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नागमती-संदेश-खंड-31 पद्मावत/जायसी

फिरि फिरि रोव, कोइ नहीं डोला । आधी राति बिहंगम बोला ॥
“तू फिरि फिरि दाहै सब पाँखी । केहि दुख रैनि न लावसि आँखी”
नागमती कारन कै रोई । का सोवै जो कंत-बिछोई ॥
मनचित हुँते न उतरै मोरे । नैन क जल चुकि रहा न मोरे ॥
कोइ न जाइ ओहि सिंगलदीपा । जेहि सेवाति कहँ नैना सीपा ॥
जोगी होइ निसरा सो नाहू । तब हुँत कहा सँदेस न काहू ॥
निति पूछौं सब जोगी जंगम । कोइ न कहै निज बात, बिहंगम!॥

चारिउ चक्र उजार भए, कोइ न सँदेसा टेक ।
कहौं बिरह दुख आपन, बैठि सुनहु दँड एक ॥1॥

(कारन कै=करुणा करके (अवध), तब हुँत=तब से,
टेक=ऊपर लेता है)

तासौं दुख कहिए, हो बीरा । जेहिं सुनि कै लागै पर पीरा ॥
को होइ भिउ अँगवे पर=दाहा । को सिंघल पहुँचावै चाहा?॥
जहँवाँ कंत गए होइ जोगी । हौं किंगरी भइ झूरि बियोगी ॥
वै सिंगी पूरी, गुरु भेंटा । हौं भइ भसम, न आइ समेटा ॥
कथा जो कहै आइ ओहि केरी । पाँवर होउँ, जनम भरि चेरी ॥
ओहि के गुन सँवरत भइ माला । अबहुँ न बहुरा उड़िगा छाला ॥
बिरह गुरू, खप्पर कै हीया । पवन अधार रहै सो जीया ॥

हाड़ भए सब किंगी, नसैं भई सब ताँति ।
रोवँ रोवँ तें धुनि उठैं, कहौं बिथा केहि भाँति? ॥2॥

(बीरा=भाई, भिउँ=भीम, अँगवै=अंग पर सहे,
चाहा=खबर, पाँवरि=जूती),
ठेघा=टिका, ठहरा, डफारा=चिल्लाया )

पदमावति सौं कहेहु, बिहंगम । कंत लोभाइ रही करि संगम ॥
तू घर घरनि भई पिउ-हरता । मोहि तन दीन्हेसि जप औ बरता ॥
रावट कनक सो तोकहँ भएऊ । रावट लंक मोहिं कै गएऊ ॥
तोहि चैन सुख मिलै सरीरा । मो कहँ हिये दुंद दुख पूरा ॥
हमहुँ बियाही संग ओहि पीऊ । आपुहि पाइ जानु पर-जीऊ ॥
अबहुँ मया करु, करु जिउ फेरा । मोहिं जियाउ कंत देइ मेरा ॥
मोहिं भोग सौं काज न बारी । सौंह दीठि कै चाहनहरी ॥

सवति न होहि तू बैरिनि, मोर कंत जेहहि हाथ ।
आनि मिलाव एक बेर, तोर पाँय मोर माथ ॥3॥

(घर=अपने घर में ही, घरनि=घर वाली,गृहिणी, रावट=
महल, लंक=जलती हुई लंका, चाहनहारी=देखनेवाली)

रतनसेन कै माइ सुरसती । गोपीचंद जसि मैनावती ॥
आँधरि बूढ़ि होइ दुख रोवा । जीवन रतन कहाँ दहुँ खोवा ॥
जीवन अहा लीन्ह सो काढ़ी । भइ विनु टेक, करै को ठाढ़ी?॥
बिनु जीवन भइ आस पराई । कहाँ सो पूत खंभ होइ आई ॥
नैन दीठ नहिं दिया बराहीं । घर अँधियार पूत जौ नाहीं ॥
को रे चलै सरवन के ठाँऊ । टेक देह औ टेकै पाऊँ ॥
तुम सरवन होइ काँवरि सजा । डार लाइ अब काहे तजा?॥

“सरवन! सरवन!” ररि मुई माता काँवरि लागि ।
तुम्ह बिनु पानि न पावैं, दसरथ लावै आगि ॥4॥

(खंभ=सहारा, बराहीं=जलते हैं, सरवन=`श्रमणकुमार’,जिसकी
कथा उत्तरापथ में घर घर प्रसिद्ध है, काँवरि=बाँस के
डंडे के दोनों छोरों पर बँधे हुए झाबे, जिनमे तीर्थयात्री
लोग गंगाजल आदि लेकर चला करते हैं,(सरवन अपने
माता=पिता को काँवरि में बैठाकर ढोया करते थे )

लेइ सो सँदेश बिहंगम चला । उठी आगि सगरौं सिंगला ॥
बिरह-बजागि बीच को ठेघा?। धूम सो उठा साम भए मेघा ॥
भरिगा गगन लूक अस छूटे । होइ सब नखत आइ भुइँ टूटे ॥
जहँ जहँ भूमि जरी भा रेहू । बिरह के दाघ भई जनु खेहू ॥
राहु केतु, जब लंका जारी । चिनगो उड़ी चाँद महँ परी ॥
जाइ बिहंगम समुद डफारा । जरे मच्छ पानी भा खारा ॥
दाधे बन बीहड़, जड़, सीपा । जाइ निअर भा सिंघलदीपा ॥

समुद तीर एक तरिवर, जाइ बैठ तेहि रूख ।
जौ लगि कहा सदेस नहि, नहिं पियास, नहिं भूख ॥5॥

रतनसेन बन करत अहेरा । कीन्ह ओही तरिवर-तर फेरा ॥
सीतल बिरिछ समुद के तीरा । अति उतंग ओ छाँह गँभीरा ॥
तुरय बाँधि कै बैठ अकेला । साथी और करहिं सब खेला ॥
देखत फिरै सो तरिवर-साखा । लाग सुनै पंखिन्ह कै भाखा ॥
पंखिन महँ सो बिहंगम अहा । नागमती जासौं दुख कहा ॥
पूछहिं सबै बिहंगम नामा । अहौ मीत! काहै तुम सामा?॥
कहेसि “मीत! मासक दुइ भए । जंबूदीप तहाँ हम गए ॥

नगर एक हम देखा, गढ़ चितउर ओहि नाँव ।
सो दुख कहौं कहाँ लगि, हम दाढ़े तेहिं ठावँ ॥6॥

जोगी होइ निसरा सो राजा । सून नगर जानहु धुंध बाजा ॥
नागमती है ताकरि रानी । जरी बिरह, भइ कोइल-बानी ॥
अब लगि जरि भइ होइहि छारा । कही न जाइ बिरह कै झारा ॥
हिया फाट वहव जबहिं कूकी । परै आँसु सब होइ होइ लूकी ॥
चहूँ खंड छिटकी वह आगी । धरती जरति गगन कहँ लागी ॥
बिरह-दवा को जरत बुझावा?। जेहि लागै सो सौंहैं धावा ॥
हौं पुनि तहाँ सो दाढ़ै लागा । तन भा साम, जीउ लेइ भागा ॥

का तुम हँसहु गरब कै, करहु समुद महँ केलि ।
मति ओहि बिरहा बस परै, दहै अगिनि जो मेलि”॥7॥

(धुँध बाजा=धुंध या अंधकार छाया, बानी=वर्ण की,
भइ होइहि=हुई होगी, झार=ज्वाला, लूकी=लुक,
दवा=दावाग्नि)

सुनि चितउर-राजा मन गुना । बिदि-सँदेस मैं कासौं सुना ॥
को तरिवरि पर पंखि-बेखा । नागमति कर कहै सँदेसा?॥
को तुँ मीत मन-चित्त-बसेरु । देव कि दानव पवन पखेरू?॥
ब्रह्म बिस्नु बाचा है तोही । सो निज बात कहै तू मोही ॥
कहाँ सो नागमती तैं देखी ।कहेसि बिरह जस मनहिं बिसेखी ॥
हौं सोई राजा भा जोगी । जेहि कारन वह ऐसि बियोगी ॥
जस तूँ पंखि महूँ दिन भरौं । चाहौं कबहि जाइ उड़ि परौं ॥

पंखि! आँखि तेहि मारग लागी सदा रहाहिं ।
कोइ न सँदेसी आवहिं, तेहि क सँदेश कहाँहिं ॥8॥

(बसेरू=वसनेवाला, दिन भरौं=दिन बिताता हूँ, महूँ=मैं भी)

पूछसि कहा सँदेस-बियोगू । जोगी भए न जानसि भोगू ॥
दहिने संख न सिंगी पूरै । बाएँ पूरि राति दिन झूरै ॥
तेलि बैल जस बावँ फिराई । परा भँवर महँ सो न तिराई ॥
तुरय, नाव, दहिने रथ हाँका । बाएँ फिरै कोहाँर क चाका ॥
तोहिं अस नाहीं पंखि भुलाना । उड़े सो आव जगत महँ जाना ॥
एक दीप का आएउँ तोरे । सब संसार पाँय-तर मोरे ॥
दहिने फिरै सो अस उजियारा । जस जग चाँद सुरुज मनियारा ॥

मुहमद बाईं दिसि तजा, एक स्रवन, एक आँखि ।
जब तें दाहिन होइ मिला बोल पपीहा पाँखि ॥9॥

(दहिने संख=दक्षिणावर्त शंख नहीं फूँकता, झूरै=सूखता है,
तिराई=पानी के ऊपर आता है, तोहिं अस…भुलाना=पक्षी
तेरे ऐसा नहीं भूले हैं, वे जानते हैं कि हम उड़ने के लिए
इस संसार में आए हैं, मनियार=रौनक,चमकता हुआ,
मुहमद बाँई…आँखि=मुम्मद कवि ने बाईं ओर आँख
और कान करना छोड़ दिया (जायसी काने थे भी)

अर्थात् वाम मार्ग छोड़कर दक्षिण मार्ग का अनुसरण
किया, बोल=कहलाता है)

हौं धुव अचल सौं दाहिनि लावा । फिर सुमरु चितुउर-गढ़ आवा ॥
देखेउँ तोरे मँदिर घमोई । मातु तोहि आँधरि भइ रोई ॥
जस सरवन बिनु अंधी अंधा । तस ररि मुई, तोहि चित बँधा ॥
कहेसि मरौं, को काँवरि लेइ?। पूत नाहिं, पानी को तेई?॥
गई पियास लागि तेहि साथा । पानि दीन्ह दशरथ के हाथा ॥
पानि न पिये, आगि पै चाहा । तोहि अस सुत जनमे अस लाहा ॥
होइ भगीरथ करु तहँ फेरा । जाहि सवार, मरन कै बेरा ॥

तू सपूत माता कर , अस परदेस न लेहि ।
अब ताईं मुइ होइहि, मुए जाइ गति तेहि ॥10॥

(दाहिन लावा=प्रदक्षिणा की, घमोई=सत्यानासी या
भँडभाँढ नामक कंटीला पौधा जो खंडहरों या उजड़े
मकानों में प्रायः उगता है, सबार=जल्दी)

नागमति दुख बिरह अपारा । धरती सरग जरै तेहि झारा ॥
नगर कोट घर बाहर सूना । नौजि होइ घर पुरुष-बिहूना ॥
तू काँवरू परा बस टोना । भूला जोग, छरा तोहि लोना ॥
वह तोहि कारन मरि भइ छारा । रही नाग होइ पवन अधारा ॥
कहुँ बोलहि `मो कहँ लेइ खाहू’। माँसु न, काया रचै जो काहू ॥
बिरह मयूर, नाग वह नारी । तू मजार करु बेगि गोहारी ॥
माँसु गिरा, पाँजर होइ परी । जोगी! अबहुँ पहुँचु लेइ जरी ॥

देखि बिरह-दुख ताकर मैं सो तजा बनवास ।
आएउँ भागि समुद्रतट तबहुँ न छाड़ै पास ॥11॥

(नौजि=न,ईश्वर न करे (अवध), काँवरू=कामरूप में जो
जादू के लिये प्रसिद्ध है, लोना=लोना चमारी जो जादू में
एक थी, मजार=बिल्ली, जरी=जड़ी-बूटी)

अस परजरा बिरह कर गठा । मेघ साम भए धूम जो उठा ॥
दाढ़ा राहु, केतु गा दाधा । सूरज जरा, चाँद जरि आधा ॥
औ सब नखत तराईं जरहीं । टूटहिं लूक धरति महँ परहीं ॥
जरै सो धरती ठावहिं ठाऊँ । दहकि पलास जरै तेहि दाऊ ॥
बिरह-साँस तस निकसै झारा । दहि दहि परबत होहिं अँगारा ॥
भँवर पतंग जरैं औ नागा । कोइल, भुजइल, डोमा कागा ॥
बन-पंखी सब जिउ लेइ उड़े । जल महँ मच्छ दुखी होइ बुड़े ॥

महूँ जरत तहँ निकसा, समुद बुझाएउँ आइ ।
समुद, पान जरि खार भा, धुँआ रहा जग छाइ ॥12॥

(परजरा=प्रज्वलित हुआ,जला, गठा=गट्ठा,ढेर, दाऊँ=
दवाग्नि, भुजइल=भुजंगा नाम का काला पक्षी, डोमा
कागा=बड़ा कौवा जो सर्वांग काला होता है)

राजै कहा, रे सरग सँदेसी । उतरि आउ, मोहिं मिलु, रे बिदसी ॥
पाय टेकि तोहि लायौं हियरे । प्रेम-सँदेस कहहु होइ नियरे ॥
कहा बिहंगम जो बनवासी । “कित गिरही तें होइ उदासी?॥
“जेहि तरवर-तर तुम अस कोऊ । कोकिल काग बराबर दोऊ ॥
“धरती महँ विष-चारा परा । हारिल जानि भूमि परिहरा ॥
“फिरौं बियोगी डारहि डारा । करौं चलै कहँ पंख सँवारा ॥
“जियै क घरी घटति निति जाहीं । साँझहिं जीउ रहै, दिन नाहीं ॥

जौ लहि फिरौं मुकुत होइ परौं न पींजर माँह ।
जाउ बेगि थल आपने, है जेहि बीच निबाह”” ॥13॥

(सरग सँदेसी=स्वर्ग से (ऊपर से) सँदेसा कहनेवाला, गिरही=
गृह ।हारिल…परिहरा=कहते हैं, हारिल भूमि पर पैर नहीं
रखता; चंगुल में सदा लकड़ी लिए रहता है जिससे पैर
भूमि पर पैर न पड़े, चलै कहँ=चलने के लिए)

कहि संदेस बिहंगम चला । आगि लागि सगरौं सिघला ॥
घरी एक राजा गोहराबा । भा अलोप, पुनि दिस्टि न आवा ॥
पंखी नावँ न देखा पाँखा । राजा होइ फिरा कै साँखा ॥
जस हैरत वह पंखि हेराना । दिन एक हमहूँ करब पयाना ॥
जौ लगि प्रान पिंड एक ठाऊँ । एक बार चितउर गढ़ जाऊँ ॥
आवा भँवर मंदिर महँ केवा । जीउ साथ लेइ गएउ परेवा ॥
तन सिंघल, मन चितउर बसा । जिउ बिसँभर नागिनि जिमि डसा ॥

जेति नारि हँसि पूछहिं अमिय-बचन जिउ-तंत ।
रस उतरा, बिष चढ़ि रहा, ना ओहि तंत न मंत ॥14॥

(गोहरावा=पुकारा, साँखा=शंका, चिंता, पिंड=शरीर, मंदिर
महँ केवा=कमल (पद्मावती) के घर में, बिसँभर=बेसँभाल,
सुध-बुध भूला हुआ, जेति नारि=जितनी स्त्रियाँ हैं सब,
जिउ तंत=जी की बात (तत्त्व))

बरिस एक तेहि सिंगल भएऊ । भौग बिलास करत दिन गयऊ ॥
भा उदास जौ सुना सँदेसू । सँवरि चला मन चितउर देसू ॥
कँवल उदास जो देखा भँवरा । थिर न रहै अब मालति सँवरा ॥
जोगी, भवरा, पवन परावा । कित सो रहै जो चित्त उठावा?॥
जौं पै काढ़ देइ जिउ कोई । जोगी भँवर न आपन होई ॥
तजा कवल मालति हिय घाली । अब कित थिर आछै अलि , आली ॥
गंध्रबसेन आव सुनि बारा । कस जिउ भएउ उदास तुम्हारा?॥

मैं तुम्हही जिउ लावा, दीन्ह नैन महँ बास ।
जौ तुम होहु उदास तौ यह काकर कबिलास? ॥15॥

(परावा=पराए,अपने नहीं, चित्त उठावा=जाने का संकल्प
या विचार किया, हिय घाली=हृदय में लाकर)

लेखक

  • जायसी

    मलिक मुहम्मद जायसी हिन्दी साहित्य के भक्ति काल की निर्गुण प्रेमाश्रयी धारा के कवि हैं । वे अत्यंत उच्चकोटि के सरल और उदार सूफ़ी महात्मा थे। उनका जन्म सन १५०० के आसपास माना जाता है। वे उत्तर प्रदेश के जायस नामक स्थान के रहनेवाले थे। उनके नाम में जायसी शब्द का प्रयोग, उनके उपनाम की भांति, किया जाता है। उनके पिता का नाम मलिक राजे अशरफ़ बताया जाता है और वे मामूली ज़मींदार थे और खेती करते थे। स्वयं जायसी का भी खेती करके जीविका-निर्वाह करना प्रसिद्ध है। सैयद अशरफ़ उनके गुरु थे और अमेठी नरेश उनके संरक्षक थे। उनकी २१ रचनाओं के उल्लेख मिलते हैं जिसमें पद्मावत, अखरावट, आख़िरी कलाम, कहरनामा, चित्ररेखा आदि प्रमुख हैं। पर उनकी ख्याति का आधार पद्मावत ग्रंथ ही है। इसकी भाषा अवधी है और इसकी रचना-शैली पर आदिकाल के जैन कवियों की दोहा चौपाई पद्धति का प्रभाव पड़ा है।

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