धूर्त -झूठों का ही अक्सर होता बेड़ा पार है
और सबका तो यहाँ बस होता बँटाधार है
छल-कपट की जीत होती है सदा,निस-दिन यहाँ
सच छुपा कर मुँह को रोता ही रहा हर बार है
आग लग जाए अभी अन्याय में,हे राम जी
कलयुगी पापी-प्रणाली को तो बस धिक्कार है
सर उठा कर, शान से गणिका यहाँ पर जी रही
हो रहा मासूम का शोषण व अत्याचार है
अब नहीं,बस, अब नहीं, ज़ुल्मो- सितम बस,अब नहीं
हर तरफ देखो जहाँ भी,बस ये हा-हा-कार है
है बहुत आक्रोश जन-जन के यहाँ भीतर भरा
तस्करी-धंधे की देखो हर तरफ़ भरमार है
प्यार करना तो किसी को भी यहाँ आता नहीं
आज फलताफूलता ये प्यार का व्यापार है
मर गया है आज सबकी आँख का पानी यहाँ
जाने कैसा आज करता आदमी व्यवहार है
कर रहे दावे,कसम ख़ा-ख़ा के झूठे प्यार के
झूठे मायाजाल में अब फँस गया संसार है
उस से कर, तर्के-तअल्लुक है बहुत राहत मुझे
हो गया शामिल रकीबों में बड़ा आभार है
भूख दोनों को धकेले ले चली बाज़ार तक
इक खरीदेगा तो दूजा, बिकने वो तैयार है
क्या लिखे उफ़ ! और कैसे ही लिखे, अब”कामना”
रो रहे अश’आर सब, मेरी ग़ज़ल बीमार है
कट रही है ज़िन्दगी मेरी सुकूं से बिन तेरे
क्यों लगा तुझको कि दिल मेरा, तेरा बीमार है
कामना मिश्रा