+91-9997111311,    support@sahityaratan.com

मन्नु की माई/महादेवी वर्मा

पहले-पहले अरैल के भग्नावशेष में एक पक्की पर टूटी-फूटी इमारत देखकर मैंने उसकी दरकी और प्लास्टर रहित दीवार पर कंडे थापने में तन्मय एक स्त्री से पूछा- ‘यह किसका घर है !’

जिससे प्रश्न किया गया था, उसने अपने खरखरे स्वर को और अधिक रूखा बनाकर उत्तर दिया- ‘तोहका का करै का है ! शहराती मेहरारून के का काम-काज नाहिन बा जौनहियाँ उहाँ गस्ता घूमै चल देती हैं ?”

दुबरी की बहू अपने कर्कशापन के लिए प्रसिद्ध है । बिखरे हुए बालों की रूखी और मैली-कुचैली लटों में से एक-दो उसके पपड़ी पड़े हुए ओठों पर चिपकी रहती हैं। पक्के रंग का श्याम शरीर धूल के अनेक आवरणों में छिपकर इतना धूसरित हो उठता है कि मटमैली धोती उसका एक अंग ही जान पड़ती है। गोबररूपी मेहँदी से नित्य रंजित हाथों की प्रत्येक उँगली युद्ध के अनेक रहस्यमय संकेत छिपाए रहती है। उसकी मित्रता का मूल तत्त्व ‘करु परितोष मोर संग्रामा’ में छिपा रहता है, क्योंकि बिना वाग्युद्ध में पराजित हुए वह किसी से बोलने में ही हीनता समझती है। यदि कोई उसकी युद्ध की चुनौती अस्वीकार कर दे, तब तो वह उसकी दृष्टि में मित्रता के योग्य ही नहीं रहता ।

मैं तब उसके स्वभाव के संबंध में यह महत्त्वपूर्ण इतिवृत्त नहीं जानती थी। इसके अतिरिक्त मैं ऐसी अभ्यर्थना के लिए भी अनभ्यस्त नहीं, क्योंकि दरिद्र और असंख्य अभावों से भरे ग्रामों में ऐसे चिड़चिड़े स्वभाव की स्थिति स्वाभाविक ही रहती है। फिर अरैल तो जरायमपेशों का घर माना जाता है। वहाँ शिष्टता और सरल सौजन्य की आशा लेकर जानेवाले कम हैं। मैं जानती थी, उस पर कड़े उत्तर का प्रभाव वही होगा, जो लोहे के बाण का पत्थर के लक्ष्य पर संभव है। इसी से संधि के प्रस्ताव जैसा उत्तर सोचने में कुछ क्षण लगे।

पर भक्तिन तो ऐसा उत्तर पाकर चुप हो जाने को, युद्ध में पीठ दिखाने के समान निंद्य समझती है, अतः उसने तुरंत ही कहा- ‘शहर माँ शोर परा है कि ई गाँव की मलका कंडा बिनती हैं, गोबर पथती हैं, तौन उन्ही के दरसन बरे दौरत आइत है। अउर का।’

इस तिक्त उत्तर से जो वाग्विस्फोट होता है, मानो उसी को रोकने के लिए दूसरे टीले पर बने छोटे मंदिर से निकटवर्ती कच्चे घर के द्वार से एक मझोले कद की दुबली-पतली स्त्री निकल आई। किसी दिन लाल चुनरी का नाम पानेवाली पर अब खपरैल के रंग से स्पर्द्धा करने वाली धोती का घूँघट भौंहों तक खींचकर उसने सलज्ज भाव से मंद मधुर और अभ्यर्थना भरे स्वर में कहा- ‘का पूछत रही माँ जी ! का सहर से अरैल देखे आई हैं ?’

अभ्यर्थना के दो भिन्न छोरों के बीच में मेरी स्थिति कुछ विचित्र सी हो गई। जैसे एक ओर खींचकर छोड़ा हुआ पेंडुलम उतने ही वेग से दूसरी ओर जा टकराता है, वैसे ही दुबरी की बहू की अभ्यर्थना ने मुझे मुन्नू की माई के लिपे-पुते चबूतरे पर पहुँचा दिया।

मुन्नू की माई को सुंदरी कहना असत्य है और कुरूप कहना कठिन । वास्तव में उसका सौंदर्य रेखाओं में न रहकर भाव में स्थिति रखता है, इसी से दृष्टि उसे नहीं खोज पाती; पर हृदय उसे अनायास ही अनुभव कर लेता है। साधारण साँवले रंग और विवर्ण गालों के कारण कुछ लंबे जान पड़नेवाले मुख में कोई विशेषता नहीं । नाक का नुकीलापन यदि बुद्धि की तीक्ष्णता का पता न देता तो उसका छोटापन मूर्खता का परिचायक बन जाता । आँखें न बड़ी न छोटी पर एक विचित्र आभा से उद्दीप्त । पतले ओठ छोटे सफेद दाँतों की झाँकी में अकारण प्रसन्नता व्यक्त करते हैं; पर उनके बंद होते ही उन पर एक नामहीन विषाद की छाया आ जाती है। हाथ-पैर छोटे-छोटे; पर मुख के विपरीत कठोर हैं। शरीर में लचीलेपन के साथ ही बाण के समान एक सीधापन है, जिसे वह सिर झुकाकर कुछ-कुछ छिपा लेती है।

बेवाइयों से भरे छोटे पैरों में काँसे के कड़े घिसते घिसते चपटे और तंग हो गए हैं, अतः बचपन से अब तक बदले न जाने की घोषणा करते हैं। कड़ी उँगलियों वाले हाथों की चपटी कलाई को घेरनेवाली मैल भरी घिसी चूड़ियाँ ऐसी जान पड़ती हैं, मानो हाथ के साथ ही उत्पन्न हुई हैं। ग्राम की संभ्रांत कुलवधुओं के समान ही मुन्नू की माई मधुर भाषिणी, सलज्ज और सेवा -परायणा है; पर उस विजन में उसका जीवन जंगली फूल के समान ही उपेक्षा और अपरिचय के बीच में खिला है ।

मुन्नू की माई के कारण ही मैं अरैल में रहनेवाली दूर-देशिनी वृद्धा और उसके बूढ़े भाई से परिचित हो सकी जो आज मेरे परिवार के व्यक्ति हो रहे हैं। उसी ने पटेल बाबा के टूटे-फूटे चौपाल को लीप-पोत कर इतना सुंदर बना दिया कि आज वह बिना द्वार – कपाट का कच्चा घर मेरे लिए सौ बँगलों से अधिक मूल्यवान हो उठा है। आज भी वह उस खँडहर के शेष उच्छ्वास के समान इधर-उधर दौड़ती रहती है।

बालक मुन्नू को देखकर जान पड़ता है कि उसकी माँ ने अपने किसी मिटते हुए स्वप्न का एक खंड अंचल में छिपाकर बचा लिया है। गोलमटोल मुख, गोलाकार आँखें, गोलाकृति नाक, सब मिलाकर उसे एक विचित्र आकर्षण दे देते हैं। उसका पाँच वर्ष का जीवन उसकी बुद्धि और उत्तर देने की कुशलता से मेल नहीं खाता; पर भविष्य में इस विशेषता को अपने विकास के लिए अपराध के अतिरिक्त और क्षेत्र मिलना कठिन होगा, यह सोचकर हृदय व्यथा से भर आता है।

दरिद्रता ने साधारण कपड़ों को भी दुर्लभ पदार्थों की सूची में रख दिया है। माँ कभी पुराने और कभी सस्ते मोटे कपड़े का लंबा और बेडौल कुरता उल्टी-सीधी खोपें भर कर सी देती है और उसे मैला न करने के संबंध में इतना उपदेश देती रहती है कि बालक कुरते को शरीर से अधिक मूल्यवान समझने लगा है। चाहे आँधी-पानी हो, चाहे लू-धूप हो, वह सदा कुरते को उतारकर सुरक्षित स्थान में रखने के उपरांत ही साथियों के साथ खेलता है। और जब खेल-कूद समाप्त होने पर बगल में कुरता दबाए हुए वह नंग-धड़ंग घर लौटता है, तब उसे देखकर भ्रम होता है कि वह यमुना की काली मिट्टी से बना ऐसा पुतला है, जो मंत्रबल से चलने लगा ।

इन दोनों प्राणियों के अतिरिक्त उस घर में दो जीव और हैं-मुन्नू का पिता और बूढ़ा आजा । मुन्नू का बाप मझोले कद, गेहुएँ रंग और छरहरे शरीर का आदमी है। छोटे-छोटे बाल उसके सिर पर खड़े ही रहते हैं। आँखों के चारों ओर स्याह घेरे और गालों पर झाईं हैं, जिनके साथ मुँहासे ‘कोढ़ में खाज’ की कहावत चरितार्थ करते हैं।

मुख की गठन में क्या विशेष बेडौल है, यह बताना कठिन है; पर देखने में सब कुछ बेडौल लगता है। उसके मुख पर वह सौम्यता नहीं, जो सुंदर भावों की छाया है।

सवेरे उठकर वह टीले के एक ओर लगे पीपल के नीचे बैठता है और तम्बाकू पीने और तीतर चुगाने के काम साथ-साथ करता है । फिर दस बजे अपनी अँधेरी कोठरी के जालों से ढके हुए आले में से सरसों के तेल की कुप्पी उठा लाता है और अपने शरीर की मालिश करता है। इसके उपरांत यमुना में स्नान का प्रोग्राम भी कुछ कम लंबा नहीं। लौटने पर जो चना-चबेना मिल सका, उसे डाँट फटकार का मूल्य देकर स्वीकार कर लेता है । फिर कभी पत्नी की खुशामद, कभी बूढ़े पिता की चिरौरी करके यदि कुछ पैसे पा सका, तो उन्हें अंटी में छिपाकर अन्यथा बिना पैसे ही जुआरी मित्रों की खोज में निकलता है।

उसका अधिक रात गए लौटना व्यवसाय में लाभ की सूचना है और साँझ होते ही घर पहुँचना हानि की घोषणा । पहली स्थिति में वह भोजन की चिंता नहीं करता; परंतु दूसरी में परम उपकारक की मुद्रा के साथ रूखा-सूखा खाकर टूटी खरहरी खटिया पर लेटते ही वह एक करवट में सवेरा कर देता है । काल-यापन का यह क्रम सनातन है। उसकी माँ बचपन ही में कर्तव्य से मुक्ति पा चुकी थी, पर बाप ने उसे हाथों-हाथ रखकर पाला है, इसका प्रमाण उसका हथई नाम है ।

पिता के दुलार ने उसे बड़ा करने के साथ-साथ उसकी दुर्बुद्धि को भी बड़ा कर दिया, तो इसमें भाग्य का ही दोष समझना चाहिए।

अंत में अपने कर्म विपाक के अभिशाप को अकेले भोगना कायरता समझ कर वह एक सीधी, मेहनती और अनाथ बहू भी खोज लाया।

बूढ़ा ब्राह्मण कुल भूषण है और ‘बाभन को धन केवल भिच्छा’ में विश्वास न रखनेवाले को कलिकाल का नास्तिक मानता है। वह सवेरे ही लोटा और एक फटा मैला अँगोछा लेकर संगम के सामने यमुना किनारे जा बैठता है और आने-जाने वाले पुण्य अहेरियों से अपनी करुण कथा कुछ हकलाते कंठ से, कुछ काँपते हाथों से और कुछ झुर्रियों के फ्रेम में जड़ी भाव-भंगिमा द्वारा कहता रहता है।

सुननेवालों को अपनी ही दयनीय कथा से फुर्सत नहीं, इसी से वे कथा न सुनकर उसका संक्षिप्त भावार्थ मात्र समझ लेते हैं । जैसे तिथि पर्वों में कथा वाचक के कथा कह चुकने पर श्रोता, हाथ में रखे हुए अक्षत-फूल फेंक देता है वैसे ही वे, धर्म खरीदने के लिए लाए हुए, सस्ते अन्न में से कभी एक मुट्ठी चावल, कभी चने, कभी जौ, बूढ़े के सामने बिछे हुए अँगोछे पर बिखेर कर राह नापते हैं। कोई साहसी पाई डाल जाता है, कोई जल्दबाज धोखे में पैसा फेंककर चल देता है। इन सबकी भाग-दौड़ देखकर लगता है कि इन्हें ठीक संगम में, अतल गहराई की सीमारेखा पर अनेक डुबकियाँ लगाने पर भी पाप के डूब जाने का विश्वास नहीं । उल्टे वे विभ्रांत भाव से जानते हैं कि वह उन्हीं के पीछे-पीछे दौड़ता आ रहा है और रुकते ही फिर उनकी शिखा पर आसीन हुए बिना न रहेगा। बीच-बीच में यह दान – लीला भी मानो उसी अजर-अमर और निरंतर संगी को दूसरी ओर बहका देने का प्रयास मात्र है। यह बहकाना भी ‘लग जाए तो तीर नहीं तो तुक्का’ तो है ही। किसे देते हैं, क्या देते हैं, किस प्रकार देते हैं आदि-आदि प्रश्नों को उठने का अवकाश न देने के लिए वे दृष्टि-संयम पर ध्यान को केंद्रित करना चाहते हैं। माला के मनकों में उलझी हुई उँगलियाँ और समझ में न आनेवाले मंत्रों के साथ व्यायाम करनेवाले ओठ और रसना भी इसी लक्ष्य की पूर्ति करते हैं।

इस महान् अभिनय का उपेक्षित; पर प्रधान दर्शक बूढ़ा एक बजे कमाई गठियाकर अपने बिल जैसे घर में लौट आता है । भिक्षा में मिले हुए अन्न – सम्मिश्रण को कभी बहू वैसे ही उबाल देती है और कभी चावल, दाल, चने, जौ आदि को बीन – बीनकर अलग करने के उपरांत दाल-भात जैसे दुर्लभ व्यंजन का प्रबंध करती है।

प्रायः यह अन्न इतने प्राणियों के लिए पर्याप्त नहीं होता, इसी से मुन्नू की माई दूसरों के खेत-खलिहान, घर आदि में कुछ-न-कुछ करने चली जाती है। काम की मजदूरी पैसों के रूप में न मिलकर अनाज के रूप में ही प्राप्त होती है और उसे लेकर जब संध्या समय वह भारी पैरों और दुखते हुए हाथों के साथ घर लौटती है, तब गृहिणी के कर्तव्य का भार सँभालना अनिवार्य हो उठता है।

पुराना घड़ा और किसी सुख-स्मृति के अंतिम चिह्न जैसी ताँबे की चमकती हुई कलशी लेकर वह यमुना से पानी लाने जाती है । तब चूल्हे के ऊपर दीवाल में बने आले में से मिट्टी का दीया उठाती है और उसमें पड़ी हुई पुराने कपड़े की अधजली बत्ती का गुल झाड़कर, उसे कहीं से माँग जाँच कर लाए हुए रेंडी के तेल से स्निग्ध कर जलाती है। फिर चूल्हा जलाया जाता है । पगडंडी और खेतों के आसपास पड़े हुए गोबर के कंडे पाथकर और इधर-उधर से सूखी टहनियाँ बीन बटोर कर वह ईंधन की समस्या सुलझाती रहती है।

बाजरा, ज्वार जैसा अनाज मिलने पर वह अदहन में दाल छोड़कर, अँधेरे कोने में गड़ी हुई, घिसी-घिसाई और बाँस के हत्थेवाली चक्की चलाने बैठती है। बीच-बीच में उठकर उसे कभी चूल्हे का ईंधन ठीक करना, कभी ससुर के लिए चिलम भरना, कभी मुन्नू को चबेना आदि देकर बहलाना पड़ता है। उसकी स्थिति में ‘रोज कुआँ खोदना, रोज पानी पीना’ ही प्रधान है, इसी से उसकी गृहस्थी का रूप बनजारों की चलती-फिरती गृहस्थी के समान हो गया है; पर अपनी अनिश्चित आजीविका को भी वह अपनी कुशलता से कष्टकर नहीं बनने देती ।

कभी सब कुछ मिल जाने पर घर में नमक नहीं निकला, बस वह मुन्नू को द्वार पर बैठाकर गाँव के बनिये के यहाँ दौड़ गई। कभी कंडों के धुएँ से दम घुटने लगा और वह आधी सेंकी हुई रोटी को जलने के भय से चूल्हे के एक ओर टिकाकर पास के खेत से सूखा रेंड या करबी ले आई। कभी ससुर खाते-खाते मिर्च माँग बैठते और वह टूटी-फूटी पर क्रम से रखी हुई मटकियों से भरे कोने में जा पहुँचती । सारांश यह कि कब, क्या, कैसे आदि प्रश्नों पर वह कभी विचार नहीं करती; पर किसी प्रकार की भी आकस्मिकता के लिए प्रस्तुत रहना उसका स्वभाव है।

उसके परिश्रम ने उस घर के प्राणियों का भूखा सोना तो संभव ही नहीं रहने दिया, उस पर उन सबको जब-तब विशेष भोजन भी प्राप्त हो जाता है। कभी किसी पड़ोसी के यहाँ मट्ठा फेरकर एक लोटा मट्ठा ले आई और चना मटर पीसकर कढ़ी का प्रबंध कर दिया। कभी किसी ईख के खेत में काम करके रस या औटते हुए रस के ऊपर से उतारा हुआ मैल ही मिल गया और उसमें मोटे लाल चावल डालकर मीठा भात राँध लिया। कभी हाट में जानेवाली काछिन का कुछ बोझ ही वहाँ तक पहुँचा दिया और बदले में मिली हुई शाक-भाजी से दाल की एकरसता दूर कर दी। इस प्रकार उसके गृह प्रबंध में, शतरंज की चालों में आवश्यक बुद्धि की आवश्यकता रहती है। एक स्थान में चूकने पर उसका परिणाम सारी व्यवस्था को अस्त-व्यस्त कर सकता है।

ससुर को वात, कफ का रोग घेरे रहता है। इसके अतिरिक्त वृद्धावस्था स्वयं भी एक व्याधि है । वह तीस दिन में दस-बारह दिन भिक्षाटन के कर्तव्य में असमर्थ रहता है। शेष दिनों में भी कभी-कभी ऐसे कार्य आ पड़ते हैं, जो दूसरों की दृष्टि में निरर्थक होने पर भी उसके लिए परम महत्त्वपूर्ण हैं। कभी कोई पुराना मित्र खाँसता- खखारता हुआ, तंबाकू का दम लगाने आ पहुँचता है, तो जब तक अपनी ही नहीं, मँगनी की तंबाकू भी समाप्त नहीं हो जाती, तब तक उठने की चर्चा भी अशिष्टता की पराकाष्ठा समझी जाती है। कभी वृद्ध को किसी पुरातन सहयोगी की सुधि इस तरह व्याकुल कर देती है कि वह सिरहाने सँभालकर धरी; पर फटी हुई मिर्जई पहनकर तम्बाकू और चुनौटी से भरे-पूरे बटुए को कमर में खोंसकर लठिया के सहारे गाँव की ओर चल देता है। कभी उसे आसपास रहनेवाला कोई भला आदमी श्रोता मिल जाता है, तो उसे अपने अच्छे दिनों का इतिहास न सुनाना अपने सफेद बालों की निरर्थकता की घोषणा है । इस प्रकार के कर्तव्य असंख्य हैं और रहेंगे भी।

बहू ने जब से उसका आजीविका संबंधी कार्य भार बाँट लिया है तब से वह और भी निश्चितता के साथ टूटी खटिया पर लेटकर बहू को सेवापरायणा होने का महत्त्व समझाता रहता है। ‘अपनी करनी अपनी भरनी’ पर अटल विश्वास होने के कारण वह लड़के को कुछ न कहकर बहू को सती और सुगृहिणी बनकर स्वर्ग लोक में राजरानी होने का उपदेश देता रहता है।

बूढ़े के विचार में जीना दो दिन का है; पर मरने की कोई सीमा नहीं। यदि दो दिन मिट्टी के बिल-जैसे घर में रहकर, घिसी चक्की में चना-जौ पीसकर और रेंड के धुएँ से धुआँई रोटी ससुर और उसके निठल्ले लड़के को खिलाकर, वह मरने के उपरांत स्वर्ग की रानी होने का अधिकार प्राप्त कर लेती है, तो वही लाभ में रही। दो दिन का कष्ट और उसके बदले में अनन्त काल के लिए स्वर्ग सुख ! भला कौन भकुआ ऐसा होगा, जो इस सौदे को सस्ता न समझे । संसार में असंख्य व्यक्तियों की पैनी दृष्टि इस परोक्ष सौदे में छिपे सूक्ष्म लाभ को प्रत्यक्ष देख लेती है, इसी से जान पड़ता है कि संसार में मूर्खों की संख्या बहुत कम है।

बूढ़े को अपनी बुद्धि पर भी कम गर्व नहीं । नालायक लड़के से लायक बहू का गठबंधन कर उसने प्रमाणित कर दिया है कि वह बूढ़े विधाता के जोड़ का ही खिलाड़ी है, रत्ती – माशा भर भी बुद्धि में कम नहीं ! यदि होता, तो विधाता महाराज उसे बूढ़ौती में बलात् संन्यास ग्रहण के लिए बाध्य कर डालते। अब वह केवल उसी की बुद्धि का प्रताप है कि वह उनके फैलाए जाल से निकल कर मुन्नू का आजा बनकर बहू के हाथ की ही नहीं, उसके परिश्रम से अर्जित अन्न की रोटी खाता और खरहरी साढ़े तीन पाये की खटिया पर सगर्व आसीन होकर तंबाकू पीता है।

जिस लड़के का पुरुषार्थ ऐसी परिश्रमी और सुशील वधू खरीद लाया है, उसे नालायक मानना भी घोर अन्याय है। स्त्री की प्राप्ति और संतान की सृष्टि ही पुरुष की लियाकत का लक्ष्य है। इस लक्ष्य तक पहुँच जाने वाला पुरुष और अधिक योग्यता का बोझ व्यर्थ ही क्यों ढोता फिरे । अतः शुद्ध उपयोगितावाद की दृष्टि से भी हथ का निष्कर्म जीवन व्यर्थ नहीं। उसके पिता ने अपनी बुद्धिमत्ता से अपने तथा पुत्र के जीवन की अच्छी व्यवस्था करके ब्रह्मा के अंक भी मिटा दिए हैं। अब वे अपना मृत्यु-रूपी ब्रह्मास्त्र न चलावें, तो वह पौत्र के जीवन की व्यवस्था भी कर सकता है और लायक पौत्र वधू के हाथ की रोटी खाकर सगर्व स्वर्ग के लिए प्रस्थान कर सकता है।

इस परम योग्य वृद्ध की वधू का जीवनवृत्त भी विचित्र है। उसने रीवा के आस-पास के किसी गाँव के एक निर्धन कथावाचक के घर जन्म लिया था। माँ उसकी बचपन में ही दिवंगत हो गई; पर बाप ने सत्यनारायण की पोथी के साथ-साथ उसे भी सँभाला। एक बगल में लाल कपड़े में लिपटी पोथी और दूसरे में टूनी रंग की फरिया – ओढ़नी में सजी हुई बालिका को दबाए हुए वह दूर-दूर के गाँवों तक कथा बाँचने के लिए चला जाता।

बालिका को कोने में प्रतिष्ठित कर वह शुद्ध-अशुद्ध संस्कृत शब्दों को जोर- जोर से पढ़कर पांडित्य प्रदर्शन करने बैठता; पर बीच-बीच में सबकी आँख बचाकर नवग्रह पर चढ़े पैसों और कोने में अचल बैठकर ऊँघती हुई लड़की की ओर देखना नहीं भूलता। फटी और मैली पिछौरी में पंजीरी गठिया कर और कुल्हड़ में पंचामृत लेकर वह कभी-कभी रात होने पर घर लौट पाता।

प्रसाद यही अधिक होता तो दोनों वही खाकर भोजन के झंझट से मुक्ति पाते, अन्यथा बालिका पँजीरी फाँककर और पंचामृत पीकर सो रहती और बाप भूखा ही लेट जाता।

निर्धन और मातृहीन बालिकाओं को बड़े होते देर नहीं लगती, क्योंकि आवश्यकता और स्वभाव दोनों मिलकर समय की कमी पूरी करके उन्हें असमय ही विशेष समझदार बना देते हैं। बूटा भी छः वर्ष की अवस्था से ही छोटे-छोटे काम करने लगी थी, पर सातवें वर्ष से तो वह बाप की गृहस्थी ही सँभालने लगी।

बड़े लोटे में पानी ला- लाकर वह छोटी कलसी भर देती, नीचे पड़ी हुई सूखी टहनियाँ और सूखा गोबर बीन लाती तथा गीला आटा सानकर जली रोटियाँ सेंक लेती।

इन सब कामों में उसे कष्ट नहीं होता था, यह कहना मिथ्या होगा; पर बाप को सहायता पहुँचाने का सुख, दुःख से गुरु ठहरता था । कभी नीची-ऊँची टहनियाँ तोड़ने के प्रयास में घुटने छिल जाते, कभी पानी लाते समय ठोकर लगने से नाखून टूट जाते और कभी रोटी सेंकने में उँगलियाँ जल जातीं। रोने की प्रबल इच्छा रोककर वह चुपके से चोट पर कडुआ तेल लगा लेती और जली उँगली पर गीला आटा लपेटकर ठंडक पहुँचाती।

बाप तो मानो सातवें आसमान पर पहुँच गया था। उसकी बुटिया घर-गृहस्थी सँभालने योग्य हो गई, इससे बढ़कर गर्व की बात और हो भी क्या सकती थी ! जब वह कथा बाँचने जाता, तब उसके लम्बे-लम्बे डगों से पीछे न रहने के लिए अपने नन्हें पैरों को जल्दी-जल्दी धरती हुई बुटिया बाप का साथ देती। श्रोता के घर पहुँचकर वह कथा के लिए आवश्यक वस्तुएँ ला- लाकर पिता के सामने रखती और जब तक कथा समाप्त न होती, कोने में अचल मूर्ति की तरह बैठी रहती। अब वह पहले के समान ऊँघती नहीं वरन् पिता के अगाध पाण्डित्य पर पुलकित और विस्मित होती हुई बड़े मनोयोग से कथा सुनती और कौन-सा पात्र बन जाता उसके लिए अच्छा होगा, इसकी विवेचना करती रहती ।

लौटते समय बाप सत्यनारायण की कथा की पोथी और पंचामृत का पात्र थामता और बेटी पिछौरी में बँधे नारियल, सुपारी, पँजीरी आदि की गठरी सिर पर रख लेती। मार्ग में वह लीलावती, कलावती के सम्बन्ध में इतने प्रश्न करती हुई चलती कि कथावाचक बेटी की बुद्धि पर विस्मित हुए बिना न रहता। पर इस विस्मय के बीच- बीच में खेद की एक छाया भी झाँक जाती थी । यदि बुटिया पुत्र होती, तो वह उसे संसार में सबसे श्रेष्ठ कथावाचक बना देता, पर बेटी के रूप में तो वह पराई धरोहर है। अच्छे घर पहुँच जाय यही बड़ा भाग्य है ।

पराई धरोहर लौटाने से पहले ही कथावाचक के लिए ऐसा बुलावा आ पहुँचा, जिसे अस्वीकार करने की क्षमता किसी में नहीं है। जब वह ज्वर से पीड़ित था तभी उसका एक ऐसा गुरुभाई आ पहुँचा, जिसका परिचय गोस्वामी जी के शब्दों में ‘नारि मुई गृह- सम्पत्ति नासी, मूँड़ मुड़ाय भये संन्यासी’ ही हो सकता था । अन्य सम्बन्धियों के अभाव में इसी भ्रमणशील गुरुभाई को कन्या का भार सौंपकर कथावाचक किसी अन्य लोक में जीवन कथा सुनाने के लिए चल दिया।

नौ वर्ष की बूटा समझदार होने पर भी मृत्यु- जीवन के सम्बन्ध में बहुत क जानती थी। घर में कोई और रोने-पीटने वाला न होने के कारण उसने पिता की महानिद्रा को साधारण नींद ही समझा, इसी से उसे खेलने के लिए दूसरे घर भेज देना सहज हो गया। लौटने पर सूना घर देखकर उसने जब रोना-धोना आरम्भ कर दिया, तब नये काका का आश्वासन – भरा कण्ठ भी उसे चुप न कर सका। उसका पिता डोली में बैठकर वैद्य के पास गया है इस कथन पर उसे विश्वास भी था और सन्देह भी। कई गाँवों के अन्तर पर पिता के परिचित एक वैद्य रहते थे, इसी से यह कहानी कुछ असम्भव नहीं लगती थी, पर उसका पिता उसे छोड़कर कभी कहीं गया नहीं, यह विचार इस आकस्मिक गमन को सन्दिग्ध बना देता था ।

अन्त में वह सब कुछ जान ही गई और अपने एकाकी जीवन के एकमात्र संगी पिता के लिए अच्छी तरह रोकर उसने नये काका की सेवा का भार सँभाला। वह स्वभाव से इतना कठोर और व्यवहार में इतना सहानुभूति-शून्य था कि उससे पिता का अभाव भर लेना सम्भव ही नहीं हो सका; पर समझदार बूटा ने अपने व्यवहार से यह नहीं प्रकट होने दिया ।

भ्रमण-प्रेमी नये काका ने जब पुराना कच्चा घर बेचकर दूर देश चलने का प्रस्ताव किया, तब बालिका ने बड़े कष्ट से आँसू पीकर अपनी सम्मति प्रकट की। पिता की स्मृति से बसे हुए घर में उसे कभी नहीं जान पड़ा कि वह अकेली है। सदा के समान वह पिता की शालग्राम की बटिया को स्नान कराके डिबिया में रख देती थी, सत्यनारायण की पोथी को नित्य आँचल से झाड़-पोंछकर और चिरपरिचित लाल दुरजनी में बाँधकर खूँटी पर लटका देती थी और उसके बैठने के स्थान को गोबर से लीपने के उपरान्त कुश का आसन बिछाकर पिता के बैठे रहने की कल्पना करती थी।

पर अन्तिम समय में पिता बुटिया को सौंपकर, जिस पर अपने अटूट विश्वास का प्रमाण दे गया था, उसकी इच्छा के विरुद्ध चलना पिता का अपमान था । इसी से एक दिन पुरानी ओढ़नी में पिता का पोथी – पत्रा, अपने बचपन के खिलौने और दो-एक बर्तन बाँधकर वह नये काका के साथ-साथ पैर बढ़ाती हुई परिचित गाँव पीछे छोड़ आई।

उसका घर किसी महाजन ने खरीद लिया था; पर कितना रुपया मिला और उसका क्या उपयोग हुआ; यह नया काका ही जानता था ।

बनजारे के जीवन जैसे जीवन में उसने क्या नहीं देखा, यही प्रश्न सम्भव है, क्या-क्या देखा, यह पूछना बेकार होगा, क्योंकि उसके देखने की सीमा बहुत विस्तृत है।

इसी भ्रमण-क्रम में वह माघ मेले के अवसर पर प्रयाग पहुँचा और नाव में बैठकर अरैल घाट पर उतरा। लोग कहते हैं कि वह बालिका को बेचने की इच्छा से आया था, पर इस कथन में विशुद्ध सत्य का अंश कितना है और अनुमान की मिलावट कितनी, यह बताना कठिन है। मेले के दिनों में घाट पर दो पैसा फी आदमी के हिसाब से टैक्स लगता है। काका के पास पैसे नहीं निकले, इसी से वह इधर- उधर करने लगा। सम्भवतः उसकी घबराहट और उसके पीछे अनिच्छा से आने वाली बालिका की सभीत मुद्रा देखकर घाट वाला पूछ बैठा—इसे कहाँ से उठा लाया है? अब इसे चोर की दाढ़ी में तिनके कहा जाय चाहे कुछ और; पर यह सत्य है कि काका बूटा को. वहीं छोड़कर दूकान में रुपया भँजाने जो गया, सो आज तक नहीं लौटा।

अभागी बालिका प्रतीक्षा करते-करते थककर अपनी गठरी पर सिर रखकर आर्त क्रन्दन करने लगी। तब तो घाटवालों को विशेष चिन्ता हुई । कायदे-कानून के घेरे में पचासों चक्कर लगाकर जब उन्होंने अपने कर्त्तव्य का भार उतारने के लिए एक ब्राह्मण परिवार खोज लिया, तब से उस बालिका की खोज-खबर लेने की उन्हें कोई आवश्यकता नहीं जान पड़ी।

इस नये घर में अपने पिता का पोथी- पत्रा आले में रखकर और शालग्राम को ब्राह्मण के ठाकुरजी की सभा का सदस्य बनाकर उसने फिर सेवा व्रत सँभाला।

बूढ़े ब्राह्मण की बेटियाँ ससुराल में थीं और पुत्र तथा पुत्रवधू बड़े-बूढ़े का पद- ग्रहण करने के लिए आवश्यक, विशेष योग्यता की परीक्षा दे रहे थे। इस अनाथ बालिका के आ जाने से, उन सभी को एक निष्काम सेवक की प्राप्ति हो गई। वह निरीह भाव से घर के सभी काम अपने ऊपर ले रही थी । वृद्ध के पंचपात्र और आचमनी साफ करने से लेकर उनकी खड़ाऊँ धोने तक का काम वह करती थी । ब्राह्मणी की पीठ मलने से लेकर उसकी खटिया कसने तक का अधिकार उसी को था। बहू की जुएँ देखने से लेकर उसका सलूका सीने तक का विज्ञान वह समझती थी। लड़के की चिलम भरने से लेकर उसके चमरौधे जूते में तेल लगाना तक उसके कर्त्तव्य के अन्तर्गत था। उसका स्वभाव सोना था, इसी से वह दुःख की आँच में और अधिक निखर आया; राख और कोयला नहीं बन गया।

इसी बीच में हथई के बाप ने इस सलज्ज, परिश्रमी और मितभाषिणी बालिका को देखा और अज्ञात कुल-शील होने पर भी उसे पुत्रवधू बनाने का प्रस्ताव कर बैठा ।

ससुराल में हाड़-चाम के इन दो पुतलों के अतिरिक्त कुछ शेष नहीं था, इसी से एक चुनरी और कुछ कच्ची चूड़ियों के चढ़ावे पर ही वधू को सन्तोष कर लेना पड़ा। ब्राह्मणी का न जाने कब का रखा हुआ पुराना छींट का लहँगा ही उस चुनरी का पूरक बना।

इस तरह के नये-पुराने परिधान में सज्जित, कच्ची काँच की चूड़ियों से अलंकृत और सिन्दूर की एक अंगुल मोटी माँग से प्रसाधित वधू, पन्नी और हरे कागज की मौरी का मुकुट लगाकर, ससुर के अँधेरे कच्चे घर के द्वार पर आ खड़ी हुई। टूटी मटकियों से सम्पन्न और मकड़ी, चूहे, छिपकली आदि से जनाकीर्ण घर में उसके स्वागत के लिए भी कोई नहीं था ।

पास-पड़ोस की स्त्रियों ने परिछन करके उसे फटी चटाई पर प्रतिष्ठित कर दिया और वधू -धर्म की विविध व्याख्याएँ सुनाकर वे अपने-अपने साम्राज्य में लौट गईं।

उसकी धर्ममाता, पकवान से भरी लाड़पिटारी साथ रखना नहीं भूली थी। उसे तो भूख ‘ही नहीं थी; पर उन बेटों ने विवाह का प्रीतिभोज उसी से सम्पन्न किया।

थका हुआ हथई टिमटिमाते हुए दीपक के सामने कम्पित अन्धकार भरे को में लेटकर खर्राटे भरने लगा। और वहीं पैताने सिकुड़ कर बूटा ने भी सबेरा कर दिया ।

हथई तो उठते ही मित्रों की खोज में चला गया और वृद्ध ने यमुना मैया की ओर जाते-जाते खाँस-खाँस कर वधू से कहा- “दुल्हिनिया, आपन घर सँभार ले, हम तौ जाइत है।’ दुल्हिन ने घर को ऊपर से नीचे तक देखकर झाड़ू सँभाली और मकड़ी, झींगुर आदि पर जिहाद बोल दिया। वृद्ध जब तक कुछ चावल-दाल लेकर लौटा, तब तक वधू घर लीप-पोतकर यमुना नहा आई थी। बहू ने बिना ढक्कन वाली बटलोई में खिचड़ी चढ़ाकर उसे फूटी थाली से ढाक दिया और ससुर देहली पर बैठकर उसे अपने अच्छे दिनों की कहानी सुनाने लगा। तब तक एक दोने में गुड़ में पगे सेव लेकर सीटी बजाता हुआ हथई भी लौट आया।

कई टूटी-फूटी मटकियों में हाथ डाल डालकर वधू ने अमचुर का पता लगाया और नमक-मिर्च के साथ उसे पीसकर चटनी प्रस्तुत की । गृहिणी की गम्भीरता को घूँघट में सीमित कर उसने फटी चटाई का आसन बिछा और कई जगह टेढ़े लोटे में यमुना जल भर कर, बाहर तम्बाकू पीते हुए ससुर को कुण्डी खनकाकर बुलाया। पकवान और गुड़ के सेव दोने में रखकर और फूटी थाली में खिचड़ी परोस कर जब वह उन दोनों को खिलाने बैठी, तब उसके हृदय में एक अज्ञातनामा ममता उमड़ आई। ‘बिन घरनी घर भूत का डेरा’ का जितना सजीव उदाहरण वह घर और उसके निवासी थे, उतना अन्यत्र मिलना कठिन होगा।

इसी घर में उन दोनों विचित्र आत्माओं की चिन्ता करते-करते वह तेरह वर्ष की बालिका से तेईस वर्ष की युवती हो गई है, नववधू से माता बन गई है। उसकी चिन्ता का विस्तार, बढ़ते-बढ़ते अब सीमा तक पहुँच चुका है; पर स्वयं उसकी चिन्ता करने का प्रश्न अभी तक किसी के मन में नहीं उठा।

वहीं खण्डहर में संयोग से मेरा उसका परिचय हो गया और वह परिचय दिन- प्रतिदिन और अधिक गहरा होता गया। पहले-पहले मैंने मुन्नू और मुन्नू की माई को प्रदर्शनी दिखाने के लिए बुला भेजा। सज्जी से साफ की हुई पुरानी धोती में सजी हुई माँ और नग्नता का दोष मिटाने के लिए दादा का फटा अंगोछा पहने हुए बेटा- दोनों जब मेरे बड़े कमरे के सामने पहुँचे, तो उन्होंने उसी को नुमाइश समझकर मूर्तियों को दंडवत प्रणाम करना आरम्भ किया। सन्ध्या समय जब वे भक्तिन के संरक्षण में प्रदर्शनी देखने पहुँचे, तब तो उस सौन्दर्य की हाट में बेहोश होते-होते बचे।

तब से मुन्नू की माई ‘हम तौ आज नैहरे जाब’ कहकर प्रायः यहाँ चली आती है। मेरा घर उसका एकमात्र नैहर है। यह सोचकर मन व्यथित होने लगता है।

अन्न का संकट आरम्भ होते ही आजीविका का प्रश्न और अधिक उग्र हो उठा। हथई को बहुत कह सुनकर किले में काम करने भेजा; पर वह वहाँ टिक न सका। एक तो उसके स्वभाव और काम में छत्तीस का सम्बन्ध है, दूसरे अपने कमाये हुए पैसों का वह एक ही उपयोग जानता है।

अन्त में बहुत संकोच के साथ मुन्नू की माई ने स्कूल में कोई काम देने की बात कही। उन्हें जीवन भर अपने पास रखकर मुझे प्रसन्नता होगी, यह बार-बार कहने पर भी मुन्नू की माई बिना काम के यहाँ आने के लिए राजी नहीं हुई। तब निरुपाय होकर मैं उसके लिए कम परिश्रम का काम खोज दिया; पर विश्राम तो उसके लिए अपराध जैसा था। वह नित्य बैलगाड़ी में बैठकर जाती और लड़कियों को घर के भीतर से बुलाकर गाड़ी पर ही लौट आती। शेष समय में वह किसी गाड़ीवान की मिर्जई सीती, किसी दाई की कथरी बनाती और कोई काम न रहने पर मेरे घर के कोने-कोने की सफाई में लगी रहती। मुन्नू खाकर और नया कुरता – पैजामा पहनकर कभी आ, ई लिखता, कभी कुत्ते-बिल्ली से खेलता और कभी मेरे आफिस के दरवाजे पर बैठा रहता।

रात को दोनों माँ-बेटे जमीन पर दरी बिछाकर मेरे तख्त के पास ही सो रहते । बहुत कहने-सुनने पर भी मुन्नू की माई ने धरती पर सोने का अभ्यास छोड़ना स्वीकार नहीं किया।

मैंने सोचा था कि उसके परिश्रम के दिन बीत गये; पर यह अनुमान सत्य नहीं हो सका। एक दिन भौंहों तक घूँघट खींच संकोच के साथ मुन्नू की माई ने कहा कि वह अरैल जाना चाहती है। बूढ़ा दो – दो दिन खाना नहीं खाता, उसका बेटा कई-कई दिन गायब रहता है। आठ-दस दिन में एक दिन के लिए देख आना पर्याप्त नहीं; क्योंकि उसके न रहने से वहाँ की व्यवस्था चल ही नहीं सकती। उसके कथन से सत्य का मैंने अनुभव किया और उसे भेजने का प्रबन्ध कर दिया।

इस बार मैं अधिक समय तक अरैल जाने की सुविधा न पा सकी। जब गई तब माघ मेले की तैयारियाँ हो रही थीं। मुन्नू की माई को घर में न देखकर मैंने पूछताछ की। पता चला, वह संगम के उस पार मजदूरी के लिए जाती है। वहाँ माघ मेले के लिए जमीन बराबर की जा रही है और बहुत-से व्यक्ति काम में लगे हैं। वह भी टोकरी भर-भर के मिट्टी ढोती है। बीच में एक घंटे के लिए छुट्टी मिलती है अवश्य; पर वह आवे कैसे! नाववाला इस पार पहुँचाने के लिए दो पैसे लेता है। सबेरे-साँझ आने- जाने में ही एक आना खर्च हो जाता है। बीच में आने-जाने से एक आना और देना पड़ेगा। इसी से वह भूखी-प्यासी सबेरे से साँझ तक धूप में मिट्टी ढोती है और शाम को मिली मजदूरी से आटा-दाल खरीदकर दिया जले लौटती है। बाँभनी ठहरी— रोटी बाँधे-बाँधे तो फिर नहीं सकती। मल्लाह-मजदूर आदि के बीच में छुआछूत से बच जाना कठिन ही है।

वह ब्राह्मण होकर मिट्टी ढोये, यह न उसके सजातीयों को पसन्द था न घरवालों को; पर इस सम्बन्ध में उसने कोई तर्क नहीं सुना। उसकी भूख प्यास का सम्बन्ध केवल उससे है, इसी से उसने न रोटी ले जाने का हठ किया और न बीच में घर आने की फिजूलखर्ची स्वीकार की; पर उसके परिश्रम के परिणाम पर अनेक व्यक्तियों का जीवन निर्भर है, अतः इस सम्बन्ध में निर्णय करने का अधिकार वह दूसरे को सौंप नहीं सकती। परिश्रम के तप में पली यह नारी यदि भिक्षाजीवी ब्राह्मणत्व से मिट्टी ढोने को अच्छा समझती है, तो यह उसकी व्यक्तिगत विवशता है। किन्तु लीक-लीक चलनेवाला समाज यदि ऐसे आडम्बरों को निरंकुश बहने दे, तो उसकी एक लीक भी न बच सके। इसी से मजदूरिन ब्राह्मण-वधू ब्रह्मतेज -सम्पन्न भिक्षुक-समाज की आँख की किरकिरी है।

सन्ध्या समय लटों से लेकर पाँव के नखों तक धूल-धूसरित मुन्नू की माई घर लौटी, दिया जलाकर पानी भरने गई और अदहन में दाल छोड़ने के उपरान्त मुझे नमस्कार करने आई।

इस व्यवस्था से मुन्नू बेचारा बड़े कष्ट में पड़ गया था; क्योंकि उसे धूल-मिट्टी से बचाने और खाने-पीने की सुविधा देने के लिए, माँ घर ही छोड़ जाती थी। रोटी कभी वह रात ही को बनाकर रख देती और कभी पाँच बजे सबेरे । बाबा या पिता के साथ खाने-पीने का कार्यक्रम समाप्त हो जाने पर वह दिन-भर क्या करे, यह समस्या सुलझाना कठिन था।

कभी वह बाबा के साथ यमुना किनारे चला जाता, कभी निठल्ले बालकों में खेलता और कभी अपने पीपल के नीचे बैठकर, आँखें मिचमिचाता हुआ पार की भीड़ में अपनी माँ को पहचानने का निष्फल प्रयत्न करता। जब इस पार के बड़े-बड़े आदमी भी उस पार पहुँचकर कीड़ों की तरह रेंगने लगते हैं, तब उसकी दुबली-पतली और सबसे नाटी माँ का क्या हाल हुआ होगा, यह विचार उसके नन्हें हृदय को मथ डालता। सन्तोष इतना ही था कि इस पार पहुँचते-पहुँचते उसकी माँ वही मुस्कराती हुई माँ बन जाती थी। वे सब पार जाकर इतने छोटे क्यों हो जाते हैं, इस प्रश्न को, वह सबसे दीर्घकाय ठाकुर दादा से लेकर सबसे छोटे नन्हकू तक से पूछ चुका था; पर किसी ने भी उसकी जिज्ञासा का महत्त्व नहीं समझा।

जब कभी मैं अरैल पहुँच जाती थी, तब उसका सारा समय मेरे पास ही बीतता था, इसी से उस एकाकी बालक के स्वभाव की विशेषता मुझसे छिपी न रह सकी।

बालक मेधावी है। उसका प्रत्येक वस्तु को देखने का और उसके सम्बन्ध में मत देने का ढंग अन्य बालकों से भिन्न है। एक बार रात के समय यमुना के पुल पर रेल को जाते देख, वह पुकार उठा – ‘गुरुजी, गुरुजी, दीवारी भगी जात है’ तब मुझे बहुत आश्चर्य हुआ। विशेष पूछने पर उसने बड़े जानकार के समान सिर हिलाकर कहा— ‘उहै रेलिया बाटै गुरुजी ! अँधियारे में दिया बारे भागी जात है!’ रात के अंधकार में पुल पार करने वाली ट्रेन का बाह्याकार अँधेरे में मिल जाता है और वह भागते हुए दीपों की पाँति जैसी दिखाई देती है, यह सत्य है, पर इस कवित्वमय सत्य को मुन्नू के मुख से सुनकर किसे आश्चर्य न होगा !

संगीत से भी उसे विशेष प्रेम है। जहाँ-तहाँ सुने हुए भजन वह कंठस्थ ही नहीं कर लेता, वरन् उसी राग के अनुसार गाने का प्रयत्न भी करता । संकोच के मारे मेरे सामने वह अपनी समस्त विद्या प्रकट नहीं कर पाता। बार-बार आरम्भ करके और बार-बार रुककर जब वह पराजय की स्वीकारोक्ति के समान कहता है- ‘का जाने काहे गुरुजी के सामने तौ सब बिसर जात है’, तब हँसी रोकना कठिन हो जाता है।

इन बालकों को निरुद्देश्य धूप में भटकते और स्त्रियों को अकारण लड़ते देखकर ही मेरे मन में एक ऐसी पाठशाला खोलने की इच्छा उत्पन्न हुई, जिसमें स्त्रियाँ अवकाश के समय कातना – बुनना सीख सकें, बच्चे पढ़ सकें और बूढ़े समाचार-पत्र सुन सकें। वैसे अरैल में इस प्रकार की पाठशाला के सम्बन्ध में मतभेद हो सकता है; परन्तु मेरे मस्तिष्क में उत्पन्न विचार कार्य में अपनी अभिव्यक्ति अनिवार्य कर देता है।

थोड़े ही दिन में जब चरखे, करघे, पुस्तकें आदि आवश्यक उपकरण एकत्र हो गये, तब वहाँ नियमित रूप से रह सकने वाली शिक्षक की खोज हुई, क्योंकि मैं तो सप्ताह में एक-दो दिन ही वहाँ रह सकती थी; पर यह समस्या भी सुलझ गयी ।

भक्तिन जब बुढ़ापे के कारण कुछ शिथिल होने लगी, तब मैंने उसका असिस्टेंट बनाकर अनुरूप को रख लिया था। उस अहीर – किशोर का अक्षर ज्ञान और पढ़ने की इच्छा देखकर उसे पढ़ाना भी आवश्यक हो गया। जब वह सम्मेलन की प्रथमा परीक्षा तक पहुँच चुका, तब उसे भक्तिन की सहायता से अधिक महत्त्वपूर्ण कर्तव्य सौंपना उचित जान पड़ा, इसी से उसको पढ़ाने की शिक्षा देकर अपनी विचित्र पाठशाला में रखने का प्रबंध किया । कताई-बुनाई जाननेवाली एक वृद्धा भी वहाँ रहने को प्रस्तुत हो गई ।

परंतु करघा, चरखा आदि मेरी बिना दरवाजे की चौपाल में रखे नहीं जा सकते थे। बस्ती में सब के घर ऐसे थे, जो उनके परिवार के लिए ही छोटे लगते थे। नए घर और जमीन का प्रबंध, मेरी शक्ति से बाहर था।

तब मुझे वह सूना पड़ा हुआ पक्का घर याद आया, जिसका पिछला खंड कच्चा होने के कारण हर बरसात में ढहता रहता है। गृहस्वामी के संबंध में ज्ञात हुआ कि वे बाईस वर्ष से उस ओर आने का अवकाश नहीं निकाल सके । माघ के महीने में दो-चार दिन के लिए जब उनके यहाँ से दो-चार व्यक्ति आ जाते हैं, तब जालों से ढके झरोखों से निकलता हुआ कंडों का धुआँ उस परित्यक्त खँडहर का दीर्घ निःश्वास जैसे दिखाई देता है। शेष समय में वह प्रेत जैसी निस्पंद और भीषण रहस्यमयता लिए हुए खड़ा रहता है। जिन पंडा महोदय के पास इस शून्य की कुंजी थी, वे बेचारे भी प्रस्ताव पर उत्फुल्ल हो उठे और धूल में खेलने वाले भावी विद्यार्थी भी उसकी कठिन दीवारों से चिपक चिपक कर उसे अपना कहने लगे। जब पंडाजी से पता चला कि इस रहस्यमय घर के स्वामी नई गढ़ी के ठाकुर गोपालशरणसिंहजी हैं, तब सफाई के लिए मजदूर लगाकर मैंने उन्हें इस संबंध में लिखा ।

उनकी स्वीकृति के संबंध में मेरे मन में कोई दुविधा नहीं थी; इसी से जब उनकी दृष्टि में मेरे उपयोगितावाद का विशेष महत्त्व नहीं ठहरा, तब मुझे विस्मय से अधिक ग्लानि हुई ।

आज तो मेरा लोक-ज्ञान बहुत विस्तार पा चुका है। बड़े कलाकार की तो बात ही क्या, जो एक तुक भी मिला सकता है या एक छोटी घटना की कल्पना भी कर सकता है, उससे मैं उपयोगिता की चर्चा नहीं करती। कलाकार यदि मेरी तरह घूरों को लीपता घूमे, तो वह अमर होने का उद्योग कब करे ! अंत में मैंने चरखे एक गाँव में भेज दिए, करघा दूसरे को दे डाला, वृद्धा को दूसरा काम खोज दिया और अनुरूप को साक्षरता के प्रसार में शिक्षक बनाकर अपना वचन पूरा किया।

अब भी मैं अरैल जाती हूँ और चौपाल में बैठकर मुन्नू का गीत और उसकी माई की कथा सुनती हूँ। वह पक्की इमारत गर्व से सिर उठाए अधिकार की शून्यता की घोषणा करती है और उसका कच्चा खंडहर विरक्त भाव से सुनता रहता है।

उसके किसी कोने से बाहर आकर कोई बालक कह देता है- ‘बहुत दिनन माँ दिखान्यू माईजी’ और कोई पूछ बैठता है – ‘हमार इस्कुलिया कब खुली माई ?’ उत्तर में मेरा सारा आक्रोश पुकार उठना चाहता है- ‘अरे अभागे ! तुम्हारा गाँव जरायमपेशा है, तुम्हारे बाप-दादा ने अपना जीवन नष्ट करके इसके लिए यह ख्याति कमाई है। तुम जुआ खेलो, चोरी सीखो पर भले आदमियों के अधिकार में हस्तक्षेप करने का दुस्साहस न करो।’ पर, धूलभरी बरुनियों से घिरी और मलिन पलकों में जड़ी हुई उन तरल आँखों की चकित सभी दृष्टि मेरा कंठ रुँध देती है, तब मैं बिना किसी ओर देखे नाव की ओर पैर बढ़ाती हूँ ।

लेखक

  • महादेवी वर्मा

    श्रीमती महादेवी वर्मा का जन्म फ़रुखाबाद (उ०प्र०) में 1907 ई० में हुआ था। इनकी प्रारंभिक शिक्षा इंदौर के मिशन स्कूल में हुई थी। नौ वर्ष की आयु में इनका विवाह हो गया था। परंतु इनका अध्ययन चलता रहा। 1929 ई० में इन्होंने बौद्ध भिक्षुणी बनना चाहा, परंतु महात्मा गांधी के संपर्क में आने पर ये समाज-सेवा की ओर उन्मुख हो गई। 1932 ई० में इन्होंने इलाहाबाद से संस्कृत में एम०ए० की परीक्षा उत्तीर्ण कीं और प्रयाग महिला विद्यापीठ की स्थापना करके उसकी प्रधानाचार्या के रूप में कार्य करने लगीं। मासिक पत्रिका ‘चाँद’ का भी इन्होंने कुछ समय तक संपादन-कार्य किया। इनका कर्मक्षेत्र बहुमुखी रहा है। इन्हें 1952 ई० में उत्तर प्रदेश की विधान परिषद का सदस्य मनोनीत किया गया। 1954 ई० में ये साहित्य अकादमी की संस्थापक सदस्या बनीं। 1960 ई० में इन्हें प्रयाग महिला विद्यापीठ का कुलपति बनाया गया। इनके व्यापक शैक्षिक, साहित्यिक और सामाजिक कार्यों के लिए भारत सरकार ने 1956 ई० में इन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया। 1983 ई० में ‘यामा’ कृति पर इन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान ने भी इन्हें ‘भारत-भारती’ पुरस्कार से सम्मानित किया। सन 1987 में इनकी मृत्यु हो गई। रचनाएँ – इनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं- काव्य-संग्रह – नीहार, रश्मि, नीरजा, यामा, दीपशिखा। संस्मरण – अतीत के चलचित्र, स्मृति की रेखाएँ पथ के साथी, मेरा परिवार। निबंध-संग्रह – श्रृंखला की कड़ियाँ आपदा, संकल्पिता, भारतीय संस्कृति के स्वर। साहित्यिक विशेषताएँ – साहित्य सेविका और समाज-सेविका दोनों रूपों में महादेवी वर्मा की प्रतिष्ठा रही है। महात्मा गाँधी की दिखाई राह पर अपना जीवन समर्पित करके इन्होंने शिक्षा और समाज-कल्याण के क्षेत्र में निरंतर कार्य किया। ये बहुमुखी प्रतिभा की धनी थीं। ये छायावाद के चार स्तंभों में से एक हैं। इनकी चर्चा निबंधों और संस्मरणात्मक रेखाचित्रों के कारण एक अप्रतिम गद्यकार के रूप में भी होती है। कविताओं में ये अपनी आंतरिक वेदना और पीड़ा को व्यक्त करती हुई इस लोक से परे किसी और सत्ता की ओर अभिमुख दिखाई पड़ती हैं, तो गद्य में इनका गहरा सामाजिक सरोकार स्थान पाता है। इनकी श्रृंखला की कड़ियाँ कृति एक अद्वतीय रचना है जो हिंदी में स्त्री-विमर्श की भव्य प्रस्तावना है। इनके संस्मरणात्मक रेखाचित्र अपने आस-पास के ऐसे चरित्रों और प्रसंगों को लेकर लिखे गए हैं जिनकी ओर साधारणतया हमारा ध्यान नहीं खिच पाता। महादेवी जी की मर्मभेदी व करुणामयी दृष्टि उन चरित्रों की साधारणता में असाधारण तत्वों का संधान करती है। इस तरह इन्होंने समाज के शोषित-पीड़ित तबके को अपने साहित्य में नायकत्व प्रदान किया है। भाषा-शैली – लेखिका ने अंतर्मन की अनुभूतियों का अंकन अत्यंत मार्मिकता से किया है। इनकी भाषा में बनावटीपन नहीं है। इनकी भाषा में संस्कृतनिष्ठ शब्दों की प्रमुखता है। इनके गद्य-साहित्य में भावनात्मक, संस्मरणात्मक, समीक्षात्मक, इत्तिवृत्तात्मक आदि अनेक शैलियों का रूप दृष्टिगोचर होता है। मर्मस्पर्शिता इनके गद्य की प्रमुख विशेषता है।

    View all posts
मन्नु की माई/महादेवी वर्मा

प्रातिक्रिया दे

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *

×