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लक्ष्मी-समुद्र-खंड-34 पद्मावत/जायसी

मुरछि परी पदमावति रानी । कहाँ जीउ, कहँ पीउ, न जानी ॥
जानहु चित्र-मूर्त्ति गहि लाई । पाटा परी बही तस जाई ॥
जनम न सहा पवन सुकुवाँरा । तेइ सो परी दुख-समुद अपारा ॥
लछिमी नाँव समुद कै बेटी । तेहि कहँ लच्छि होइ जहँ भेंटी ॥
खेलति अही सहेलिन्ह सेंती । पाटा जाइ लाग तेहि रेती ॥
कहेहि सहेली “देखहु पाटा । मूरति एक लागि बहि घाटा ॥
जौ देखा, तिवई है साँसा । फूल मुवा, पै मुई न बासा ॥

रंग जो राती प्रेम के ,जानहु बीर बहूटि ।
आइ बही दधि-समुद महँ, पै रंग गएउ न छूटि ॥1॥

(न जानी=न जानें, अही=थी, सेंती=से, रेती=बालू का
किनारा, तीवइ=स्त्री में)

लछिमी लखन बतीसौं लखी । कहेसि “न मरै, सँभारहु, सखी!॥
कागर पतरा ऐस सरीरा । पवन उड़ाइ परा मँझ नीरा ॥
लहरि झकोर उदधि-जल भीजा । तबहूँ रूप-रंग नहिं छीजा ”
आपु सीस लेइ बैठी कोरै । पवन डोलावै सखि चहुँ ओरै ॥
बहुरि जो समुझि परा तन जीऊ । माँगेसि पानि बोलि कै पीऊ ॥
पानि पियाइ सखी मुख धोई । पदमिनि जनहुँ कवँल सँग कोईं ॥
तब लछिमी दुख पूछा ओही । तिरिया समुझि बात कछु मोहीं ॥

देखि रूप तोर आगर, लागि रहा चित मोर ।
केहि नगरी कै नागरी, काह नाँव धनि तोर?” ॥2॥

(कागर=कागज, पतरा=पतला, उड़ाइ=उड़कर, कौरै=
गोद में, बोलि कै=पुकारकर, समुझि=सुध करके)

नैन पसार देख धन चेती । देखै काह, समुद कै रेती ॥
आपन कोइ न देखेसि तहाँ । पूछेसि, तुम हौ को? हौं कहाँ?॥
कहाँ सो सखी कँवल सँग कोई । सो नाहीं मोहिं कहाँ बिछोई ॥
कहाँ जगत महँ पीउ पियारा । जो सुमेरु, बिधि गरुअ सँवारा ॥
ताकर गरुई प्रीति अपारा । चढ़ी हिये जनु चढ़ा पहारा ॥
रहौं जो गरुइ प्रीति सौं झाँपी । कैसे जिऔं भार-दुख चाँपी? ॥
कँवल करी जिमि चूरी नाहाँ । दीन्ह बहाइ उदधि जल माहाँ ॥

आवा पवन बिछोह कर, पात परी बेकरार ।
तरिवर तजा जौ चूरि कै, लागौं केहि के डार? ॥3॥

(चेती=चेत करके,होश में आकर, देखै काह=देखती
क्या है कि, झाँपी=आच्छादित, चाँपी=दबी हुई, चूरी=
चूर्ण किया, लागौं केहहि के ड़ार=किसकी डाल लगूँ
अर्थात् किसका सहारा लूँ?)

कहेन्हि” न जानहिं हम तोर पीऊ । हम तोहिं पाव रहा नहिं जीऊ ॥
पाट परी आई तुम बही । ऐस न जानहिं दुहुँ कहँ अही” ।
तब सुधि पदमावति मन भई । सवरि बिछोह मुरुछि मरि गई ॥
नैनहिं रकत-सुराही ढरै । जनहुँ रकत सिर काटे परै ॥
खन चेतै खन होइ बेकरारा । भा चंदन बंदन सब छारा ॥
बाउरि होइ परी पुनि पाटा । देहुँ बहाइ कंत जेहि घाटा ॥
को मोहिं आगि देइ रचि होरी । जियत न बिछुरै सारस-जोरी ॥

जेहि सिर परा बिछोहा, देहु ओहि सिर आगि ।
लोग कहैं यह सिर चढ़ी, हौं सो जरौं पिउ लागि ॥4॥

(पाव=पाया, सँवरि=स्मरण करके, सिर=चिता )

काया-उदधि चितव पिउ पाँहा । देखौं रतन सो हिरदय माहाँ ॥
जनहुँ आहि दरपन मोर हीया । तेहि महँ दरस देखावै पीया ॥
नैन नियर, पहुँचत सुठि दूरी । अब तेहि लागि मरौं मैं झूरी ॥
पिउ हिरदय महँ भेंट न होई । को रे मिलाव, कहौं केहि रोई?॥
साँस पास निति आवै जाई । सो न सँदेस कहै मोहिं आई ॥
नैन कौडिया होइ मँडराहीं । थिरकि मार पै आवै नाहीं ॥
मन भँवरा भा कँवल-बसेरी । होइ मरजिया न आनै हेरी ॥

साथी आथि निआथि जो सकै साथ निरबाहि ।
जौ जिउ जारे पिउ मिलै, भेंटु रे जिउ! जरि जाहि ॥5॥

(थिरकि मार=थिरकता या चारों ओर नाचता है,
साथी….निरबाहि=साथी वही है जो धन और दरिद्रता
दोनों में साथ निभा सके, आथि=सार,पूँजी, निआथि=
निर्धनता)

सती होइ कहँ सीस उघारा । घन महँ बीजु घाव जिमि मारा ॥
सेंदुर, जरै आगि जनु लाई । सिर कै आगि सँभारि न जाई ॥
छूटि माँग अस मोति-पिरोई । बारहिं बार जरै जौं रोई ॥
टूटहिं मोति बिछोह जो भरै । सावन-बूँद गिरहिं जनु झरे ॥
भहर भहर कै जोबन बरा । जानहुँ कनक अगिनि महँ परा ॥
अगिनि माँग, पै देइ न कोई । पाहुन पवन पानि सब कोई ॥
खीन लंक टूटी दुखभरी । बिनु रावन केहि बर होइ खरी ॥

रोवत पंखि बिमोहे जस कोकिल-अरंभ ।
जाकर कनक-लता सो बिछुरा पीतम खंभ ॥6॥

(घन महँ…मारा=काले बालों के बीच माँग
ऐसी है जैसे बिजली की दरार, भहर भहर=जगमगाता
हुआ, माँग=माँगती है, पाहुन पवन…सब कोई=मेहमान
समझ कर सब पानी देती हैं और हवा करती हैं, बर=
बल,सहारा, अरंभ=रंभ,नाद,कूक)

लछिमी लागि बुझावै जीऊ ।”ना मरु बहिन! मिलिहि तोर पीऊ ॥
पीउ पानि, होइ पवन=अधारी । जसि हौं तहूँ समुद कै बारी ॥
मैं तोहि लागि लेउँ खटवाटू । खोजहि पिता जहाँ लगि घाटू ॥
हौं जेहि मिलौं ताहि बड़ भागू । राजपाट औ देऊँ सोहागू “॥
कहि बुझाइ लेइ मंदिर सिधारी । भइ जेवनार न जेंवै बारी ॥
जेहि रे कंत कर होइ बिछोवा । कहँ तेहि भूख, कहाँ सुख-सोवा?॥
कहाँ सुमेरु, कहाँ वह सेसा । को अस तेहि सौं कहै सँदेसा?॥

लछिमी जाइ समुद पहँ रोइ बात यह चालि ।
कहा समुद “वह घट मोरे, आनि मिलावौं कालि” ॥7॥

(बुझावै लागि=समझाने-बुझाने लगी, बारी=लड़की, लेउँ
खटवाटू=खटपाटी लूँगी; रूसकर काम-धंधा छोड़ पड़ी
रहूँगी (स्त्रियों का रूसकर खाना-पीना छोड़ खाट पर
इसलिये पड़ रहना कि जब तक मेरी बात न मानी
जायगी न उठूँगी,`खटपाटी’ लेना कहलाता है), सुख-
सोवा=सुख से सोना (साधारण क्रिया का यह रूप
बँगला से मिलता है), कहाँ सुमेरु…सेसा=आकाश
पाताल का अंतर, बात चालि=बात चलाई)

राजा जाइ तहाँ बहि लागा । जहाँ न कोइ सँदेसी कागा ॥
तहाँ एक परबत अस डूँगा । जहँवाँ सब कपूर औ मूँगा ॥
तेहि चढ़ि हेर कोइ नहिं साथा । दरब सैंति किछु लाग न हाथा ॥
अहा जो रावन लंक बसेरा । गा हेराइ, कोइ मिला न हेरा ॥
ढाढ मारि कै राजा रोवा । केइ चितउरगढ़-राज बिछोवा?॥
कहाँ मोर सब दरब भँडारा । कहाँ मोर सब कटक खँधारा?॥
कहाँ तुरंगम बाँका बली । कहाँ मोर हस्ती सिंघली? ॥

कहँ रानी पदमावति जीउ बसै जेहि पाहँ ।
‘मोर मोर’ कै खोएउँ, भूलि गरब अवगाह ॥8॥

(डूँगा=टीला, खँधारा=स्कंधावार,डेरा,तंबू,
अवगाह=अथाह (समुद्र) में)

भँवर केतकी गुरु जो मिलावै । माँगै राज बेगि सो पावै ॥
पदमिनि-चाह जहाँ सुनि पावौं । परौं आगि औ पानि धँसावौं ॥
खोजौं परबत मेरु पहारा । चढ़ौं सरग औ परौं पतारा ॥
कहाँ सो गुरु पावौं उपदेसी । अगम पंथ जो कहै गवेसी ॥
परेउँ समुद्र माहँ अवगाहा । जहाँ न वार पार, नहि थाहा ॥
सीता-हरन राम संग्रामा । हनुवँत मिला त पाई रामा ॥
मोहिं न कोइ, बिनवौं केहि रोई । को बर बाँधि गवेसी होई?॥

भँवर जो पावा कँवल कहँ, मन चीता बहु केलि ।
आइ परा कोइ हस्ती, चूर कीन्ह सो बेलि ॥9॥

(चाह=खबर, दँसावौं=धँसूँ, गवेसी=खोजी,ढूँढनेवाला,
गवेषणा करनेवाला, बर वाँधि=रेखा खींचकर,दृढ़
प्रतिज्ञा करके,आजकल `वरैया बाँधि’ बोलते हैं)

काहि पुकारौं, का पहँ जाऊँ । गाढ़े मीत होइ एहि ठाऊँ ॥
को यह समुद मथै बल गाढ़ै । को मथि रतन पदारथ काढ़ै? ॥
कहाँ सो बरह्मा, बिसुन महेसू । कहाँ सुमेरु, कहाँ वह सेसू? ॥
को अस साज देइ मोहिं आनी । बासुकि दाम, सुमेरु मथानी ॥
को दधि-समुद मथै जस मथा? करनी सार न कहिए कथा ॥
जौ लहि मथै न कोइ देइ जीऊ । सूधी अँगुरि न निकसै घीऊ ॥
लेइ नग मोर समुद भा बटा । गाढ़ परै तौ लेइ परगटा ॥

लीलि रहा अब ढील होइ पेट पदारथ मेलि ।
को उजियार करै जग झाँपा चंद उघेलि?॥10॥

(मीत होइ=जो मित्र हो, गाढ़े=संकट के समय में, दाम=रस्सी,
करनी सार ..कथा=करनी मुख्य है,बात कहने से क्या है? बटा
भा=बटाऊ हुआ,चल दिया, ढील होइ रहा=चुपचाप बैठा रहा,
उघेलि=खोलकर)

ए गोसाइँ! तू सिरजन हारा । तुइँ सिरजा यह समुद अपारा ॥
तुइँ अस गगन अंतरिख थाँभा । जहाँ न टेक, न थूनि, न खाँभा ॥
तुइँ जल ऊपर धरती राखी । जगत भार लेइ भार न थाकी ॥
चाँद सुरुज औ नखतन्ह=पाँती । तोरे डर धावहिं दिन राती ॥
पानी पवन आगि औ माटी । सब के पीठ तोरि है साँटी ॥
सो मूरुख औ बाउर अंधा । तोहि छाँडि चित औरहि बंधा ॥
घट घट जगत तोरि है दीठी । हौं अंधा जेहि सूझ न पीठी ॥

पवन होइ भा पानी, पानि होइ भा आगि ।
आगि होइ भा माटी, गोरखधंधै लागि ॥11॥

(थाँबा=ठहराया,टिकाया, थूनि=लकड़ी का बल्ला जो टेक के
लिये छप्पर के नीचे खड़ा किया जाता है, भार न थाकी=भार
से नहीं थकी, सब के पीठि….साँटी=सब की पीठ पर तेरी छड़ी
है, अर्थात् सब के ऊपर तेरा शासन है)

तुइँ जिउ तन मेरवसि देइ आऊ । तुही बिछोवसि, करसि मेराऊ ॥
चौदह भुवन सो तोरे हाथा । जहँ लगि बिधुर आव एक साथा ॥
सब कर मरम भेद तोहि पाहाँ । रोवँ जमावसि टूटै जाहाँ ॥
जानसि सबै अवस्था मोरी । जस बिछुरी सारस कै जोरी ॥
एक मुए ररि मुवै जो दूजी । रहा न जाइ, आउ अब पूजी ॥
झूरत तपत बहुत दुख भरऊँ । कलपौं माँथ बेगि निस्तरऊँ ॥
मरौं सो लेइ पदमावति नाऊँ । तुइँ करतार करेसि एक ठाऊँ ॥

दुख सौं पीतम भेंटि कै, सुख सौं सोव न कोइ ।
एहि ठाँव मन डरपै, मिलि न बिछोहा होइ ॥12॥

(मेरवसि=तू मिलाता है, आउ=आयु, बिछोवसि=बिछोह
करता है, मेराऊ=मिलाप, जाहाँ=जहाँ, कलपौं=काटूँ, करेसि=
तुम करना)

कहि कै उठा समुद पहँ आवा । काढ़ि कटार गीउ महँ लावा ॥
कहा समुद्र, पाप अब घटा । बाह्मन रूप आइ परगटा ॥
तिलक दुवादस मस्तक कीन्हे । हाथ कनक-बैसाखी लीन्हे ॥
मुद्रा स्रवन, जनेऊ काँधे । कनक-पत्र धोती तर बाँधे ॥
पाँवरि कनक जराऊँ पाऊँ । दीन्हि असीस आइ तेहि ठाऊँ ॥
कहसि कुँवर! मोसौं सत बाता । काहे लागि करसि अपघाता ॥
परिहँस मरस कि कौनिउ लाजा । आपन जीउ देसि केहि काजा ॥

जिनि कटार गर लावसि, समुझि देखु मन आप ।
सकति जीउ जौं काढ़ै , महा दोष औ पाप ॥13॥

(पाप अब घटा=यह तो बड़ा पाप मेरे सिर घटा चाहता
है, बैसाखी=लाठी, पाँवरि=खड़ाऊँ, पाऊँ=पाँव में, काहे लगि=
किस लिये, अपघात=आत्मघात, परिहँस=ईर्ष्या)

को तुम्ह उतर देइ, हो पाँडे । सो बीलै जाकर जिउ भाँडे ॥
जंबूदीप केर हौं राजा । सो मैं कीन्ह जो करत न छाजा ॥
सिंघलदीप राजघर-बारी । सो मैं जाइ बियाही नारी ॥
बहु बोहित दायज उन दीन्हा । नग अमोल निरमर भरि लीन्हा ॥
रतन पदारथ मानिक मोती । हुतीन काहु के संपति ओती ॥
बहल,घोड़, हस्ती सिंघली । और सँग कुँवरि लाख दुइ चलीं ।
ते गोहने सिंघल पदमिनी । एक सो एक चाहि रुपमनी ॥

पदमावती जग रूपमति, कहँ लगि कहौं दुहेल ।
तेहिं समुद्र महँ खोएउँ, हौं का जिओ अकेल?॥14॥

(तुम्ह=तुम्हें, भाँडे=घट में,शरीर में, ओती=उतनी,
चाहि, चाहि=बढ़कर, रूपमनी=रूपवती, दुहेल=दुख)

हँसा समुद, होइ उठा अँजोरा । जग बूड़ा सब कहि कहि ‘मोरा ॥
तोर होइ तोहि परे न बेरा । बूझि बिचारि तहुँ केहि केरा ॥
हाथ मरोरि धुनै सिर झाँखी । पै तोहि हिये न अघरै आँखी ॥
बहुतै आइ रोइ सिर मारा । हाथ न रहा झूठ संसारा ॥
जो पै जगत होति फुर माया । सैंतत सिद्धि न पावत, राया! ॥
सिद्धै दरब न सैंता गाड़ा । देखा भार चूमि कै छाड़ा ॥
पानी कै पानी महँ गई । तू जो जिया कुसल सब भई ॥

जा कर दीन्ह कया जिउ, लेइ चाह जब भाव ।
धन लछिमी सब थअकर, लेइ त का पछितावा?॥15॥

(तोर…होइ…बेरा=तेरा होता तो तेरा बेड़ा तुझसे दूर न होता,
झाँखी=झीखकर, उघरे=खुलती है, सैंतत सिद्धि…राया=तो हे
राजा! तुम द्रव्य संचित करते हुए सिद्धि पा न जाते, पानी
कै…गई=जो वस्तुएँ (रत्न आदि) पानी की थीं वे पानी में
गई, लेइ चाह=लिया ही चाहे, जब भाव=जब चाहे)

अनु, पाँडे! पुरुषहि का हानी । जौ पावौं पदमावति रानी ॥
तपि कै पावा ,मिली कै फूला । पुनि तेहि खौइ सोइ पथ भूला ॥
पुरुष न आपनि नारि सराहा । मुए गए सँवरै पै चाहा ॥
कहँ अस नारी जगत उपराहीं?। कहँ अस जीवन कै सुख-छाहीं? ॥
कहँ अस रहस भोग अब करना । ऐसे जिए चाहि भल मरना ॥
जहँ अस परा समुद नग दीया । तहँ किमि जिया चहै मरजीया? ॥
जस यह समुद दीन्ह दुख मोकाँ । देइ हत्या झगरौं सिवलोका ॥

का मैं ओहि क नसअवा, का सँवरा सो दाँव?।
जाइ सरग पर होइहि एहि कर मोर नियाव ॥16॥

(अनु=फिर,आगे, फूला=प्रफुल्ल हुआ, चाहि=अपेक्षा,
बनिस्बत, मोकाँ=मोकहँ,मुझको, देइ हत्या=सिर पर
हत्या चढ़ाकर, दाँव=बदला लेने का मौका)

जौ तु मुवा, कित रोवसि खरा? ना मुइ मरै, न रौवै मरा ॥
जो मरि भा औ छाँडेसि काया । बहुरि न करै मरन कै दाँया ॥
जो मरि भएउ न बूड़ै नीरा । बहा जाइ लागै पै तीरा ॥
तुही एक मैं बाउर भेंटा । जैस राम, दसरथ कर बेटा ॥
ओहू नारि कर परा बिछोवा । एहि समुद महँ फिरि फिरि रोवा ॥
उदधि आइ तेइ बंधन कीन्हा । इति दशमाथ अरमपद दीन्हा ॥
तोहि बल नाहिं-मूँदु अब आँखी । लावौ तीर, टेक बैसाखी ॥

बाउर अंध प्रेम कर सुनत लुबधि भा बाट ।
निमिष एक महँ लेइगा पदमावति जेहि घाट ॥17॥

(मरि भा=मर चुका, दायाँ=दाँव,आयोजन, बाट भा=रास्ता पकड़ा)

पदमावति कहँ दुख तस बीता । जस असोक-बीरो तर सीता ॥
कनक लता दुइ नारँग फरी । तेहि के भार उठि होइ न खरी ॥
तेहि पर अलक भुअंगिनि डसा । सिर पर चढ़ै हिये परगसा ॥
रही मृनाल टेकि दुख-दाधी । आधी कँवल भई, ससि आधी ॥
नलिन=खंड दुइ तस करिहाऊ । रोमावली बिछूक कहाऊँ ॥
रही टूटि जिमि कंचन-तागू । को पिउ मेरवै, देइ सोहागू ॥
पान न खाइ करै उपवासू । फुल सूख, तन रही न बासू ॥

गगन धरति जल बुड़ि गए, बूड़त होइ निसाँस ।
पिउ पिउ चातक ज्यों ररै, मरै सेवाति पियास ॥18॥

(बीरौ=बिरवा,पेड़, दाधी=जली हुई, करिहाउँ=कमर,कटि,
बिछूक=बिच्छू, सेवाति=स्वाति नक्षत्र में)

लछिमी चंचल नारि परेवा । जेहि सत होइ छरै कै सेवा ॥
रतनसेन आवै जेहि घाटा । अगमन होइ बैठी तेहि बाटा ॥
औ भइ पदमावति कै रूपा । कीन्हेसि छाँह जरै जहँ धूपा ॥
देखि सो कँवल भँवर होइ धावा । साँस लीन्ह, वह बास न पाबा ॥
निरखत आइ लच्छमी दीठी । रतनसेन तब दीन्ही पीठी ॥
जौ भलि होति लच्छमी नारी । तजि महेस कत होत भिखारी?॥
पुनि धनि फिरि आगे होइ रोई । पुरुष पीठि कस दीन्ह निछोई?॥

हौं रानी पदमावति, रतनसेन तू पीउ ।
आनि समुद महँ छाँडेहु, अब रोवौं देइ जीउ ॥19॥

(छरै=छलती है, बाटा=मार्ग में, अगमन=आगे, दीठी=देखा,
दीन्ही पीठी=पीठ दी,मुँह फेर लिया)

मैं हौं सोइ भँवर औ भोजू लेत फिरौं मालति कर खौजू ॥
मालति नारि, भँवर पीऊ । लहि वह बास रहै थिर जीऊ ॥
का तुइँ नारि बैठि अस रोई । फूल सोइ पै बास न सोई ॥
भँवर जो सब फूलन कर फेरा । बास न लेइ मालतिहि हेरा ॥
जहाँ पाव मालति कर बासू । वारै जीउ तहाँ होइ दासू ॥
कित वह बास पवन पहुँचावै । नव तन होइ, पेट जिउ आवै ॥
हौं ओहि बास जीउ बलि देऊँ । और फूल कै बास न लेऊँ ॥

भँवर मालतिहि पै चहै, काँट न आवै दीठि ।
सौंहैं भाल खाइ, पै फिरि कै देइ न पीठि ॥20॥

(खोज=पता, कर फेरा=फेरा करता है, हेरा=ढूँढता है, वारै=
निछावर करता है, नव=नया, भाल=भाला)

तब हँसि कह राजा ओहि ठाऊँ । जहाँ सो मालति लेइ चलु, जाऊँ ॥
लेइ सो आइ पदमावति पासा । पानि पियावा मरत पियासा ॥
पानी पिया कँवल जस तपा । निकसा सुरुज समुद महँ छपा ॥
मैं पावा पिउ समुद के घाटा । राजकुँवर मनि दिपै ललाटा ॥
दसन दिपै जस हीरा जोती । नैन-कचोर भरे जनु मोती ॥
भुजा लंक डर केहरि जीता । मूरत कान्ह देख गोपीता ॥
जस राजा नल दमनहि पूछा । तस बिनु प्रान पिंड है छूँछा ॥

जस तू पदिक पदारथ, तैस रतन तोहि जोग ।
मिला भँवर मालति कहँ, करहु दोउ मिलि भोग ॥21॥

(लेइ चलुँ, जाउँ=यदि ले चले तो जाऊँ, छपा=छिपा हुआ,
कचोर=कटोरा, गोपीता=गोपी, दमनहि=दमयंती को, पिंड=शरीर,
छूँछा=खाली, पदिक=गले में पहनने का एक चौखूँटा गहना
जिसमें रत्न जड़े जाते हैं)

पदिक पदारथ खीन जो होती । सुनतहि रतन चढ़ी मुख जोती ॥
जानहुँ सूर कीन्ह परगासू । दिन बहुरा, भा कँवल-बिगासू ॥
कँवल जो बिहँसि सूर-मुख दरसा । सूरुज कँवल दिस्टि सौं परसा ॥
लोचन-कँवल सिरी-मुख सूरू । भएउ अनंद दुहूँ रस-मूरू ॥
मालति देखि भँवर गा भूली । भँवर देखि मालति बन फूली ॥
देखा दरस, भए एक पासा । वह ओहि के, वह ओहि के आसा ॥
कंचन दाहि दीन्हि जनु जीऊ । ऊवा सूर, छूटिगा सीऊ ॥

पायँ परी धनि पीउ के, नैनन्ह सों रज मेट ।
अचरज भएउ सबन्ह कहँ, भइ ससि कवलहिं भेंट ॥22॥

(पदिक पदारथ=अर्थात् पद्मावती, बहुरा=लौटा,फिरा, मूरू=मूल,
जड़, एक पासा=एक साथ, सीऊ=सीत, रज मेट=आँसुओं से पैर
की भूल धोती है, भइ ससि कँवलहि भेंट=शशि, पद्मावती का
मुख और कमल,राजा के चरण)

जिनि काहू कह होइ बिछोऊ । जस वै मिलै मिलै सब कोऊ ॥
पदमावति जौ पावा पीऊ । जनु मरजियहि परा तन जीऊ ॥
कै नेवछावरि तन मन वारी । पायन्ह परी घालि गिउ नारी ॥
नव अवतार दीन्ह बिधि आजू । रही छार भइ मानुष-साजू ॥
राजा रोव घालि गिउ पागा । पदमावति के पायन्ह लागा ॥
तन जिउ महँ बिधि दीन्ह बिछोऊ । अस न करै तौ चीन्ह न कोऊ ॥
सोई मारि छार कै मेटा । सोइ जियाइ करावै भेंटा ॥

मुहमद मीत जौ मन बसै, बिधि मिलाव ओहि आनि ।
संपति बिपति पुरुष कहँ, काह लाभ, का हानि ॥23॥

(घालि गिउ=गरदन नीचे झुकाकर, मानुष साजू=मनुष्य-रूप में,
घालि गिउ पागा=गले में दुपट्टा डालकर, पागा=पगड़ी, तन
जिउ …चीन्ह न कोऊ=शरीर और जीव के बीच ईश्वर ने
वियोग दिया;यदि वह ऐसा न करे तो उसे कोई न पहचाने)

लछमी सौं पदमावति कहा । तुम्ह प्रसाद पायउँ जो चहा ॥
जौ सब खोइ जाहि हम दोऊ । जो देखै भल कहै न कोऊ ॥
जे सब कुँवर आए हम साथी । औ जत हस्ति, घोड़ औ आथी ॥
जौ पावैं, सुख जीवन भोगू । नाहिं त मरन भरन दुख रोगू ॥
तब लछमी गइ पिता के ठाऊँ । जो एहि कर सब बूड़ सो पाऊँ ॥
तब सो जरी अमृत लेइ आवा । जो मरे हुत तिन्ह छिरिकि जियावा ॥
एक एक कै दीन्ह सो आनी । भा सँतोष मन राजा रानी ॥

आइ मिले सब साथी, हिलि मिलि करहिं अनंद ।
भई प्राप्त सुख-संपति, गएउ छूटि दुख-द्वंद ॥24॥

(तुम्ह=तुम्हारे, आथी=पूँजी,धन, जरी=जड़ी)

और दीन्ह बहु रतन पखाना । सोन रूप तौ मनहिं न आना ॥
जे बहु मोल पदारथ नाऊँ । का तिन्ह बरनि कहौं तुम्ह ठाऊँ ॥
तिन्ह कर रूप भाव को कहै । एक एक नग चुनि चुनि कै गहे ॥
हीर-फार बहु-मोल जो अहे । तेइ सब नग चुनि चुनि कै गहे ॥
जौ एक रतन भँजावै कोई । करै सोइ जो मन महँ होई ॥
दरब-गरब मन गएउ भुलाई । हम सब लक्ष्छ मनहिं नहिं आई ॥
लघु दीरघ जो दरब बखाना । जो जेहि चहिय सोइ तेइ माना ॥

बड़ औ छोट दोउ सम, स्वामी=काज जो सोइ ।
जो चाहिय जेहि काज कहँ, ओहि काज सो होइ ॥25॥

(पखाना=नग,पत्थर, सोन=सोना, रूप=चाँदी, तुम्ह ठाऊँ=
तुम्हारे निकट, तुमसे, हीर-फार=हीरे के टुकड़े, फार=फाल,कतरा,
टुकड़ा, हम सम लच्छ=हमारे ऐसे लाखों हैं)

दिन दस रहे तहाँ पहुनाई । पुनि भए बिदा समुद सौं जाई ॥
लछमी पसमावति सौं भेंटी । औ तेहि कहा `मोरि तू बेटी” ॥
दीन्ह समुद्र पान कर बीरा । भरि कै रतन पदारथ हीरा ॥
और पाँच नग दीन्ह बिसेखे । सरवन सुना, नैन नहिं देखे ॥
एक तौ अमृत, दूसर हंसू । औ तीसर पंखी कर बंसू ॥
चौथ दीन्ह सावक-सादूरू । पाँचवँ परस, जो कंचन-मूरू ॥
तरुन तुरंगम आनि चढ़ाए । जल=मानुष अगुवा सँग लाए ॥

भेंट-घाँट कै समदि तब फिरे नाइकै माथ ।
जल-मानुष तबहीं फिरे जब आए जगनाथ ॥26॥

(पहुनाई=मेहमानी, बिसेखे=विशेष प्रकार के, बंसू=वंश,कुल,
सावक-सादूरू=शार्दूल-शावक,सिंह का बच्चा, परस=पारस
पत्थर, कंचन-मूरू=सोने का मूल,सोना उत्पन्न करने वाला,
जल-मानुष=समुद्र के मनुष्य, अगुवा=पथ-प्रदर्शक संग
लाए=संग में लगा दिए, भेंट-घाट=भेंट-मिलाप, समदि=
बिदा करके)

जगन्नाथ कहँ देखा आई । भोजन रींधा भात बिकाई ॥
राजै पदमावति सौं कहा । साँठि नाठि, किछु गाँठि न रहा ॥
साँठि होइ जेहि तेहि सब बोला । निसँठ जो पुरुष पात जिमि डोला ॥
साँठहि रंक चलै झौंराई । निसँठराव सब कह बौराई ॥
साँठिहि आव गरब तन फूला । निसँठहि बोल, बुद्धि बल भूला ॥
साँठिहि जागि नींद निसि जाई । निसँठहि काह होइ औंघाई ॥
साँठिहि दिस्टि, जोति होइ नैना । निसँठ होइ, मुख आव न बैना ॥

साँठिहि रहै साधि तन, निसँठहि आगरि भूख ।
बिनु गथ बिरिछ निपात जिमि ठाढ़ ठाढ़ पै सूख ॥ 27॥

(रींधा=पका हुआ, साँठि=पूँजी,धन, नाठि=नष्ट हुई, झौंराई=झूमकर,
कह=कहते हैं, औंघाई=नींद, साधि तन=शरीर को संयत करके,
आगरि=बढ़ी हुई, अधिक, गथ=पूँजी)

पदमावति बोली सुनु राजा । जीउ गए धन कौने काजा?॥
अहा दरब तब कीन्ह न गाँठी । पुनि कित मिलै लच्छि जौ नाठी ॥
मुकती साँठि गाँठि जो करै । साँकर परे सोइ उपकरै ॥
जेहि तन पंख, जाइ जहँ ताका । पैग पहार होइ जौ थाका ॥
लछमी दीन्ह रहा मोहिं बीरा । भरि कै रतन पदारथ हीरा ॥
काढ़ि एक नग बेगि भँजावा । बहुरी लच्छि, फेरि दिन पावा ॥
दरब भरोस करै जिनि कोई । साँभर सोइ गाँठि जो होई ॥

जोरि कटक पुनि राजा घर कहँ कीन्ह पयान ।
दिवसहि भानु अलोप भा, बासुकि इंद्र सकान ॥28॥

(नाठी=नष्ट हुई, मुकती=बहुत सी,अधिक, साँकर परे=संकट
पड़ने पर, उपकरै=उपकार करती है,काम आती है, साँभर=संबल,
राह का खर्च, सकान=डरा)

लेखक

  • मलिक मुहम्मद जायसी हिन्दी साहित्य के भक्ति काल की निर्गुण प्रेमाश्रयी धारा के कवि हैं । वे अत्यंत उच्चकोटि के सरल और उदार सूफ़ी महात्मा थे। उनका जन्म सन १५०० के आसपास माना जाता है। वे उत्तर प्रदेश के जायस नामक स्थान के रहनेवाले थे। उनके नाम में जायसी शब्द का प्रयोग, उनके उपनाम की भांति, किया जाता है। उनके पिता का नाम मलिक राजे अशरफ़ बताया जाता है और वे मामूली ज़मींदार थे और खेती करते थे। स्वयं जायसी का भी खेती करके जीविका-निर्वाह करना प्रसिद्ध है। सैयद अशरफ़ उनके गुरु थे और अमेठी नरेश उनके संरक्षक थे। उनकी २१ रचनाओं के उल्लेख मिलते हैं जिसमें पद्मावत, अखरावट, आख़िरी कलाम, कहरनामा, चित्ररेखा आदि प्रमुख हैं। पर उनकी ख्याति का आधार पद्मावत ग्रंथ ही है। इसकी भाषा अवधी है और इसकी रचना-शैली पर आदिकाल के जैन कवियों की दोहा चौपाई पद्धति का प्रभाव पड़ा है।

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लक्ष्मी-समुद्र-खंड-34 पद्मावत/जायसी

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