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बोहित-खंड-14 पद्मावत/जायसी

सो न डोल देखा गजपती । राजा सत्त दत्त दुहुँ सती ॥
अपनेहि काया, आपनेहि कंथा । जीउ दीन्ह अगुमन तेहि पंथा ॥
निहचै चला भरम जिउ खोई । साहस जहाँ सिद्धि तहँ होई ॥
निहचै चला छाँड़ि कै राजू । बोहित दीन्ह, दीन्ह सब साजू ॥
चढ़ा बेगि, तब बोहित पेले । धनि सो पुरुष पेम जेइ खेले ॥
पेम-पंथ जौं पहुँचै पारा । बहुरि न मिलै आइ एहि छारा ॥
तेहि पावा उत्तिम कैलासू । जहाँ न मीचु, सदा सुख-बासू ॥

एहि जीवन कै आस का? जस सपना पल आधु ।
मुहमद जियतहि जे मुए तिन्ह पुरुषन्ह कह साधु ॥1॥

(सत्त दत्त दुहुँ सती=सत्य या दान दोनों में सच्चा या
पक्का है, पेले=झोंक से चले)

जस बन रेंगि चलै गज-ठाटी । बोहित चले, समुद गा पाटी ॥
धावहि बोहित मन उपराहीं । सहस कोस एक पल महँ जाहीं ॥
समुद अपार सरग जनु लागा । सरग न घाल गनै बैरागा ॥
ततखन चाल्हा एक देखावा । जनु धौलागिरि परबत आवा ॥
उठी हिलोर जो चाल्ह नराजी । लहरि अकास लागि भुइँ बाजी ॥
राजा सेंती किँवर सब कहहीं । अस अस मच्छ समुद महँ अहहीं ॥
तेहि रे पंथ हम चाहहिं गवना । होहु सँजूत बहुरि नहिं अवना ॥

गुरु हमार तुम राजा, हम चेला तुम नाथ ।
जहाँ पाँव गुरु राखै, चेला राखै माथ ॥2॥

(ठाटी=ठट्ठ,झुंड, उपराहीं=अधिक(बेग से), घाल न गने=
पसंगे, बराबर भी नहीं गिनता,कुछ नहीं समझता, घाल=
घलुआ,थोड़ी सी और वस्तु जो सौदे के ऊपर बेचनेवाला
देता है, चाल्हा=एक मछली,चेल्हवा, नराजी=नाराज हुई,
भुइँ बाजी=भूमि पर पड़ी, सँजूत=सावधान,तैयार)

केवट हँसे सो सुनत गवेजा । समुद न जानु कुवाँ कर मेजा ॥
यह तौ चाल्ह न लागै कोहू । का कहिहौ जब देखिहौ रोहू?॥
सो अबहीं तुम्ह देखा नाहीं । जेहि मुख ऐसे सहस समाहीं ॥
राजपंखि तेहि पर मेडराहीं । सहस कोस तिन्ह कै परछाहीं ॥
तेइ ओहि मच्छ ठोर भरि लेहीं । सावक-मुख चारा लेइ देहीं ॥
गरजै गगन पंखि जब बोला । डोल समुद्र डैन जब डोला ॥
तहाँ चाँद औ सूर असूझा । चढ़ै सोइ जो अगुमन बूझा ॥

दस महँ एक जाइ कोइ करम, धरम, तप, नेम ।
बोहित पार होइ जब तबहि कुसल औ खेम ॥3॥

(गवेजा=बातचीत, मेजा=मेंढक, कोहू=किसी को)

राजै कहा कीन्ह मैं पेमा । जहाँ पेम कहँ कूसल खेमा ॥
तुम्ह खेवहु जौ खैवै पारहु । जैसे आपु तरहु मोहिं तारहु ॥
मोहिं कुसल कर सोच न ओता । कुसल होत जौ जनम न होता ॥
धरती सरग जाँत-पट दोऊ । जो तेहि बिच जिउ राख न कोऊ ।
हौं अब कुसल एक पै माँगौं । पेम-पंथ त बाँधि न खाँगौं ॥
जौ सत हिय तौ नयनहिं दीया । समुद न डरै पैठि मरजीया ॥
तहँ लगि हेरौं समुद ढंढोरी । जहँ लगि रतन पदारथ जोरी ॥

सप्त पतार खोजि कै काढ़ौं वेद गरंथ ।
सात सरग चढ़ि धावौं पदमावति जेहि पंथ ॥4॥

(ओता=उतना, पट=पल्ला, खाँगौ=कसर न करूँ,
मर-जीया=जी पर खेलकर विकट स्थानों से
व्यापार की वस्तु (जैसे, मोती, शिलाजीत,
कस्तूरी) लाने वाले,जिवकिया, ढंढोरी=छानकर)

लेखक

  • जायसी

    मलिक मुहम्मद जायसी हिन्दी साहित्य के भक्ति काल की निर्गुण प्रेमाश्रयी धारा के कवि हैं । वे अत्यंत उच्चकोटि के सरल और उदार सूफ़ी महात्मा थे। उनका जन्म सन १५०० के आसपास माना जाता है। वे उत्तर प्रदेश के जायस नामक स्थान के रहनेवाले थे। उनके नाम में जायसी शब्द का प्रयोग, उनके उपनाम की भांति, किया जाता है। उनके पिता का नाम मलिक राजे अशरफ़ बताया जाता है और वे मामूली ज़मींदार थे और खेती करते थे। स्वयं जायसी का भी खेती करके जीविका-निर्वाह करना प्रसिद्ध है। सैयद अशरफ़ उनके गुरु थे और अमेठी नरेश उनके संरक्षक थे। उनकी २१ रचनाओं के उल्लेख मिलते हैं जिसमें पद्मावत, अखरावट, आख़िरी कलाम, कहरनामा, चित्ररेखा आदि प्रमुख हैं। पर उनकी ख्याति का आधार पद्मावत ग्रंथ ही है। इसकी भाषा अवधी है और इसकी रचना-शैली पर आदिकाल के जैन कवियों की दोहा चौपाई पद्धति का प्रभाव पड़ा है।

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