं।

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काजर की कोठरी खंड6-13/देवकीनन्दन खत्री

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