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झड़ियां लगीं जो सावन में/मो. शकील अख़्तर

उगा रहे हैं सभी आंखों में बबूलों को
कि जिस से नोच सकेंगे बदन के फूलों को

चलन जो देखा ज़माने का बदचलन जैसा
तो मैं ने तर्क किया जीने के उसूलों को

तलाई बूंदों की झड़ियां लगीं जो सावन में
कुंवारियों ने शजर पे लगाया झूलों को

वो जो कि अस्मतों को पाएमाल करता है
ज़माना सर पे बिठाता है उस की धूलों को

जिगर पिघलता है तो शायरी में ढलता है
तो कौन रोकेगा फिर शेर के नुज़ूलों को

कुरेदता हूं मैं ज़ख़्मों को ज़र्ब ए यादों से
तलब की आग बढ़ाती है दिल में सूलो को

किसी का ऐब छुपाना भी इक इबादत है
फ़रोग़ देता नहीं ऐब के हुसूलों को

बुढ़ापा आया तो आया ख़ुदा भी याद अख़्तर
रुला रहा हूं जवानी की  अपनी  भूलों को

मो. शकील अख़्तर

लेखक

  • संक्षिप्त परिचय नाम : मो. शकील अख़्तर तख़ल्लुस :अख़्तर जन्म : 04.02.1955 पता: उर्दू बाज़ार ,दरभंगा           बिहार 846004 कार्य :  सेवा निवृत्त बैंक प्रबंधक रचना: विभिन्न समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में                 प्रकाशित            दो साझा ग़ज़ल संग्रहों में प्रकाशित  कई ग़ज़लें           एक ग़ज़ल संग्रह " एहसास की ख़ुशबू" नाम से,            जिज्ञासा प्रकाशन , ग़ाज़ियाबाद द्वारा प्रकाशित

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