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राजा-बादशाह-मेल-खंड-44 पद्मावत/जायसी

सुना साह अरदासै पढ़ीं । चिंता आन आनि चित चढ़ी ॥
तौ अगमन मन चीतै कोई । जौ आपन चीता किछु होई ॥
मन झूठा, जिउ हाथ पराए । चिंता एक हिये दुइ ठाएँ ॥
गढ़ सौं अरुझि जाइ तब छूटै । होइ मेराव, कि सो गढ़ टूटै ॥
पाहन कर रिपु पाहन हीरा । बेधौं रतन पान देइ बीरा ॥
सुरजा सेंति कहा यह भेऊ । पलटि जाहु अब मान हु सेऊ ॥
कहु तोहि सौं पदमिनि नहिं लेऊँ । चूरा कीन्ह छाँडि गढ़ देऊँ ॥

आपन देस खाहु सब औ चंदेरी लेहु ।
समुद जो समदन कीन्ह तोहि ते पाँचौ नग देहु ॥1॥

(चीते=सोचे,विचारे, चिंता एक…ठाएँ=एकहृदय में दौ ओर
की चिंता लगी, गढ़ सौं…टूटै=बादशाह सोचता है कि गढ़
लेने में जब उलझ गए हैं तब उससे तभी छूट सकते हैं
जब या तो मेल हो जाय या गढ़ टूटे, पाहन कर
रिपु….हीरा=हीरे पत्थर का शत्रु हीरा पत्थर ही होता
है अर्थात् हीरा हीरे से ही कटता है, पान देइ बीरा=
ऊपर से मेल करके, मानहु सेऊ=आज्ञा मानो, चूरा
कीन्ह=एक प्रकार से तोड़ा हुआ गढ़, खाहु=भोग
करो, समदन कीन्ह=बिदा के समय भेंट में दिए थे)

सुरजा पलटि सिंघ चढ़ि गाजा । अज्ञा जाइ कही जहँ राजा ॥
अबहूँ हिये समुझु रे, राजा । बादसाह सौ जूझ न छाजा ॥
जेहि कै देहरी पृथिवी सेई । चहै तौ मारै औ जिउ लेई ॥
पिंजर माहँ ओहि कीन्ह परेवा । गढ़पति सोइ बाँच कै सेवा ॥
जौ लगि जीभ अहै मुख तोरे । सँवरि उघेलु बिनय कर जोरे ॥
पुनि जौ जीभ पकरि जिउ लेई । को खोले, को बोले देई?॥
आगे जस हमीर मैमंता । जौ तस करसि तोरे भा अंता ॥

देखु! काल्हि गड़ टूटै, राज ओहि कर होइ ।
करु सेवा सिर नाइ कै, घर न घालु बुधि खोइ ॥2॥

(उघेलु=निकाल, हमीर=रनथंभौर का राजा,हमीरदेव जो
अलाउद्दीन से लड़कर मारा गया था, तस=वैसा, घर न
घालु=अपना घर न बिगाड़)

सरजा! जौ हमीर अस ताका । और निवाहि बाँधि गा साका ॥
हौं सक- बंधी ओहि अस नाहीं । हौं सो भोज विक्रम उपराहीं ॥
बरिस साठ लगि साँठि न काँगा । पानि पहार चुवै बिनु माँगा ॥
तेहि ऊपर जौ पै गढ़ टूटा । सत सकबंधी केर न छूटा ॥
सोरह लाख कुँवर हैं मोरे । परहिं पतँग जस दीप- अँजोरे ॥
जेहि दिन चाँचरि चाहौं जोरी । समदौं फागु लाइ कै होरी ॥
जौ निसि बीच, डरै नहिं कोई । देखु तौ काल्हि काह दहुँ होई ॥

अबहिं जौहर साजि कै कीन्ह चहौं उजियार ।
होरी खेलौं रन कठिन, कोइ समेटै छार ॥3॥

(ताका=ऐसा बिचारा, साँठि=सामान, काँगा कम होगा,
समदौं=बिदा के समय का मिलना मिलूँ, जो निसि
बीच….दहुँ होई=(सरजा ने जो कहा था कि `देखु
काल्हि गढ़ टूटै ‘ इसके उत्तर में राजा कहता है
कि) एक रात बीच में पड़ती है (अभी रात भर
का समय है) तो कोई डर की बात नहीं; देख
तो कल क्या होता है?)

अनु राजा सो जरै निआना । बादसाह कै सेव न माना ॥
बहुतन्ह अस गढ़ कीन्ह सजवना । अंत भई लंका जस रवना ॥
जेहि दिन वह छेंकै गढ़ घाटी । होइ अन्न ओही दिन माटी ॥
तू जानसि जल चुवै पहारू । सो रोवै मन सँवरि सँघारू ॥
सूतहि सूत सँवरि गढ़ रोवा । कस होइहि जौ होइहि ढोवा ॥
सँवरि पहार सो ढारै आँसू । पै तोहि सूझ न आपन नासू ॥
आजु काल्हि चाहै गढ़ टूटा । अबहुँ मानु जौ चाहसि छूटा ॥

हैं जो पाँच नग तो पहँ लेइ पाँचो कहँ भेंट ॥
मकु सो एक गुन मानै, सब ऐगुन धरि मेट ॥4॥

(अनु=फिर, सजवना=तैयारी, रवना=रावण, अन्न माटी होइ=
खाना पीना हराम हो जायगा, सँघारू=संहार, नाश, ढोवा=लूट,
मकु सो एक गुन….मेट=शायद)

वह तुम्हारे इस एक ही गुण से सब अवगुणों को भूल जाय ।
अनु सरजा को मेटै पारा । बादसाह बड़ अहै तुम्हारा ॥
ऐगुन मेटि सकै पुनि सोई । औ जो कीन्ह चहै सो होई ॥
नग पाँचौ देइ देउँ भँडारा । इसकंदर सौं बाँचै दारा ॥
जौ यह बचन त माथे मोरे । सेवा करौं ठाढ़ कर जोरे ॥
पै बिनु सपथ न अस मन माना । सपथ बोल बाचा-परवानाँ ॥
खंभ जो गरुअ लीन्ह जग भारू । तेहि क बोल नहिं टरै पहारू ॥
नाव जो माँझ भार हुँत गीवा । सरजै कहा मंद वह जीवा ॥

सरजै सपथ कीन्ह छल बैनहि मीठै मीठ ।
राजा कर मन माना, माना तुरत बसीठ ॥5॥

(को भेट पारा=इस बात को कौन मिटा सकता है कि,
भँडारा=भंडार से, जो यह बचन=जो बादशाह का इतना
ही कहना है तो मेरे सिर मत्थे पर से, बाचा-परवाँना=
बचन का प्रमाण है, नाव जो माँझ…गीवा=जो किसी
बात का बोझ अपने ऊपर लेकर बीचमें गरदन हटाता
है, छल=छल से, बसीठ माना=सुलह का सँदेस मान लिया)

हंस कनक पींजर-हुँत आना । औ अमृत नग परस-पखाना ॥
औ सोनहार सोन के डाँडी । सारदूल रूपे के काँडी ॥
सो बसीठ सरजा लेइ आवा । बादसाह कहँ आनि मेरावा ॥
ए जगसूर भूमि-उजियारे । बिनती करहिं काग मसि-कारे ॥
बड़ परताप तोर जग तपा । नवौ खंड तोहि को नहिं छपा?॥
कोह छोह दूनौ तोहि पाहाँ । मारसि धूप, जियावसि छाहाँ ॥
जो मन सूर चाँद सौं रूसा । गहन गरासा, परा मँजूसा ॥

भोर होइ जौ लागै उठहिं रोर कै काग ।
मसि छूटै सब रैनि कै, कागहि केर अभाग ॥6॥

(सोनहार=समुद्र का पक्षी, काँडी=पिंजरा? बिनती करहिं
काग मसि कारे=हे सूर्य! कौए बिनती करते हैं कि उनकी
कालिमा ( दोष,अवगुण) दूर कर दे अर्थात् राजा के दोष
क्षमा कर, कोह=क्रोध, छोह=दया, अनुग्रह, धूप=धूप से,
छाहाँ=छाँह में,अपनी छाया में, परा मँजूसा=झाबे में
पड़ गया अर्थात् घिर गया, कागहि केर अभाग=कौए
का ही अभाग्य है कि उसकी कालिमा न छूटी)

करि बिनती अज्ञा अस पाई । “कागहु कै मसि आपुहि लाई ॥
पहिलेहि धनुष नवै जब लागै । काग न टिकै, देखि सर भागै ॥
अबहूँ ते सर सौंहैं होहीं । देखैं धनुक चलहिं फिरि त्योंहीं ॥
तिन्ह कागन्ह कै कौन बसीठी । जो मुख फेरि चलहिं देइ पीठी ॥
जो सर सौंह होहिं संग्रामा । कित बग होहिं सेत वै सामा?॥
करै न आपन ऊजर केसा । फिरि फिरि कहै परार सँदेसा ॥
काग नाग ए दूनौ बाँके । अपने चलत साम वै आँके ॥

“कैसेहु जाइ न मेटा भएउ साम तिन्ह अंग ।
सहस बार जौ धोवा तबहुँ न गा वह रंग ॥7॥

(कागहु कै मसि…लाई=कौवै की स्याही तुम्हीं ने लगा ली है
(छल करके) वे कौए नहीं हैं, पहिलेहि…भागै=जो कौवा होता
है वह ज्योंही धनुष खींचा जाता है भाग जाता है, अबहूँ..
होहों=वे तो अब भी यदि उनके सामने बाण किया जाय
तो तुरंत लड़ने के लिये फिर पड़ेंगे, धनुक=युद्ध के लिये
चढ़ी कमान, टेढ़ापन, कुटिलता, सर=शर,तीर, ताल=
सरोवर, जो सर….सामा=जो लड़ाई में तीर के सामने
आते हैं वे श्वेत बगले काले कैसे हो सकते हैं? करै
न आपन….सँदेसा=तू अपने को शुद्ध और उज्ज्वल
नहीं करता, केवल कौवों की तरह इधर का उधर
सँदेसा कहता है (कवि लोग नायिकाओं का कौए
से सँदेशा कहना वर्णन करते हैं), अपने चलत…
आँके=वे एक बात पर दृढ़ रहते हैं और सदा वही
कालिमा ही प्रकट करते हैं पर तू अपने को और
का और प्रकट करके छल करता है)

“अब सेवा जो आइ जोहारे । अबहूँ देखु सेत की कारे ॥
कहौं जाइ जौ साँच, न डरना । जहवाँ सरन नाहिं तहँ मरना ॥
काल्हि आव गढ़ ऊपर भानू । जो रे धनुक, सौंह होइ बानू”
पान बसीठ मया करि पावा । लीन्ह पान, राजा पहँ आवा ॥
जस हम भेंट कीन्ह गा कोहू । सेवा माँझ प्रीति औ छोहू ॥
काल्हि साह गढ़ देखै आव । सेवा करहु जेस मन भावा ॥
गुन सौं चलै जो बोहित बोझा । जहँवाँ धनुक बान तहँ सोझा ॥

भा आयसु अस राजघर, बेगि दै करहु रसोइ ।
ऐस सुरस रस मेरवहु जेहि सौं प्रीति-रस होइ ॥8॥

(अब सेवा…जोहारे=उन्होंने मेल कर लिया है, तू अब भी देख
सकता है कि श्वेत हैं या काले अर्थात् वे छल नहीं करेंगे, जो
रे धनुक ..बानू=जो अब वह किले में मेरे जाने पर किसी
प्रकार की कुटिलता करेगा तो उसके सामने फिर बाण
होगा (धनुष टेढ़ा होता है और बाण सीधा), गुन=गून,
रस्सी, जहँवा धनुक ….सोझा=जहाँ कुटिलता हुई कि
सामने सीधा बाण तैयार है)

लेखक

  • जायसी

    मलिक मुहम्मद जायसी हिन्दी साहित्य के भक्ति काल की निर्गुण प्रेमाश्रयी धारा के कवि हैं । वे अत्यंत उच्चकोटि के सरल और उदार सूफ़ी महात्मा थे। उनका जन्म सन १५०० के आसपास माना जाता है। वे उत्तर प्रदेश के जायस नामक स्थान के रहनेवाले थे। उनके नाम में जायसी शब्द का प्रयोग, उनके उपनाम की भांति, किया जाता है। उनके पिता का नाम मलिक राजे अशरफ़ बताया जाता है और वे मामूली ज़मींदार थे और खेती करते थे। स्वयं जायसी का भी खेती करके जीविका-निर्वाह करना प्रसिद्ध है। सैयद अशरफ़ उनके गुरु थे और अमेठी नरेश उनके संरक्षक थे। उनकी २१ रचनाओं के उल्लेख मिलते हैं जिसमें पद्मावत, अखरावट, आख़िरी कलाम, कहरनामा, चित्ररेखा आदि प्रमुख हैं। पर उनकी ख्याति का आधार पद्मावत ग्रंथ ही है। इसकी भाषा अवधी है और इसकी रचना-शैली पर आदिकाल के जैन कवियों की दोहा चौपाई पद्धति का प्रभाव पड़ा है।

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