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बिछिया/डॉ. शिप्रा मिश्रा

उस विवाह में
हम भी हुए थे निमंत्रित
भरपेट खाए थे भोज
और..
मन भर मिठाईयांँ भी
एक साड़ी, टिकुली, सेनूर,
आलता भेंट भी कर आए थे
और..
एक जोड़ी बिछिया भी..
कलेजे का टुकड़ा थी वह
मेरी छात्रा नन्दिनी
जन्मजात तेजस्विनी
ऊर्जस्वित, निष्ठावान
मृदुभाषी, सौम्य, शिष्ट
उसकी मौन, मूक आँखों ने
अनेक बार
मेरे सबल संबल को
निरर्थक ढूँढने को
छटपटाती रही
मेरे मजबूत आलिंगन में
सुरक्षित, संरक्षित होने को
कसमसाती रही
परन्तु..
परंपराओं के नाम पर
चढ़ा दी गई बलि
और..
स्वर्णिम भविष्य का
एक कोरा पन्ना
बेरंग बन कर रह गया
अलिखित, अचित्रित
जानबूझ कर अनजान बनने का
देख कर भी अनदेखी करने का
समझ कर भी नासमझी का
इससे सुन्दर स्वांग भला
और क्या हो सकता था
एक नाबालिग नन्दिनी
अपने तीन बच्चों समेत
जब मेरे समक्ष आती है
उसकी मौन में भी
कई अनुत्तरित प्रश्न
हाहाकार मचाए रहते हैं
वह बिछिया आज तक
मेरे कलेजे में चुभती है
और..
कर देती है लहुलुहान
मेरे स्त्रीत्व को,
अस्तित्व को, गुरुत्व को
अदृश्य चुनौती देती है
काश! मैं उसे बचा पाती
उस दैहिक, दैविक, भौतिक
प्रताड़ना से

लेखक

  • डॉ. शिप्रा मिश्रा शिक्षण एवं स्वतंत्र लेखन माता- पिता- डॉ सुशीला ओझा एवं डॉ बलराम मिश्रा राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय लगभग 150 से अधिक पत्र- पत्रिकाओं में हिन्दी और भोजपुरी की लगभग 700 से अधिक रचनाओं का निरंतर प्रकाशन लगभग 100 से अधिक गोष्ठियों में शामिल , 3 पुस्तकें प्रकाशित एवं 4 प्रकाशन के क्रम में, साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा 100 से अधिक सम्मान प्राप्त

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