भीतर भीतर रम गया, क्या गृहस्थ क्या संत ।
न तो प्रेम का आदि है, न ही प्रेम का अंत ।।-1
मन -मंदिर में थी बसी, कोई मूर्ति महान ।
प्राण-प्रतिष्ठा कर गई, अधरों की मुस्कान ।।-2
सच ही कहा कबीर ने, वही सिद्ध विद्वान ।
‘ढाई आखर ‘ प्रेम का, जिसे हो गया ज्ञान ।।-3
प्रेम सृजन का सत्य है, प्रेम जगत आधार ।
प्रेम चाह का मेघ है, प्रेम सुखद बौछार ।।-4
बूंद बूंद एकत्र कर, देती आई नीर ।
सरिता ही लिखती रही, सागर की तकदीर ।।-5
दर्पण के आगे खड़ी, वह थी भाव -विभोर ।
दृष्टि अचानक झुक गई, पीछे था चितचोर ।।-6
हर्ष मिले या शोक हों, दोनों हों स्वीकार ।
प्रेम एक आवास है, विरह – मिलन दो द्वार ।।-7
सपनों के आकाश से , नयनों की छत फांद ।
अंजुरी में ले चांदनी, उतरा मन में चांद ।।-8
तेरी हाथों की लगे, मधुर प्रेम की खीर ।
राधा, मीरा, रुक्मणी, तुझ में हर तस्वीर ।।-9
खिली कुमुदिनी प्यार की, जैसे खिला जहान ।
नयनों में मोती दिखे, अधरों पर मुस्कान ।।-10
पुरवा देतीं दस्तकें, पछुआ करें अधीर ।
किस निष्ठुर ने फाड़ दी, जोड़े की तस्वीर ।।-11
प्रेम चाहिए इस तरह, जीवन में भरपूर ।
साथ रहे ज्यों अंत तक, मांग और सिंदूर ।।-12
हरीलाल ‘मिलन ‘