प्रकृति करती ज्यों तो किसी का तिरस्कार नहीं
अत्याचार होता जब मानव का उस पर
प्रतिशोध में करती उसका वहिष्कार यहीं ।
काश ! मनुष्य तुम समझ पाते
बदौलत जिसके तुम स्वस्थ्य जीवन जीते,
दमन उसी का करने पर तुलते
क्यों दुःख दर्द के आँसू पीते
पेड़ पौधे जो शुद्ध हवा देते
उन्हीं को काट कर कैसा जीवन जीते
पहाडों को काट कर समतल बनाते ।
वातावरण की नमी को ही सुखाते ।
दुरूपयोग जल का तुम करते।
कारखानों के उठते शोर से,
गाड़ियों के प्रदूषण से,
ऊँची ऊँची इमारतों से,
धूप- हवा को छीनते तुम जाते ।
कब तक सहती जुल्म प्रकृति
उसने आखिर समझा ही दिया ।
कहीं सुनामी , कहीं सूखा,
कहीं भूकम्प तो कहीं जलजले का जलवा दिखला दिया।
अब भी सम्भल जा ए मानव
पीढ़ी अगली का क्या हश्र होगा !
क्या विरासत में देगा उनको
कैसे उनका बसर होगा !
प्रकृति/दया शर्मा