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चित्तौर-आगमन-खंड-35 पद्मावत/जायसी

चितउर आइ नियर भा राजा । बहुरा जीति, इंद्र अस गाजा ॥
बाजन बाजहिं, होइ अँदोरा । आवहिं बहल हस्ति औ घोरा ॥
पदमावति चमडोल बईठी । पुनि गइ उलटि सरग सौं दीठी ॥
यह मन ऐंठा रहै न सूझा । बिपति न सँवरे संपति-अरुझा ॥
सहस बरिस दुख सहै जो कोई । घरी एक सुख बिसरै सोई ॥
जोगी इहै जानि मन मारा । तौंहुँ न यह मन मरै अपारा ॥
रहा न बाँधा बाँधा जेही । तेलिया मारि डार पुनि तेही ॥

मुहमद यह मन अमर है, केहुँ न मारा जाइ ॥
ज्ञान मिलै जौ एहि घटै, घटतै घटत बिलाइ ॥1॥

(अँदोरा=अंदोर,हलचल,शोर (आंदोल), चंडोल=पालकी, सरग
सौं=ईश्वर से, तेलिया=सींगिया विष, तेलिया….तेही=चाहे उसे
तेलिया विष से न मारे, केहुँ=किसी प्रकार)

नागमती कहँ अगम जनावा । गई तपनि बरषा जनु आवा ॥
रही जो मुइ नागिनि जसि तुचा । जिउ पाएँ तन कै भइ सुचा ॥
सब दुख जस केंचुरि गा छूटी । होइ निसरी जनु बीरबहूटी ॥
जसि भुइँ दहि असाढ़ पलुहाई । परहिं बूँद औ सोंधि बसाई ॥
ओहि भाँति पलुही सुख-बारी । उठी करिल नइ कोंप सँवारी ॥
हुलसि गंग जिमि बाढ़िहि लेई । जोबन लाग हिलोरैं देई ॥
काम, धनुक सर लेइ भइ ठाढ़ी । भागेउ बिरह रहा जो डाढ़ी ॥

पूछहिं सखी सहेलरी, हिरदय देखि अनंद ।
आजु बदन तोर निरमल, अहैं उवा जस चंद ॥2॥

(तुच=त्वचा,केंचली, सुचा=सूचना,सुध,खबर, सोंधि बसाई=
सुगंध से बस जाती है या सोंधी महकती है, करिल=कल्ला,
कोंप=कोंपल)

अब लगि रहा पवन, सखि ताता । आजु लाग मोहिं सीअर गाता ॥
महि हुलसै जस पावस-छाहाँ । तस उपना हुलास मन माहाँ ॥
दसवँ दावँ कै गा जो दसहरा । पलटा सोइ नाव लेइ महरा ॥
अब जोबन गंगा होइ बाढ़ा । औटन कठिन मारि सब काढ़ा ॥
हरियर सब देखौं संसारा । नए चार जनु भा अवतारा ॥
भागेउ बिरह करत जो दाहू । भा मुख चंद, छूटि गा राहू ॥
पलुहे नैन, बाँह हुलसाहीं । कोउ हितु आवै जाहि मिलाहीं ॥

कहतहि बात सखिन्ह सौं, ततखन आबा भाँट ।
राजा आइ निअर भा, मंदिर बिछावहु पाट ॥3॥

(ताता=गरम, दसवँ दावँ=दशम दशा,मरण, महरा=सरदार,
औटन=ताप, नए चार=नए सिर से )

सुनि तेहि खन राजा कर नाऊँ । भा हुलास सब ठाँवहिं ठाऊँ ॥
पलटा जनु बरषा-ऋतु राजा । जस असाढ़ आवै दर साजा ॥
देखि सो छत्र भई जग छाहाँ । हस्ति-मेघ ओनए जग माहाँ ॥
सेन पूरि आई घन घोरा । रहस-चाव बरसै चहुँ ओरा ॥
धरति सरग अव होइ मेरावा । भरीं सरित औ ताल तलावा ॥
उठी लहकि महि सुनतहि नामा । ठावहिं ठावँ दूब अस जामा ॥
दादुर मोर कोकिला बोले । हुत जो अलोप जीभ सब खोले ॥

होइ असवार जो प्रथमै मिलै चले सब भाइ ।
नदी अठारह गंडा मिलीं समुद कह जाइ ॥4॥

(दर=दल, रहस-चाव=आनंद-उत्साह, लहकि उठी=लहलहा
उठी, हुत=थे, अठारह गंडा नदी=अवध में जन साधारण के
बीच यह प्रसिद्ध है कि समुद्र में अठारह गंडे (अर्थात् 72)

नदियाँ मिलती हैं)

बाजत गाजत राजा आवा ।नगर चहूँ दिसि बाज बधावा ॥
बिहँसि आइ माता सौं मिला । राम जाइ भेंटी कौसिला ॥
साजै मंदिर बंदनवारा । होइ लाग बहु मंगलचारा ॥
पदमावति कर आव बेवानू । नागमती जिउ महँ भा आनू ॥
जनहुँ छाँह महँ धूप देखाई । तैसइ झार लागि जौ आई ॥
सही न जाइ सवति कै झारा । दुसरे मंदिर दीन्ह उतारा ॥
भई उहाँ चहुँ खंड बखानी । रतनसेन पदमावति आनी ॥

पुहुप गंध संसार महँ, रूप बखानि न जाइ ।
हेम सेत जनु उघरि गा, जगत पात फहराइ ॥5॥

(बेवान=विमान, जिउ महँ भा आनू=जी में कुछ और भाव
हुआ, झार=लपट,ईर्ष्या,डाह, जौ=अब,उतारा, हेम सेत=सफेद
पाला या बर्फ)

बैठ सिंघासन, लोग जोहारा । निधनी निरगुन दरब बोहारा ॥
अगनित दान निछावरि कीन्हा । मँगतन्ह दान बहुत कै दीन्हा ॥
लेइ के हस्ति महाउत मिले । तुलसी लेइ उपरोहित चले ॥
बेटा भाइ कुँवर जत आवहिं । हँसि हँसि राजा कंठ लगावहिं ॥
नेगी गए, मिले अरकाना । पँवरहिं बाजै घहरि निसाना ॥
मिले कुँवर, कापर पहिराए । देइ दरब तिन्ह घरहिं पठाए ॥
सब कै दसा फिरी पुनि दुनी । दान-डाँग सबही जग सुनी ॥

बाजैं पाँच सबद निति, सिद्धि बखानहिं भाँट ।
छतिस कूरि, षट दरसन, आइ जुरे ओहि पाट ॥6॥

(बहुत कै=बहुत सा, जत=जिससे, अरकाना=अरकाने दौलत,
सरदार उमरा, दुनी=दुनिया में, डाँग=डंका, पाँच सबद=पंच
शब्द, पाँच बाजे-तंत्री,ताल,झाँझ,नगाड़ा और तुरही, छतिस
कूरि=छत्तीसों कुल के क्षत्रिय, षट दरसन=(लक्षण से) छः
शास्त्रों के वक्ता)

सब दिन राजा दान दिआवा । भइ निसि, नागमती पहँ आवा ॥
नागमती मुख फेरि बईठी । सौंह न करै पुरुष सौं दीठी ॥
ग्रीषम जरत छाँडि जो जाइ । सो मुख कौन देखावै आई?॥
जबहिं जरै परबत बन लागै । उठी झार, पंखी उड़ि भागे ॥
जब साखा देकै औ छाहाँ । को नहिं रहसि पसारै बाहाँ ॥
को नहिं हरषि बैठ तेहि डारा । को नहिं करै केलि कुरिहारा?॥
तू जोगी होइगा बैरागी । हौं जरि छार भएउँ तोहि लागी ॥

काह हँसौ तुम मोसौं, किएउ ओर सौं नह ।
तुम्ह मुख चमकै बीजुरी, मोहिं मुख बरिसै मेह ॥7॥

(दिआवा=दिलाया, कुरिहारा=कलरव,कोलाहल)

नागमति तू पहिलि बियाही । कठिन प्रीति दाहै जस दाही ॥
बहुतै दिनन आव जो पीऊ । धनि न मिलै धनि पाहन जीऊ ॥
पाहन लोह पोढ़ जग दोऊ । तेऊ मिलहिं जौ होइ; बिछोऊ ।
भलेहि सेत गंगाजल दीठा । जमुन जो साम, नीर अति मीठा ॥
काह भएउ तन दिन दस दहा । जौ बरषा सिर ऊपर अहा ॥
कोइ केहु पास आस कै हेरा । धनि ओहि दरस-निरास न फेरा ॥
कंठ लाइ कै नारि मनाई । जरी जो बेलि सींचि पलुहाई ॥

सबै पंखि मिलि आइ जोहारे, लौटि उहै भइ भीर ॥
जौ भा मेर भएउ रँग राता । नागमती हँसि पूछी बाता ॥8॥

(पोढ़=दृढ़,मजबूत,कड़े, फरे सहस…भीर=अर्थात् नागमती में
फिर यौवन-श्री और रस आ गया और राजा के अंग अंग
उससे मिले)

कहहु, कंत! ओहि देस लोभाने । कस धनि मिली, भोग कस माने ॥
जौ पदमावति सुठि होइ लोनी । मोरे रूप की सरवरि होनी?॥
जहाँ राधिका गोपिन्ह माहाँ । चंद्रावलि सरि पूज न छाहाँ ॥
भँवर-पुरुष अस रहै न राखा । तजै दाख, महुआ-सर चाखा ॥
तजि नागेसर फूल सोहावा कँवल बिसैंधहिं सौं मन लावा ॥
जौ अन्हवाइ भरै अरगजा । तौंहुँ बिसायँध वह नहिं तजा ॥

काह कहौं हौं तोसौं, किछु न हिये तोहि भाव ।
इहाँ भात मुख मोसौं, उहाँ जीउ ओहि ठाँव ॥9॥

(मेर=मेल,मिलाप, लोनी=सुंदर, नागसेर=नागमती, कँवल=
पद्मावती, बिसैंधा=बिसायँध गंधवाला,मछली की सी गंधवाला,
भाव=प्रेम भाव)

कहि दुख कथा जौ रैनि बिहानी । भएउ भोर जहँ पदमिनि रानी ॥
भानु देख ससि-बदन मलीना । कँवल-नैन राते, तनु खीना ॥
रेनि नखत गनि कीन्ह बिहानू । बिकल भई देखा जब भानू ॥
सूर हँसै, ससि रोइ डफारा । टूट आँसु जनु नखतन्ह मारा ॥
रहै न राखी होइ निसाँसी । तहँवा जाहु जहाँ निसि बासी ॥
हौं कै नेह कुआँ महँ मेली । सींचै लागि झुरानी बेली ॥
नैन रहे होइ रहँट क घरी । भरी ते ढारी, छूँछी भरी ॥

सुभर सरोवर हंस चल, घटतहि गए बिछोइ ।
कंबल न प्रीतम परिहरै, सूखि पंक बरू होइ ॥10॥

(देख=देखा, भानू=सूर्य,रत्नसेन, डफारा=ढाढ मारती है,
मारा=माला, कुआँ महँ मेली=मुझे तो कुएँ में डाल दिया,
किनारे कर दिया, झुरान=सूखी, घरी=घड़ा, सुभर=भरा हुआ)

पदमावति तुइँ जीउ पराना । जिउ तें जगत पियार न आना ॥
तुइ जिमि कँवल बसी हिय माहाँ । हौं होइ अलि बेधा तोहि पाहाँ ॥
मालति-कली भँवर जौ पावा । सो तजि आन फूल कित भावा? ॥
मैं हौं सिंघल कै पदमिनी । सरि न पूज जंबू-नगिनी ॥
हौं सुगंध निरमल उजियारी । वह बिष-भरी डेरावनि कारी ॥
मोरी बास भँवर सँग लागहिं । ओहि देखत मानुष डरि भागहिं ॥
हौं पुरुषन्ह कै चितवन दीठी । जेहिके जिउ अस अहौं पईठी ॥

ऊँचे ठाँव जो बैठे , करै न नीचहि संग ।
जहँ सो नागिनि हिरकै करिया करै सो अंग ॥11॥

(बेधा तोहि पाहाँ=तेरे पास उलझ गया हूँ, डेरावनि=डरावनी,
हिरके=सटे, करिया=काला)

पलुही नागमती कै बारी । सोने फूल फूलि फुलवारी ॥
जावत पंखि रहे सब दहे । सबै पंखि बोलत गहगहे ॥
सारिउँ सुवा महरि कोकिला । रहसत आइ पपीहा मिला ॥
हारिल सबद, महोख सोहावा । काग कुराहर करि सुख पावा ॥
भोग बिलास कीन्ह कै फेरा । बिहँसहिं, रहसहिं, करहिं बसेरा ॥
नाचहिं पंडूक मोर परेवा । बिफल न जाइ काहुकै सेवा ॥
होइ उजियार सूर जस तपै । खूसट मुख न देखावै छपै ॥

संग सहेली नागमति, आपनि बारी माहँ ।
फूल चुनहिं, फल तूरहिं, रहसि कूदि सुख-छाँह ॥12॥

(पलुही=पल्लवित हुई,पनपी, गहहे=आनन्द-पूर्वक,
कुराहर=कोलाहल, जस=जैसे ही, खूसट=उल्लू,
तूरहि=तोड़ती हैं)

लेखक

  • जायसी

    मलिक मुहम्मद जायसी हिन्दी साहित्य के भक्ति काल की निर्गुण प्रेमाश्रयी धारा के कवि हैं । वे अत्यंत उच्चकोटि के सरल और उदार सूफ़ी महात्मा थे। उनका जन्म सन १५०० के आसपास माना जाता है। वे उत्तर प्रदेश के जायस नामक स्थान के रहनेवाले थे। उनके नाम में जायसी शब्द का प्रयोग, उनके उपनाम की भांति, किया जाता है। उनके पिता का नाम मलिक राजे अशरफ़ बताया जाता है और वे मामूली ज़मींदार थे और खेती करते थे। स्वयं जायसी का भी खेती करके जीविका-निर्वाह करना प्रसिद्ध है। सैयद अशरफ़ उनके गुरु थे और अमेठी नरेश उनके संरक्षक थे। उनकी २१ रचनाओं के उल्लेख मिलते हैं जिसमें पद्मावत, अखरावट, आख़िरी कलाम, कहरनामा, चित्ररेखा आदि प्रमुख हैं। पर उनकी ख्याति का आधार पद्मावत ग्रंथ ही है। इसकी भाषा अवधी है और इसकी रचना-शैली पर आदिकाल के जैन कवियों की दोहा चौपाई पद्धति का प्रभाव पड़ा है।

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