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निक्की, रोजी और रानी/महादेवी वर्मा

बाल्यकाल की स्मृतियों में अनुभूति की वैसी ही स्थिति रहती है, जैसी भीगे वस्त्र में जल की । वह प्रत्यक्ष नहीं दिखाई देता, किन्तु वस्त्र के शीतल स्पर्श में उसकी उपस्थिति व्यक्त होती रहती है । इन स्मृतियों में और भी विचित्रता है। समय के माप से वे जितनी दूर होती जाती हैं, अत्मीयता के परिमाण में उतनी ही निकट आती जाती हैं ।

मेरे अतीत बचपन के कोहरे में जो रेखाएँ अपने संपूर्ण ममत्व के विविध रंगों में उदय होने लगती हैं, उनके आधारों में तीन ऐसे भी जीव हैं, जो मानव समष्टि के सदस्य न होने पर भी मेरी स्मृति में छपे से हैं। निक्‍की नेवला, रोजी कुत्ती और रानी घोड़ी ।

रोजी की जैसे ही आंखें खुलीं, वैसे ही वह, मेरे पाँचवें जन्म- दिन पर, पिताजी के किसी राजकुमार विद्यार्थी द्वारा मुझे उपहार रूप भेंट कर दी गई | स्वाभाविक ही था कि हम दोनों साथ ही बढ़ते । रोजी मेरे साथ दूध पीती, मेरे खटोले पर सोती, मेरे लकड़ी के घोड़े पर चढ़कर घूमती और मेरे खेल-कूद में साथ देती, वस्तुतः मेरे पशु-प्रेम का आरम्भ रोजी के साहचर्य से माना जा सकता है, जो तेरह वर्ष की लम्बी अवधि तक अविच्छिन्न रहा ।

रोजी सफेद थी, किन्तु उसके छोटे सुडौल कानों के कोने, पूंछ का सिरा, माथे का मध्य भाग और पंजों का अग्रांश कत्थई रंग का होने के कारण उसमें कत्थई किनारीवालो सफेद साड़ी की शबल रंगीनी का आभास मिलता है। वह छोटी पर तेज टैरियर जाति की कुत्ती थी, और कुछ प्रकृति से और कुछ हमारे साहचर्य से श्वान-दुर्लभ विशेषताएं उत्पन्न हो जाने के कारण घर में उसे बच्चों के समान ही वात्सल्य मिलता था । हम सबने तो उसे ऐसा साथी मान लिया था, जिसके बिना न कहीं जा सकते थे, ओर न कुछ खा सकते थे ।

उस समय पिताजी इन्दौर के डेलीकालेज (जो राजकुमारों का विद्यालय था) के वाइस प्रिन्सिपल थे और हम सब छावनी में रहते थे, जहां दूर तक कोई बस्ती ही नहीं थी । हमें पढ़ानेवाले शिक्षक प्रातः और संध्या समय आते थे । इस प्रकार दोपहर का समय हमारे लिए अवकाश का समय था, जिसे हम अति व्यस्तता में बिताते थे ।

सबसे छोटा भाई तो हमारी व्यस्तता में साथ देने के लिए बहुत छोटा था, परन्तु मैं, मुझसे छोटी बहिन और उससे छोटा भाई दोपहर भर बया चिड़ियों के घोंसले तोड़ते, बबूल की सूखी और बीजों के कारण बजनेवाली छीमियाँ बीनते घूमते रहते । ग्रीष्म में जब हवा ठहर-सी जाती थी, वर्षा से जब वातावरण गलकर बरसने-सा लगता था और शीत में जब समय जम-सा जाता था, हमारी व्यस्तता एक-सी क्रियाशील रहती थी ।

घूमते-घूमते थक जाने पर हमारा प्रिय विश्रामालय एक आम के वृक्ष से घिरा सूखा पोखर था, जिसका ऊँचा कगार पेड़ों की छाया में ८-८ फुट और खुली धूप में ४-५ फुट के लगभग गहरा था। कई आम के पेड़ों की शाखाएँ लम्बी-नीची और सूखे पोखर पर झूलती-सी थीं। सूखी पत्तियों ने झड़-झड़कर सूखी गहराई को कई फुट भर भी डाला था। हम तीनों डाल पर बैठकर झूलते रहते या रॉबिन्सन क्रूसो के समान अपने समतल समुद्र के गहरे टापू की सीमाएँ नापते रहते। घूमने के क्रम में यदि हमें कोई मकोइ का पौधा या करौंदे की झड़ी फूली-फली मिल जाती, तो नन्‍दनवन की प्रतीति होने लगती ।

हमारे इस भ्रमण में रोजी निरंतर साथ देती । जब हम डाल पर बैठकर झूलते रहते, वह कगार के सिरे पर हमारे पैरों के नीचे बैठी कूदने के आदेश की आतुर प्रतीक्षा करती रहती । जब हम पोखर की परिक्रमा करते, वह हमारे आगे-आगे मानो राह दिखाने के लिए दौड़ती और जब हम मकोई और करौंदे एकत्र करने लगते, तब वह किसी झाड़ी की छाया में बड़े विरक्त भाव से बैठी रहती। गर्मी के दिनों में आम के पेड़ों से छोटी-बड़ी अंबिया हवा के झोंके से नीचे गिरती रहतीं और उनके गिरने के स्वर के साथ रोजी सूखे पोखर में कूदती और पत्तियों के सर- सराहट भरे समुद्र में से उसे खोज लाती । कच्ची कैरी की चेपी लग जाने से बेचारी का गुलाबी छोटा मुँह धबीला हो जाता, परन्तु वह इस खोज कार्य से विरत न होती ।

दोपहर को पिताजी कालेज में रहते और माँ घर के कार्य वा छोटे भाई की देखभाल में व्यस्त रहतीं । रामा बाजार चला जाता और कल्‍लू की माँ या तो सोती या माँज-माँजकर बर्तन चमकाने में दत्तचित्त रहती । वे सब समझते कि हम लोग या तो अपने कमरे में सो रहे हैँ या पढ़-लिख रहे हैं । पर हम कुछ ऊँची खिड़की की राह से पहले रोजी को उत्तार देते और फिर एक-एक करके तीनों बाहर बगीचे में उतरकर करोंदे की झाड़ियों में छिपते-छिपते अपने उसी सूने मुक्तिलोक में पहुँच जाते । तीन में से किसी को भी कमरे में छोड़ना शंका से रहित नहीं था, क्‍योंकि वह बिस्कुट, पेड़ा, बर्फी आदि किसी उत्कोच के लोभ में मुखबिर बन सकता था । परिणामतः तीनों का जाना अनिवार्य था। रोजी भी हमारे निर्बन्ध-सम्प्रदाय में दीक्षित हो चुकी थी, अतः वह भी साथ आती थी । हमारे अभियान के रहस्य को वह इतना अधिक समझ गई थी कि दोपहर होते ही खिड़की से कूदने को आकुल होने लगती और खिड़की से उतार दिये जाने पर नीचे बैठकर – मनोयोगपूर्वक हमारा उतरना देखती रहती । कभी खिड़की से कूदते समय हममें से कोई उसी के ऊपर गिर पड़ता था, पर वह चीं करना भी नियम-विरुद्ध मानती थी।

ऐसे ही एक स्वच्छन्द विचरण के उपरान्त जब हम आम की डाल पर झूल-झूलकर अपने संग्रहालय का निरीक्षण कर रहे थे, तब एक आम गिरने का शब्द हुआ और रोजी नीचे कूदी । कुछ देर तक वह पत्तियों में न जाने क्‍या खोजती रही, फिर हमने आश्चर्य से देखा कि वह मुँह में किसी जीव को दबाये हुए ऊपर आ रही है। वस्तुत: उस सूखे पोखर के नीचे कगार में बिल बना- कर किसी नकुल दम्पत्ति ने प्रजापति के कार्य में सक्रिय सहयोग देना आरम्भ किया था। उनकी नकुल-सृष्टि का कोई लघु, परन्तु हमारे ही समान अराजकतावादी सदस्य, अपने सृजनकर्त्ताओं की दृष्टि बचाकर सूखी पत्तियों के समुद्र में ऊपर तैर आया था। पत्तियों से छोटा मुँह निकालकर उसने जैसे ही बाहर के संसार पर विस्मित दृष्टि डाली, वैसे ही अपने-आपको रोजी के छोटे और अंधेर मुख-विवर में पाया ! निरन्तर बिना दाँत चुभाये कच्ची अंबिया लाते-लाते रोज़ी इतनी अभ्यस्त हो गई थी कि उस कुलबुलाते जीव को भी सुरक्षित हम तक ले आई ।

आकार में वह गिलहरी से बड़ा न था, पर आकृति में स्पष्ट अन्तर था। भूरा चमकीला रंग, काली कत्थई-आँखें, नर्म-नर्म पंजे, गुलाबी नन्‍हा मुँह, रोओं में छिपे हुए नन्‍हीं सीपियों से कान, सब कुछ देखकर हमें वह जीवित नन्‍हा खिलौना-सा जान पड़ा । रोजी ने उसे हौले से पकड़ा था, परन्तु बचने के संघर्ष में उसके कुछ खरोंच लग ही गई थी | चोट से अधिक भय से वह निश्चेष्ट था । उसे पाकर हम सब इतने प्रसन्न हुए कि अपना घोंसले, चिकने पत्थर, जंगली कनेर के फूल आदि का विचित्र संग्रहालय छोड़कर उसे लिए हुए घर की ओर भागे । उस समय की उत्तेजना में हम अपने अज्ञात भ्रमण की बात भी भूल गए, परन्तु माँ ने यह नहीं पूछा कि वह छोटा जीव हमें कहाँ और कैसे मिला । उन्होंने जीव- जन्तुओं को न सताने के सम्बन्ध में लम्बा उपदेश देने के उपरान्त, उसे उसके नकुल माता-पिता के पास बिल में रख आने का आदेश दिया।

हमें बेचारे नकुल शिशु से बड़ी सहानुभूति हुई । छोटे-से बिल में रात-दिन पड़े माता-पिता के सामने बैठे रहने में जो कष्ट बच्चे को हो सकता है, उसका हम अनुमान कर सकते थे । यदि एक छोटे कमरे में हमें सामने बैठाकर बाबूजी रात-दिन पढ़ाते रहें और माँ सिलाई-बुनाई में लगी रहें, तो हमारा क्या हाल होगा । ऐसी ही कोई अप्रिय स्थिति बिल में रही होगी, नहीं तो यह इतना छोटा बच्चा भागता ही क्‍यों ! अतः नकुल शिशु के बिल और बिल-निवासी माता-पिता की खोज में हम अनिच्छापूर्वक गये और खोज में असफल होकर निराश से अधिक प्रसन्न लौटे ।

अब तो उस लघु प्राणी का हमारे अतिरिक्त कोई आश्रय ही नहीं रहा । प्रसन्नतापूर्वक हमने अपने खिलौनों के छोटे बक्स को खाली कर उसमें रुई और रेशमी रूमाल बिछाया। फिर बहुत अनुनय-विनय कर और उसके सब आदेश मानने का वचन देकर रामा को, उसे रुई की बत्ती से दूध पिलाने के लिए राजी किया । इस प्रकार हमारे लघु परिवार में एक लघुतम सदस्य सम्मिलित हुआ ।

जब रामा की सतर्क देख-रेख में वह कुछ दिनों में स्वस्थ और पुष्ट होकर हमारा समझदार साथी हो गया, तब हम रामा को दिये वचन भूलकर फिर पूर्ववत्‌ अराजकतावादी बन गये ।

माँ ने उसका नाम रखा नकुल, जो उसकी जातिवाचक संज्ञा का तत्सम रूप था, किन्तु न जाने संक्षिप्तीकरण की किस प्रवृत्ति के कारण हम उसे निक्‍की पुकारने लगे।

पालने की दृष्टि से नेवला बहुत स्नेही और अनुशासित जीव है गिलहरी के खाने योग्य कीट, पतंग, फल, फूल आदि कोई भी खाद्य खाकर वह अपने पालनेवाले के साथ चौबीसों घण्टे रह सकता है। जेब में, कन्धे पर, आस्तीन में, बालों में, जहाँ कहीं उसे बैठा दिया जावे, वह शान्‍त स्थिर भाव से बैठकर अपनी छोटी पर सतर्क आँखों से चारों ओर की स्थिति देखता परखता रहता था ।

निक्‍की मेरे पास ही रहता था ।

उस समय हमारे परिवार में छोटी लड़कियों की वेशभूषा में गोटे-पट्टे से सजा गरारा, कुर्त्ता और दुपट्टा विशेष महत्त्व रखता था । जिसमें वे मध्यकालीन बेगमों के लघु संस्करण जान पड़ती थीं । कभी-कभी प्रगतिशीलता का प्रमाण देने के लिए उन्हें फ्रॉक पहनाए जाते थे, जिसके कॉलर, लेस, झालर आदि के घटाटोप में वे क्वीन विक्टोरिया की संगिनियों का भ्रम उत्पन्न करके मानो पूर्व-पश्चिम दोनों का प्रतिनिधित्व करती थीं। हमारे जूते तक पूर्व-पश्चिम में विभाजित थे। पूर्व के वेश के साथ छोटी, हल्की और जरी के काम वाली जूतियाँ पहनकर हम घिसटते हुए चलते थे। पश्चिमीय वेश के साथ घुटने के ऊपर तक काले या सफेद मोजे चढ़ाकर ऊँची एड़ीवाले और तस्में से कसे-बंधे जूते पहनकर डगमगाते हुए चलते थे । हमारे मन और पैर दोनों ही इस संचरण- पद्धति से विद्रोह करते थे, क्योंकि वह न हमें करोंदे की झांडियां लाँघने देती और न दौड़ने ।

अतः हम आल्मारी में दोनों प्रकार के पदत्राणों को छिपाकर खिड़की से कूदते और नंगे पैर कंकड़-पत्थरों पर दौड़ लगाते थे । निक्‍की या तो मेरे दुपट्टे की चुन्नट में छिपा हुआ झूलता रहता या गर्दन के पीछे चोटी में छिपकर बैठता और कान के पास नन्‍हा मुंह निकालकर चारों ओर की गतिविधि देखता । रोजी का कार्य तो हमारे साथ दौड़ना ही था, परन्तु निक्‍की इच्छा होने पर ही अपने सुरक्षित स्थान से कूदकर दौड़ता । एक दिन जैसे ही हम खिड़की से नीचे उतरे, वैसे ही निक्‍की की सतर्क आँखों ने गुलाब की क्यारी के पास घास में एक लम्बे काले साँप को देख लिया और वह कूदकर उसके पास पहुँच गया । हमने आश्चर्य से देखा कि निक्‍की दो पिछले पैरों पर खड़ा होकर साँप को मानो चुनौती दे रहा है और साँप भी हवा में आधा उठकर फुफकार रहा था।

निक्‍की ने साँप को मार डाला, समझकर हम सब चीखने- पुकारने और साँप को पत्थर मारने लगे। यदि हमारा कोलाहल सुनकर रामा न आ जाता, तो परिणाम कुछ दुःखद भी हो सकता था।

उस दिन प्रथम बार हमें ज्ञात हुआ कि हमारा बालिश्त भर का निक्‍की कई फुट लम्बे साँप से लड़ सकता है। उन दोनों की लड़ाई मानो पेड़ की हिलती डाल से बिजली का खेल थी । निक्‍की साँप के सब ओर इतनी तेजी से घूम रहा था कि वह एक भूरे और घूमते हुए धब्बे की तरह लग रहा था। साँस फन पटक रहा था, फुफकार रहा था, उसे अपनी कुण्डली में लपेट लेने के लिए आगे-पीछे हट-बढ़ रहा था, परन्तु बिजली की तरह तड़प उठने- वाले निक्‍की को पकड़ने में असमर्थ था । वह तेजी से उछल-उछल कर साँप के फन के नीचे पैने दाँतों से आघात कर रहा था।

रामा के कारण इस असमय युद्ध का अन्त देखने के लिए तो हम बाहर खड़े न रह सके, परन्तु जब निक्‍की खिड़की पर आकर बैठा, तब हमने झाँककर साँप को कई खंडों में कटा देखा। निक्‍की के मुंह में विष न लगा हो, इस भय से रामा ने उसके मुंह को पानी में डुबा-डुबा कर धोया और फिर दूध दिया ।

साँप जैसे विषधर को खण्ड-खण्ड करने की शक्ति रखने पर भी नेवला नितान्‍त निर्विष है । जीव-जगत में जो निर्विष है, वह विष से मर जाता है और जिसमें अधिक मारक विष है, वह कम मारक वाले की परास्त कर देता है। पर नेवला इसका अपवाद है। वह विष रहित होने पर भी न सर्प के विष से मरता है और न संघर्ष में विषधर से परास्त होता है ।

नेवला सर्प की तुलना में बहुत कोमल और हल्का है। यदि साँप चाहे तो उसे अपनी कुण्डली में लपेटकर चूर-चूर कर डाले। फण के फूत्कार से मूर्छित कर दे, परन्तु वह नेवले के फूल से हल्केपन और बिजली जैसी गति से परास्त हो जाता है। नेवला न उसे दंशन का अवसर देता है, न व्यूह रचना का अवकाश । और अपनी लाघवता के कारण नेवले को न विशेष अवसर चाहिए न सुयोग ।

इसी बीच में बाबूजी ने मुझे शहर के मिशन स्कूल में भर्ती करने का निश्चय किया। इस योजना से तो हमारा समस्त कार्यक्रम ध्वस्त होने की सम्भावना थी, अतः हम सब अत्यंत दुखी और चिन्तित हुए, परन्तु विवशता थी ।

अन्त में एक दिन पुस्तक लेकर और शिकरम ( बन्द गाड़ी जो उन दिनों नागरिक प्रतिष्ठा की सूचक थी ) में बैठकर मुझे जाना पड़ा ।

निक्‍की सदा के समान मेरे साथ था, परन्तु बाबूजी के आदेश से उसे घर पर ही छोड़ देना आवश्यक हो गया। मिशन स्कूल पहुँच कर देखा कि वह शिकरम की छत पर बैठकर वहाँ पहुँच गया है। फिर तो उसे कपड़ों में छिपाकर भीतर ले जाने में मुझे सफलता मिल गई। परन्तु कक्षा में उसे मेरे पास देखकर जो कोहराम मचा, उसने मुझे स्तम्भित और अवाक्‌ कर दिया। She has brought a reptile, throw it away आदि कहकर सिस्टर्स तथा सहपाठिनियाँ चिल्लाने-पुकारने लगीं, तब reptile का अर्थ न जानने पर भी मैंने समझ लिया कि वह निक्‍की के लिए अपमानजनक सम्बोधन है। मैंने कुछ अप्रसन्न मुद्रा में बार-बार कहा कि यह मेरा निक्‍की है, किसी को काटता नहीं, परन्तु कोई उसके साथ बैठने को राजी नहीं हुआ । निरुपाय मैंने उसे फाटक से चहारदीवारी तक फैली लता में बैठा तो दिया, परन्तु उसके खो जाने की शंका से मेरा मन पढ़ाई-लिखाई से विरक्त ही रहा।

आने के समय जब निक्‍की कूदकर मेरे कन्धे पर आ बैठा तब आनन्द के मारे मेरे आँसू आ गए । तब से नित्य यही क्रम चलने लगा।

प्रतिदिन मुझे पहुँचाने और लेने रामा आता था और वह पालक के नाते निक्‍की के प्रति बहुत सदय था, अतः मार्ग भर निक्‍की मेरी गोद में बैठकर आता था और मिशन के फाटक की लता में या बाग में घूम-घूमकर मेरी पढ़ाई के घंटे बिताता था। छुट्टी होने पर मेरे फाटक पर पहुँचते ही उसका कूदकर मेरे कंधे पर बैठ जाना इतना नियमित और निश्चित था कि उसमें कुछ मिनटों का हेर-फेर भी कभी नहीं हुआ ।

मिशन का वातावरण मेरे लिए घर के वातावरण से भिन्न था। वहाँ की वेशभूषा भिन्न थी, प्रार्थना भिन्न थी, चित्र, मूर्ति आदि भिन्न थे, ईश्वर नाम भी भिन्न था, और इन सबसे बड़ी भिन्नता यह थी कि निक्‍की का वहाँ प्रवेश निषिद्ध था ।

इसके उपरान्त हमारे परिवार में एक सबसे बड़ा जीव सम्मिलित हुआ ।

रियासत होने के कारण इंदौर में शानदार घोड़ों और सवारों का आधिक्य था। इसके अतिरिक्त हम अंग्रेजों के बच्चों को छोटे टट्टुओं या सफेद गधों ( जिनकी जाति के सम्बन्ध में रामा ने हमारा ज्ञानवद्धर्न किया था) में घूमते देखते थे । रामा की कहानियों में तो राजा, अपराधियों की गधे पर चढ़ाकर देश निकाला देता था। इन्हें गधों पर बैठकर प्रसन्नता से घूमते देखकर विश्वास करना कठिन था कि इन्हें दण्ड मिला है। रामा के पास हमारी जिज्ञासा का समाधान था। इन्हें विलायत में गधे पर बैठने का दण्ड देकर भारत भेजा गया है, क्योंकि वहाँ यह वाहन नहीं है ।

एक दिन हम तीनों ने बाबूजी को मौखिक स्मृतिपत्र (मेमो- रेण्डम) दिया कि हमारे पास छोटा घोड़ा न रहना अन्याय की बात है। यदि अन्य बच्चों को घोड़े पर बैठने का अधिकार है, तो हमें भी यह अधिकार मिलना चाहिए ।

बाबूजी ने हँसते हुए पूछा, सफेद टट्टू पर बैठोगे ? ‘तुम कहो” तुम कहो’ के साथ ठेलमठाल के उपरान्त मैंने अगुआ होकर गम्भीर मुद्रा में उत्तर दिया, ‘सफेद टट्टू तो गधा होता है, जिस पर बैठाकर सजा दी जाती है ।’

पता नहीं, हमारे ज्ञान के अजस्र स्रोत रामा को बाबूजी ने डाँटा या नहीं, परन्तु कुछ दिन बाद हमने देखा कि एक छोटा-सा चाकलेट रंग का टट्टू आँगन के पश्चिम वाले बरामदे में बाँधा गया है। बरामदा तो घोड़े बाँधने के लिए बनाया नहीं गया था अतः बाहर से टट्टू को लाने, ले जाने के लिए दीवाल में एक नया दरवाजा लगाया गया और उसकी मालिश करने तथा खाने, पीने, घूमने आदि की देखरेख के लिए छुटुन नाम का साईस रखा गया ।

अब तो हम उस छोटे टट्टू से बहुत प्रभावित और आतंकित हुए । हमारे तथा हमारे अन्य साथी जीवों के लिए न मकान में कोई परिवतर्न हुआ, न कोई विशेष नौकर रखा गया । रामा को तो नौकर कहा नहीं जा सकता, क्योंकि वह तो डाटने-फटकारने के अतिरिक्त हमारे कान भी खींचता था। और हमारी खिड़क़ी तक दरवाजे में परिवर्तित न हो सकी, जिससे हम रोजी और निक्‍की के साथ कूदने के कष्ट से मुक्त हो सकते । बाबूजी से यह सुनकर भी कि वह टट्टू हमारी सवारी के लिए आया है, हम सब चार-पाँच दिन उससे रुष्ट और अप्रसन्न ही घूमते रहे, परन्तु अन्त में उसने हमारी मित्रता प्राप्त कर ही ली। रामा से उसका नाम पूछने पर ज्ञात हुआ कि उसे ताज रानी कहकर पुकारा जाता है । ताजमहल का चित्र हमने देखा था और रामा और कल्लू को माँ की सभी कहानियों में रानी के सुख-दुख की गाथा सुनते-सुनते हम उसके प्रति बड़े सदय हो गए थे। ताजमहल जैसे भवन की रानी होने पर भी यह यहाँ से कहानी की रानी की तरह निकाल दी गई है, यह कल्पना करते ही हमारी सारी ईर्ष्या और सारा रोष करुणा से पिघल गया और हम उसे और अधिक आराम देने के उपाय सोचने लगे ।

वह इतनी सुन्दर थी कि अब तक उसकी छवि आंखों में बसी जैसी है। हल्का चाकलेटी चमकदार रंग, जिस पर दृष्टि फिसल जाती थी । खड़े छोटे कानों के बीच में माथे पर झूलता अयाल का गुच्छा, बड़ी, काली, स्वचछ और पारदर्शी जैसी आँखें, लाल नथुने जिन्हें फुला-फुलाकर वह चारों ओर की गन्ध लेती रहती, उजले दाँत और लाल जीभ की झलक देते हुए गुलाबी ओठोंवाला लम्बा मुंह, जो लोहा चबाते रहने पर भी क्षत-विक्षत नहीं होता था। ऊँचाई के अनुपात से पीठ की चौड़ाई अधिक थी । सुडौल, मजबूत पैर और सघन पूँछ, जो मक्खियाँ उड़ाने के क्रम में मोरछल के समान उठती-गिरती रहती थी । उस समय यह सब समझने की बुद्धि नहीं थी, परन्तु इतने दीर्घ काल के उपरान्त भी स्मृतिपट पर वे रेखाएं ऐसे उभर आती हैं, जैसे किसी अदृश्य स्याही में लिखे अक्षर अग्नि के ताप से प्रत्यक्ष होने लगते हैं ।

हम बारबार सोचते हैं कि वह कुछ और छोटी क्‍यों न हुई । होती तो हम रोजी और निक्‍की के समान उसे भी अपने कमरे में रख लेते ।

रानी को अपने कमरे में ले जाना संभव नहीं था, अतः अस्तबल बना हुआ बरामदा ही हमारी अराजकता का कार्यालय बना ।

बरामदा घोड़े बाँधने के लिए तो बना नहीं था, अतः: उसकी दीवार में एक खुली आल्मारी और कई आले-ताख थे । उन्हीं में हमारा स्वेच्छया विस्थापित और शरणार्थी खिलौनों का परिवार स्थापित होने लगा ।

रानी की गर्दन में झूल-झूलकर, उसके कान और अयाल में फूल खोंस-खोंसकर और उसको बिस्कुट मिठाई आदि खिला- खिला कर थोड़े ही दिनों में हमने उससे ऐसी मैत्री स्थापित कर ली कि हमें न देखने पर वह अस्थिर होकर पैर पटकने और हिनहिनाने लगती ।

फिर हमारी घुड़सवारी का कार्यक्रम आरम्भ हुआ । मेरे और बहिन के लिए सामान्य, छोटी पर सुन्दर जीन खरीदी गई और भाई के लिए चमड़े के घेरेवाली ऐसी जीन बनवाई गई, जिससे संतुलन खोने पर भी गिरने का भय नहीं था ।

बाहर के चबूतरे पर खड़े होकर हम बारी-बारी से रानी पर आरूढ़ होते और छुट्टन साथ दौड़ता हुआ हमें घुमाता | सबेरे भाई-बहिन घूमते और स्कूल से लौटने पर तीसरे पहर या संध्या समय मेरे साथ वह कार्यक्रम दोहराया जाता ।

परन्तु ऐसी सवारी से हमारी विद्रोही प्रकृति कैसे सन्तुष्ट हो सकती थी। अस्तबल में रानी की गर्दन में झूलकर तथा स्‍्टूल के सहारे उसकी पीठ पर चढ़कर भी हमें सन्‍तोष न होता था।

अन्त में एक छुट्टी के दिन दोपहर में सबके सो जाने पर हम रानी को खोलकर बाहर ले आये और चबूतरे पर खड़े होकर उसकी नंगी पीठ पर सवारी करके बारो-बारी से अपनी अधूरी शिक्षा की पूरी परीक्षा देने लगे ।

यह स्वाभाविक ही था कि ताजरानी हमारी अराजक प्रवृत्तियों से प्रभावित हो जाती। वास्तव में बालकों में चेतना के विभिन्न स्तरों का बोध न होकर सामान्य चेतना का ही बोध रहता है। अतः उनके लिए पशु-पक्षी, वनस्पति सब एक परिवार के हो जाते हैं ।

निक्‍की रानी की पूँछ से झूलने लगता था, रोजी इच्छानुसार उसकी गर्दन पर उछलकर चढ़ती और नीचे कूदती थी और हम सब उसकी पीठ पर ऐसे गर्व से बैठते थे, मानो मयूर सिंहासन पर आसीन हैं |

रानी हम सबकी शक्ति और दुर्बलता जानती थी। उसकी नंगी पीठ पर अयाल पकड़कर बैठनेवालों को वह दुल्की चाल से इधर-उधर घुमाकर संतुष्ट कर देती थी। परन्तु एक बार मेरे बैठ जाने पर भाई ने अपने हाथ की पतली संटी उसके पैरों में मार दी । चोट लगने की तो सम्भावना ही नहीं थी, परन्तु इससे न जाने उसका स्वाभिमान आहत हो गया या कोई दुःखद स्मृति उभर आई। वह ऐसे वेग से भागी, मानो सड़क, पेड़, नदी, नाले सब उसे पकड़ बाँध रखने का संकल्प किये हों ।

कुछ दूर मैंने अपने आपको उस उड़न खटोले पर संभाला परन्तु गिरना तो निश्चित था। मेरे गिरते ही रानी मानो अतीत से वर्तमान में लौट आई और इस प्रकार निश्चल खड़ी रह गई, जैसे पश्चात्ताप की प्रस्तर प्रतिमा हो ।

साथियों की चीख-पुकार से सब दौड़े और फिर बहुत दिनों तक मुझे बिछौने पर पड़ा रहना पड़ा । स्वस्थ होकर रानी के पास जाने पर वह ऐसी करुण पश्वात्ताप भरी दृष्टि से मुझे देखकर हिनहिनाने लगी कि मेरे आँसू आ गये ।

एक बार भाई के जन्म-दिन पर नानी ने उसके लिए सोने के कड़े भेजे । सामान्यतः हम कोई भी नया कपड़ा या आभूषण पहन कर रानी को दिखाने अवश्य जाते थे। सुन्दर छोटे-छोटे शेर मुंहवाले कड़े पहनकर भाई भी रानी को दिखाने गया और न जाने किस प्रेरणा से वह दोनों कड़े उतारकर रानी के खड़े सतर्क कानों में वलय की तरह पहना आया।

फिर हम सब खेल में कड़ों की बात भूल गये । सन्ध्या समय भाई के कड़े रहित हाथ देखकर जब माँ ने पूछताछ की, तब खोज आरम्भ हुई । पर कहीं भी कड़ों का पता नहीं चला ।

रानी अपने कोने को खुरों से खोदती और हिनहिनाती रही। अन्त में बाबूजी का ध्यान उसकी ओर गया और उन्होंने छुट्टन को कोने की मिट्टी हटाने का आदेश दिया । किसी ने कुछ गहरा गड्ढा खोदकर दोनों कड़े गाड़ दिये थे । दण्ड तो किसी को नहीं मिला, परन्तु रानी सारे घर के हृदय में स्थान पा गई।

एक घटना अपनी विचित्रता में स्मरणीय है। एक सवेरे उठने पर हमने रानी के पास एक छोटे-से घोड़े के बच्चे को देखा। “यह कहाँ था ?” कह-कहकर हमने रामा को इतना थका दिया कि उसने निरुपाय घोषणा की कि वह नया जीव रानी के पेट में दाना-चारा खाकर सो रहा था। भाई ने उत्साह से पूछा, और भी है’ रामा ने स्वीकृति में सिर हिलाया ।

अब तो हम विस्मित भी हुए और क्रोधित भी। यह छोटे जीव कोई काम-धाम नहीं करते और हमको पीठ पर बैठाकर दौड़नेवाली रानी का दाना-चारा स्वयं खाकर उसके पेट में लेटे रहते हैं।

भाई ने कहा, रानी का पेट चीरकर हम कम से कम एक और बच्चा घोड़ा निकाल लें–तब बच्चे घोड़ों पर वे छोटे बहिन-भाई बैठेंगे और रानी मेरी सेवा में रहेगी। प्रस्ताव मुझे भी उचित जान पड़ा, पर जब एक दोपहर को वह कहीं से शाक काटने का चाकू ले आया, तब मेरे साहस ने उत्तर दे दिया । एक और था। समस्या की ओर हमारा ध्यान गया । आखिर हम रानी का पेट सियेंगे कैसे । माँ की महीन-सी सुई से तो सीना संभव नहीं था । टाट सीने का बड़ा सूजा रामा अपनी कोठरी में रखता था, जहाँ हमारी पहुँच नहीं थी । कुछ दिनों के उपरान्त जब रानी का अश्व शिशु कुछ बड़ा होकर दौड़ने लगा, तब हमें न अपना क्रोध-स्मरण रहा और न प्रस्ताव ।

फिर अचानक हमारे अराजक राज्य पर क्रान्ति का बवंडर बह गया और हमें समझदारों के देश में निर्वासित होना पड़ा । अवकाश के दिनों में जब हम घर लौटे, तब निक्‍की मर चुका था, रानी और उसका बच्चा पवन किसी को दे दिये गये थे। केवल दुर्बल, अकेली और खोई-सी रोज़ी हमारे पैरों से लिपटकर कूँ-कूँ करके रोने लगी।

लेखक

  • महादेवी वर्मा

    श्रीमती महादेवी वर्मा का जन्म फ़रुखाबाद (उ०प्र०) में 1907 ई० में हुआ था। इनकी प्रारंभिक शिक्षा इंदौर के मिशन स्कूल में हुई थी। नौ वर्ष की आयु में इनका विवाह हो गया था। परंतु इनका अध्ययन चलता रहा। 1929 ई० में इन्होंने बौद्ध भिक्षुणी बनना चाहा, परंतु महात्मा गांधी के संपर्क में आने पर ये समाज-सेवा की ओर उन्मुख हो गई। 1932 ई० में इन्होंने इलाहाबाद से संस्कृत में एम०ए० की परीक्षा उत्तीर्ण कीं और प्रयाग महिला विद्यापीठ की स्थापना करके उसकी प्रधानाचार्या के रूप में कार्य करने लगीं। मासिक पत्रिका ‘चाँद’ का भी इन्होंने कुछ समय तक संपादन-कार्य किया। इनका कर्मक्षेत्र बहुमुखी रहा है। इन्हें 1952 ई० में उत्तर प्रदेश की विधान परिषद का सदस्य मनोनीत किया गया। 1954 ई० में ये साहित्य अकादमी की संस्थापक सदस्या बनीं। 1960 ई० में इन्हें प्रयाग महिला विद्यापीठ का कुलपति बनाया गया। इनके व्यापक शैक्षिक, साहित्यिक और सामाजिक कार्यों के लिए भारत सरकार ने 1956 ई० में इन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया। 1983 ई० में ‘यामा’ कृति पर इन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान ने भी इन्हें ‘भारत-भारती’ पुरस्कार से सम्मानित किया। सन 1987 में इनकी मृत्यु हो गई। रचनाएँ – इनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं- काव्य-संग्रह – नीहार, रश्मि, नीरजा, यामा, दीपशिखा। संस्मरण – अतीत के चलचित्र, स्मृति की रेखाएँ पथ के साथी, मेरा परिवार। निबंध-संग्रह – श्रृंखला की कड़ियाँ आपदा, संकल्पिता, भारतीय संस्कृति के स्वर। साहित्यिक विशेषताएँ – साहित्य सेविका और समाज-सेविका दोनों रूपों में महादेवी वर्मा की प्रतिष्ठा रही है। महात्मा गाँधी की दिखाई राह पर अपना जीवन समर्पित करके इन्होंने शिक्षा और समाज-कल्याण के क्षेत्र में निरंतर कार्य किया। ये बहुमुखी प्रतिभा की धनी थीं। ये छायावाद के चार स्तंभों में से एक हैं। इनकी चर्चा निबंधों और संस्मरणात्मक रेखाचित्रों के कारण एक अप्रतिम गद्यकार के रूप में भी होती है। कविताओं में ये अपनी आंतरिक वेदना और पीड़ा को व्यक्त करती हुई इस लोक से परे किसी और सत्ता की ओर अभिमुख दिखाई पड़ती हैं, तो गद्य में इनका गहरा सामाजिक सरोकार स्थान पाता है। इनकी श्रृंखला की कड़ियाँ कृति एक अद्वतीय रचना है जो हिंदी में स्त्री-विमर्श की भव्य प्रस्तावना है। इनके संस्मरणात्मक रेखाचित्र अपने आस-पास के ऐसे चरित्रों और प्रसंगों को लेकर लिखे गए हैं जिनकी ओर साधारणतया हमारा ध्यान नहीं खिच पाता। महादेवी जी की मर्मभेदी व करुणामयी दृष्टि उन चरित्रों की साधारणता में असाधारण तत्वों का संधान करती है। इस तरह इन्होंने समाज के शोषित-पीड़ित तबके को अपने साहित्य में नायकत्व प्रदान किया है। भाषा-शैली – लेखिका ने अंतर्मन की अनुभूतियों का अंकन अत्यंत मार्मिकता से किया है। इनकी भाषा में बनावटीपन नहीं है। इनकी भाषा में संस्कृतनिष्ठ शब्दों की प्रमुखता है। इनके गद्य-साहित्य में भावनात्मक, संस्मरणात्मक, समीक्षात्मक, इत्तिवृत्तात्मक आदि अनेक शैलियों का रूप दृष्टिगोचर होता है। मर्मस्पर्शिता इनके गद्य की प्रमुख विशेषता है।

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निक्की, रोजी और रानी/महादेवी वर्मा

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