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दुर्मुख-खरगोश/महादेवी वर्मा

किसी को विश्वास न होगा कि बोल-चाल के लड़ाकू विशेषण से लेकर शुद्ध संस्कृत की ‘दुर्मुख’, ‘दुर्वासा’ जैसी संज्ञाओं तक का भार संभालने वाला एक कोमल प्राण खरगोश था। परन्तु यथार्थ कभी-कभी कल्पना की सीमा नाप लेता है।

किसी सजातीय-विजातीय जीव से मेल न रखने के कारण माली ने उस खरगोश का लड़ाकू नाम रख दिया, मेरी शिष्याओं ने उसके कटखन्ने स्नभाव के कारण उसे दुर्मुख पुकारना आरम्भ किया और मैंने, उसकी अकारण क्रोधी प्रकृति के कारण उसे दुर्वासा की संज्ञा से विभूषित किया ।

लड़ाकू नाम के लिए तो किसी से क्षमा माँगने की आवश्यकता नहीं जान पड़ती, परन्तु दुर्मुख और दुर्वासा जैसे पौराणिक नामों का ऐसा दुरुपयोग अवश्य ही चिन्तनीय कहा जायगा !

 

दुर्मुख से तो मैं स्वयं भी रुष्ट हूँ । यह मर्यादा पुरुषोत्तम राम का गुप्तचर था और रजक द्वारा सीता सम्बन्धी अपवाद की बात राम से कहकर उसने सीता-निर्वासन की भूमिका घटित की थी। राजा अपने शत्रु राजायों के क्रिया-कलाप की जानकारी के लिए गुप्तचर रखता है, प्रजा के प्रत्येक घर में दम्पत्ति की रहस्य वार्ता जानने के लिये नहीं और यह तो सर्वविदित है कि पति-पत्नी क्रोध में एक-दूसरे से न जाने क्या-क्या कह डालते हैं । फिर क्रोध का आवेश समाप्त हो जाने पर “अजी जाने दो, वह तो क्रोध में बिना सोचे-समझे मुँह से निकल गया था”–कह कर परस्पर क्षामा माँग लेते हैं। प्रत्येक गृहस्वामी अपने गृह का राजा और उसकी पत्नी रानी है। कोई गुप्तचर, चाहे वह देश के राजा का ही क्‍यों न हो यदि उनकी निजी वार्ता को सार्वजनिक घटना के रूप में प्रचारित कर दे, तो उसे गुप्तचर का अनधिकार, दुष्टाचरण ही कहा जायगा ।

 

इससे स्पष्ट है कि पैने दाँतों के दुरुपयोग में पटु, खरगोश का दुर्मुख नाम रखकर भी हमने राम के दुष्ट गुप्तचर का कोई अप- मान नहीं किया । परन्तु महर्षि दुर्वासा के नाम का ऐसा धृष्टता- पूर्ण उपयोग करने के लिए मुझे उनकी रुद्र स्मृति से बराबर क्षमा याचना करनी पड़ी । वे महर्षि निर्वाण को प्राप्त होकर निर्विकार ब्रह्म में क्रोध की तरंगें उठा रहे हैं, या किसी अन्य लोकवासियों को शाप से कम्पायमान कर रहे हैं, यह जान लेने का कोई साधन नहीं है। सम्भवतः अन्तर्दृष्टि से यह जान लेने के उपरान्त कि उस शशक की क्रोधी प्रकृति को व्यक्त करने का सामर्थ्य केवल उन्हीं के नाम में निहित है, उन्होंने मुझे क्षमा कर दिया है, अन्यथा मेरी धृष्टता अब तक शापमुक्त न रहती ।

उस शशक दुर्वासा की प्राप्ति एक दुर्योग ही कही जायगी ।

 

पड़ोस के एक सज्जन दम्पत्ति ने खरगोश का एक जोड़ा पाल रखा था, जिसने उसके आँगन में मिट्टी के भीतर सुरंग जैसा अपना निवास बना लिया था| सन्ध्या होते ही गृहिणी उस सुरंग के द्वार पर डलिया ढककर उस पर सिल रख देती थी । एक रात वह सुरंग का द्वार मुंदना भूल गई और निरन्तर ताक-झाँक में रहनेवाली मार्जारी ने बिल में घुसकर दोनों खरगोशों और उनके तीन बच्चों को क्षत-विक्षत कर डाला, केवल एक शशक-शिशु मां के पैरों के बीच छिपा रहने के कारण जीवित बच गया ।

 

इतने छोटे जीव को पालने की जो समस्या थी, उसका समा- धान हमारे माली ने उसे मेरे घर लाकर कर दिया। खरगोश स्तनपायी जीव है, अत: बच्चे को रुई की बत्ती से दूध पिला- पिलाकर बड़ा करने का यत्न किया जाने लगा। रहता वह मेरे कमरे में ही था। उसके बैठने और सोने के लिए एक मचिया पर रुईदार गद्दी बिछा दी गई थी, पर वह प्रायः मेरे तकिये के पास ही सो जाता था। ज्यों-ज्यों वह बड़ा होने लगा, त्यों-त्यों उसका क्रोधी स्वभाव हमारे विस्मय और चिंता का कारण बनने लगा।

 

वस्तुतः खरगोश बहुत निरीह जीव है । दाँत होने पर भी वह किसी को काटता नहीं, पंजे होने पर भी वह किसी को नोंचता- खरोंचता नहीं । भय उसका स्थायी भाव है। नवपालित शशक हमारी धारणायों के सर्वथा विपरीत था। दूध-भात देर से मिलने पर वह पंजों से कटोरी उलट देता, देनेवाले के हाथ में या हाथ पहुँच से बाहर होने पर पैर में अपने नन्‍हें पर पैने दांत चुभा देता और कमरे भर में दौड़-दौड़कर जो कुछ उसकी पहुँच में होता, उसे फेंकता-उलटता हुआ घूमता । उसके भय से छिपकली क्या अन्य कीट-पतंग तक मेरे कमरे से दूर रहते थे ।

 

ऐसे वह अन्य खरगोशों के समान प्रियदर्शन था, परन्तु एक विशेषता के साथ । कुछ बड़े-बड़े सघन कोमल और चमकीले फर के रोमों से उसका शरीर आच्छादित था, पूंछ छोटी और सुन्दर और पंजे स्वच्छ थे, जिनसे वह हर समय अपना मुख साफ करता रहता था । कान विलायती खरगोशों के कानों के समान कुछ कम लम्बे थे, परन्तु उनकी सुडौलता और सीधे जड़े रहने में विशेष मोहक सौंदर्य था। विशेषता यह थी कि एक कान काला था और एक सफेद । काले कान के ओर की आँख काली थी और सफेद कान के ओर की लाल। सामान्यतः सफेद खरगोशों की आंखें लाल और काले या चितकबरों की काली होती हैं। परन्तु इस खरगोश की दोनों आँखों ने अपने दो भिन्न रंगों से उस नियम का अपवाद उपस्थित कर दिया था। कभी-कभी लगता, मानो दो भिन्न खरगोशों का आधा-आधा शरीर जोड़ कर एक बना दिया गया हो और आँखों में एक ओर नीलम और दूसरी ओर रूबी का चमकीला मनका जड़ दिया हो । स्वजाति की सतर्कता और आतंकित मुद्रा का उसमें सर्वथा अभाव था।

मेरे कमरे में स्प्रिंगदार जाली के दरवाजे लगे हैं और खिड़कियों में भी जाली है। अचानक किसी कुत्ते-बिल्ली के भीतर आ जाने की सम्भावना नहीं रहती थी, परन्तु जाली के बाहर तो वे प्रायः आकर मेरी प्रतीक्षा में खड़े हो ही जाते थे । खरगोश न भागता, न कहीं छिपने का प्रयत्न करता, वरन्‌ जाली के पास आकर क्रोधित मुद्रा में अपनी दोनों काली लाल आँखों से उन्हें घूरता रहता । बिल्ली यदि जाली के पार खिड़की पर आकर बैठ जाती, तो वह अपने पिछले दोनों पैरों पर खड़े होकर उसे देखता और मुख से विचित्र क्रोध भरा स्वर निकालता। मेरे कमरे में दुर्मुख के रहने से शेष पशु-पक्षियों को निर्वासन ही मिल गया था, इसी से जब वह कुछ बड़ा, हृष्ट-पुष्ट और चिकना हो गया, तब मैंने उसे अपने पशु-पक्षियों के रहने के लिए बने जाली के घर में पहुँचाना उचित समझा। वहाँ आधा फर्श सीमेण्ट का है और आधा कच्चा मिट्टी का क्योंकि खरगोश जैसे जीव मिट्टी खोद- कर अपने लिए निवास बनाकर ही प्रसन्न रहते हैं। पिंजड़े या पक्के फर्शवाले घर में उनके जीवन का स्वाभाविक विकास और उल्लास रुक जाता है ।

दुर्मुख ने पहले तो मिट्टी खोदकर अपने रहने के लिए सुरंग जैसा घर बनाया और उस निर्माण कार्य से अवकाश मिलते ही जालीघर के अन्य निवासियों से “युद्धं देहि” कहना आरम्भ किया । उसके झपटने और काटने के कारण कबूतर, मोर आदि का दाना चुगने के लिए नीचे उतरना कठिन हो गया । वे तब तक अपने अड्डों और झूलों पर बैठे रहते, जब तक दुर्मुख अपने भोजन से तृप्त होकर सुरंग-घर में विश्राम के लिए न चला जाता। कभी- कभी सुरंग में भी उसे अपने प्रतिद्वंद्वियों के नीचे उतरने की आहट मिल जाती । तब वह अचानक उन पर आक्रमण कर किसी को गर्दन और किसी के पैरों में अपने पैने दाँत गड़ा देता और वे आर्त्त स्वर से कोलाहल करते हुए ऊपर उड़ जाते ।

अन्त में यह सोचकर कि दुर्मुख के क्रोधी स्वभाव के कारण संभवत: उसका स्वजातिशून्य अकेलापन हैं, मैं नखासकोने में बड़े मियाँ से एक शशक वधू खरीद लाई। वह हिम-खण्ड जैसी चम- कीली, शुभ्र और लाल विद्रुम जैसी सुन्दर आँखों वाली थी, इसी से उसे हम हिमानी कहने लगे । पर मेरी यह धारणा कि दुर्मुख उसके साथ शिष्ट खरगोश के समान व्यवहार करेगा, भ्रान्त सिद्ध हुई अपनी काली-लाल आँखों में मानो, धूम और ज्वाला मिला- कर आग्नेय दृष्टि से उसने नवागता को देखा और फिर आक्रमण कर दिया। बड़ी कठिनाई से हम उस बेचारी की रक्षा कर सके। अपने बिल में तो दुर्मुख ने उसे घुसने ही नहीं दिया और जब एक बार उसकी अनुपस्थिति का लाभ उठाकर हिमानी ने उसके सुरंग-भवन में प्रवेश का साहस किया, तब सुरंग के स्वामी ने अचानक लौटकर उसे कानों से खींचते हुए बाहर ही नहीं निकाल दिया, उसके सुन्दर, कोमल और हिम शुभ्र कानों को कुतरकर लोहू-लुहान भी कर डाला। निरुपाय हिमानी ने जब दूसरा बिल खोदकर और उसमें कोमल हरी दूब बिछाकर अपना विश्राम कक्ष तैयार किया, तब दुर्मुख उस पर भी अपना अधिकार जमाने के लिए लड़ने लगा । फिर शीत के कुछ मास बीत जाने पर और वासंती ग्रीष्म के लम्बे दिन लौट आने पर दुर्मुख़ की कलह-प्रियता में कुछ थोड़ा-सा अन्तर दिखाई पड़ा।

एक दिन जब हिमानी अपने बिल से छ: शावकों की सेना लेकर निकली, तो जालीघर में ही नहीं, मेरे घर में भी उल्ला- सोत्सव की लहर बह गई, पर इस नवीन सृष्टि के आने के साथ ही दुर्मुख की अकारण क्रोधी प्रकृति भी अपने सम्पूर्ण ध्वंसात्मक आवेश के साथ लौट आई ।

वह किसी बच्चे का पाँव चबा डालता, किसी का कान कुतर डालता और किसी की पीठ में घाव कर देता । कदम्ब के फूल से फूले वे कोमल बच्चे रक्त से रंग-बिरंगे हो उठते। हिमानी भी अपनी संतान की रक्षा के प्रयत्न में नित्य ही घायल होने लगी । लोरैक्सेन मरहम, नेबासल्फ पाउडर, रुई आदि की गन्ध से, अशोक वृक्ष की छाया में मालती लता से छाया चिड़ियाघर भी अस्पताल का स्मरण दिलाने लगा।

फिर एक दिन क्रोध में दुर्मुख ने दो शशक-शावकों की कोमल गर्दन अपने तीखे दाँत से इतनी क्षत-विक्षत कर डाली कि वे बचाए न जा सके । स्थिति इतनी चिंतनीय हो जाने पर मैंने उसे अलग रखने का निश्चय किया। बड़े जालीघर के पास एक छोटा जालीघर बनाकर उसमें दुर्मुख को स्थानान्तरित कर दिया गया जहाँ से वह देख सबको सकता था, परन्तु उन पर आक्रमण करने में असमर्थ था। अपने निर्वासन में वह कुछ दिनों तक निष्फल क्रोध से छटपटाता रहा, फिर धरती खोदकर बिल बनाने में व्यस्त हो गया। बड़े जालीघर में जाने के लिए उसने ऐसा अव्यर्थ उपाय खोज निकाला था, जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सके थे। धरती के नीचे-नीचे उसने एक इतनी लम्बी सुरंग खोद डाली जो बड़े जालीघर के भीतर पहुँच गई और इसी से वह बड़े जाली- घर में बिना रोकटोक आने लगा। माली ने बड़े जालीघर में खुलनेवाली सुरंग के द्वार को पत्थर से बन्द तो कर दिया, परन्तु इससे दुर्मुख का आक्रमण रोकना कठिन था। वह नये-नये द्वार बना लेता ओर जालीघर को जब तब रणक्षेत्र में परिवर्तित करता रहता । उसके बच्चे बड़े हो गए, फिर उनके भी बच्चे होने लगे, पर उनमें से न कोई दुर्मुख से लड़कर बल में जीत सका और न अपत्य-स्नेह से उसका हृदय जीत सका। यदि मृत्यु उसे न जीत लेती, तो यह क्रम निरन्तर चलता रहता।

फिर एक दिन जाकर देखा कि दुर्मुख निश्चेष्ट और ठंडा पड़ा है और एक संपोले के पूँछ की ओर का भाग उसके दांतों में दबा है। संपोले के मुख की ओर का भाग उसके पंजों के नीचे था।

प्रायः खरगोश की गंध से साँप आ जाते हैं; क्योंकि वह उसके प्रिय खाद्यों में से एक है। सम्भवतः साँप का बच्चा सन्ध से जाली के भीतर घुस आया हो, क्योंकि बड़े साँप का तो उस जाली में प्रवेश कठिन था । दुर्मुख अपने स्वभाव के कारण ही उस पर झपट पड़ा होगा। वह जालीघर में बने चबूतरे पर भी चढ़ सकता था। जिस पर साँप न चढ़ पाता ओर सुरंग से बड़े जाली घर में भी जा सकता था, जहाँ मोर के कारण साँप न प्रवेश कर पाता, परन्तु उसकी चिर लड़ाकू प्रकृति ने बचाव का कोई साधन स्वीकार नहीं किया । क्रोधी प्रकृति में भी पार्थिव रूप से मारक विष नहीं रहता, इसी से बेचारा दुर्मुख सँपोले का भी दंशन-विष नहीं सह सका, परन्तु मृत्यु से पहले उसने शत्रु के दो खण्ड करके अपना प्रतिशोध तो ले ही लिया ।

हमने बड़े जालीघर में उसकी समाधि बना दी है। मेरे सौ के लग- भग खरगोश दुर्मुख की ही प्रजा हैं, इसे कम लोग जानते हैं। उसकी संतति तो अपने पूर्वज का इतिहास जानने की शक्ति नहीं रखती, परन्तु मेरे घर में उसकी विशेषतायों की चर्चा प्रायः हो जाती है ।

मेरे माली का आज भी निश्चित मत है कि उस खरगोश पर पहलवान जी की छाया थी, नहीं तो भला कोई खरगोश साँप से लड़कर उसके टुकड़े कर सकता है! पहलवान की समाधि कहीं पास ही है और उनकी शक्ति की इतनी ख्याति है कि दूर-दूर से ग्रामवासी मनौतियाँ मनाने आते हैं ।

पर मुझे आज भी वह छोटा, मैगनोलिया के फूल-सा कोमल श्वेत शशक-शावक स्मरण हो आता है, जिसके जीवन के आरम्भ में ही उस पर दुर्योग से मार्जारी की निष्ठुर छाया आ पड़ी थी । यदि वह अन्य शावक के समान खेलता-खाता माँ की स्नेह-छाया में बड़ा होता, तो पता नहीं कैसा होता ।

लेखक

  • श्रीमती महादेवी वर्मा का जन्म फ़रुखाबाद (उ०प्र०) में 1907 ई० में हुआ था। इनकी प्रारंभिक शिक्षा इंदौर के मिशन स्कूल में हुई थी। नौ वर्ष की आयु में इनका विवाह हो गया था। परंतु इनका अध्ययन चलता रहा। 1929 ई० में इन्होंने बौद्ध भिक्षुणी बनना चाहा, परंतु महात्मा गांधी के संपर्क में आने पर ये समाज-सेवा की ओर उन्मुख हो गई। 1932 ई० में इन्होंने इलाहाबाद से संस्कृत में एम०ए० की परीक्षा उत्तीर्ण कीं और प्रयाग महिला विद्यापीठ की स्थापना करके उसकी प्रधानाचार्या के रूप में कार्य करने लगीं। मासिक पत्रिका ‘चाँद’ का भी इन्होंने कुछ समय तक संपादन-कार्य किया। इनका कर्मक्षेत्र बहुमुखी रहा है। इन्हें 1952 ई० में उत्तर प्रदेश की विधान परिषद का सदस्य मनोनीत किया गया। 1954 ई० में ये साहित्य अकादमी की संस्थापक सदस्या बनीं। 1960 ई० में इन्हें प्रयाग महिला विद्यापीठ का कुलपति बनाया गया। इनके व्यापक शैक्षिक, साहित्यिक और सामाजिक कार्यों के लिए भारत सरकार ने 1956 ई० में इन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया। 1983 ई० में ‘यामा’ कृति पर इन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान ने भी इन्हें ‘भारत-भारती’ पुरस्कार से सम्मानित किया। सन 1987 में इनकी मृत्यु हो गई। रचनाएँ – इनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं- काव्य-संग्रह – नीहार, रश्मि, नीरजा, यामा, दीपशिखा। संस्मरण – अतीत के चलचित्र, स्मृति की रेखाएँ पथ के साथी, मेरा परिवार। निबंध-संग्रह – श्रृंखला की कड़ियाँ आपदा, संकल्पिता, भारतीय संस्कृति के स्वर। साहित्यिक विशेषताएँ – साहित्य सेविका और समाज-सेविका दोनों रूपों में महादेवी वर्मा की प्रतिष्ठा रही है। महात्मा गाँधी की दिखाई राह पर अपना जीवन समर्पित करके इन्होंने शिक्षा और समाज-कल्याण के क्षेत्र में निरंतर कार्य किया। ये बहुमुखी प्रतिभा की धनी थीं। ये छायावाद के चार स्तंभों में से एक हैं। इनकी चर्चा निबंधों और संस्मरणात्मक रेखाचित्रों के कारण एक अप्रतिम गद्यकार के रूप में भी होती है। कविताओं में ये अपनी आंतरिक वेदना और पीड़ा को व्यक्त करती हुई इस लोक से परे किसी और सत्ता की ओर अभिमुख दिखाई पड़ती हैं, तो गद्य में इनका गहरा सामाजिक सरोकार स्थान पाता है। इनकी श्रृंखला की कड़ियाँ कृति एक अद्वतीय रचना है जो हिंदी में स्त्री-विमर्श की भव्य प्रस्तावना है। इनके संस्मरणात्मक रेखाचित्र अपने आस-पास के ऐसे चरित्रों और प्रसंगों को लेकर लिखे गए हैं जिनकी ओर साधारणतया हमारा ध्यान नहीं खिच पाता। महादेवी जी की मर्मभेदी व करुणामयी दृष्टि उन चरित्रों की साधारणता में असाधारण तत्वों का संधान करती है। इस तरह इन्होंने समाज के शोषित-पीड़ित तबके को अपने साहित्य में नायकत्व प्रदान किया है। भाषा-शैली – लेखिका ने अंतर्मन की अनुभूतियों का अंकन अत्यंत मार्मिकता से किया है। इनकी भाषा में बनावटीपन नहीं है। इनकी भाषा में संस्कृतनिष्ठ शब्दों की प्रमुखता है। इनके गद्य-साहित्य में भावनात्मक, संस्मरणात्मक, समीक्षात्मक, इत्तिवृत्तात्मक आदि अनेक शैलियों का रूप दृष्टिगोचर होता है। मर्मस्पर्शिता इनके गद्य की प्रमुख विशेषता है।

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