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गौरा गाय/महादेवी वर्मा

(गाय के नेत्रों में हिरन के नेत्रों-जैसा विस्मय न होकर आत्मीय विश्वास रहता है। उस पशु को मनुष्य से यातना ही नहीं, निर्मम मृत्यु तक प्राप्त होती है, परंतु उसकी आंखों के विश्वास का स्थान न विस्मय ले पाता है, न आतंक।)

गौरा मेरी बहिन के घर पली हुई गाय की व:यसंधि तक पहुंची हुई बछिया थी। उसे इतने स्नेह और दुलार से पाला गया था कि वह अन्य गोवत्साओं से कुछ विशिष्ट हो गई थी।

बहिन ने एक दिन कहा, तुम इतने पशु-पक्षी पाला करती हो-एक गाय क्यों नहीं पाल लेती, जिसका कुछ उपयोग हो। वास्तव में मेरी छोटी बहिन श्यामा अपनी लौकिक बुद्धि में मुझसे बहुत बड़ी है और बचपन से ही उनकी कर्मनिष्ठा और व्यवहार-कुशलता की बहुत प्रशंसा होती रही है, विशेषत: मेरी तुलना में।

यदि वे आत्मविश्वास के साथ कुछ कहती हैं तो उनका विचार संक्रामक रोग के समान सुननेवाले को तत्काल प्रभावित करता है। आश्चर्य नहीं, उस दिन उनके प्रतियोगितावाद संबंधी भाषण ने मुझे इतना अधिक प्रभावित किया कि तत्काल उस सुझाव का कार्यान्वयन आवश्यक हो गया।

वैसे खाद्य की किसी भी समस्या के समाधान के लिए पशु-पक्षी पालना मुझे कभी नहीं रुचा। बकरी, कुक्कुट, मछली आदि पालने के मूल उद्देश्य का ध्यान आते ही मेरा मन विद्रोह करने लगता है।

पर उस दिन मैंने ध्यानपूर्वक गौरा को देखा। पुष्ट लचीले पैर, भरे पुट्ठे, चिकनी भरी हुई पीठ, लम्बी सुडौल गर्दन, निकलते हुए छोटे छोटे सींग, भीतर की लालिमा की झलक देते हुए कमल की दो अधखुली पंखुड़ियों जैसे कान, लम्बी और अन्तिम छोर पर काले सघन चामर का स्मरण दिलाने वाली पूँछ, सब कुछ साँचे में ढला हुआ सा था। गाय को मानो इटेलियन मार्बल से तराश कर उस पर ओप दी गई हो।

स्वस्थ पशु के रोमों की सफेदी में एक विशेष चमक होती है। गौरा की उज्ज्वलता देखकर ऐसा लगा मानो उसके रोमों पर अभ्रक का चूर्ण मल दिया गया हो, जिसके कारण जिधर आलोक पड़ता था, उधर विशेष चमक उत्पन्न हो जाती थी।

गौरा को देखती ही मेरी गाय पालने के संबंध में दुविधा निश्चय में बदल गई।

गाय जब मेरे बंगले पर पहुँची, तब मेरे परिचितों और परिचारकों में श्रद्धा का ज्वार सा उमड़ आया। उसे लाल सफेद गुलाबों की माला पहनाई गई, केशर रोली का बड़ा सा टीका लगाया गया, घी का चैमुखा दिया जलाकर आरती उतारी गई और उसे दही पेड़ा खिलाया गया। उसका नामकरण हुआ गौरांगिनी या गौरा। पता नहीं, इस पूजा अर्चना का उस पर क्या प्रभाव पड़ा, परन्तु वह बहुत प्रसन्न जान पड़ी। उसकी बड़ी चमकीली और काली आँखों में जब आरती के दिये की लौ प्रतिफलित होकर झिलमिलाने लगी, तब कई दियों का भ्रम होने लगा। जान पड़ा, जैसे रात में काली दिखने वाली लहर पर किसी ने कई दिये प्रवाहित कर दिये हों।

गौरा वास्तव में बहुत प्रियदर्शन थी, विशेषतः उसकी काली बिल्लौरी आँखों का तरल सौन्दर्य तो दृष्टि को बाँधकर स्थिर कर देता था। चैड़े, उज्ज्वल माथे और लम्बे तथा साँचे में ढले हुए से मुख पर आँखें बर्फ में नीचे जल के कुण्डों के समान लगती थीं। उनमें एक अनोखा विश्वास का भाव रहता था। गाय के नेत्रों में हिरन के नेत्रों जैसा चकित विस्मय न होकर एक आत्मीय विश्वास ही रहता है। उस पशु को मनुष्य से यातना ही नहीं, निर्मम मृत्यु तक प्राप्त होती है, परन्तु उसकी आँखों के विश्वास का स्थान न विस्मय ले पाता है, न आतंक।

महात्मा गाँधी ने ‘गाय करुणा की कविता है’, क्यों कहा, यह उसकी आँखें देखकर ही समझ में आ सकता है।

गौरा की अलस मन्थर गति से तुलना करने योग्य कम वस्तुएँ हैं। तीव्र गति में सौन्दर्य है; परन्तु वह मन्थर गति के सौन्दर्य को नहीं पाता। बाण की तीव्र गति क्षण भर के लिए दृष्टि में चकाचैंध उत्पन्न कर सकती है, परन्तु मन्द समीर से फूल का अपने वृन्त पर हौले हौले हिलना दृष्टि का उत्सव है।

कुछ ही दिनों में यह सबसे इतनी हिलमिल गई कि अन्य पशु पक्षी उसकी लघुता और उसकी विशालता का अन्तर भूल गए। कुत्ते बिल्ली उसके पेट के नीचे और पैरों के बीच में खेलने लगे। पक्षी उसकी पीठ और माथे पर बैठकर उसके कान तथा आँखें खुजलाने लगे। वह भी स्थिर खड़ी रहकर और आँखें मूँदकर मानो उनके सम्पर्क सुख की अनुभूति में खो जाती थी।

हम सबको वह आवाज से ही नहीं, पैर की आहट से भी पहचानने लगी। समय का इतना अधिक बोध उसे हो गया था कि मोटर के फाटक में प्रवेश करते ही वह बाँ बाँ की ध्वनि से हमें पुकारने लगती। चाय, नाश्ता तथा भोजन के समय से भी वह इतनी परिचित थी कि थोड़ी देर कुछ पाने की प्रतीक्षा करने के उपरान्त रंभा रंभाकर घर सिर पर उठा लेती थी।

उसका हमसे साहचर्यजनित लगाव मानवीय स्नेह के समान ही निकटता चाहता था। निकट जाने पर वह सहलाने के लिए गर्दन बढ़ा देती, हाथ फेरने पर अपना मुख आश्वस्त भाव से कन्धे पर रखकर आँखें मूँद लेती। जब उससे दूर जाने लगते, तब गर्दन घुमा घुमा कर देखती रहती। आवश्यकता के लिए तो उसके पास एक ही ध्वनि थी, परन्तु उल्लास, दुःख, उदासीनता, आकुलता आदि की अनेक छाया छवियाँ उसकी बड़ी और काली आँखों में तैरा करती थीं।

एक वर्ष के उपरान्त गौरा एक पुष्ट सुन्दर वत्स की माता बनी। वत्स अपने लाल रंग के कारण गेरू का पुतले जैसा जान पड़ता था। उसके माथे पर पान के आकार का श्वेत तिलक और चारों पैरों में खुरों के ऊपर सफेद वलय ऐसे लगते थे, मानो गेरू की बनी वत्समूर्ति को चाँदी के आभूषणों से अलंकृत कर दिया गया हो। बछड़े का नाम रखा गया लालमणि, परन्तु उसे सब लालू के सम्बोधन से पुकारने लगे। माता पुत्र दोनों निकट रहने पर हिमराशि और जलते अंगारे का स्मरण कराते थे। अब हमारे घर में मानो दुग्ध महोत्सव आरम्भ हुआ। गौरा प्रातः सायं बारह सेर के लगभग दूध देती थी, अतः लालमणि के लिए कई सेर छोड़ देने पर भी इतना अधिक शेष रहता था कि आस पास के बाल गोपाल से लेकर कुत्ते बिल्ली तक सब पर मानो ‘दूधो नहाओ’ का आशीर्वाद फलित होने लगा। कुत्ते बिल्लियों ने तो एक अद्भुत दृश्य उपस्थित कर दिया था। दुग्धदोहन के समय वे सब गौरा के सामने एक पंक्ति में बैठ जाते और महादेव उनके आगे उनके खाने के लिए निश्चित बर्तन रख देता। किसी विशेष आयोजन पर आमन्त्रित अतिथियों के समान वे परम शिष्टता का परिचय देते हुए प्रतीक्षा करते रहते। फिर नाप नाप कर सबके पात्रों में दूध डाल दिया जाता; जिसे पीने के उपरान्त वे एक बार फिर अपने अपने स्वर में कृतज्ञता ज्ञापन सा करते हुए गौरा के चारों ओर उछलने कूदने लगते। जब तक वे सब चले न जाते, गौरा प्रसन्न दृष्टि से उन्हें देखती रहती। जिस दिन उनके आने में विलम्ब होता, वह रम्भा रम्भाकर मानो उन्हें पुकारने लगती।

पर अब दुग्धदोहन की समस्या कोई समाधान चाहती थी। नौकरों में नागरिक तो दुहना जानते ही नहीं थे और जो गाँव से आये थे, वे अनभ्यास के कारण यह कार्य इतना भूल चुके थे कि घण्टों लगा देते थे। गौरा के दूध देने के पूर्व जो ग्वाला हमारे यहाँ दूध देता था, जब उसने इस कार्य के लिए अपनी नियुक्ति के विषय में आग्रह किया, तब हमने अपनी समस्या का समाधान पा लिया।

दो तीन मास के उपरान्त गौरा ने दाना चारा खाना बहुत कम कर दिया और वह उत्तरोत्तर दुर्बल और शिथिल रहने लगी । चिन्तित होकर मैंने पशु चिकित्सकों को बुलाकर दिखाया। वे कई दिनों तक अनेक प्रकार के निरीक्षण, एक्सरे आदि द्वारा रोग का निदान खोजते रहे। अन्त में उन्होंने निर्णय दिया कि गाय को सुई खिला दी गई है, जो उसके रक्त संचार के साथ हृदय तक पहुँच गई है। अब सुई गाय के हृदय के पार हो जायेगी, तब रक्त संचार रुकने से उसकी मृत्यु निश्चित है।

मुझे कष्ट और आश्चर्य दोनों की अनुभूति हुई। सुई खिलाने का क्या तात्पर्य हो सकता है?दाना चारा तो हम स्वयं देखभाल कर देते हैं। परन्तु सम्भव है, उसी में सुई चली गई होगी, पर डाक्टर के उत्तर से ज्ञात हुआ कि दाने चारे के साथ गई सुई गाय के मुख में ही छिदकर रह जाती है । गुड़ की बड़ी डली के भीतर रखी सुई ही गले के नीचे उतर जाती है और अन्ततः रक्त संचार में मिलकर हृदय में पहुँच सकती है।

अन्त में एक ऐसा निर्मम सत्य उद्घाटित हुआ, जिसकी कल्पना भी मेरे लिए सम्भव नहीं थी। प्रायः कुछ ग्वाले ऐसे घरों में, जहाँ उनसे अधिक दूध लिया जाता है, गाय का आना सह नहीं पाते। अवसर मिलते ही वे गुड़ में लपेटकर सुई उसे खिलाकर उसकी असमय मृत्यु निश्चित कर देते हैं। गाय के मर जाने पर उन घरों में वे पुनः दूध देने लगते हैं। सुई की बात ज्ञात होते ही ग्वाला एक प्रकार से अन्तर्धान हो गया, अतः सन्देह का विश्वास में बदल जाना स्वाभाविक था। वैसे उसकी उपस्थिति में भी किसी कानूनी कार्यवाही के लिए आवश्यक प्रमाण जुटाना असम्भव था।

तब गौरा का मृत्यु से संघर्ष आरम्भ हुआ, जिसकी स्मृति मात्र से आज भी मन सिहर उठता है। डॉक्टरों ने कहा, गाय को सेव का रस पिलाया जावे, तो सुई पर कैल्शियम जम जाने और उसके न चुभने की सम्भावना है। अतः नित्य कई कई सेर सेवों का रस निकाला जाता और नली से गौरा को पिलाया जाता। शक्ति के लिए इ´जेक्शन पर इ´जेक्शन दिये जाते। पशुओं के लिए इ´जेक्शन के लिए सूजे के समान बहुत लम्बी मोटी सिरिंज तथा बड़ी बोतल भर दवा की आवश्यकता होती है। अतः वह इ´जेक्शन भी अपने आप में ‘शल्यक्रिया’ जैसा यातनामय हो जाता था। पर गौरा अत्यन्त शान्ति से बाहर और भीतर, दोनों ओर की चुभन और पीड़ा सहती थी। केवल कभी कभी उसकी सुन्दर पर उदास आँखों के कोनों में पानी की दो बूँदें झलकने लगती थी।

अब वह उठ नहीं पाती, परन्तु मेरे पास पहुँचते ही उसकी आँखों में प्रसन्नता की छाया सी तैरने लगती थी। पास जाकर बैठने पर वह मेरे कन्धे पर अपना मुख रख देती थी और अपनी खुरदरी जीभ से मेरी गर्दन चाटने लगती थी।

लालमणि बेचारे को तो माँ की व्याधि और आसन्न मृत्यु का बोध नहीं था। उसे दूसरी गाय का दूध पिलाया जाता था, जो उसे रुचता नहीं था। वह तो अपनी माँ का दूध पीना और उससे खेलना चाहता था, अतः अवसर मिलते ही वह गौरा के पास पहुँचकर या अपना सिर मार मार कर उसे उठाना चाहता था या खेलने के लिए उसके चारों ओर उछल कूदकर परिक्रमा ही देता रहता।

मैंने बहुत से जीव जन्तु पाल रखे हैं, अतः उनमें से कुछ समय असमय विदा देनी ही पड़ती है; परन्तु ऐसी मर्मव्यथा का मुझे स्मरण नहीं है।

इतनी हृष्ट पुष्ट, सुन्दर, दूध सी उज्ज्वल पयस्विनी गाय अपने इतने सुन्दर चंचल वत्स को छोड़कर किसी भी क्षण, निर्जीव और निश्चेष्ट हो जाएगी, यह सोचकर भी आँसू आ जाते थे।

लखनऊ, कानपुर आदि नगरों से भी पशु विशेषज्ञों को बुलाया, स्थानीय पशु चिकित्सक तो दिन में दो तीन बार आते रहे; परन्तु किसी ने ऐसा उपचार नहीं बताया, जिससे आशा की कोई किरण मिलती। निरुपाय मृत्यु की प्रतीक्षा का मर्म वही जानता है, जिसे किसी असाध्य और मरणासन्न रोगी के पास बैठना पड़ा हो।

जब गौरा की सुन्दर चमकीली आँखे, निष्प्रभ हो चलीं और सेव का रस भी कण्ठ में रुकने लगा, तब मैंने अन्त का अनुमान लगा लिया। अब मेरी एक ही इच्छा थी कि मैं उसके अन्त समय उपस्थित रह सकूँ। दिन में ही नहीं रात में भी कई कई बार उठकर मैं उसे देखने जाती रही।

अन्त में एक दिन ब्रह्ममुहूर्त में चार बजे जब मैं गौरा को देखने गई, तब जैसे ही उसने अपना मुख सदा के समान मेरे कन्धे पर रखा, वैसे ही वह एकदम पत्थर जैसा भारी हो गया और मेरी बाँह पर से सरककर धरती पर आ गया। कदाचित् सुई ने हृदय को बेधकर बन्द कर दिया।

अपने पालित जीव जंतुओं के पार्थिव अवशेष मैं गंगा को समर्पित करती रही हूं। गौरांगिनी को ले जाते समय मानो करुणा का समुद्र उमड़ आया, परंतु लीलामणि इसे भी खेल समझ उछलता-कूदता रहा। यदि दीर्घ नि:श्वास का शब्दों में अनुवाद हो सकता, तो उसकी प्रतिध्वनि कहेगी, ‘आह मेरा गोपालक देश।’

लेखक

  • महादेवी वर्मा

    श्रीमती महादेवी वर्मा का जन्म फ़रुखाबाद (उ०प्र०) में 1907 ई० में हुआ था। इनकी प्रारंभिक शिक्षा इंदौर के मिशन स्कूल में हुई थी। नौ वर्ष की आयु में इनका विवाह हो गया था। परंतु इनका अध्ययन चलता रहा। 1929 ई० में इन्होंने बौद्ध भिक्षुणी बनना चाहा, परंतु महात्मा गांधी के संपर्क में आने पर ये समाज-सेवा की ओर उन्मुख हो गई। 1932 ई० में इन्होंने इलाहाबाद से संस्कृत में एम०ए० की परीक्षा उत्तीर्ण कीं और प्रयाग महिला विद्यापीठ की स्थापना करके उसकी प्रधानाचार्या के रूप में कार्य करने लगीं। मासिक पत्रिका ‘चाँद’ का भी इन्होंने कुछ समय तक संपादन-कार्य किया। इनका कर्मक्षेत्र बहुमुखी रहा है। इन्हें 1952 ई० में उत्तर प्रदेश की विधान परिषद का सदस्य मनोनीत किया गया। 1954 ई० में ये साहित्य अकादमी की संस्थापक सदस्या बनीं। 1960 ई० में इन्हें प्रयाग महिला विद्यापीठ का कुलपति बनाया गया। इनके व्यापक शैक्षिक, साहित्यिक और सामाजिक कार्यों के लिए भारत सरकार ने 1956 ई० में इन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया। 1983 ई० में ‘यामा’ कृति पर इन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान ने भी इन्हें ‘भारत-भारती’ पुरस्कार से सम्मानित किया। सन 1987 में इनकी मृत्यु हो गई। रचनाएँ – इनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं- काव्य-संग्रह – नीहार, रश्मि, नीरजा, यामा, दीपशिखा। संस्मरण – अतीत के चलचित्र, स्मृति की रेखाएँ पथ के साथी, मेरा परिवार। निबंध-संग्रह – श्रृंखला की कड़ियाँ आपदा, संकल्पिता, भारतीय संस्कृति के स्वर। साहित्यिक विशेषताएँ – साहित्य सेविका और समाज-सेविका दोनों रूपों में महादेवी वर्मा की प्रतिष्ठा रही है। महात्मा गाँधी की दिखाई राह पर अपना जीवन समर्पित करके इन्होंने शिक्षा और समाज-कल्याण के क्षेत्र में निरंतर कार्य किया। ये बहुमुखी प्रतिभा की धनी थीं। ये छायावाद के चार स्तंभों में से एक हैं। इनकी चर्चा निबंधों और संस्मरणात्मक रेखाचित्रों के कारण एक अप्रतिम गद्यकार के रूप में भी होती है। कविताओं में ये अपनी आंतरिक वेदना और पीड़ा को व्यक्त करती हुई इस लोक से परे किसी और सत्ता की ओर अभिमुख दिखाई पड़ती हैं, तो गद्य में इनका गहरा सामाजिक सरोकार स्थान पाता है। इनकी श्रृंखला की कड़ियाँ कृति एक अद्वतीय रचना है जो हिंदी में स्त्री-विमर्श की भव्य प्रस्तावना है। इनके संस्मरणात्मक रेखाचित्र अपने आस-पास के ऐसे चरित्रों और प्रसंगों को लेकर लिखे गए हैं जिनकी ओर साधारणतया हमारा ध्यान नहीं खिच पाता। महादेवी जी की मर्मभेदी व करुणामयी दृष्टि उन चरित्रों की साधारणता में असाधारण तत्वों का संधान करती है। इस तरह इन्होंने समाज के शोषित-पीड़ित तबके को अपने साहित्य में नायकत्व प्रदान किया है। भाषा-शैली – लेखिका ने अंतर्मन की अनुभूतियों का अंकन अत्यंत मार्मिकता से किया है। इनकी भाषा में बनावटीपन नहीं है। इनकी भाषा में संस्कृतनिष्ठ शब्दों की प्रमुखता है। इनके गद्य-साहित्य में भावनात्मक, संस्मरणात्मक, समीक्षात्मक, इत्तिवृत्तात्मक आदि अनेक शैलियों का रूप दृष्टिगोचर होता है। मर्मस्पर्शिता इनके गद्य की प्रमुख विशेषता है।

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