पारसाओं ने बड़े ज़र्फ़ का इज़हार किया
मुझ को भी हुरमत ए ज़ेबा का ख़रीदार किया
वो जो था ख़ुद की नुमाइश का तरफ़दार बदन
ख़ुद को ख़्वाबीदा किया और मुझे बेदार किया
बांध कर शाख़ ए लबों पर वो तस्सुम के गुलाब
मेरी मासूम तमन्ना को तलबगार किया
तुम ने तोहफ़े में दिए थे जो दहकते बोसे
उन की ख़ुश्बू ने ही रुस्वा सर ए बाज़ार किया
एक लम्हे को सही दीद का मौसम ठहरे
कुछ सराबों ने मुझे तशन ए दीदार किया
क़ल्ब आशोब ज़दा इसियां से होता क्यों है
रोज़ ए मेहशर का मुझे जिस ने ख़तावार किया
अपनी सोचों की लकीरों से तराशा था तुम्हें
ख़ित्त ए जां पे मगर तुम ने ही आज़ार किया
दर्द की धूप में साया था सुकुनत का जो
शाम होते ही लिपट कर मुझे बेज़ार किया
जिस की मासूम अदाओं पे यक़ीं हो अख़्तर
उस ने पाकीज़गी से मुझ को गुनहगार किया
मो. शकील अख़्तर