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कुण्डलियां/तारकेश्वरी ‘सुधि’

सुखमय हो जीवन सदा, मुख पर हो मुस्कान ।
ये तब ही संभव बने, जब हो संग में ज्ञान ।।
संग में हो जब ज्ञान, सोच का रूप बदलता ।
तम का हो अवसान, काज में मिले सफलता।
कहती है सुधि सत्य, बने न पल पल दुखमय ।
कर लें अर्जित ज्ञान, तभी जीवन हो सुखमय ।।

वह नाविक का हौसला, वह नाविक की सूझ।
जिससे चलता अनवरत, तूफानों से जूझ।।
तूफानों से जूझ, नाव अपनी वह खेता।
सागर के उस पार, पहुँच कर ही दम लेता।
कहती है सुधि सत्य, जीतना हो स्वाभाविक।
चलता रखकर धीर, हौसला जब वह नाविक।।

धन, सत्ता से मिल रहा, मनचाहा सम्मान।
लाठी जिसके पास है, भैंस उसी की मान।।
भैस उसी की मान, आज कलयुग है भाई।
ताकत जिनके पास, रखे वे क्यों नरमाई ?
कहती है सुधि सत्य, चतुरता हो अलबत्ता।
साथ रहे ईमान, नहीं सब कुछ धन सत्ता।।

चाहत यही मनुष्य की, हो निज घर संपन्न।
धन दौलत से घर भरे, प्रचुर रहे जल अन्न।।
प्रचुर रहे जल अन्न, बड़ा यदि दिल है उसका ।
उर में पर उपकार, हितेषी होगा सबका।
कहती है सुधि सत्य, मदद करके दे राहत ।
करती तब ही पूर्ण, प्रकृति उस दिल की चाहत।।

हर उलझन से दूर है, सभी खौफ से मुक्त ।
नील गगन में बादली, उड़ती है उन्मुक्त ।।
उड़ती है उन्मुक्त, हवा से वह बतियाती।
कभी पेड़ की डाल, बैठकर वह सुस्ताती ।
कहती है सुधि सत्य, शांत हिय बसती सुलझन।
रहती उससे दूर, तभी शायद हर उलझन ।।

घाटी ये कश्मीर की, कर देती अभिभूत।
कुदरत ने बिखरा दिया, अपना नेह अकूत।।
अपना नेह अकूत, प्रकृति का यहाँ खजाना।
स्वर्ण रजत का मेल, गुलों का खिल इठलाना।
कहती है सुधि सत्य, यहाँ की पावन माटी।
ईश्वर का आवास, बनी कश्मीरी घाटी।।

भूला मन दुख भावना, उपजा नव संगीत।
लगे थिरकने पैर भी, सुन बुलबुल का गीत।।
सुन बुलबुल का गीत, वृक्ष भी झूमे सारे।
सुने थामकर साँस, पात पीले बंजारे।
कहती है सुधि सत्य, बना सरगम का झूला।
उर से उपजा गीत, हृदय सारा दुख भूला।।

घटनाएँ आतंक की, जान-माल नुकसान।
सुनते रहते रोज ही, मगर नहीं अवसान।।
मगर नहीं अवसान, बहुत अंजाम भयानक।
मिल जाता है घाव, कभी भी हमें अचानक।
कहती है सुधि सत्य, सभी मिल इन्हें हटाएँ।
दें जब उचित जवाब, बंद होंगी घटनाएँ।।

प्रचलित खूब समाज में, ऐसी कुत्सित चाह।
उम्र खेलने की मगर, होता बाल विवाह।।
होता बाल विवाह, बीच में शिक्षा रुकती।
शादी बनकर कील, सदा जीवन में चुभती।
कहती है सुधि सत्य, पुष्प होने दो विकसित ।
रोकें यह अभिशाप, देश में जो है प्रचलित।।

मन चंचल, मन आलसी, मन बेहद बलवान।
मन के बस में इन्द्रियाँ, बुद्धि, शरीर व ज्ञान।।
बुद्धि, शरीर व ज्ञान, प्रबल दुश्मन मन अपना।
करें वक़्त को नष्ट, कठिन हैं वश में रखना।
कहती है सुधि सत्य, खोल कर देख दृगचंल।
क्या-क्या देता घाव, छेदकर उर मन चंचल।।

मस्ती से चलता रहे, करे नहीं परवाह।
तूफानों से जूझना, बस साहस की चाह।।
बस साहस की चाह, हमेशा आगे बढ़ना।
दुर्गम बेशक राह, शिखर पर उसको चढ़ना।
कहती है सुधि सत्य, मिटाकर डर की हस्ती।
कर खुद पर विश्वास, झूमती उसकी मस्ती।।

पढ़ते ढेरों पोथियाँ, हो जाते उत्तीर्ण।
मगर सोच का दायरा, रहता है संकीर्ण।।
रहता है संकीर्ण, बनें हर दोष सिकंदर ।
हम दोनों दृग मूँद, घरों में बैठे अंदर ।
कहती है सुधि प्रेम, दया ही दिल में फबते।
तज कर ये अज्ञान, गुणें हम जो भी पढ़ते।।

बादल तेरा घर कहाँ, किधर बता है गाँव?
दिनभर उड़ता,रात में, कौन जगह पर ठाँव?
जगह पर ठाँव, किधर से पानी लाता?
सुबह नींद से बोल, तुझे है कौन जगाता?
पूछ रही सुधि बात, कहाँ होता तू ओझल?
प्रेम कभी है क्रोध, हमें छलता क्यों बादल?

लेखक

  • तारकेश्वरी'सुधि'

    तारकेश्वरी'सुधि' माता- श्रीमती शकुन्तला देवी पिता-श्री सईराम यादव जन्म- 10 जुलाई 1973 शिक्षा - एम.ए. (राजनीति विज्ञान,हिंदी ), बी.एड. जन्म स्थान - सिलपटा , अलवर, (राजस्थान) प्रकाशित कृतियाँ - 1-सुधियों की देहरी पर (दोहा संग्रह)। 2-रसरंगिनी (मुकरी संग्रह ) 3-शब्द वीणा (कुंडलिया संग्रह) अनेक साझा संकलनों में दोहे,गीत, ग़ज़ल, कुंडलिया, लघुकथा प्रकाशित । के अलावा विभिन्न दैनिक व मासिक पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन सम्प्रति -शिक्षिका व स्वतंत्र लेखन संपर्क--truyadv44@gmail.com मो.- 9829389426

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