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प्रेम-खंड-11 पद्मावत/जायसी

सुनतहि राजा गा मुरझाई । जानौं लहरि सुरुज कै आई ॥
प्रेम-घाव-दुख जान न कोई । जेहि लागै जानै पै सोई ॥
परा सो पेम-समुद्र अपारा । लहरहिं लहर होइ बिसँभारा ॥
बिरह-भौंर होइ भाँवरि देई । खिनखिन जीउ हिलोरा लेई ॥
खिनहिं उसास बूड़ि जिउ जाई । खिनहिं उठै निसरै बोराई ॥
खिनहिं पीत, खिनहोइ मुख सेता । खिनहिं चेत, खिन होइ अचेता ॥
कठिन मरन तें प्रेम-बेवस्था । ना जिउ जियै, न दसवँ अवस्था ॥

जनु लेनिहार न लेहिं जिउ, हरहिं तरासहिं ताहिं ।
एतनै बोल आव मुख, करैं तराहि तराहि” ॥1॥

(बिसँभरा=बेसँभाल,बेसुध, दसवँ अवस्था=दशम दशा,मरण,
लेनिहार=प्राण लेने वाले, हरहिं=धीरे धीरे, तरासहि=त्रास
दिखाते हैं)

जहँ लगि कुटुँब लोग औ नेगी । राजा राय आए सब बेगी ॥
जावत गुनी गारुड़ी आए । ओझा, बैद, सयान बोलाए ॥
चरचहिं चेर्टा परिखहिं नारी । नियर नाहिं ओषद तहँ बारी ॥
राजहिं आहि लखन कै करा । सकति-कान मोहा है परा ॥
नहिं सो राम, हनिवँत बड़ि दूरी । को लेइ आव सजीवन -मूरी?॥
बिनय करहिं जे गढ़पती । का जिउ कीन्ह, कौन मति मती?॥
कहहु सो पीर, काह पुनि खाँगा?। समुद सुमेरु आव तुम्ह माँगा ॥

धावन तहाँ पठावहु, देहिं लाख दस रोक ।
होइ सो बेलि जेहि बारी, आनहिं सबै बरोक ॥2॥

(गारुड़ी=साँप का बिष मंत्र से उतारनेवाला, चरचहि=
भाँपते हैं, करा=लीला,दशा, खाँगा=घटा, रोक=रोकड़,
रुपया, पाठांतर -“थोक”, बरोक=बरच्छा,फलदान)

जब भा चेत उठा बैरागा । बाउर जनौं सोइ उठि जागा ॥
आवत जग बालक जस रोआ । उठा रोइ `हा ज्ञान सो खौआ ‘ ॥
हौं तो अहा अमरपुर जहाँ । इहाँ मरनपुर आएउँ कहाँ?॥
केइ उपकार मरन कर कीन्हा । सकति हँकारि जीउ हरि लीन्हा ॥
सोवत रहा जहाँ सुख-साखा । कस न तहाँ सोवत बिधि राखा?॥
अब जिउ उहाँ, इहाँ तन सूना । कब लगि रहै परान-बिहूना ॥
जौ जिउ घटहि काल के हाथा । घट न नीक पै जीउ -निसाथा ॥

अहुठ हाथ तन-सरवर, हिया कवँल तेहि माँह ।
नैनहिं जानहु नीयरे, कर पहुँचत औगाह ॥3॥

(विहूना=बिहीन,बिना, घट=शरीर, निसाथा=बिना साथ के,
अहुठ=साढ़े तीन)

सबन्ह कहामन समुझहु राजा । काल सेंति कै जूझ न छाजा ॥
तासौं जूझ जात जो जीता । जानत कृष्ण तजा गोपीता ॥
औ न नेह काहू सौं कीजै । नाँव मिटै, काहे जिउ दीजै ॥
पहिले सुख नेहहिं जब जोरा । पुनि होइ कठिन निबाहत ओरा ॥
अहुठ हाथ तन जैस सुमेरू । पहुँचि न जाइ परा तस फेरू ॥
ज्ञान-दिस्टि सौं जाइ पहुँचा । पेम अदिस्ट गगन तें ऊँचा ॥
धुव तें ऊँच पेम-धुव ऊआ । सिर देइ पाँव देइ सो छूआ ॥

तुम राजा औ सुखिया, करहु राज-सुख भोग ।
एहि रे पंथ सो पहुँचै सहै जो दुःख बियोग ॥4॥

(काल सेंति=काल से, धुव=ध्रुव, सिर देइ….छूआ=सिर
काटकर उसपर पैर रखकर खड़ा हो)

सुऐ कहा मन बूझहू राजा । करब पिरीत कठिन है काजा ॥
तुम रजा जेईं घर पोई । कवँल न भेंटेउ, भेंटेउ कोई ॥
जानहिं भौंर जौ तेहि पथ लूटे । जीउ दीन्ह औ दिएहु न छूटे ॥
कठिन आहिं सिंघल कर राजू । पाइय नाहिं झूझ कर साजू ॥
ओहि पथ जाइ जो होइ उदासी । जोगी, जती तपा, सन्यासी ॥
भौग किए जौं पावत भोगू । तजि सो भो कोइ करत न जोगू ॥
तुम राजा चाहहु सुख पावा । भोगहि जोग करत नहिं भावा ॥

साधन्ह सिद्धि न पाइय जौ लगि सधै न तप्प ।
सो पै जानै बापुरा करै जो सीस कलप्प ॥5॥

(पोई=पकाई हुई, तुम….पोई=अब तक पकी पकाई खाई
अर्थात आराम चैन से रहे, साधन्ह=केवल साध या इच्छा ने,
कलप्प करै=काट डाले)

का भा जोग-कथनि के कथे । निकसै घिउ न बिना दधि मथे ॥
जौ लहि आप हेराइ न कोई । तौ लहि हेरत पाव न सोई ॥
पेम -पहार कठिन बिधि गढ़ा । सो पै चढ़ै जो सिर सौं चढ़ा ॥
पंथ सूरि कै उठा अँकूरू । चोर चढ़ै, की चढ़ मंसूरू ॥
तू राजा का पहिरसि कंथा । तोरे घरहहि माँझ दस पंथा ॥
काम, क्रोध, तिस्ना, मद माया । पाँचौ चोर न छाँडहिं काया ॥
नवौ सेंध तिन्ह कै दिठियारा । घर मूसहिं निसि, की उजियारा ॥

अबहू जागु अजाना, होत आव निसि भोर ।
तब किछु हाथ न लागहिं मूसि जाहिं जब चोर ॥6॥

(सूरि=सूली, दिठियार=देखा हुआ, भूसि जाहिं=चुरा ले जायँ)

सुनि सो बात राजा मन जागा । पलक न मार, पेम चित लागा ॥
नैनन्ह ढरहिं मोति औ मूँगा । जस गुर खाइ रहा होइ गूँगा ॥
हिय कै जोति दीप वह सूझा । यह जो दीप अँधियारा बुझा ॥
उलटि दीठी माया सौं रूठो । पटि न फिरी जानि कै झूठी ॥
झझौ पै नाहीं अहथिर दसा । जग उजार का कीजिय बसा ॥
गुरू बिरह-चिनगी जो मेला । जो सुलगाइ लेइ सो चेला ॥
अब करि फनिग भृंग कै करा । भौंर होहुँ जेहि कारन जरा ॥

फूल फूल फिरि पूछौं जौ पहुँचौं ओहि केत ॥
तन नेवछावरि कै मिलौं ज्यों मधुकर जिउ देत ॥7॥

(अहथिर=स्थिर, उजार=उजाड़, बसा=बसे हुए, फनिग=
फनगा,फतिंगा,पतंग, भृंग=कीड़ा जिसके विषय में
प्रसिद्ध है कि और पतिंगों को अपने रूप का कर
लेता है, करा=कला,व्यापार, कैत=ओर,तरफ,अथवा केतकी)

बंधु मीत बहुतै समुझावा । मान न राजा कोउ भुलावा ॥
उपजि पेम-पीर जेहि आई । परबोधत होइ अधिक सो आई ॥
अमृत बात कहत बिष जाना । पेम क बचन मीठ कै माना ॥
जो ओहि विषै मारिकै खाई । पूँछहु तेहि सन पेम-मिठाई ॥
पूँछहु बात भरथरिहि जाई । अमृत-राज तजा विष खाई ॥
औ महेस बड़ सिद्ध कहावा । उनहूँ विषै कंठ पै लावा ॥
होत आव रवि-किरिन बिकासा। हनुवँत होइ को देइ सुआसा ॥

तुम सब सिद्धि मनावहु हिइ गनेस सिधि लेव ।
चेला को न चलावै तुलै गुरू जेहि भेव?॥8॥

(अमृत=संसार का अच्छा से अच्छा पदार्थ, विषै=विष तथा
अध्यात्म पक्ष में विषय; पहले यदि संजीवनी बूटी आ जायगी
तो वे बचेंगे तब राम को हनुमान जी ने ही आशा बँधाई थी,
तुलै गुरू जेहि मेव=जिस भेद तक गुरु पहुँचता है)

लेखक

  • जायसी

    मलिक मुहम्मद जायसी हिन्दी साहित्य के भक्ति काल की निर्गुण प्रेमाश्रयी धारा के कवि हैं । वे अत्यंत उच्चकोटि के सरल और उदार सूफ़ी महात्मा थे। उनका जन्म सन १५०० के आसपास माना जाता है। वे उत्तर प्रदेश के जायस नामक स्थान के रहनेवाले थे। उनके नाम में जायसी शब्द का प्रयोग, उनके उपनाम की भांति, किया जाता है। उनके पिता का नाम मलिक राजे अशरफ़ बताया जाता है और वे मामूली ज़मींदार थे और खेती करते थे। स्वयं जायसी का भी खेती करके जीविका-निर्वाह करना प्रसिद्ध है। सैयद अशरफ़ उनके गुरु थे और अमेठी नरेश उनके संरक्षक थे। उनकी २१ रचनाओं के उल्लेख मिलते हैं जिसमें पद्मावत, अखरावट, आख़िरी कलाम, कहरनामा, चित्ररेखा आदि प्रमुख हैं। पर उनकी ख्याति का आधार पद्मावत ग्रंथ ही है। इसकी भाषा अवधी है और इसकी रचना-शैली पर आदिकाल के जैन कवियों की दोहा चौपाई पद्धति का प्रभाव पड़ा है।

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