उगा रहे हैं सभी आंखों में बबूलों को
कि जिस से नोच सकेंगे बदन के फूलों को
चलन जो देखा ज़माने का बदचलन जैसा
तो मैं ने तर्क किया जीने के उसूलों को
तलाई बूंदों की झड़ियां लगीं जो सावन में
कुंवारियों ने शजर पे लगाया झूलों को
वो जो कि अस्मतों को पाएमाल करता है
ज़माना सर पे बिठाता है उस की धूलों को
जिगर पिघलता है तो शायरी में ढलता है
तो कौन रोकेगा फिर शेर के नुज़ूलों को
कुरेदता हूं मैं ज़ख़्मों को ज़र्ब ए यादों से
तलब की आग बढ़ाती है दिल में सूलो को
किसी का ऐब छुपाना भी इक इबादत है
फ़रोग़ देता नहीं ऐब के हुसूलों को
बुढ़ापा आया तो आया ख़ुदा भी याद अख़्तर
रुला रहा हूं जवानी की अपनी भूलों को
मो. शकील अख़्तर
झड़ियां लगीं जो सावन में/मो. शकील अख़्तर