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नीलू कुत्ता/महादेवी वर्मा

नीलू की कथा उसकी माँ की कथा से इस प्रकार जुड़ी है कि एक के बिना दूसरी अपूर्ण रह जाती है।

उसकी अल्सेशियन माँ उत्तरायण में लूसी के नाम से पुकारी जाती थी। हिरणी के समान वेगवती साँचे में ढली हुई देह, जिसमें व्यर्थ कहने के लिए एक तोला मांस भी नहीं था। ऊपर काला आभास देनेवाले भूरे पीताभ रोम, बुद्धिमानी का पता देनेवाली काली पर छोटी आँखें, सजग खड़े कान और सघन, रोयेंदार तथा पिछले पैरों के टखनों को छूनेवाली लम्बी पूँछ, सब कुछ उसे राजसी विशेषता देता था । थी भी वह सामान्य कुत्तों से भिन्न।

अल्सेशियन कुता एक ही स्वामी को स्वीकार करता है। यदि परिस्थितियों के कारण एक व्यक्ति का स्वामित्व उसे सुलभ नहीं होता, तो वह सबके साथ सहचर-जैसा आचरण करने लगता है। दूसरे शब्दों में, आदेश किसी का नहीं मानता, परन्तु सबके स्नेहपूर्ण अनुरोध की रक्षा में तत्पर रहता है। लूसी की स्थिति भी स्वच्छन्द सहचरी के समान हो गई थी।

उत्तरायण में जो पगडंडी दो पहाड़ियों के बीच से मोटर-मार्ग तक जाती थी, उसके अंत में मोटर-स्टाप पर एक ही दूकान थी, जिसमें आवश्यक खाद्य-सामग्री प्राप्त हो सकती थी। शीतकाल में यह दो पर्वतीय भित्तियों का अन्तराल बर्फ से भर जाता था और उससे पगडंडी के अस्तित्व का चिह्न भी शेष नहीं रहता था । तब दूकान तक पहुँचने में असमर्थ उत्तरायण के निवासी, लूसी के गले में रुपये और सामग्री की सूची के साथ एक बड़ा अँगोछा या चादर बाँधकर उससे सामान लाने का अनुरोध करते थे। वंश-परम्परा से बर्फ में मार्ग बना लेने की सहज चेतना के कारण वह सारे व्यवधान पार कर दूकान तक पहुंच जाती। दूकानदार उसके गले से कपड़ा खोलकर, रुपया, सूची आदि लेने के उपरान्त सामान की गठरी उसके गले या पीठ से बाँध देता और लूसी सारे बोझ के साथ बर्फीला मार्ग पार करती हुई सकुशल लौट आती। किसी-किसी दिन उसे कई बार आना-जाना पड़ता था । कभी चीनी मँगवाई और चाय रह गई । कभी आटा याद रहा और आलू भूल गये। पर लूसी को मँगवानेवालों के लक्कड़पन से कोई शिकायत कभी नहीं रही । गले में कपड़ा बाँधते ही वह तीर की तरह दूकान की दिशा में चल देती। उसकी तत्परता के कारण मंगानेवालों में भूलने की प्रवृत्ति बढ़ती ही थी। एक दिन किसी अधिक ऊँचाई पर बसे पर्वतीय ग्राम से बर्फ में भटकता हुआ एक भूटिया कुता दूकान पर आ गया और लूसी से उसकी मैत्री हो गई । उन दोनों में आकृति की वही भिन्नता थी, जो एक तराशी हुई सुडौल मूर्ति और अनगढ़ शिलाखण्ड में होती है, परन्तु दुर्दिन के साथी होने के कारण वे सहचर हो गये ।

उन्हीं सर्दियों में लूसी ने दो बच्चों को जन्म देकर अपनी वंश-वृद्धि की, किन्तु उनमें से एक तो शीत के कारण मर गया और दूसरा अपनी ही जीवन-ऊष्मा के बल पर उस ठिठुरानेवाले परिवेश से जूझने लगा ।

शीतॠतु में प्राय: लकड़बग्घे ऊँचे पर्वतीय अंचल से नीचे उतर आते हैं और बर्फ में भटकते हुए मिल जाते हैं । वैसे तो यह हिंसक जीव कुत्ते से कुछ ही बड़ा होता है, परन्तु कुत्ता इसका प्रिय खाद्य होने के कारण रक्षणीय की स्थिति में आ जाता है।

सामान्य कुत्ते तो लकड़बग्घे को देखते ही स्तब्ध और निर्जीव से हो जाते हैं; अत: उन्हें घसीट ले जाने में इसे कोई प्रयास ही नहीं करना पड़ता। असामान्य भूटिये या अल्सेशियन फुते उससे संघर्ष करते हैं अवश्य, परन्तु अन्त: पराजित ही होते हैं। 4-5 दिन के बच्चों को छोड़कर लूसी फिर दूकान तक आने-जाने लगी थी।

एक संध्या के झुटपुटे में लूसी ऐसी गई कि फिर लौट ही नहीं सकी । बर्फ के दिनों में साँझ ही से सघन अन्धकार घिर आता है और हवा ऐसी तुषार बोझिल हो जाती है कि गंध भी वहन नहीं कर पाती। इसी से प्राय: शीतकाल में घ्राणशक्ति के कुछ कुंठित हो जाने के कारण कुत्ते लकड़बग्घे के आने की गंध पाने में असमर्थ रहते हैं और उसके अनायास आहार बन जाते हैं । सवेरे बर्फ पर कई बड़े-छोटे पंजों के तथा आगे-पीछे घसीटने-घिसटने के चिह्न देखकर निश्चय हो गया कि लूसी ने बहुत संघर्ष के उपरांत ही प्राण दिये होंगे । बर्फ पर रक्त के पनीले धब्बे ऐसे लगते थे मानो किसी बालक की ड्राइंग-पुस्तिका के सफेद पृष्ठ पर लाल स्याही की दावात उलट गई हो।

लूसी के लिये सभी रोये, परन्तु जिसे सबसे अधिक रोना चाहिए था, वह बच्चा तो कुछ जानता ही न था। एक दिन पहले उसकी आँखें खुली थीं; अत: माँ से अधिक वह दूध के अभाव में शोर मचाने लगा। दुग्ध-चूर्ण से दूध बनाकर उसे पिलाया, पर रजाई में भी वह माँ के पेट की उष्णता खोजता और न पाने पर रोता-चिल्लाता रहा । अन्त में हमने उसे कोमल ऊन और अधबुने स्वेटर की डलिया में रख दिया, जहाँ वह माँ के सामीप्य सुख के भ्रम में सो गया। डलिया में वह ऊन की गेंद जैसा ही लगता था।

आने के समय उसे अपने साथ प्रयाग लाना पड़ा । बड़े होने पर देखा कि वह अपनी माँ के समान ही विशिष्ट है। भूटिये बाप और अल्सेशियन माँ के रूप-रंग ने उसे जो वर्णसंकरता दी थी, उसके कारण न वह अल्सेशियन था, न भूटिया।

रोमों के भूरे, पीले और काले रंगों के सम्मिश्रण से जो रंग बना था, वह एक विशेष प्रकार का धूपछाँही हो गया था । धूप पड़ने पर एक की झलक मिलती थी, छाँह में दूसरे की और दिन के उजाले में तीसरे की। कानों की चौड़ाई और नुकीलेपन में भी कुछ नवीनता थी। सिर ऊपर की और अन्य कुत्तों के सिर से बड़ा और चौड़ा था और नीचे लम्बोतरा, पर सुडौल। पूँछ अल्सेशियन कुत्तों की पूँछ के समान सघन रोमों से युक्त, पर ऊपर की ओर मुड़ी कुंडलीदार थी। पैर अल्सेशियन कुत्ते के पैरों के समान लम्बे, पर पंजे भूटिये के समान मजबूत, चौड़े और मुड़े हुए नाखूनों से युक्त थे। शरीर के ऊपर का भाग चौड़ा, पर नीचे का पतले पेट के कारण हल्का और तीव्र गति का सहायक था । आँखें न काली थी, न भूरी और न कंजी । उन गोल और काली कोरवाली आँखों का रंग शहद के रंग के समान था, जो धूप में तरल सुनहला हो जाता था और छाया में जमे हुए मधू-सा पारदर्शी लगता था।

आकृति की विशेषता के साथ उसके बल और स्वभाव में भी विशेषता थी। ऊँची दीवार को भी वह एक छलाँग में पार कर लेता था । भले का स्वर इतना भारी, मन्द और गूँजनेवाला था कि रात्रि में उसका एक बार भौंकना भी वातावरण की स्तब्धता को कम्पित कर देता था । अन्य कुत्तों के समान खाने के लिए लालायित रहना, प्रसन्नता व्यक्त करने के लिए पूँछ हिलाना, कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए चाटना, याचक के दीनभाव से स्वामी के पीछे-पीछे घूमना, अकारण भौंकना, काटना आदि प्रकृतिदत्त स्वान-गुणों का उसमें सर्वथा अभाव था।

मैंने अनेक कुत्ते देखे और पाले हैं, किन्तु कुत्ते के दैन्य से रहित और उसके लिए अलभ्य दर्प से युक्त मैंने केवल नीलू को ही देखा है। उसके प्रिय से प्रिय खाद्य को भी यदि अवज्ञा के साथ फेंककर दिया जाता, तो वह उसकी ओर देखता भी नहीं, खाना तो दूर की बात है ।

यदि उसे किसी बात पर झिड़क दिया जाता तो बिना बहुत मनाये वह मेरे सामने ही न आता।

विगत बारह वर्षों से उसका बैठने का स्थान मेरे घर का बाहरी बरामदा ही रहा, जिसकी ऊपरी सीढ़ी पर पोर्टिको के सामने बैठकर वह प्रत्येक आने-जानेवाले का निरीक्षण करता रहता । मुझसे मिलनेवालों में वह प्राय: सबको पहचानता था । किसी विशेष परिचित को आया देखकर वह सदर्प धीरे-धीरे भीतर आकर मेरे कमरे के दरवाजे पर खड़ा हो जाता । उसका इस प्रकार आना ही मेरे लिए किसी मित्र की उपस्थिति की सूचना थी। मुझसे “आ रही हूँ” सुनने के उपरांत वह पुन: बाहर अपने निश्चित स्थान पर जा बैठता।

न जाने किस सहज चेतना से वह अपरिचित या असमय आये व्यक्ति को जान लेता था तब नितान्त निरपेक्ष और उदासीन भाव से उसकी घंटी बजाना, नौकर का आकर समाचार ले जाना आदि देखता रहता।

कुत्ते भाषा नहीं जानते ध्वनि पहचानते हैं । नीलू का ध्वनि-ज्ञान इतना विस्तृत और गहरा था कि उससे कुछ कहना भाषा जाननेवाले मनुष्य से बात करने के समान हो जाता था । बाहर या रास्ते में घूमते हुए यदि कोई उससे कह देता “गुरु जी तुम्हें ढूंढ़ रही थीं नीलू” तो वह विद्युत गति से चहारदीवारी कूदकर मेरे कमरे के सामने आदेश की प्रतीक्षा में आकर खड़ा हो जाता । फिर कोई काम नहीं है, जाओ‘ कहने के पहले वह मूर्तिवत् एक स्थिति में ही खड़ा रह जाता। कभी-कभी मैं किसी कार्य में व्यस्त होने के कारण उसकी उपस्थिति जान ही नहीं पाती और उसे बहुत समय तक बिना हिले-डुले खड़ा रहना पड़ता ।

हिंसक और क्रोधी भूटिये बाप और आखेटप्रिय अल्सेशियन माँ से जन्म पाकर भी उसमें हिंसा प्रवृत्ति का कोई चिह्न नहीं था। तेरह वर्ष के दीर्घ जीवन में भी उसे किसी पशु-पक्षी पर झपटते या मारते नहीं देखा गया। उसका यह स्वभाव मेरे लिए ही नहीं, सब देखनेवालों के लिए आश्चर्य की घटना थी।

मेरे बँगले के रोशनदानों में प्राय: गौरैय्या तिनकों से घोंसला बना लेती है । मुझे उनके परिश्रमपूर्वक बनाये हुए घोंसले उजाड़ना अच्छा नहीं लगता, अत: कालान्तर में उनमें अण्डों और पक्षि-शावकों की सृष्टि बस जाती है । कुछ-कुछ अंकुर जैसे पंख निकलते ही वे पक्षि-शावक उड़ने के असफल प्रयास में रोशनदानों से नीचे गिरने लगते हैं । इन दिनों नीलू उनके सतर्क पहरेदार का कर्तव्य संभाल लेता था। उसके भय से कोई भी कुत्ता-बिल्ली उन नादान उड़ने-गिरनेवालों को हानि पहुँचाने का साहस नहीं कर पाता था । कभी-कभी बहुत छोटे पक्षि-शावकों को पुन: घोंसले में रखवाने के लिए वह उन्हें हौले से मुख में दबाकर मेरे पास ले आता था । जब तक रोशनदान में सीढ़ी लगवाकर मैं उस बच्चे को घोंसले में पहुंचाने की व्यवस्था न कर लेती, तब तक वह या तो बड़ी कोमलता से उसे दबाये खड़ा रहता था या मेरे हाथ में देकर प्रतीक्षा की मुद्रा में देखता रहता । सवेरे नियमानुसार जब मैं मोर, खरगोश आदि को दाना देने निकलती, तब वह, चाहे जाड़ा हो चाहे बरसात, मुझे दरवाजे पर ही मिलता और मेरे साथ-साथ घूमता । पक्षियों के कक्ष में दो फुट ऊंँची दीवार पर जाली लगी हुई है । नीलू दीवार पर दोनों पंजे रखकर खड़ा हो जाता और अपनी गोल आँखें घुमाकर प्रत्येक कक्ष और उसमें रहनेवालों का निरीक्षण-परीक्षण करता रहता । उससे इस नियम में कभी व्यतिक्रम नहीं पड़ा।

उसका रात का कर्त्तव्य भी स्वेच्छा-स्वीकृत और निश्चित था। सबके सो जाने पर वह, गर्मियों में बाहर लॉन पर और सर्दियों में बरामदे में तख्त पर बैठकर पहरेदारी का कार्य करता। रात में कई-कई बार वह पूरे कम्पाउण्ड का और पशु-पक्षियों के घर का च़क्कर लगाता रहता। रात चाहे उजाली हो चाहे बादल गरज रहे हों, चाहे आंधी चल रही हो, उसके चक्कर को विराम नहीं था । रात के सन्नाटे में उसके मन्द-गम्भीर स्वर से ही हम अनुमान लगा पाते थे कि वह किस कोने में पहरा दे रहा है ।

खरगोश धरती के भीतर सुरंग-जैसे लम्बे और दोनों ओर द्वारवाले बिल खोद लेते हैं । एक रात मेरे खरगोश बिल खोदते-खोदते पड़ोस के दूसरे कम्पाउण्ड में जा निकले और उनमें से कई जो इस अभियान में अगुआ थे, जंगली बिल्ले द्वारा क्षत-विक्षत कर दिये गये। सुरंग से बाहर जानेवालों का जो हाल होता है, उससे भीतर रहनेवाले अनजान रहते हैं, अत: एक के पीछे एक निकलते हुए खरगोशों में सभी को मार्जारी या श्रृगाल का आहार बन जाना पड़ता। किन्तु उनके सौभाग्य से पहरे के नित्यक्रम में घूमते हुए नीलू ने संभवत: पत्तियों की सरसराहट से सजग होकर चहारदीवारी के पार देखा होगा और शीत की कुहराच्छन्न रात की मलिन चाँदनी में भी उसने खरगोशों के संकट को पहचान लिया होगा।

उसके कूदकर दूसरी ओर पहुँचते ही बिल्ला तो भाग गया, परन्तु खरगोशों को बाहर निकलने से रोकने के लिए वह रात भर ओस से भीगता हुआ सुरंग के द्वार पर खड़ा रहा।

यह परोपकार नीलू के लिए बहुत महँगा पड़ा, क्योंकि उसे सर्दी लगने से न्यूमोनिया हो गया और कई दिनों तक इंजेक्शन, दवा आदि का कष्ट झेलना पड़ा । वैसे वह शान्त भाव से कड़वी दवा भी पी लेता था और सुई भी लगवा लेता था।

एक बार जब मोटर-दुर्घटना में आहत हो मुझे मार्ग से ही अस्पताल जाना पड़ा, तब सन्ध्या तक मेरी प्रतीक्षा करके और कपड़े, चादर, कम्बल आदि सामान अस्पताल में ले जानेवालों की हड़बड़ी देखकर उसकी सहज चेतना ने किसी अनिष्ट का आभास पा लिया।

जो भी उस संध्या को मेरे बँगले पर पहुँचा, वह नीलू की विषादमयी निश्चेष्ट मुद्रा देखकर विस्मित हुए बिना नहीं रहा ।

जब तीन दिन तक उसने न कुछ खाया न पिया, तब डॉक्टर से अनुमति लेकर उसे अस्पताल लाया गया।

पट्टियों के घटाटोप में मुझे अच्छी तरह देखने के लिए वह पलंग के चारों ओर घूमने लगा और फिर आश्वस्त होकर प्रहरी की चिरपरिचित मुद्रा में मेरे पलंग के नीचे जा बैठा। दो घंटे बाद बहुत समझाने-पुचकारने के उपरान्त ही उसे घर पहुँचाया जा सका।

तब से हर दूसरे दिन अस्पताल न ले जाने पर वह अनशन आरम्भ कर देता। इस प्रकार अस्पताल में भी वह नियमित रूप से मिलने आनेवालों में गिना जाने लगा और डॉक्टर, नर्सें, सब उससे परिचित हो गए।

नीलू को चौदह वर्ष का जीवन मिला था और जन्म से मृत्यु के क्षण तक वह मेरे पास ही रहा; अतः उससे सम्बद्ध घटनाओं और संस्मरणों की संख्या बहुत अधिक है।

कुत्तों में वह केवल कजली के सामीप्य से ही प्रसन्न रहता था, परन्तु कजली और बादल एक क्षण के लिए भी एक-दूसरे से अलग नहीं रह सकते थे। परिणामतः नीलू बेचारा एकाकी ही रहा।

जीवन के सामान उसकी मृत्यु भी दैन्य से रहित थी। ‘कुत्ते की मौत मरना’ कहावत है, परन्तु यदि नीलू के समान शांत निर्लिप्त भाव से कोई मृत्यु का सामना कर सके, तो ऐसी मृत्यु मनुष्य को भी काम्य होगी।

मेरे पास अनेक जीव-जंतु हैं, परन्तु जिसके बुरा मान जाने की मुझे चिंता हो, ऐसा अब कोई नहीं है।

लेखक

  • महादेवी वर्मा

    श्रीमती महादेवी वर्मा का जन्म फ़रुखाबाद (उ०प्र०) में 1907 ई० में हुआ था। इनकी प्रारंभिक शिक्षा इंदौर के मिशन स्कूल में हुई थी। नौ वर्ष की आयु में इनका विवाह हो गया था। परंतु इनका अध्ययन चलता रहा। 1929 ई० में इन्होंने बौद्ध भिक्षुणी बनना चाहा, परंतु महात्मा गांधी के संपर्क में आने पर ये समाज-सेवा की ओर उन्मुख हो गई। 1932 ई० में इन्होंने इलाहाबाद से संस्कृत में एम०ए० की परीक्षा उत्तीर्ण कीं और प्रयाग महिला विद्यापीठ की स्थापना करके उसकी प्रधानाचार्या के रूप में कार्य करने लगीं। मासिक पत्रिका ‘चाँद’ का भी इन्होंने कुछ समय तक संपादन-कार्य किया। इनका कर्मक्षेत्र बहुमुखी रहा है। इन्हें 1952 ई० में उत्तर प्रदेश की विधान परिषद का सदस्य मनोनीत किया गया। 1954 ई० में ये साहित्य अकादमी की संस्थापक सदस्या बनीं। 1960 ई० में इन्हें प्रयाग महिला विद्यापीठ का कुलपति बनाया गया। इनके व्यापक शैक्षिक, साहित्यिक और सामाजिक कार्यों के लिए भारत सरकार ने 1956 ई० में इन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया। 1983 ई० में ‘यामा’ कृति पर इन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान ने भी इन्हें ‘भारत-भारती’ पुरस्कार से सम्मानित किया। सन 1987 में इनकी मृत्यु हो गई। रचनाएँ – इनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं- काव्य-संग्रह – नीहार, रश्मि, नीरजा, यामा, दीपशिखा। संस्मरण – अतीत के चलचित्र, स्मृति की रेखाएँ पथ के साथी, मेरा परिवार। निबंध-संग्रह – श्रृंखला की कड़ियाँ आपदा, संकल्पिता, भारतीय संस्कृति के स्वर। साहित्यिक विशेषताएँ – साहित्य सेविका और समाज-सेविका दोनों रूपों में महादेवी वर्मा की प्रतिष्ठा रही है। महात्मा गाँधी की दिखाई राह पर अपना जीवन समर्पित करके इन्होंने शिक्षा और समाज-कल्याण के क्षेत्र में निरंतर कार्य किया। ये बहुमुखी प्रतिभा की धनी थीं। ये छायावाद के चार स्तंभों में से एक हैं। इनकी चर्चा निबंधों और संस्मरणात्मक रेखाचित्रों के कारण एक अप्रतिम गद्यकार के रूप में भी होती है। कविताओं में ये अपनी आंतरिक वेदना और पीड़ा को व्यक्त करती हुई इस लोक से परे किसी और सत्ता की ओर अभिमुख दिखाई पड़ती हैं, तो गद्य में इनका गहरा सामाजिक सरोकार स्थान पाता है। इनकी श्रृंखला की कड़ियाँ कृति एक अद्वतीय रचना है जो हिंदी में स्त्री-विमर्श की भव्य प्रस्तावना है। इनके संस्मरणात्मक रेखाचित्र अपने आस-पास के ऐसे चरित्रों और प्रसंगों को लेकर लिखे गए हैं जिनकी ओर साधारणतया हमारा ध्यान नहीं खिच पाता। महादेवी जी की मर्मभेदी व करुणामयी दृष्टि उन चरित्रों की साधारणता में असाधारण तत्वों का संधान करती है। इस तरह इन्होंने समाज के शोषित-पीड़ित तबके को अपने साहित्य में नायकत्व प्रदान किया है। भाषा-शैली – लेखिका ने अंतर्मन की अनुभूतियों का अंकन अत्यंत मार्मिकता से किया है। इनकी भाषा में बनावटीपन नहीं है। इनकी भाषा में संस्कृतनिष्ठ शब्दों की प्रमुखता है। इनके गद्य-साहित्य में भावनात्मक, संस्मरणात्मक, समीक्षात्मक, इत्तिवृत्तात्मक आदि अनेक शैलियों का रूप दृष्टिगोचर होता है। मर्मस्पर्शिता इनके गद्य की प्रमुख विशेषता है।

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