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 बुड्ढि माँ  के नाम पत्र/डॉ पद्मावती

प्रिय बुड्ढि माँ  ,

कहते हैं न मन में सच्ची लगन हो, श्रद्धा हो तो बात पहुँच जाती है जिन तक पहुँचानी होती है इसीलिए शायद कहा जाता है कि  मीलों दूर बैठे जब किसी अपने को याद किया जाता है तो उन्हें हिचकियाँ आ जाती है । सच होता होगा । मैं तो मानती हूँ कि स्पंदन तो अवश्य पहुँच जाते है । और हाँ, जो बात सामने न हो  पाए ,उनके लिए कागज़  का सहारा लेने में क्या हर्ज है? तो बुड्ढि मां, इसीलिए आज आपको पत्र लिखने बैठ गई । अब कुछ देर तक आप मूक दृष्टा या श्रोता बनकर वो सब अनुभव कीजिए जो मैं आपको बताना चाहती हूँ । जो मेरे मन में था, है और रहेगा ।

पता है – मैं आपको ‘बूढ़ी माँ’  क्यों कहती हूँ ? आप बूढ़ी ही हो न इसलिए  ! जानती हैं ,अट्ठावन  की थी तब जब हम मिले थे लेकिन आप लगती थी सत्तर की ।तो इसमें मेरा क्या दोष ? और हाँ ,आपको बता दूँ कि मैं तो ‘अपनी माँ’ को भी आजकल प्यार से बूढ़ी माँ कह देती हूँ क्योंकि वे भी अस्सी पार कर चुकी है । अब मैं और स्पष्टीकरण नहीं देना चाहती । आप बूढ़ी ही लगती थी और हैं भी । अब स्वीकार करें या न, आपकी इच्छा । और हाँ ,तब मैंने आपको ‘मां’ की संज्ञा भी नहीं दी थी । अंजान लोगों से रिश्ता बनाने का मेरा कभी शौक नहीं रहा है । तो  आपसे कैसे रिश्ता जोड़ लेती?

 

याद है आपको हमारी पहली मुलाकात ?  हम रेलगाड़ी में सफर कर रहे थे । दरअसल तब मेरी पोस्टिंग उस छोटे से गाँव में हुई थी  जो आपके शहर से लगभग  चालीस कि.मी दूर था । बात यूँ हुई थी कि उस समय  मैं पी.एच.डी कर रही थी , हिंदी साहित्य की शोधार्थी थी  और विषय था नारीवाद् । जब संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा उत्तीर्ण कर मुझ जैसे अनारक्षित वर्ग के अभ्यर्थी   को सरकारी नौकरी का बुलावा आया  तो  मैं खुशी से पागल ही हो गई थी । क्यों न होती  ? यह तो बहुत बडी उपलब्धि थी ।   मन में नारीवाद् उछालें मारने लगा था । फिर क्या, मैंने परिवार से लड-झगड  सात सौ कि.मी पार यहाँ गाँव में आकर नौकरी करने का साहसिक निर्णय  ले लिया था । लेकिन कई मिन्नतें करने पर भी मुझे यहाँ अकेला नहीं भेजा गया था । मेरी माता श्री , जो साठ के पार थी, मेरी अंगरक्षक बन मेरे साथ चली आई थी । अब वो मेरी अंगरक्षक थी या मैं उनकी , यह तो विवादित मुद्दा बन  सकता था ।  कुछ भी हो । मैं ने चुप रहना उचित समझा और  नौकरी के सम्मोहन में  खिंची  चली आई ।सहायक प्राध्यापिका की नौकरी थी और उस पर राजपत्रित पद, कैसे न सम्मोहन होता ? वार्षिक परीक्षाओं के बाद अप्रैल में उत्तर पुस्तिकाओं की जाँच हेतु केंद्र लगते थे और हमें वहाँ जाकर उन  पुस्तिकाओं को  जाँचना पडता था । उसी सिलसिले में मैं गाँव से बस पकड़कर आपके शहर आई थी और फिर वहाँ से परीक्षण केंद्र जाने के लिए रेलगाडी का सफर करना था क्योंकि केंद्र  एक सौ पचास कि.मी की दूरी पर था । सुबह सात बजे की ट्रेन । स्टेशन पर अधिकतर मुझ जैसे अध्यापक गण  ही थे ,भले ही निजी या सरकारी महाविद्यालयों के हो , जो उसी सिलसिले में सफर कर रहे थे । हम सब आरक्षित डिब्बों में चढ जाते थे  जब की हमारी  टिकट आरक्षित न होती थी  । लेकिन टी.टी भी कभी बहस न करता था क्योंकि वह जानता था कि हम सब अध्यापक है और परीक्षाओं का मौसम है । वैसे भी डांटने का  संवैधानिक अधिकार तो शिक्षक का है, साधारण जनता का नहीं । तो हम सब बेधडक यात्रा करते थे आरक्षित डिब्बों में ।

उस दिन मैं उस डिब्बे में चढी जहाँ भीड अधिक न थी । मैं हमेशा भीड से कतराती हूँ, तब भी और अब भी । आप कोने में बैठी थी… अकेली ।  आपने आत्मीयता  से मेरा स्वागत किया और मैंने  कृत्रिम औपचारिक मुस्कान से   एक बार आपकी ओर देखा और मुँह फेर खिड़की की ओर बैठ गई । बैठ तो गई पर कनखियों से अब भी आपको ही निहार रही थी  ।

आपको पहली बार देखकर अजीब सा लगा था  । छवि  थी ही आपकी ऐसी । लगा  कोई  साठ से ऊपर की उम्र रही होगी ।   माथा हद से अधिक चौड़ा था  क्योंकि बाल माथे के बहुत पीछे खिसक  गए थे और माथा व  खोपड़ी दोनों अपनी सीमाएं खो चुके थे ।  । और उस पर बालों का इतना झीना आवरण कि कंकाल भी  स्पष्ट नजर आ रहा था  । एक इंच अंदर धंसी हुई बटन जैसी छोटी गोल आंखे,  पिचके हुए गाल, आवश्यकता से अधिक उठे ओंठ, नली की टोंटी सदृश पतला गला ,आगे की ओर झुके हुए कंधे ,  अस्थि पंजर जैसे  शरीर पर  लटकती दो भुजाएं और कमर तो मानो जैसे  थी ही नहीं । साधारण सी वॉयल की साडी में लिपटा जर्जर शरीर  । हाँ मुझसे तीन चार इंच आप लंबी थी पर रीड की हड्डी के झुक जाने से आप इतनी लंबी भी न लगती थी बुढी माँ । सच में ।  पूरा का पूरा हड्डियों का ढांचा  थी आप । माँस नाम की कोई चीज ही नहीं थी । हाथ में चमडे का पुराना बैग ,आप के जितना पुराना जिसकी सिलाई कई जगह से उधड गई थी और अंदर का खजाना बाहर नजर आ रहा था । पांव में पुरानी चप्पल और आंखों पर मोटी फ्रेम का चश्मा । भला किसे हंसी न आए आपकी मूरत देख कर । अगर कुछ आकर्षित करने की वजह थी आपमें तो वो थी आपकी आत्मीय मुस्कान …पर वो मुझे अधिक आकर्षित न कर सकी क्योंकि मैं पहले ही कह चुकी हूँ कि अंजान लोगों से मेल मेरी डायरी में नहीं ।

मैंने  जल्दी ही  आपसे मुंह फेर लिया क्योंकि  रेलगाडी के साथ दौड़्ते हरे-हरे खेत मुझे आपसे अधिक लुभावने  लग रहे थे । आठ बज गए ।  मैंने  अपना डिब्बा निकाला और नाश्ता करने लगी । आपसे पूछने की जरूरत मुझे महसूस ही नहीं हुई ।  तब तक आप भी बैग से किताब निकाल कर पढ़ने लगी थी । अचानक नजर पडी ।  आप तो हिन्दी की किताब पढ रही थी । मेरी आंखों में प्रश्न देखकर आपने कहना शुरु कर दिया था, ‘मेरा नाम डॉ.कन्या कुमारी है…हिंदी की आचार्य , शासकीय महाविद्यालय । और तुम’? आप मेरे बारे में जानना चाहती थी । औपचारिकता वश मैं ने  भी अपना बहुत संक्षिप्त परिचय दे दिया था जिसे सुनकर आप खिल उठी थी ।

‘ओह … तो आप भी हिंदी की अध्यापिका हो । आपका और हमारा तो मेल हो गया ‘। आप ने चहकते हुए कहा था ।

मुझे फिर हंसी आ गई थी  । आपका और मेरा मेल ?  कहाँ मैं  सुसभ्य परिष्कृत संभ्रांत  आकर्षक युवा नारी और कहाँ आप गंवार फूहड़ बूढ़ी हड्डियों का ढांचा । मेरी हंसी छूट गई । मैं हंसने लगी थी और आपने सोचा मैं खुश हो गई हूँ आपकी बात सुनकर ।

कुछ देर बाद आपने उस टूटे-फूटे बैग में से दो पके केले निकाले और एक मेरी ओर बढ़ा दिया था । परंतु  मैं ने भी सुस्पष्ट शब्दों में आपको  बता दिया था कि मैं अंजान लोगों से कुछ खाने की चीज नहीं लेती हूँ । अभिजात्य शिष्टाचार ! दरअसल हम  महानगरवासी अपरिचित  पर विश्वास करना मूर्खता समझते है । संदेह हमारी  रग-रग में खून के साथ दौड़ता है । बचपन से यही सिखाया भी जाता है । और मैं ‘बाबा भारती’ की तरह मूर्ख तो नहीं थी  सो मना कर दिया था । तो आपने भी नहीं खाए केले । फिर उसी बैग में अंदर रख लिए थे ।

हम साथ-साथ मिलकर केंद्र पर पहुँचे । दोनों का विभाग एक ही तो था ।  मेरा यह  पहला अनुभव था पर आप तो काफी वरिष्ठ थी और वहाँ  सब आपको जानते थे । उस दिन  मेरा चेहरा सबके लिए उत्सुकता का विषय बन गया था । सब के सब आपकी टेबुल पर मधुमखियों की तरह भिनभिनाने लगे थे मेरे बारे में जानने के लिए । उत्सुक और आतुर  । एक ने तो यहाँ तक कह दिया था,  ‘मैडम जी इस बार आप  अपनी बेटी को लेकर आ गई?’

इस पर आपने सबको कैसा करारा उत्तर दिया था  मुझे आज भी याद है । आपने कहा था. ‘जी नहीं … ये भी मेरी तरह अध्यापिका हैं, नई नियुक्ति …और हाँ खबरदार जो कोई शरारत की तो । आप लोगों ने इसे मेरी बेटी कहा है तो समझिए बेटी ही है’ । और पता है आपका उत्तर सुन सब खिलखिलाकर हंसने लगे थे । वातावरण संभल गया था ।

मैं वहाँ अपने वय मंडली में घुल मिल  गई थी । आपके साथ बैठना मुझे पसंद न था । और दोपहर को याद है , आप फिर मेरे पास आईं थीं । उन्हीं दो केलों के साथ…एक मुझे देने के लिए । और मैंने  निर्लज्जता से तब लेकर खा  लिया था क्योंकि अब मैं आपको थोडा बहुत जान गई थी न इसलिए ।

शाम को वापसी में हम फिर साथ-साथ ट्रेन में बैठे थे । आपने बातचीत आरंभ की थी । कहा था, “ट्रेन उतरकर फिर तुम्हें तो गाँव जाने के लिए बस पकड़नी है । अभी सात बज रहे है । घर पहुँचते नौ बज जाएंगे न और फिर सुबह तुम्हें पाँच बजे वापस बस में बैठना है । है न ? और रात में सफर इतना सुरक्षित भी नहीं है’ ।

‘हाँ’। इतने बडे प्रश्न का मैंने संक्षिप्त उत्तर दिया था ।

‘बेकार है  इस तरह रात केवल कुछ घंटो के लिए इतनी दूर सफर कर घर जाना ।  ये चार पाँच दिन… जितने भी हों,  उत्तर पुस्तिका परीक्षण के दिन, तुम मेरे घर में रात गुजार सकती हो अगर तुम्हें ठीक लगे तो… समय भी बच जाएगा और ऊर्जा भी’ ।

बडी सहजता से आपने कह दिया था ।  कुछ सोचा भी नहीं था कि मैं इस आमंत्रण को मैं कैसे स्वीकार कर लूँगी ?  मैं तो स्तब्ध रह गई थी कि कौन इस तरह मुझे अपने घर में रात बिताने का आमंत्रण दे सकता है । पहले तो मुझे आपकी बात पर गुस्सा आया । मेरी आंखों में अविश्वास मिश्रित क्रोध को  देखकर आपने तत्क्षण बता दिया था, ‘देखो चिंता मत करो । मेरे घर में कोई पुरुष प्राणी नहीं है । मैं अपनी माताजी के साथ रहती हूँ । तो तुम्हारी सुरक्षा कहीं बाधित नहीं होगी । मैं तो तुम्हारे लिए ही कह रही हूँ । गलत मत समझो’ ।

मेरी फिर हंसी छूट गई थी  । इनकी माताजी भी अभी तक जिंदा है?  आश्चर्य ! खैर ,आपके  निमंत्रण से मैं थोडा विश्वस्त तो  हो गई थी लेकिन तब इतनी जरूरत नहीं लगी और बात आई गई हो गई ।

परीक्षा केम्प खत्म हुआ और मैं वापस अपने घर । पर आपसे संपर्क बना रहा । और  वह दिन जल्दी ही  आ गया जब आपका आतिथ्य स्वीकार करने की आवश्यकता आन पडी । माँ को तेज बुखार ।  गाँव में अस्पताल न था ।  शहर आकर दिखाया , दवा दारू करवाई पर  माँ को लेकर उस रात वापस गाँव जाने की हिम्मत न हुई । अगर रात को कुछ संकट आ जाए तो खतरे से खाली न था माँ को गाँव ले जाना । तो मैं ने बिना किसी झिझक के आपको संपर्क किया था और अपनी विवशता बताई थी  । आपने एक बार फिर बिना सोचे घर आने का निमंत्रण दे दिया था  बुड्ढि माँ …  याद है न  आपको ? ये भी न सोचा कि कोई अजनबी रोगी मरीज  आपके घर कैसे आ सकता है ?  मैं माँ को लेकर आपके घर पहली बार आई थी । आपका मकान ….किराए का था ।  माचिस नुमा । रेलवे कम्पार्टमेंट की तरह कतार में तीन छोटे-छोटे कमरे । पहले कमरे को  बैठक कह सकते है । दूसरा शयन  कक्ष मान कर चलिए … तीसरी को रसोई । पीछे छोटा-सा दालान जिसमें गुसलखाना और शौचालय । कुल मिलाकर छः सौ वर्ग फुट  का आपका घर , और वातानुकूलित बंगलों में जीवन गुजारने वाली मैं ।  मेरे लिए हमारी कार गैराज जितना आपका घर था लेकिन उस दिन मुझे आपका घर छोटा नहीं लगा था बुड्ढि  माँ क्योंकि यहाँ रात गुजारना मेरी आवश्यकता भी  थी और विवशता भी  …इसलिए ।

मैं अब भी आपके बारे में ज्यादा कुछ न जानती थी या जानने की रुचि भी न रखती थी । इस गाँव में रहते तीन वर्ष हो रहे थे । बडी तकलीफ सह रही थी मैं । माँ को वापस भेज चुकी थी  । नारीवादी ज्वर  उतर चुका था । परिवार से दूर अब रहना दूभर बन गया था ।  मैं  स्थानांतरण की जी तोड कोशिश करने में लगी थी । अंततः निर्णय ले ही  लिया । लंबी छुट्टी की अर्जी दी ,  घर खाली किया और बोरिया बिस्तर बांध वापस चली गई  थी । पर दुर्भाग्य । कुछ ही दिनों में कॉलेज से बुलावा आ गया था  कि नौकरी बचाना चाहती  हो तो तत्काल रिपोर्ट करो । अब क्या किया जा सकता था ? मरता क्या न करता । नौकरी तो बचानी थी । आना ही था । पर कहाँ रहूँ? घर नहीं था । फिर घर ढूँढने की हिम्मत नहीं रही थी । इस बीच ट्रांसफर  की आस भी बंधी रही । सोचा दस पंद्रह दिन यूँ ही गुजार लूँ । फिर अगर स्थानांतरण हो जाए तो घर वगैरह का भी सोचा जा सकता है । तो अब ये दस दिन गुजारने थे । कहाँ गुजारती?  अकेली जवान औरत । क्या आसान था? परिवार में हम सब बड़े तनाव में थे ।  फिर क्या ? बस आपका ख्याल आया बुड्ढि माँ जैसा कि हर बार तकलीफ में आप ही याद आतीं थीं ।  एक बार फिर आपको संपर्क किया और अपनी विवशता समझाई । आपने हमेशा की ही तरह सहर्ष कह दिया कि मैं आपके घर में आराम से रह सकती हूँ ‘बिना किराए के घर की चिंता के’ । आपने फिर एक बार स्वीकार कर लिया ,बिना सोचे… बिना विलम्ब किए  ।  डूबते को तिनके का सहारा । आ गई आपके घर रहने शरणार्थी बनकर …।

दस दिन सोच कर आई थी और तीन महीने बीत गए आपके घर में रहते मुझे । एक अजनबी को रेलगाडी में देखा …बातचीत की… जान-पहचान हुई , उसकी  कही हर बात पर विश्वास कर लिया और सहायता का आंचल फैला दिया । सीधा घर में पनाह दे दी ।  जानती हैं आप … महानगरीय संस्कार इस व्यवहार को क्या कहते है? ‘मूर्खता’ । आपको तो मूढ़’ ही कहेंगे बुड्ढि माँ ।

इस अवधि के दौरान आपके  बारे में जानने का अवसर मुझे मिला …आपसे नहीं आपकी माताश्री से जिनकी उम्र अस्सी के आस -पास थी लेकिन आपसे अधिक जवान तो वे ही थी । चुस्त दुरुस्त गोल मटोल हट्टी-कटट्टी , अविरल धारा प्रवाह बोलने वाली वाचाल वाक-शक्ति । कभी किसी को मुंह खोलने का अवसर ही नहीं देती थी माताजी ।  पोपला मुंह नाटी सी काया । लेकिन गजब की स्मरण शक्ति । कानी आंख से अखबार का एक-एक अक्षर पढ डालती थी । सामयिकी पर उनका ऐसा ज्ञान तो सिविल परीक्षा के अभ्यर्थी को भी  न हो । माताजी का बिना एक भी दांत के  कठोर से कठोर खाद्य पदार्थ का  मसूड़ों से चबा-चबा कर खाना तो मेडिकल के छात्र का संभावित शोध विषय हो सकता था ।

आपका पूरा वंश पुराण मुझे माताजी ने समझा दिया था । दरअसल हम दोनों की खूब पटती थी । मैं एक अच्छी श्रोता जो थी इस लिए । मेरे लिए तो यह भूमिका  विवशता थी और माताजी के लिए मनोरंजन । तो हर दिन वे कोई न कोई  किस्सा  मुझे सुनाती रहती थी । हर घटना ब्योरेवार…साल, महीना, तिथि, समय की प्रामाणिकता के साथ । और आपके बारे में मुझे सब बताया गया । आप अविवाहित थी  । यह विकल्प स्वैच्छिक था या अनिवार्यता…इसका भेद तो आप तक सीमित था । परिवार के लिए किया गया समर्पण या अपनी इच्छाओं की हत्या ? ये तो आप जाने ।

पहली संतान होने की सजा आपने भुगती थी । पिता सरकारी मुलाजिम … आपको खूब पढाया । आपके बाद तीन भाई और एक बहन । नौकरियाँ आपके कदमो में बिछती चली गई और जब पिता ने खाट पकड ली , घर की जिम्मेदारी आपके कंधो पर आ गई । बड़े दो बेटे अपनी मन पसंद लड़की से विवाह कर अलग हो गए । तीसरा कालेज में पढता था । अपनी उम्र से बीस साल बडी अपनी अध्यापिका के प्रेम जाल में फंस गया और घर से भाग गया था । तीन साल बाद वापस लौटा ।  रोया चिल्लाया ,किए की माफी मांगी  लेकिन तब तक वह उस औरत से विवाह कर उसका नौकर बन चुका था । कुछ ही दिनों में वह भी अपनी पत्नी के साथ उसकी गृहस्थी में बसने चला गया ।

आपने छोटी  बहन का विवाह सम्पन्न किया ।  उस जिम्मेदारी से भी मुक्ति पाई और तब तक आप चालीस पार कर चुकी थी । पिता की मृत्यु के बाद आप परिवार  का सहारा बन गई थी तो आपके विवाह का विचार किसी के मन में अगर नहीं आया तो क्या गलत था ?  कैसे आता? आप ही तो पालनकर्ता थी उस परिवार की ।  यही कारण था आप रह गई हमेशा के लिए ‘कन्या कुंआरी ।

इन  तीन महीनो में मैंने आप के घर का पूरा इतिहास और भूगोल जान लिया । वैसे मैं आई थी दस दिन के लिए पर तीन महीनों तक लंबी  प्रतीक्षा की थी …ट्रांसफर की आशा में । और जब आशा की किरण बुझ गई , जब सब द्वार बंद हो गए तो हार कर मैं ने नौकरी छोडी और घर वापसी की । पर आपसे संपर्क बनाए रखा । इन तीन महीनों में मैं ने आप के मुंह पर न कभी कोई शिकायत देखी न कभी कोई शिकन । कभी लगा ही नहीं कि मैं किसी पराए घर में हूँ । तीन महीने….हाँ ! पूरे  तीन महीने … । कितनी लंबी अवधि होती है ,मैं ने तब जाना था । सगे भी इतना सहारा नहीं देते । हम चार दिन किसी को झेल नहीं सकते । आपने तो ‘एक अजनबी’ को ,एक  शरणार्थी को अपना बना लिया था  … पूरे मान-सम्मान के साथ , न इसे कभी औपचारिकता समझा न ही कोई अवांछित बोझ ।

अब तो इस घटना को पच्चीस वर्ष बीत चुके है । बीच में कभी -कभार आप से बातचीत होती रही फोन पर । दो साल पहले आपने सूचना दी कि माताजी स्वर्ग सिधार गई है । आपको मुझसे बात कर अपने सब व्यक्तिगत विषय बताने में असीम तृप्ति हुआ करती थी और मैं सुनने की औपचारिकता निभा देती थी आपका मन रखने के लिए ।

अभी पंद्रह दिन पहले भी आपसे बात हुई थी । इस बीच जब कभी फोन पर  मैं अपनी उपलब्धियों को आपसे साझा करती, तो आप खुशी से झूम उठती थी । आपकी वाणी में प्रसन्नता की लहर को मैं भली-भांति महसूस कर लेती थी । पर आजकल बात-चीत एक तरफ़ा हो गई है । लगता है आपको कम सुनाई पडने लगा है । आप भी अस्सी के पार हो रहीं हैं बुड्ढि माँ  । हाँ । आप बस बोलती जाती हैं और मेरे किसी  प्रश्न का जवाब नहीं देती ।

आपकी काम वाली बता रही थी कि आपकी तबीयत भी ठीक नहीं रहती है । और हाँ ,वह मेरे बारे में सब जानती है । कह रही थी कि आप ने उसे सब कुछ बताया है  । वैसे आप भी कितना जानती हैं  मेरे बारे में? मेरी माँ से तो मिली हैं आप । परिवार के बारे में कुछ खबर नहीं । तो कितना जानती है आप मेरे बारे में?  बिना जाने ,बिना पहचाने मुझे मेहमान बना लिया था आपने… बिना किसी स्वार्थ के …बिना किसी प्रत्याशा के?

कल शाम आठ बजे सोफे पर रखे फोन पर रोशनी आई । मेसेज आया । देखा । आपका था । आपके फोन से आया था । हैरानी हुई । अभी हफ्ता भर पहले तो आपने घंटा भर बात की थी ।

मेसेज था,’

‘मेरी बडी बहन सौभाग्यवती कन्या कुमारी जी कल रात मृत्यु लोक छोड कर ईश्वर के चरणों में समा गईं है…।

सादर

भाई गोपीनाथ…।

मैं न विचलित हुई, न दुखी, न विह्वल । बस सन्न रह गई । कुछ क्षणों के लिए सब कुछ ठहर गया । आंसू अनायास आंखों से बहने लगे । रोकने का भरसक प्रयत्न किया । धोखेबाज़ आंखें , मेरी एक न सुनी । बस बहने लगीं ।

समझाया अपने आप को …सोचने लगी …मुझे भला दुख क्यों हो? ‘आप मेरी हैं कौन?

क्या रिश्ता था हमारा? रिश्ता तो आपने जोड़ा था बुड्ढि माँ  , मैं ने तो अपनी जरूरत पूरी की थी । जिम्मेदारी तो आपने निभाई थी , मैं ने तो अपना स्वार्थ सिद्ध किया था । अपनापन तो आपने दिखाया था, मैं तो केवल दिन निकाल रही थी । फिर अब इन आंखों को क्या हुआ ? मेरी सारी अभिजात्य शिष्टाचार की औपचारिकता क्यों ढहने लगी ? लगता है आपके साथ गुजारे उन तीन महीनों की संगत का असर है जो इतने वर्षों बाद रंग ला रहा है ।  लेकिन बुड्ढि माँ ,क्यों लगने लगा है  कि अंदर कुछ खाली हो गया है । कुछ छिन गया है ।  मैं ने कुछ गंवा दिया है । क्या  पागल हो गई हूँ मैं ?  ऐसे भी रोता है कोई ? क्या अजनबी के लिए इस दुनिया में कोई रोता है? आंसू बहाता है?

आज एक प्रश्न हृदय को छलनी किए जा रहा है बुड्ढ़ि माँ । नुकीले कांटे की तरह चुभ रहा है ।

“बताइए मैं आपकी थी कौन ? कौन?”

जो संबंध सगे संबंधियों से भी कभी -कभी नहीं बनता, वह आपने मुझसे बना लिया था । यहाँ तो अपने भी अगर कुछ करते है तो कितना अहसान जताते है कि हमने तुम्हारे लिए क्या न किया । और आप …बुड्ढि माँ !  क्या कभी जताया  कि आप ने मेरे लिए क्या किया? क्यों मेरी सहायता की? पहले दिन हास-परिहास में मुझे बेटी क्या कहा , अंत तक माना और जिम्मेदारी निभाई । और मैं … इस पत्र का आरंभ देखिए ….मैं ने आपको  केवल ‘प्रिय’ का सम्बोधन दिया । मैं आपको अपना बना ही न पाई । मैं तो बेटी बन ही न पाई लेकिन आप बिन ब्याही माँ अवश्य बन गई बुड्ढि माँ  । आपको मुझ पर गर्व होना चाहिए , है न ?… मैं ने आपको ‘माँ’ बना दिया ।

आपको भले ही मुझसे कोई शिकायत न हो पर मुझे आपसे एक शिकायत है । .. आप कुछ समय मेरे पास आकर बिताती तो मुझे अच्छा लगता और शायद मैं आपके ‘कर्ज’ के कुछ अंश  से मुक्त हो जाती । पर नहीं… आप नहीं आईं । मैं तो अब तक मानती थी कि आपका ही कोई कर्ज रहा होगा किसी जन्म का जिसे आप चुका रही थी मेरी जिम्मेदारी लेकर…मेरी आश्रयदाता बनकर उन तीन महीनों की  । लेकिन बुड्ढि माँ  …आज डर लग रहा है कहीं आपने मुझे कर्जदार तो नहीं बना दिया ? हाँ । अगर यही सच हुआ …तो आज मैं आपसे वादा करती हूँ , भले ही कितने जन्म मुझे लेने पड़े, मैं आपका कर्ज चुकाने आपके पास अवश्य आऊँगी । और यह कर्ज केवल और केवल आपकी सेवा करके ही चुकेगा । वादा रहा । आप भी वादा करो ‘माँ’  आप आओगी । आओगी न? हम मिलेंगे । मिलेंगे  न? मुझे अपनी सेवा का अवसर दोगी न ?  मुझे आशा ही नहीं पूरा  विश्वास है मेरी सहायता करने आप हमेशा तैयार तत्पर मेरी प्रतीक्षा करेंगी । मेरे लिए …एक ऐसे अजनबी के लिए जो आपको अत्यंत प्रिय था, ‘अपनों’ से ज्यादा अपना  लगता था ।

अलविदा   “माँ”… अलविदा !

‘फिर एक बार मिलने की आशा में’

आपकी

निवेदिता ……………।

 

 

 

 

 

 

लेखक

  • डॉ. पद्मावती

    डॉ पद्मावती. शैक्षिक योग्यताएँ = एम. ए, एम. फिल, पी.एच डी, स्लेट (हिंदी) जन्म स्थान = नई दिल्ली वैवाहिक स्थिति = विवाहित ई -मेल = padma.pandyaram@gmail.com संप्रति = * सह आचार्य, हिंदी विभाग, आसन मेमोरियल कॉलेज, जलदम पेट , चेन्नई, 600100 . तमिलनाडु . अध्यापन कार्य = गत 17 वर्षों से स्नातक महाविद्यालय में हिंदी भाषा • महाविद्यालयों और विश्व विद्यालयों में अतिथि व्याख्यान. • चेन्नई के कई स्वायत्त महाविद्यालयों के स्नातक परीक्षाओं में हिंदी के प्रश्न पत्रों का निर्माण तथा पांडिचेरी विश्वविद्यालय की वार्षिक परीक्षाओं में अध्यक्ष और परीक्षक की भूमिका का निर्वहण . साहित्यिक सेवाएं • चेन्नई की लब्ध प्रतिष्ठित स्वैच्छिक हिंदी संस्थान ‘ सत्याशीलता ज्ञानालय’ से जुड़कर कई साहित्यिक गतिविधियों में सक्रिय भागीदारी , अनेक साहित्यकारों का साक्षात्कार, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संगोष्टियो का संचालन और संयोजन . • हिंदी साहित्य भारती तमिलनाडु इकाई की मीडिया प्रभारी . • राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संगोष्टियो में प्रतिभगिता और शोध पत्रों का प्रस्तुतीकरण. • ‘रचना उत्सव’ मासिक पत्रिका की दक्षिण भारत की मुख्य समन्वयक • ‘भारत दर्शन’ की संपादक (दक्षिण भारत साहित्य) प्रकाशन • विभिन्न राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पत्र -पत्रिकाओं में शोध आलेखों का प्रकाशन, • जन कृति,वीणा मासिक पत्रिका, समागम, साहित्य यात्रा जैसी लब्ध प्रतिष्ठित राष्ट्रीय और साहित्य कुंज व पुरवाई कथा यू .के .जैसी सुप्रसिद्ध अंतर्राष्ट्रीय साहित्यिक पत्रिकाओं में नियमित लेखन कार्य , कहानी , व्यंग्य लेखन , स्मृति लेख , चिंतन, यात्रा संस्मरण, सांस्कृतिक और साहित्यिक आलेख,पुस्तक समीक्षा ,सिनेमा और साहित्य समीक्षा इत्यादि का प्रकाशन . सम्मान • हिंदी दिवस समारोह के उपलक्ष्य में आयोजित ‘सत्याशीलता ज्ञानालय’ के कार्यक्रम में ७/१२/२०१३ को चेन्नई के माननीय राज्यपाल श्री के. रोसय्या द्वारा शिक्षक सम्मान प्रदान किया गया . • ‘नव सृजन कला साहित्य एवं संस्कृति न्यास’, नई दिल्ली द्वारा ‘हिंदी साहित्य रत्न सम्मान” • ‘हिंदी अकादमी, मुंबई द्वारा’ ‘विशेष हिंदी प्रचारक सम्मान 2021’ • अंतर्राष्ट्रीय महिला मंच द्वारा ‘नारी गौरव सम्मान’ • भारत उत्थान न्यास द्वारा अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर ‘ भगिनी निवेदिता सम्मान’

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