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बेकुसूर लोगों की बस्तियां ही जलती हैं/वृंदावन राय सरल 

कदरें ज़िंदगानी की अपने हाथ मलती हैं
शह् र में फसादोॆं की जब हवायेंचलती हैं
आग जब भड़कती है दिल मेंशरपसंदी की
बेकुसूर लोगों की बस्तियां ही जलती हैं
ज़ह् नियत है बारुदीऔर सोच है आतिश
फ्रिक है नई नस्लें आज कैसे पलती हैं
बेटियां ग़रीबों की सह रही हैंआये दिन
डोलियां पहुंचती हैं अर्थियां निकलती हैं
जैसे मौजें साहिल से मारती हैं सरअपना
मेरी आरज़ूएं यूं करवटें बदलती हैं
यूं सरल मुकम्मल तो कोईभी नहीं होता
मुझ पे क्यों ज़माने की तल्खियां उछलती हैं

लेखक

  • बृंदावन राय सरल

    बृंदावन राय सरल माता- स्व. श्रीमती फूलबाई राय पिता- स्व. बालचन्द राय जन्मतिथि- 03 जून 1951 जन्म स्थान- खुरई, सागर (मध्य प्रदेश) शिक्षा- साहित्य रत्न, आयुर्वेद रत्न, सिविल इंजीनियर । भाषा - हिंदी, बुंदेली, उर्दू । प्रकाशन- हिंदी व बुंदेली भाषा में 14 किताबें प्रकाशित । साझा संकलन- लगभग 225 संकलनों में रचनाएं सम्मलित के अलावा देश-विदेश की तमाम पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का अनवरत प्रकाशन ।

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