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नदी की धारा/मयंक श्रीवास्तव

नदी की धारा

 

मेरे द्वार नदी की धारा

जो इस बार बही

इतनी बेसुर इतनी बेलय

पहले नहीं रही।

कोलाहल तो है कलरव

वाला संगीत नहीं

इतने बड़े सफर में

कोई मन का मीत नहीं

नर्तन करना और लहरना

सब कुछ है सतही।

बोल चाल बतियाने की

उत्सुकता नहीं दिखी

पहली बार नदी में मुझको

ममता नहीं दिखी

करती रही अनसुनी जब जब

भी यह बात कही।

भूल गयी यह नदी कभी

सरगम की रानी थी

धरती की आवाज और

अम्बर की बानी थी

पता नहीं क्या सोच समझ

यह नीरस राह गही।

लेखक

  • मयंक श्रीवास्तव

    मयंक श्रीवास्तव प्रकाशित कृतियाँ- ‘उंगलियां उठती रहें’, ‘ठहरा हुआ समय’, ‘रामवती’ काव्य संग्रह। सम्मान- हरिओम शरण चौबे सम्म्मान (मध्य प्रदेश लेखक संघ), अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान (मधुवन), विद्रोही अलंकरण सम्मान (विद्रोही सृजन पीठ), साहित्य प्रदीप सम्मान (कला मंदिर) वर्ष 1960 से माध्यमिक शिक्षा मण्डल मध्य प्रदेश में विभिन्न पदों पर रहते हुए वर्ष 1999 में सहायक सचिव के पद से सेवा निवृत।

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