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कुण्डलियां/साधना ठकुरेला

चलती रहती जिंदगी , ज्यों कागज़ की नाव ।
लोग भटकते लक्ष्य से , करते नहीं चुनाव ।।
करते नहीं चुनाव , हवा खे कर ले जाती ।
कुछ हो जाती पार ,कहीं पर भँवर डुबाती ।
कहे ‘साधना’ सत्य , करो मत कोई गलती ।
हाथ रखो पतवार , नाव तब ढंग से चलती ।।

चढ़ती चींटी सर्वदा , अनथक करे प्रयास ।
ले जाती है शीर्ष तक , बस मंजिल की आस ।।
बस मंजिल की आस ,सदा श्रम करती जाती ।
हो जाता श्रम साध्य , और मंजिल को पाती ।
कहे ‘साधना’ सत्य ,लगन ही आगे बढ़ती ।
देती श्रम की सीख , तुच्छ चींटी जब चढ़ती ।।

जाला मकड़ी बुन रही , करके यही विचार ।
कीट फसेंगे जाल में , कर लूँ सहज शिकार ।।
कर लूँ सहज शिकार , मजे से पेट भरुँगी ।
ऐश करूँ दिन-रात , नहीं अब कभी मरूंगी ।
खुद फँस खुद के जाल , सहज बन गयी निवाला ।
ऐसे ही इंसान , बनाता रहता जाला।।

 

गढ़ता काँटा पैर में , देता भारी पीर ।
तीखी वाणी भी सदा , मन को देती चीर ।।
मन को देती चीर ,घाव ऐसा हो जाता ।
होते यत्न अनेक , नहीं फिर भी भर पाता ।
कहे ‘साधना’ सत्य ,विवेकी बस यह पढ़ता ।
तन ,मन रहे सचेत , न कोई काँटा गढ़ता ।।

नेकी कर के भूल जा , मत कर उसको याद ।
मिल जायेगा फल तुझे , कुछ दिन के ही बाद ।।
कुछ दिन के ही बाद ,मिले यश ,मान , बड़ाई ।
दे सुख अमित , अपार ,यही है नेक कमाई ।
कहे ‘साधना’ सत्य , याद रखना जाने की ।
मानव बनो प्रबुद्ध , करो तुम हर दिन नेकी ।।

पीड़ा दें संसार में , कुछ अपने ही कर्म ।
लेकिन जो अनभिज्ञ हैं , नहीं जानते मर्म ।।
नहीं जानते मर्म , दोष ईश्वर पर मढ़ते ।
कोसें अपना भाग्य , कहानी नित नव गढ़ते ।
कहे ‘साधना’ सत्य , सुखों की बाजे वीणा ।
करते रहो सुकर्म , हरे ईश्वर सब पीड़ा ।।

आजादी की आड़ में , नारी हुई असभ्य ।
रँगी पश्चिमी रंग में , खुद को समझे सभ्य ।।
खुद को समझे सभ्य, भूल बैठी मर्यादा ।
सभ्य जनों की सीख , न उसको भाती ज्यादा ।
कहे ‘साधना’ सत्य , कर रही खुद बर्बादी ।
विस्मित हैं सब लोग , भला ये क्या आजादी ।।

सेवा का अवसर मिले , तजो स्वार्थ , अभिमान ।
तन , मन से लग जाइये , खुश होता भगवान ।।
खुश होता भगवान ,परम पद पर बैठाता ।
बिन लालच का कर्म , सदा सम्मान दिलाता।
कहे [साधना’ सत्य ,मुफ्त में मिले न मेवा ।
निज दायित्व सँभाल , यही है सच्ची सेवा ।।

पाला जिसने भी यहाँ , अति लगाव का रोग ।
तृप्त नहीं कर पायेंगे , उसे जगत के भोग।।
उसे जगत के भोग ,लालसा बढ़ती जाये ।
जैसे घृत से आग , न बुझती कभी बुझाये ।
कहे ‘साधना’ सत्य, हो रहा क्यों मतवाला ।
कब उसका कल्याण , रोग जिसने यह पाला ।।

बेटी को दे दीजिये , शिक्षा औ’ संस्कार ।
भारत की संस्कृति बचे, फिर से करो विचार।।
फिर से करो विचार , अपाला और गार्गी ।
संस्कारों की देन , बनीं वे ज्ञान-मार्गी ।
कहे ‘साधना’ सत्य , खुशी की भर दे पेटी ।
समुचित करो विकास , कुलों को तारे बेटी ।

सपने देखो जागकर , और करो साकार ।
अनथक परिश्रम हो अगर , लेंगे वे आकार ।।
लेंगे वे आकार , नया निर्माण करोगे ।
हासिल होगा लक्ष्य , राष्ट्र का भला करोगे ।
कहे ‘साधना’ सत्य , कर्मफल होते अपने।
जो भी लेता ठान , सत्य हो जाते सपने ।।

योगी तन से हो गये , मन से गया न भोग ।
फिरते हैं बहुरूपिये, संत समझते लोग ।।
संत समझते लोग , भीड़ भक्तों की बढ़ती ।
धन-सम्पदा बटोर , कर रहे अपनी चढ़ती ।
कहे ‘साधना’ सत्य , जगत को ठगते भोगी ।
धन,पद,यश की चाह , न करता सच्चा योगी ।।

सुख-सुविधा ज्यादा मिली , रोगी हुआ शरीर।
आलस बढ़ता ही गया , भोग रहे अब पीर ।।
भोग रहे अब पीर , सुखों का करें दिखावा ।
हो यथार्थ से दूर , स्वयं से करें छलावा ।
कहे ‘साधना’ सत्य , न रहती कोई दुविधा ।
श्रम से बने शरीर , यही सच्ची सुख-सुविधा ।।

रोगी ,दीन , दरिद्र पर , करो अनुग्रह आप ।
हरो कुटुम्बी स्वजन के , तुम सारे संताप ।।
तुम सारे संताप , होय कल्याण तुम्हारा ।
गौरव बढ़ता जाय , बढ़ेगा भाईचारा ।
कहे ‘साधना; सत्य ,वही है सच्चा योगी ।
हरे सभी के कष्ट , दीन हो या हो योगी ।।

वाणी औ’ मन पर रखो , सदा नियंत्रण आप ।
स्वयं दूर हो जायेंगे , जीवन के संताप ।।
जीवन के संताप ,शीलनिधि लोग कहेंगे ।
आकर्षक व्यक्तित्व ,धनी हम बने रहेंगे ।
कहे ‘साधना’ सत्य , ठीक कब है मनमानी।
मन पर लगाम , सँभल कर बोलो वाणी ।।

सीमा पर लड़ते हुए , वीर दे रहे जान ।
उनको मिलना चाहिये , पग पग पर सम्मान ।।
पग पग पर सम्मान , हौसला नित्य बढ़ाऐं ।
मिले वीर को न्याय , सुरक्षित हों सीमाऐं ।
कहे ‘साधना’ सत्य , धन्य है आज वही माँ ।
जन्में वीर सपूत , सुरक्षित कर दे सीमा ।।

माता अपनी कोख से मत जन ऐसा लाल ।
करे कलंकित कोख को , झुके देश का भाल।।
झुके देश का भाल , सभ्यता नष्ट करेगा ।
जाए यदि परदेश , शर्म से डूब मरेगा ।
कहे ‘साधना’ सत्य , समय हमको समझाता ।
करे सुसंस्कृत वत्स , कोख में से ही माता ।।

 

रोटी ,कपड़ा और घर , सबको ही दरकार ।
इन तीनों ही वस्तु पर , सबका हो अधिकार ।।
सबका हो अधिकार ,और सब खुशी मनायें ।
स्वाभिमान के साथ ,सभी जीवन जी पायें ।
कहे ‘साधना’ सत्य , बात यह इतनी छोटी ।
जो कर ले पुरुषार्थ , मिले घर , कपड़ा , रोटी ।।

द्वापर में कब मिल सका , द्रुपद – सुता को न्याय ।
कलयुग में भी हो रहा , उसके प्रति अन्याय ।।
उसके प्रति अन्याय , बात कैसी गढ़ डाली ।
हुआ प्रचारित झूँठ , द्रोपदी ने दी गाली ।
कहे ‘साधना’ सत्य ,महाभारत समझाकर ।
दो नारी को न्याय , भले कलयुग या द्वापर ।।

शुक्ल पक्ष का चाँद है , भले व्यक्ति का नेह ।
कृष्ण पक्ष के चाँद सम , दुर्जन करें सनेह ।।
दुर्जन करें सनेह , स्वार्थ से उसका नाता ।
पल पल घटता प्रेम ,स्वार्थ यदि ना सध पाता ।
कहे ‘साधना’ सत्य ,प्रेम है राम , कृष्ण का ।
बढ़ता रहता नित्य , चाँद ज्यों शुक्ल पक्ष का ।।

–  साधना  ठकुरेला

लेखक

  • साधना ठकुरेला

    साधना ठकुरेला जन्म-तिथि - 06 - 03 - 1967 जन्म-स्थान - हाथरस ( उत्तर प्रदेश ) पिता - श्री राम प्रसाद राना माता - श्रीमती राजेश्वरी राना प्रकाशन- विभिन्न पत्रिकाओं में कविताएँ, कुण्डलियाँ ओर लघुकथाएँ प्रकाशित । प्रसारण - आकाशवाणी से रचनाओं का प्रसारण संकलनों में --- कई संकलनों में रचनाएँ संकलित । सम्मान/पुरस्कार - कुण्डलिया श्री सम्मान सम्प्रति ---  स्वतंत्र लेखन

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