जेवाँ साह जो भएउ बिहाना । गढ़ देखै गवना सुलताना ॥
कवँल-सहाय सूर सँग लीन्हा । राघव चेतन आगे कीन्हा ॥
ततखन आइ बिवाँन पहूँचा । मन तें अधिक, गगन तें ऊँचा ॥
उघरी पवँरि, चला सुलतानू । जानहु चला गगन कहँ भानू ॥
पवँरी सात, सात खँड बाँके । सातौ खंड गाढ़ दुइ नाके ॥
आजु पवँरि-मुख भा निरमरा । जौ सुलतान आइ पग धरा ॥
जनहुँ उरेह काटि सब काढ़ी । चित्र क मूरति बिनवहिं ठाढ़ी ॥
लाखन बैठ पवँरिया जिन्ह तें नवहिं करोरि ।
तिन्ह सब पवँरि उघारे, ठाढ़ भए कर जोरि ॥1॥
(जेवाँ=भोजन किया, बिहान=सबेरा, मन तें अधिक=मन
से अधिक बेगवाला, पवँरि=ड्यौढ़ी, गाढ़=कठिन, नाके=
चौकियाँ, जिन्ह तें नवहिं करोरि=जिनके सामने करोड़ों
आदमी आवें तो सहम जायँ)
सातौ पँवरी कनक-केवरा । सातो पर बाजहिं गरियारा ॥
सात रंग तिन्ह सातौं पँवरी । तब तिन्ह चढ़ै फिरै नव भँवरी ॥
खँड खँड साज पलँग औ पीढ़ी । जानहुँ इंद्रलोक कै सीढ़ी ॥
चंदन बिरिछ सोह तहँ छाहाँ । अमृत-कुंड भरे तेहि माहाँ ॥
फरे खजहजा दारिउँ दाखा । जोज ओहि पंथ जाइ सो चाखा ॥
कनक-छत्र सिंघासन साजा । पैठत पँवरि मिला लेइ राजा ॥
बादशाह चढ़ि चितउर देखा । सब संसार पाँव तर लेखा ॥
देखा साह गगन-गढ़ इंद्रलोक कर साज ।
कहिय राज फुर ताकर सरग करै अस राज ॥2॥
(घरियारा=घंटे, फिरै=जब फिरै, भँवरी=चक्कर, पीढ़ी=
सिंहासन, लेखा=समझा,समझ पड़ा, फुर=सचमुच)
चड़ी गढ़ ऊपर संगत देखी । इंद्रसभा सो जानि बिसेखी ॥
ताल तलावा सरवर भरे । औ अँबराव चहूँ दिसि फरे ॥
कुआँ बावरी भाँतिहि भाँती । मठ मंडप साजे चहुँ पाँती ॥
राय रंक घर घर सुख चाऊ । कनक-मँदिर नग कीन्ह जड़ाऊ ॥
निसि दिन बाजहिं मादर तूरा । रहस कूद सब भरे सेंदूरा ॥
रतन पदारथ नग जो बखाने । घूरन्ह माँह देख छहराने ॥
मँदिर मँदिर फुलवारी बारी । बार बार बहु चित्र सेंवारी ॥
पाँसासारि कुँवर सब खेलहिं, गीतन्ह स्रवन ओनाहिं ।
चैन चाव तस देखा जनु गढ़ छेंका नाहिं ॥3॥
(सँगति=सभा, सुख चाउ=आनन्द मंगल, मादर=मर्दल,
एक प्रकार ढोल, घूरन्ह=कूड़ेखानों में, छहराने=निखरे हुए,
पाँसासारि=चौपड़, ओनाहिं=झुके या लगे)
देखत साह कीन्ह तहँ फेरा । जहँ मँदिर पदमावति केरा ॥
आस पास सरवर चहुँ पासा । माँझ मंदिर नु लाग अकासा ॥
कनक सँवारि नगन्ह सब जरा । गगन चंद जनु नखतन्ह भरा ॥
सरवर चहुँ दिसि पुरइन फूली । देखत बारि रहा मन भूली ॥
कुँवरि सहसदस बार अगोरे । दुहुँ दिसि पँवरि ठाढ़ि कर जोरे ॥
सारदूल दुहुँ दिसि गढ़ि काढ़े । गलगाजहिं जानहुँ ते ठाढ़े ॥
जावत कहिए चित्र कटाऊ । तावत पवँरिन्ह बने जड़ाऊ ॥
साह मँदिर अस देखा जनु कैलास अनूप ।
जाकर अस धौराहर सो रानी केहि रूप ॥4॥
(पुरइन=कमल, अगोरे=रखवाली या सेवा में खड़ी है,
सारदूल=सिंह, गलगाजहिं=गरजते हैं, कटाऊ=कटाव,बेलबूटे)
नाँघत पँवर गए खँड साता । सतएँ भूमि बिछावन राता ॥
आँगन साह ठाढ़ भा आई । मँदिर छाँह अति सीतल पाई ॥
चहूँ पास फुलवारी बारी । माँझ सिंहासन धरा सँवारी ॥
जनु बसंत फूला सब सोने । फल औ फूल बिगसि अति लोने ॥
जहाँ जो ठाँव दिस्टि महँ आवा । दरपन भाव दरस देखरावा ॥
तहाँ पाट राखा सुलतानी । बैठ साह, मन जहाँ सो रानी ॥
कवल सुभाय सूर सौं हँसा । सूर क मन चाँदहि पहँ बसा ॥
सो पै जानै नयन-रस हिरदय प्रेम-अँकूर ।
चंद जो बसै चकोर चित नयनहि आव न सूर ॥5॥
(राता=लाल, दरपन भाव….देकरावा=दर्पन के समान
ऐसा साफ झखाझक है कि प्रतिबिंब दिखाई पड़ता है,
अकूर=अंकुर, नयनहिं न आव=नजर में नहीं जँचता है)
रानी धौराहर उपराहीं । करै दिस्टि नहिं तहाँ तराहीं ॥
सखी सरेखी साथ बईठी । तपै सूर, ससि आव न दीठी ॥
राजा सेव करै कर जोरे । आजु साह घर आवा मोरे ॥
नट नाटक, पातुरि औ बाजा । आइ अखाड़ माँह सब साजा ॥
पेम क लुबुध बहिर औ अंधा । नाच-कूद जानहुँ सब धंधा ॥
जानहुँ काठ नचावै कोइ । जो नाचत सो प्रगट न होई ॥
परगट कह राजा सौं बाता । गुपुत प्रेम पदमावति राता ॥
गीत नाद अस धंधा, दहक बिरह कै आँच ।
मन कै डोरि लाग तहँ, जहँ सो गहि गुन खाँच ॥6॥
(उपराही=ऊपर, सूर=सूर्य के समान बादशाह, ससि=चंद्रमा
के समान राजा, ससि…दीठी=सूर्य के सामने चंद्रमा (राजा)
की ओर नजर नहीं जाती है, अखाड़ा=अखाड़ा;रँगभूमि;
जानहुँ सब धंधा=मानो नाच-कूद तो संसार का काम ही
है यह समझकर उस ओर ध्यान नहीं देता है, कह=
कहता है, दहक=जिससे दहकता है, गुन=डोरी, खाँच=
खींचती है)
गोरा बादल राजा पाहाँ । रावत दुवौ दुवौ जनु बाहाँ ॥
आइ स्रवन राजा के लागे । मूसि न जाहि पुरुष जो जागे ॥
बाचा परखि तुरुक हम बूझा । परगट मेर, गुपुत छल सूझा ॥
तुम नहिं करौ तुरुक सौं मेरू । छल पै करहिं अंत कै फेरू ॥
बैरी कठिन कुटिल जस काँटा । सो मकोय रह राखै आँटा ॥
सत्रु कोट जो आइ अगोटी । मीठी खाँड जेंवाएहु रोटी ॥
हम तेहि ओछ क पावा घातू । मूल गए सँग न रहै पातू ॥
यह सो कृस्न बलिराज जस, कीन्ह चहै छर-बाँध ।
हम्ह बिचार अस आवै, मेर न दीजिय काँध ॥7॥
(रावत=सामंत, दुवौ जनु वाहाँ=मानो राजा की दोनों
भुजाएँ हैं, स्रवन लागे=कान में लगकर सलाह देने लगे,
मूसि न जाहिं=लूटे नहीं जाते हैं, बाचा परखि …बूझा=
उस मुसलमान की मैं बात परखकर समझ गया हूँ,
मेर=मेल, कै फेरू=घुमा फिराकर, बैरी=शत्रु; भेर का
पेड़, सो मकोय रह….आँटा=उसे मकोय की तरह
(काँटे लिए हुए) रहकर ओट या दाँव में रख सकते
हैं, आँटा=दाँव, अगोटी=छेंका, ओछ=ओछे,नीच, पावा
धातू=दाँव पेच समझ गया, मूल गए …पातू=उसने
सोचा है कि राजा को पकड़ लें तो सेना-सामंत आप
ही न रह जायँगे, कृस्न=विष्णु, वामन, छर-बाँध=
छल का आयोजन, काँध दीजिय=स्वीकार कीजिए)
सुनि राजहिं यह बात न भाई । जहाँ मेर तहँ नहिं अधमाई ॥
मंदहि भल जो करै सोई । अंतहि भला भले कर होई ॥
सत्र जो बिष देइ चाहै मारा । दीजिय लोन जानि विष-हारा ॥
बिष दीन्हें बिसहर होइ खाई । लोन दिए होइ लोन बिलाई ॥
मारे खड़ग खड़ग कर लेइ । मारे लोन नाइ सिर देई ॥
कौरव विष जो पंडवन्ह दीन्हा । अंतहि दाँव पंडवन्ह लीन्हा ॥
जो छल करै ओहि छल बाजा । जैसे सिंघ मँजूसा साजा ॥
राजै लोन सुनावा, लाग दुहुन जस लोन ।
आए कोहाइ मँदिर कहँ, सिंघ छान अब गोन ॥8॥
(बिष-हार=विष हरनेवाला, बिसहर=विषधर, साँप, होइ लोन
बिलाई=नमक की तरह गल जाता है, कर लेई=हाथ में लेता
है, मारे लोन=नमक से मारने से,नमक का एहसान ऊपर
डालने से, बाजा=ऊपर पड़ता है, लोन जस लाग=अप्रिय
लगा,बुरा लगा, कोहार=रूठकर, मधिर=अपने घर, छान=
बाँधती है, गोन=रस्सी, सिंघ….गोन=सिंह अब रस्सी से
बँधा चाहता है)
राजा कै सोरह सै दासी । तिन्ह महँ चुनि काढ़ी चौरासी ॥
बरन बरन सारी पहिराई । निकसि मँदिर तें सेवा आईं ॥
जनु निसरी सब वीरबहूटी । रायमुनी पींजर-हुत छूटी ॥
सबै परथमै जोबन सोहैं । नयन बान औ सारँग भौंहैं ॥
मारहिं धनुक फेरि सर ओही । पनिघट घाट धनुक जिति मोही ॥
काम-कटाछ हनहिं चित-हरनी । एक एक तें आगरि बरनी ॥
जानहुँ इंद्रलोक तें काढ़ी । पाँतिहि पाँति भईं सब ठाढ़ी ॥
साह पूछ राघव पहँ, ए सब अछरी आहिं ।
तुइ जो पदमिनि बरनी, कहु सो कौन इन माहि ॥9॥
(रायमुनी=मुनिया नाम की छोटी सुंदर चिड़िया
सारंग=धनुष)
दीरघ आउ, भूमिपति भारी । इन महँ नाहिं पदमिनी नारी ।
यह फुलवारि सो ओहि के दासी । कहँ केतकी भवर जहँ बासी ॥
वह तौ पदारथ, यह सब मोती । कहँ ओह दीप पतँग जेहि जोती ॥
ए सब तरई सेव कराहीं । कहँ वह ससि देखत छपि जाहीं ॥
जौ लगि सूर क दिस्टि अकासू । तौ लगि ससि न करै परगासू ॥
सुनि कै साह दिस्ट तर नावा । हम पाहुन, यह मँदिर परावा ॥
पाहुन ऊपर हेरै नाहीं । हना राहु अर्जुन परछाहीं ॥
तपै बीज जस धरती, सूख बिरह के घाम ।
कब सुदिस्टि सो बरिसै, तन तरिवर होइ जाम ॥10॥
(आउ=आयु, कहँ केतकी….बासी=वह केतकी यहाँ कहाँ है
(अर्थात् नहीं है) जिस पर भौंरे बसते हैं, पदारथ=रत्न, जौ
लगि सूर….परगासू=जब तक सूर्य ऊपर रहता है तब तक
चंद्रमा का उदय नहीं होता; अर्थात् जब तक आपकी दृष्टि
ऊपर लगी रहेगी तब तक पद्मिनी नहीं आएगी, हेरै=देखता
है, हना राहु अर्जुन परछाहीं=जैसे अर्जुन ने नीचे छाया
देखकर मत्स्य का बेध किया था वैसे ही आप को किसी
प्रकार दर्पण आदि में उसकी छाया देखकर ही उसे प्राप्त
करने का उद्योग करना होगा, सूख=सूखता है)
सेव करैं दासी चहुँ पासा । अछरी मनहुँ इंद्र कबिलासा ॥
कोउ परात कोउ लोटा लाईं । साह सभा सब हाथ धोवाई ॥
कोई आगे पनवार बिछावहिं । कोई जेंवन लेइ लेइ आवहिं ॥
माँडे कोइ जाहि धरि जूरी । कोई भात परोसहि पूरी ॥
कोई लेइ लेइ आवहिं थारा । कोइ परसहि छप्पन परकारा ॥
पहिरि जो चीर परोसै आवहिं । दूसरसि और बरन देखरावहिं ॥
बरन बरन पहिरे हर फेरा । आव झुंड जस अछरिन्ह केरा ॥
पुनि सँधान बहु आनहिं, परसहिं बूकहि बूक ।
करहिं सँवार गोसाई, जहाँ परै किछु चूक ॥11॥
(पनवार=बड़ा पत्तल, माडे=एक प्रकार की चपाती, जूरी=
गड्डी लगाकर, सँधान=अचार, बूकहि बूक=चंगुल भर
भरकर, करहिं सँवार गोसाईं=डर के मारे ईश्वर का
स्मरण करने लगती हैं)
जानहु नखत करहिं सब सेवा । बिनु ससि सूरहिं भाव न जेंवा ॥
बहु परकार फिरहिं हर फेरे । हेरा बहुत न पावा हेरे ॥
परीं असूझ सबै तरकारी । लोनी बिना लोन सब खारी ॥
मच्छ छुवै आवहिं गड़ि काटा । जहाँ कवँल तहँ हाथ न औंटा ॥
मन लागेउ तेहि कवँल के दंडी । भावै नाहिं एक कनउंडी ॥
सो जेंवन नहिं जाकर भूखा । तेहि बिन लाग जनहुँ सब सूखा ॥
अनभावत चाखै वेरागा । पंचामृत जानहुँ विष लागा ॥
बैठि सिंघासन गूंजै, सिंघ चरै नहिं घास ।
जौ लगि मिरिग न पावै, भोजन करै उपास ॥12॥
(नखत=पद्मिनी की दासियाँ, ससि=पद्मिनी, जेंवा=भोजन
करना, बहु परकार=बहुत प्रकार की स्त्रियाँ, परीं असूझ=
आँख उनपर नहीं पड़ती, लोनी=सुंदरी पद्मिनी, लोन सब
खारी=सब खारी नमक के समान कड़वी लगती हैं, आवहिं
गड़ि=गड़ जाते हैं, न आटा=नहीं पहुँचता है, कँवल के डंडी=
मृणाल रूप पद्मिनी में, कनउँडी=दासी, अनभावत=बिना
मन से, बैरागा=विरक्त, उपास=उपवास)
पानि लिए दासी चहुँ ओरा । अमृत मानहुँ भरे कचोरा ॥
पानी देहिं कपूर कै बासा । सो नहिं पियै दरसकर प्यासा ॥
दरसन-पानि देइ तौ जीऔं ।बिनु रसना नयनहिं सौं पीऔं ॥
पपिहा बूँद-सेवातिनि अघा । कौन काज जौ बरिसै मघा?॥
पुहि लोटा कोपर लेइ आई । कै निरास अब हाथ धोवाई ॥
हाथ जो धोवै बिरह करोरा । सँवरि सँवरि मन हाथ मरोरा ॥
बिधि मिलाव जासौं मन लागा । जोरहि तूरि प्रेम कर तागा ॥
हाथ धोइ जब बैठा, लीन्ह ऊबि कै साँस ।
सँवरा सोइ गोसाईं देई निरासहि आस ॥13॥
(कचोरा=कटोरा, अघा=अघाता है,तृप्त होता है, मघा=मघा
नक्षत्र, कोपर=एक प्रकार का बड़ा थाल या परात, हाथ
धोवाईं=बादशाह ने मानों पद्मिनी के दर्शन से हाथ
धोया, विरह करोरा=हाथ जो धोने के लिए मलता है
मानो बिरह खरोच रहा है, हाथ मरोरा=हाथ धोता है,
मानो पछताकर हाथ मलता है)
भइ जेवनार फिरा खँडवानी । फिरा अरगजा कुहकुह-पानी ॥
नग अमोल जो थारहि भरे । राजै सेव आनिकै धरै ॥
बिनती कीन्ह घालि गिउ पागा । ए जगसूर! सीउ मोहिं लागा ॥
ऐगुन-भरा काँप यह जीऊ । जहाँ भानु तहँ रहै न सीऊ ॥
चारिउ खंड भानु अस तपा । जेहि के दिस्टि रैनि-मसि छपा ॥
औ भानुहि अस निरमल कला । दरस जौ पावै सो निरमला ॥
कवल भानु देखे पै हँसा । औ भा तेहु चाहि परगसा ॥
रतन साम हौं रैनि मसि, ए रबि! तिमिर सँघार ।
करु सो कृपा-दिस्टि अब, दिवस देहि उजियार ॥14॥
(सेव=सेवा में, घालि गिउ पागा=गले में पगड़ी डालकर
(अधीनतासूचक) सीऊ=शीत, रैनि-मसि=रात की कालिमा,
तेहु चाहि=उससे भी बढ़कर, सँघार=नष्ट कर)
सुनि बिनती बिहँसा सुलतानू । सहसौ करा दिपा जस भानू ॥
ए राजा! तुइ साँच जुड़ावा । भइ सुदिस्टि अब, सीउ छुड़ावा ॥
भानु क सेवा जो कर जीऊ । तेहि मसि कहाँ, कहाँ तेहि सीऊ?॥
खाहु देस आपन करि सेवा । और देउँ माँडौ तोहि, देवा! ॥
लीक-पखान पुरुष कर बोला । धुव सुमेरु ऊपर नहिं डोला ॥
फेरि पसाउ दीन्ह नग सूरू । लाभ देखाइ लीन्ह चह मूरू ॥
हँसि हँसि बोलै, टैके काँधा । प्रीति भुलाइ चहै छल बाँधा ॥
माया-बोल बहुत कै साह पान हँसि दीन्ह ।
पहिले रतन हाथ कै चहै पदारथ लीन्ह ॥15॥
(दिपा=चमका, मसि=कालिमा, खाहु=भोग करो, माँडौ=
माँडौगढ़, देवा=देव, राजा, लीक-पखान=पत्थर की लीक सा
(न मिटने वाला), पसाउ=प्रसाद,भेंट, मूरू=मूलधन, प्रीति=
प्रीति से, छल=छल से, रतन=राजा रत्नसेन, पदारथ=पद्मिनी)
माया-मोह-बिबस भा राजा । साह खेल सतरँज कर साजा ॥
राजा! है जौ लगि सिर घामू । हम तुम घरिक करहिं बिसरामू ॥
दरपन साह भीति तहँ लावा । देखौं जबहि झरोखे आवा ॥
खेलहिं दुऔ साह औ राजा । साह क रुख दरपन रह साजा ॥
प्रेम क लुबुध पियादे पाऊँ । ताकै सौंह चलै कर ठाऊँ ॥
घोड़ा देइ फरजीबँद लावा । जेहि मोहरा रुख चहै सो पावा ॥
राजा पील देइ शह माँगा । शह देइ चाह मरै रथ-खाँगा ॥
पीलहि पील देखावा भए दुऔ चौदात ।
राजा चहै बुर्द भा, शाह चहै शह-मात ॥16॥
(घरिक=एक घड़ी, थोड़ी देर, भीति=दीवार में, लावा=लगाया,
रह साजा=लगा रहता है, पियादे पाऊँ=पैदल,शतरंज की एक
गोटी, फरजी=शतरंज का वह मोहरा जो सीधा और टेढ़ा दोनों
चलता है, फरजीबंद=वह घात जिसमें किसी प्यादे के जोर पर
बादशाह को ऐसी शह देता है जिससे विपक्षी की हार होती है,
सह=बादशाह को रोकनेवाला घात, रथ=शतरंज का वह मोहरा
जिसे आजकल ऊंट कहते हैं, (जब चतुरंग का पुराना खेल
हिंदुस्तान से फारस-अरब की ओर गया तब वहाँ `रथ’ के
स्थान पर `ऊँट’ हो गया) बुर्द=खेल में वह अवस्था जिसमें
किसी पक्ष के सब मोहरे मारे जाते हैं, केवल बादशाह बच
रहता है; यह आधी हार मानी जाती है, शह-मात=पूरी हार)
सूर देख जौ तरई-दासी । जहँ ससि तहाँ जाइ परगासी ॥
सुना जो हम दिल्ली सुलतानू । देखा आजु तपै जस भानू ॥
ऊँच छत्र जाकर जग माहाँ । जग जो चाँह सब ओहि कै छाहाँ ॥
बैठि सिंघासन गरबहि गूंजा । एक छत्र चारिउ खँड भूजा ॥
निरखि न जाइ सौंह ओहि पाहीं । सबै नवहिं करि दिस्टि तराहीं ॥
मनि माथे, ओहि रूप न दूजा । सब रुपवंत करहिं ओहि पूजा ॥
हम अस कसा कसौटी आरस । तहूँ देखु कस कंचन, पारस ॥
बादसाह दिल्ली कर कित चितउर महँ आव ।
देखि लेहु पदमावति! जेहि न रहै पछिताव ॥17॥
(सूर देख…तरई दासी=दासी रूप नक्षत्रों ने जब सूर्य-रूप
बादशाह को देखा, जहँ ससि….परगासी=जहाँ चंद्र-रूप
पदमावती थी वहाँ जाकर कहा, परगासी=प्रकट किया,
कहा, भूजा=भोग करता है, आरस=आदर्श,दर्पण, कसा
कसौटी आरस=दर्पण में देखकर परीक्षा की, कित आव=
फिर कहाँ आता है,न आएगा)
बिगसे कुमुद कसे ससि ठाऊ । बिगसै कँवल सुने रबि-नाऊँ ॥
भइ निसि, ससि धौराहर चढ़ी । सोरह कला जैस बिधि गढ़ी ॥
बिहँसि झरोखे आइ सरेखी । निरखि साह दरपन महँ देखी ॥
होतहि दरस परस भा लोना । धरती सरग भएउ सब सोना ॥
रुख माँगत रुख ता सहुँ भएऊ । भा शह-मात, खेल मिटि गएऊ ॥
राजा भेद न जानै झाँपा । भा बिसँभार, पवन बिनु काँपा ॥
राघव कहा कि लागि सोपारी । लेइ पौढावहिं सेज सँवारी ॥
रैनि बीति गइ, भोर भा, उठा सूर तब जागि ।
जो देखै ससि नाहीं, रही करा चित लागि ॥18॥
(कहे ससि ठाऊँ=इस जगह चंद्रमा है, यह कहने से, सुने=सुनने
से, परस भा लोना=पारस या स्पर्शमणि का स्पर्श सा हो गया,
रुख=शतरंज का रुख, रुख=सामना, भा शहमात=शतरंज में पूरी
हार हुई; बादशाह बेसुध या मतवाला हो गया, झाँपा=छिपा, भा
बिसँभार=बादशाह बेसुध हो गया, लागि सोपारी=सुपारी के टुकड़े
निगलने में छाती मेम रुक जाने से कभी कभी एकबारगी पीड़ा
होने लगती है जिससे आदमी बैचैन हो जाता है; इसी को सुपारी
लगना कहते हैं, देखै=जो उठकर देखता है तो, करा=कला,शोभा)
भोजन-प्रेम सो जान जो जेंवा । भँवरहि रुचै बास-रस-केवा ॥
दरस देखाइ जाइ ससि छपी । उठा भानु जस जोगी तपी ॥
राघव चेति साह पहँ गयउ । सूरज देखि कवँल बिसमयऊ ॥
छत्रपती मन कीन्ह सो पहुँचा । छत्र तुम्हार जगत पर ऊँचा ॥
पाट तुम्हार देवतन्ह पीठी । सरग पतार रहै दिन दीठी ॥
छोह ते पलुहहिं उकठे रूखा । कोह तें महि सायर सब सूखा ॥
सकल जगत तुम्ह नावै माथा । सब कर जियन तुम्हारे हाथा ॥
दिनहि नयन लाएहु तुम, रैनि भएहु नहिं जाग ।
कस निचिंत अस सोएहु, काह बिलँब अस लाग?॥19॥
(भोजन-प्रेम=प्रेम का भोजन (इस प्रकार के उलटे समास
जायसी में प्रायः मिलते हैं – शायद फारसी के ढंग पर हों),
सो जान=वह जानता है, बास-रस-केवा=केवा-बास-रस अर्थात्
कमल का गंध और रस, सूरुज देखि….बिसमसऊ=(वहाँ जाकर
देखा कि) सूर्य-बादशाह कमल-पद्मिनी को देखकर स्तब्ध हो
गया है, दिन=प्रतिदिन, पलुहहिं=पनपते हैं, उकठे=सूखे, तुम्ह=
तुम्हें, दिनहिं नयन….जाग=दिन के सोये सोये आप रात होने
पर भी न जागे, निचिंत=बेखबर)
देखि एक कौतुक हौं रहा । रहा अँतरपट, पै नहिं अहा ॥
सरवर देख एक मैं सोई । रहा पानि, पै पान न होई ॥
सरग आइ धरती महँ छावा । रहा धरति, पै धरत न आवा ॥
तिन्ह महँ पुनि एक मंदिर ऊँचा । करन्ह अहा, पर कर न पहुँचा ॥
तेहि मंडप मूरति मैं देखी । बिनु तन, बिनु जिउ जाइ बिसेखी ॥
पूरन चंद होइ जनु तपी । पारस रूप दरस देइ छपी ॥
अब जहँ चतुरदसी जिउ तहाँ । भानु अमावस पावा कहाँ ।
बिगसा कँवल सरग निसि, जनहुँ लौकि गइ बीजु ।
ओहि राहु भा भानुहि, राघव मनहिं पतीजु ॥20॥
(रहा अँतरपट…अहा=परदा था भी और नहीं भी था अर्थात् परदे
के कारण मैं उस तक पहुँच नहीं सकता था, पर उसकी झलक
देखता था; यह जगत ब्रह्म और जीव के बीच परदा है पर इसमें
उसकी झलक भी दिखाई पड़ती है, रहा पानि …न होई=उसमें
पानी था पर उस तक पहुँचकर मैं पी नहीं सकता था, सरवर=
वह दर्पण ही यहाँ सरोवर के समान दिखाई पड़ा, सरग आइ
धरती …आवा=सरोवर में आकाश (उसका प्रतिबिंब) दिखाई
पड़ता है पर उसे कोई छू नहीं सकता, धरति=धरती पर,
धरत न आवा=पकड़ाई नहीं देता था, करन्ह अहा=हाथों में
ही था, अब जहँ चतुरदसी….कहाँ=चौदस के चंद्र के समान
जहाँ पद्मिनी है जीव तो वहाँ है, अमावस्या में सूर्य (शाह)
तो है ही नहीं, वह तो चतुर्दशी में हैं; चतुर्दशी में ही उसे
अद्भुत ग्रहण लग रहा है, लौकि गई=चमक उठी, दिखाई
पड़ गई)
अति बिचित्र देखा सो ठाढ़ी । चित कै चित्र, लीन्ह जिउ काढ़ी ॥
सिंघ-लंक, कुंभस्थल जोरू । आँकुस नाग, महाउत मोरू ॥
तेहि ऊपर भा कँवल बिगासू । फिरि अलि लीन्ह पुहुप मधु-बासू ॥
दुइ खंजन बिच बैठाउ सूआ । दुइज क चाँद धनुक लेइ ऊआ ॥
मिरिग देखाई गवन फिरि किया । ससि भा नाग, सूर भा दिया ॥
सुठि ऊँचे देखत वह उचका । दिस्टि पहुँचि, कर पहुँचि न सका ॥
पहुँच-बिहून दिस्ट कित भई?। गहि न सका, देखत वह गई ॥
राघव! हेरत जिउ गएउ, कित आछत जो असाध ।
यह तन राख पाँख कै सकै न, केहि अपराध?॥21॥
(चित कै चित्र=चित्त या हृदय में अपना चित्र पैठाकर, कुंभस्थल
जोरू=हाथी के उठे हुए मस्तकों का जोड़ा (अर्थात् दोनों कुच) आँकुस
नाग=साँपों (अर्थात् बाल की लटों) का अंकुश, मोरू=मयूर, मिरिग=
मृगनयनी पद्मावती, गवन फिरि किया=पीछे फिरकर चली गई, ससि
भा नाग=उसके पीछे फिरने से चंद्रमा के स्थान पर नाग हो गया,
मुख के स्थान पर वेणी दिखाई पड़ी, सूर भा दिया=उस नाग को
देखते ही सूर्य (बादशाह) दीपक के समान तेज हीन हो गया (ऐसा
कहा जाता है कि साँप के सामने दीपक की लौ झिलमिलाने लगती
है), पहुँच बिहूँन…..कित भई? जहाँपहुँ नहीं हो सकती वहाँ दृष्टि
क्यों जाती है? हेरत गएउ=देखते ही मेरा जीव चला गया, कित
आछत जो असाद=जो वश में नहीं था वह रहता कैसे ? यह
तन….अपराध=यह मिट्टी का शरीर पंख लगाकर क्यों नहीं जा
सकता,इसने क्या अपराध किया है?)
राघव सुनत सीस भुइ धरा । जुग जुग राज भानु कै करा ॥
उहै कला, वह रूप बिसरखी । निसचै तुम्ह पदमावति देखी ॥
केहरि लंक, कुँभस्थल हिया । गीउ मयूर, अलक बेधिया ॥
कँवल बदन औ बास सरीरू । खंजन नयन, नासिका कीरू ॥
भौंह धनुक, ससि-दुइज लिलाट्ठ । सब रानिन्ह ऊपर ओहि पाटू ॥
सोई मिरिग देखाइ जो गएऊ । वेनी नाग, दिया चित भएऊ ॥
दरपन महँ देखी परछाहीं । सो मूरति, भीतर जिउ नाहीं ॥
सबै सिंगार-बनी धनि, अब सोई मति कीज ।
अलक जो लटकै अधर पर सो गहि कै रस लीज ॥22॥
(बेधिया=बेध करनेवाला अंकुश, ओहि=उसका, दिया चित
भएऊ=वह तुम्हारा चित्र था जो नाग के सामने दीपक के
समान तेज हीन हो गया, मति कीज=ऐसी सलाह या युक्ति
कीजिए, अलक….रस लीज=साँप की तरह जो लटें हैं उन्हें
पकड़कर अधर रस लीजिए,राजा को पकड़ने का इशारा करता है)